BJP's Win in 2019 General Election

भारतीय राजनीति की नई इबारत २०१३ मे लिखी गई जब भारतीय जनता पार्टी ने देश के सामने चुनाव से पहले अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम पेश किया.  भारतीय संबिधान में बहुमत दल के सांसदो द्वारा अपने बीच मे से सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री चुनने का प्रावधान है. किन्तु लोकतन्त्र मे कही भी यह मना नही है कि चुनाव चेहरे पर नही लड़ा जा सकता. एक छोटी सी अद्रश्य रेखा खीची गई है कि पहले चुने हुये जन प्रतिनिधियो द्वारा, चुने हुये जन प्रतिनिधियो के मध्य मे से ही प्रधानमन्त्री का चुनाव करते थे, तथा यदि किसी की उम्मीदवारी पर कोई वैचारिक मतभेद है तो जन प्रतिनिधि स्वतन्त्र होते थे कि वे अपने पक्ष को सबके सामने रख सके. किन्तु अब यह निश्चित है कि आप चाहे स्वीकारे या ना स्वीकारे, चाहे आप के मन मे कोई प्रश्न हो. आपको उस चेहरे को ही प्रधनमन्त्री चुनना है जिसके चेहरे पर चुनाव लड़ा गया है. 


आश्चर्य है कि वंशवाद के विरोधी एक ही चेहरे पर लगातार दाँव लगा रहे है. २०१९ की जीत अभूतपूर्व है. ना कि इसलिये कि पूर्णबहुमत की सरकार दुबारा जीत कर आई है वल्कि इस लिये कि इतने जतन और विरोध के बाद भी सांसद संख्याबल मे गजब की बढोत्तरी हुई है. सभी आश्चर्यचकित है कि ऐसा कैसे हुआ??, क्यो हुआ?? लोगो के अपने अपने विचार है. एक अर्थशास्त्र और राजनीतशास्त्र के विद्यार्थी होने के नाते हमे भी अपनी राय रखने का अधिकार है.


२०१९ की जीत का एक मन्त्र और तीन स्तम्भ है. मन्त्र है. "उसे साथ लो जो पर्दे के पीछे है" और "उसे वो दो जिसकी उसे सबसे ज्यादा जरूरत है. (अ) आराम, (ब) इज्जत और (स) सान्त्वना". अब आते है ध्येय मे.  "पर्दे के पीछे" का मतलब "महिला" और महिला के तीन स्तम्भ (अ) उज्ज्वला योजना, (ब) शौचालय और (स) परिवार कि प्रथम ब्यक्ति के नाते उसके हर अधिकार मे उसका पहला हक.


(अ) उज्ज्वला योजना, से मिलने वाले गैस चूल्हा और ७०० रुपये का गैस सिलेण्डर मे प्रत्येक ब्यक्ति अपनी राय रख सकता है. किसी के लिये यह एक खर्चे (रुपये ७००) का कारण है और किसी के लिये आलोचना और उपहास का जरिया. मै क्या सोचता हू कि एक महिला जो दिन मे दो बार भोजन पकाती है अपने एक दिन के कुल समय का ४ घन्टे भोजन पकने मे ३० मिनट उपले पाथने और जलावन इकट्ठा करने खर्च करती है. जले बर्तनो को आप "अतिरिक्त बोझ" समझ सकते है. आराम के दिनो मे तो ठीक, लेकिन आप कल्पना करिये कि शायं के समय मेहनत करके आने वाली महिला को यदि चूले मे एक कप चाय भी बनानी हो तो यह एक पहाड़ से कम नही है. आप सोचिये कितना कठिन होता है एक बीमार महिला को अपनी दवा के लिये चूल्हे पर पानी को गर्म करना. चूल्हे पर काम करना कठिन होता है एक पढने वाली लड़की के लिये. चुल्हे पर खाना बनाना कठिन होता है जब रात मे मेहमान आ जाये घर पर. आदि आदि. समस्या यह नही है कि काम करना पड़ता है. समस्या यह है कि महिला को उसके जरूरत के हिसाब से आराम कम मिलता है. महिला की बायलोगी की वजह से उन्हे पुरुषो से लगभग १.५ गुणा अधिक आराम की जरूरत होती है और इस "अतिरिक्त" जरूरत को शायद उज्ज्वला योजना ने पूरा करने की कोशिश की है. और अब वो इस बचे समय मे वो अपने बच्चो का खयाल रख सकती है, कुछ अर्थपूर्ण कार्य करके थोड़े से पैसे भी कमा सकती है. या गैस चूल्हे मे भोजन पकाते हुये, मेरी साइट पर या फेसबुक पर, मेरा ये बैचारिक लेख पढ सकती है और टिप्पड़ी भी लिख सकती है. एक दो पसंद का बटन दबा सकती है (पहले से ही धन्यवाद).


