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दिसम्बर की कड़क ठण्ड थी। घर जाने के लिये शताब्दी में ए सी का टिकट आरक्षित किया हुआ था। समय से पहले स्टेशन पहुँचने की जल्दी थी क्योकि मै चाहता था कि सीटो के ऊपर की जगह पर अपना सामान रख सकू अन्यथा दूसरे यात्री उस पर अपना सामान रख देगें और मुझे जगह नही मिलेगीं। मै जैसे ही अपनी सीट पर पहुँचा, वहाँ पहले से ही एक महिला अपने बच्चो के साथ बैठी थी। मैने उनसे कहा कि यह मेरी सीट है।
पहले तो वह हड़बड़ाई, फिर बोली, "नही यह मेरी सीट है। आप चाहे तो मेरा टिकट देख ले।"
मैने उसका टिकट देखा। उस पर मेरी सीट का नम्बर था। मै कुछ परेशान हुआ। सोचा कि मैने कही अपनी ट्रेन हो नही छोड़ दी या कही मैने गलत ट्रेन का टिकट तो नही आरक्षित कर लिया। मैने पुन: अपना टिकट देखा। फिर ट्रेन से उतरकर ट्रेन का नम्बर और नाम की जाँच की। सब कुछ तो सही था। तो फिर एक ही ट्रेन की एक ही सीट को रेलवे ने दो लोगो को कैसे आरक्षित कर दिया। मै पुन: उस महिला के पास जाकर कहा कि आपसे कुछ गलती हो गई है। टी टी को बुलाकर इस समस्या का समाधान कर लेते है। वह बोली कि मै क्यो बुलाऊ आप ही बात कर लो। मै भी शान्त रहा, जब गाड़ी चलेगी तब टी टी खुद ही आयेगा।
थोड़ी देर बाद उस महिला का पति आया। उस महिला ने उससे कहा कि मै भी इसी सीट का दावा कर रहा हूँ। तब उस महिला के पति ने पुन: अपने टिकट की जाँच की। फिर उसने कहा कि देखो यह जन शताब्दी का ही तो टिकट है। उसकी बात सुनकर मैने कहा कि "अरे भाई यह ट्रेन शताब्दी है। जन शताब्दी तो शुबह चलती है।"
अब उस ब्यक्ति को अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने मेरी सीट खाली कर दी। पति-पत्नी परेशान हो गये।
पत्नी ने उलाहना देते हुये कहा कि, "मैने तो कहा था कि हमारी ट्रेन शुबह चलती है पर आप हो कि सुनते ही नही। अब घर कैसे जायेगे।"
मैने उनसे कहा कि, "परेशान मत हो। ट्रेन में कई सीटे अभी खाली है। तुरन्त सीटे आरक्षित कर लो। नही तो ट्रेन चलने के बाद आपको दुगुना किराया जुर्माने के साथ देना होगा।"
मेरी बात सुनकर पत्नी कहने लगी, "सही है। जल्दी से जल्दी सीटे आरक्षित कर लो। अभी समय है।"
पति ने उसकी बात को अनसुना कर अपना सामान उतारने लगा। जब पत्नी ने दुबारा अपनी बात दोहराई तो उसने कहा "रहने दो कल का जन शताब्दी का टिकट आरक्षित कर लेगे।" यह कह कर उसने अपने परिवार को ट्रेन से नीचे उतार लिया। मै उनकी बाते सुनकर सोच रहा था कि उस ब्यक्ति ने शताब्दी की टिकट ना आरक्षित करके एक दिन बाद जन शताब्दी में जाने की क्यो सोच रहा है? अपना पूरा एक दिन बेकार कर देगा। मै अपनी पूरी यात्रा में यही सोचता रहा। फिर मैने अनुमान लगाया कि ऐसा नही था कि वह ब्यक्ति यात्रा नही करना चाहता था। हो सकता है कि उसके लिये जन शताब्दी के ३४० रुपये किराये की अपेक्षा शताब्दी के १८७० रुपये किराये बहुत ज्यादा हो।
देखता हूँ कि अभी भी बहुत से लोग है जिनके लिये पैसा अभी भी समय से ज्यादा मूल्यवान है। वे कई किलोमीटर पैदल चलते है ताकि कुछ पैसे बचा सके। सड़क किनारे रात गुजार देते है क्यो कि होटल या सराय का किराया नही चुका सकते। मन्दिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे से "कुछ" खाकर रात की क्षुधा मिटा लेते है। चन्द सिक्को को बचाने की बहुधा यतन करते है।
मेरे लिये बहुत आसान है कि मै हमेशा कह देता हूँ कि स्लीपर नही है तो ए सी का टिकट आरक्षित कर लो। ट्रेन खाली नही है तो प्लेन से चले जाओ। लेकिन सभी समर्थ्यवान नही है। सभी की अपनी मजबूरियाँ है। अब जब ऐसी परिस्थितियों को देखता हूँ तो अपना अतीत याद आता है जब कई दिनो तक, प्रतियोगी परीक्षाओं के दौरान, कुछ पैसे बचाने के लिये रेलवे स्टेशन में रातें गुजारा करतें थे। ट्रेन के अनारक्षित और इंसानो से ठूसे हुये डिब्बों में बिना टिकट सैकड़ो मीलो की यात्रा खड़े खड़े पूरी किया करते थे। बहुधा लोगो के लिये अभी भी परस्थितियाँ वैसी ही है। परस्थितियाँ तो नही बदल सकता पर कभी कभी जेब से कुछ सिक्के निकाल कर किसी राही को दे देता हूँ ताकि वह अपना सफर बिना चले पूरी कर सके। परिवर्तन है पर अभी बदलाव नही है।