चतुर्दशः पाठः - अहह आः च
(1) अजीज: सरल: परिश्रमी च आसीत्। सः स्वामिनः एवं सेवायां लीनः आसीत। एकदा स: गृहं गन्तुम् अवकाशं वाञ्छति। स्वामी चतुरः आसीत्। सः चिन्तयति-' अजीज: इव न कोSपि अन्य: कार्यकुशलः।
सरलार्थ- अजीज सरल स्वभाव वाला और मेहनती था। वह स्वामी की सेवा में ही लगा रहता था। एक बार वह घर जाने के लिए छुट्टी चाहता था। स्वामी (मालिक) चालाक था। वह सोचता है अजीज जैसा कोई भी दूसरा कार्य कुशल नहीं है।
(2) एष अवकाशस्य अपि वेतनं ग्रहीष्यति।' एवं चिन्तयित्वा स्वामी कथयति-'अहं तुभ्यम् अवकाशस्य वेतनस्य च सर्व धनं दास्यामि।' परम् एतदर्थं त्वं वस्तुद्वयम् आनय-'अहह!' 'आ:' च इति।
सरलार्थ- यह छुट्टी का भी वेतन लेगा। यह सोचकर मालिक कहता है- मैं तुम्हें छुट्टी और वेतन का सारा पैसा दूंगा। परंतु तुम इसके लिए दो वस्तुएं लाओ -"अहह!" और "आ:" बस यह।
(3) एतत् श्रुत्वा अजीज: वस्तुद्वयम् आनेतु निर्गच्छति। सः इतस्तत: परिभमति। जनान् पृच्छति। आकाशं पश्यति। धरां प्रार्थयति। परं सफलतां नैव प्राप्नोति। चिन्तयति, परिश्रमस्य धनं सः नैव प्राप्स्यति।
सरलार्थ- यह सुनकर अजीज दोनों वस्तुएँ लाने के लिए निकलता है। वह इधर-उधर घूमता है। लोगों से पूछता है। आकाश को देखता है। पृथ्वी से प्रार्थना करता है। किंतु सफलता प्राप्त नहीं करता। सोचता है, परिश्रम का धन वह नहीं पा सकेगा।
(4) कुत्रचित् एका वृद्धा मिलति। सः तां सर्वा व्यथां श्रावयति। सा विचारयति-' स्वामी अजीजाय धनं दातुं न इच्छति। सा तं कथयति-'अहं तुभ्यं वस्तुद्वयं ददामि।' परं द्वयम् एवं बहुमूल्यकं वर्तते। प्रसन्न: स: स्वामिन: समीपे आगच्छति।
सरलार्थ- कहीं पर एक बुढ़िया मिलती है। वह उसे सारी व्यथा सुनाता है। वह सोचती है- स्वामी अजीज को धन नहीं देना चाहता। वह उसे कहती है-“ मैं तुम्हें दो वस्तुएँ देती हूँ। किंतु दोनों ही कीमती (बहुमूल्य) हैं। प्रसन्न (होकर) बह मालिक के पास जाता है।
(5) अजीजं दृष्ट्वा स्वामी चकित: भवति। स्वामी शनैः शनै: पेटिकाम् उद्घाटयति। पेटिकायां लघुपात्रद्वयम् आसीत्। प्रथमं स: एकं लघुपात्रम् उद्घाटयति। सहसा एका मधुमक्षिका निर्गच्छति। तस्य च हस्तं दशति। सरलार्थ- अजीज को देखकर स्वामी चकित होता है। स्वामी धीरे-धीरे पेटी खोलता है। पेटी में दो छोटे पात्र (बरतन) थे। पहले वह एक छोटा पात्र खोलता है। सहसा एक मधुमक्खी निकलती है और उसके हाथ को डसती है।
(6) स्वामी उच्चै: वदति-' अहह!। द्वितीयं लघुपात्रम् उद्घाटयति एका अन्या मक्षिका निर्गच्छति। स: ललाटे दशति। पीडित: स: अत्युच्चै: चीत्करोति-' आः' इति अजीज: सफल: आसीत्। स्वामी तस्मै अवकाशस्य वेतनस्य च पूर्ण धनं ददाति।
सरलार्थ- मालिक ज़ोर से बोल उठता है-अहह। दूसरा छोटा पात्र खोलता हैं। एक दूसरी मक्खी निकलती है। वह मस्तक पर डसती है। व्यथित (होकर) वह बहुत ज़ोर से चिल्लाता है- आ:' ऐसा। अजीज सफल हुआ। स्वामी उसे अवकाश और वेतन के पूरे पैसे देता है।