ये मै तो नही?

"नही नही, मैने तो ये नही चाहा था.", वह अचानक अपने सपने से जागी. नजर खुली तो वह खुद को एक ८ बटा ८ के अपने "घर" मे पाया. "शायद यह एक सपना था." उसने सोचा और बगल मे तख्त पर लगे विस्तर पर सर रखकर टेक ले ली. सामने ट्रंक था जिसमे वह अपने कपड़े रखती थी.  बगल मे मर्यादा पुरुषोत्तम राम जी की सीता माता, लक्षमन और हनुमान जी के साथ वाला कैलेण्डर लटका था. सामने दो टाड वाली खुली रसोई और उसके बगल मे बाथरूम. छोटा सा पर "ढेर सारा प्यार वाला" घर. तंद्रा टूटी तो अपने सपने के बारे मे सोचने लगी. क्या वह वास्तव मे सच था? क्या मैने इसे चुना? मै कौन हूँ? क्या मै वास्तव मे यही चाहती थी. "नही नही, वह तो मेरा राम था", अचानक उसके मुह से निकल गया. "अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है", मानो उसकी फिल्म उसके आँखो के सामने से गुजर गई.


यही कोई १३ साल की उम्र रही होगी जब उसे पहली बार अपने अंदर हो रहे शारीरिक उथल पुथल के बारे मे पता चला. मन यू ही विपरीत आकर्षण की तरफ दौड़ने लगा था.  उसे अब अपनी सहेलियो से ज्यादा अपनी उम्र के लड़को के प्रति आकर्षण था. कभी कभी तो उसके सहेलिया उसे छेड़ देती थी. वह दिखावे के लिये उनसे नाराज होती किन्तु मन ही मन वह चाहती थी कि वे उसे फिर से छेड़े. यह नैसर्गिक उम्र के प्रथम आकर्षण की शुरुवात थी.


पिता जी चाहते थे कि वह पढलिख कर नाम कमाये. कसर भी तो नही छोड़ी थी. तीन बीघे खेत से परिवार पालना कोई आसान तो नही था. इण्टर करने के बाद कालेज मे दाखिला करवाया था. फीस के लिय उन्होने ने अपनी आजादी तक बेच दी थी. कितना नाटक किया था उस साहूकार ने पैसे देने के लिये. पैसे के बदले तीन साल तक उन्हे उसके खेत मे मुफ्त मे काम करना पड़ा था.  कालेज मे उसकी मुलाकार उसके "राम" से हुई थी. उसके बातो मे उसे अपनापन और भविष्य नजर आया. वह उसका हमेशा ख्याल रखता था. उसकी जरूरते बिना शर्त पूरी करता था. पता नही कब वो अपने पिता को भूल गई. और एक दिन उसने कहा,

"मै तुमसे शादी करना चाहता हूँ" 

"क्या?" मेरे मुह से अनायास ही निकल गया. "नही मुझे अभी पढना है. पिता जी चाहते है कि मै बड़ी अफसर बनू." 

"पढाई तो तुम शादी के बाद भी कर सकती हो. और इसमे हर्ज ही क्या है" राम बोला

"पहले पिता जी से पूछ लूँ", मैने जिद की और वह मान गया.

पिता जी ने कितना समझाया था. अखिर पैसठ बसंत उन्होने यू ही नही देखी थी. "देख बेटी माना की मै अनपढ हूँ किन्तु दुनिया मैने भी देखी है. जीवन यथार्थ पर चलता है और पहले तू अफसर बन जा, फिर जिससे मर्जी हो शादी करना." उनकी बाते सच लगी और मैने अपने राम को "ना" कह दिया. शयद वो इस जवाब के लिये तैयार नही था. उसने अपने दोस्तो के साथ मुझे मनाने के लिये क्या-क्या जतन नही किया. जान देने तक की बात कही. अखिर मुझे झुकना पड़ा और मै सबकी इच्छा के विपरीत उससे शादी कर उसके घर आ गई. 


"इतना छोटा सा घर", मैने पूछा था. "क्या हुआ, वक्त के साथ बड़ा हो जायेगा. पर अभी तो ऐसे प्रश्न ना करो" और उसने मुझे धक्का देकर इसी तख्त पर गिरा दिया था. एक महीने कैसे बीता पता ही नही चला और एक दिन वो "अभी आता हू" कह के हमेशा के लिये निकल गया.


"अरी सो गई या मर गई. खोल दरवाजा. ग्राहक को नाराज करेगी तो खायेगी क्या?" बाहर से बड़ी कर्कष आवाज आई. आवाज सुनकर वो हड़बड़ाकर उठी और नये ग्राहक की मुराद पूरी करने के लिये तैयार होने लगी.