(ब) शौचालय कितने काम की चीज. कुछ लोग उसमे जलावन रखते है. कुछ उसमे बकरी बाँधते है और कुछ उसमे मुर्गी पालते है. समझदार लोग शुबह शुबह उसमे नित्य क्रिया करते हुये गाने गाते है. सभी की जरूरते अलग अलग है. लेकिन इस छोटे से ४ बाई ४ के शौचालय ने जो इज्जत महिलाओ को दी है, शायद उतनी हमरे समाज के पुरुषो ने नही. यह एक ऐसी जगह है जहा महिलाये कम से कम थोड़े वक्त के लिये खुद को इज्जत देने के लिये शौचालय का धन्यबाद कर सकती है. कम से कम आवारा रोमियो (आजकल बालिका स्कूलो के गेट पर, मुहल्लो और पार्को मे थोक के भाव मे मिलते है. महिलाओ को "माल" समझना इनकी एक विशेषता है. खुद को प्यार का पुजारी बताते है और इनकार करने पर तेजाब, चाकू, गोली से स्वागत करते है. क्रपया सावधान रहे.) के भद्दे कमेण्ट, दबंगो की गलत नजरो से खुद को दूर पाती है. गर्मी मे सुबह जल्दी "लोटा पार्टी" जाने की चिन्ता, साम को देर तक पेट को पकड़ने की चिन्ता, शर्दियो मे जंगली जानवरो का डर और बरसात मे चपचपाती जमीन मे लोटा लेकर बैठने के लिये सूखी जमीन खोजने की चिन्ता समाप्त हो गयी है. नई नवेली दुल्हान अब इन्तजार नही करती कि कब ननद या सास खेत से वापस आये और वो उसके साथ "दिशा मैदान" को जाये. बीमार बूढो को अब चिन्ता नही है कि कही रास्ते मे पेट छूट ना जाये. बेटिया अब साम को भर पेट भोजन करती है क्यो कि उन्हे डर नही है कि रात मे उन्हे "जाना पड़े" तो कहाँ जायेगी. इतनी इज्जत मिलने पर, आखिर कमल का बटन दबाना तो बनता है.


(स) महिला ही सरकार द्वारा परिवार को दी जाने वाली प्रत्येक सुविधा की पहली हकदार है. हजारो सालो बाद ऐसी स्थिति आयी है जब पति कह रहा है, कि सुनो घर अपने नाम लिखा लो, कर कम पड़ेगा. आज वो निर्णय ले सकती है कि नालायक बेटा और लायक बेटी में से उसे लायक बेटी के साथ खड़ा होना है. वो निर्णय ले सकती है कि परवार की कमाई पूँजी से उसे फल खरीदने है या दारू. वो कह सकती है कि मेरे घर मे गलत नियत वाले लोगो का स्वागत नही है. वह अपने सम्मान और गौरव के विरुद्ध होने वाले कार्य को कम से कम एक बार "ना" कह सकती है. 


आधी आबादी, लगभग देश के ३५ करोड़ महिलाओ को यदि इतनी सहूलियत मिल जाये तो शायद ही वो पार्टी हारेगी जिसने उन्हे इतनी इज्जत बक्छी है. महिला तो महिला है. उसकी जरूरते भी एक समान है. वे धर्म और जाति से नही बदलती है. हर धर्म की महिलाओ ने सबको नकार कर सिर्फ उसे वोट दिया जिसकी बदौलत उन्हे इतनी सुबिधाये मिली. सारे पन्डित फेल हो गये. सारे सर्वे धरे के धरे रह गये. क्योकि उन्होने राय केवल मर्दो की जानी. किसी ने भी नही पूँछा कि दीदी जी, माता जी, चाची जी आप की क्या जरूरते है. आप को क्या चाहिये. और महिलाओ ने भी किसी को नही बताया (पति को भी नही) कि उन्होने किस पार्टी का बटन दबाया. शायद हमारी राजनीतिक परम्परा रही है केवल मर्दो को पटाने की, और यह सोचने की कि महिलाये तो मर्दो की जूती है, चाहे तो उनसे पर्दा करवा लो या उनका हलाला कर दो.