Hindi Pakhawara

हिन्दी पखवाड़े पर आज फिर से हम सब के बीच हिन्दी के विकास और उसके प्रयोग पर बहस सुरू हो गई है। आजादी के बाद हिन्दी दिवस हमें अपनी मात्र भाषा से जोड़ने का कारण बनता था परन्तु आज हिन्दी पखवाड़ा सिर्फ़ १४ दिनो का एक कार्यक्रम मात्र बन कर रह गया है। ९० के दशक के दौरान बैश्वीकरण के पश्चात, अंग्रेजी आधारित पश्चिमी तकनीकी ज्ञान हमारे देश जैसे जैसे प्रवेश करता गया वैसे वैसे अपनी मात्र भाषाओ को बचाने की बहस भी जोर पकड़ने लगी। परन्तु यह सब अचानक नही हुआ। आजादी के बाद भी भाषाई आधार पर हमारे देश में कई राज्यो का निर्माण हो चुका था। किन्तु उस समय पश्चिमी भाषा, मुख्यत: अंग्रेजी, केवल संभ्रान्त वर्ग की भाषा थी। सूचना तकनीक और आधुनिकता पर सवार होकर अंग्रेजी धीरे धीरे संभ्रान्त वर्ग से निकलकर निम्न वर्ग तक पहुँच बनाने लगी।  ज़ैसे जैसे तकनीक और उपभोक्तावाद का प्रसार भारत के ग्रामीण क्षेत्रो में हुआ वैसे वैसे यह भी आभास होने लगा कि बिना मात्र भाषा में प्रचार किये, ब्यापार उतना सहज नही है जितना कि समझा जाता था। इसी लिये २१वी शताब्दी के प्रारम्भ में अंग्रेजी आधारित तकनीक बड़ी तेजी से मात्र भाषाओ में अनुवादित होने लगी।  किसी भाषा का पिछड़ापन इस लिये नही है कि हम उसका प्रयोग नही करते वल्कि इसलिये है कि उसका हम ग्रन्थीकरण नही करते, जिसकी वजह हमारी भाषा में ना ही शुद्धता आती है और ना ही उसके शब्दकोष का प्रसार होता है। हमारी प्राचीन इतिहास केवल लोक कथा बन कर रह गया है क्योकि हमने उसको शब्दो में नही पिरोया। हमारे वास्तविक कार्य को कुछ बाहरी लोगो ने अपना बता कर हमेशा हमें ही वापसे दिया। तुलसीदास जि, कबीरदास जि और सूरदास जि के पद आज हमारे सामने यथार्थ पर उपस्थित है क्योकि उनके भावो और प्रस्तुतियो को शब्दो में पिरोहकर उन्हे ग्रन्थो का रूप दिया गया। हमारी खोज और हमारी रचनाये जब तक लोक सुलभ शब्दो में नही ब्यक्त की जाती तब तक उनका कोई उपयोग नही होता। कालीदास जी के नाटक संस्क्रत में लिखे होने के कारण आज हम सब से दूर है, जबकि तुलसीदास जी की रामचरितमानस खड़ी बोली में होने के कारण उत्तरभारत में सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली रचना है। किसी भाषा का शब्दकोश तभी ससक्त हो सकता है जब हम अपने सम्पूर्ण ज्ञान को अपने शब्दो में पिरोहे। सूचना प्रोद्योगिकी ने जहाँ हिन्दी को सूचना प्रसार क बहुत बड़ा माध्यम बनाया है वही परोक्ष रूप में अंग्रेजी का प्रसार भी किया है. आज हम सूचना तकनीक में हिन्दी को एक उचित माध्यम मानते है, किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष में इसका प्रयोग बहुत ही सीमित है.  विगत १० वर्षो में ५० से ज्यादा भारत में बोली जाने वाली बोलियाँ या तो समाप्त हो चुकी है या समाप्त होने की कगार पर है। किसी एक भाषा का अत्यधिक उपयोग न केवल दूसरी भाषाओ को समाप्त करता है बल्कि उसके शब्दकोष को भी क्षीण करता है. किसी भाषा का उपयोगिता, प्रमाणिकता और स्वीकार्यता उसका शब्दकोश ही है।  पिछले १५० वर्षो मे, हिन्दी के अधिक प्रयोग ने कभी भारत की महत्वपूर्ण रही भाषा उर्दू को लगभग समाप्त ही कर दिया है।  इसलिये हम यह नही कह सकते कि हिन्दी का सर्वाँगणिय उपयोग दूसरी क्षेत्रीय भाषाओ पर क्या असर डालेगा। विगत कई वर्षो में दक्षिण भारत के कई राज्यो में क्षेत्रीय भाषा को लेकर कई बड़े आन्दोलन हो चुके है।  लार्ड मैकाले ने अंग्रेजी के प्रसार हेतु क्षेत्रीय भाषाओ को ना केवल सरकारी कामकाज में हतोत्साहित किया बल्कि उसने अंग्रेजी को सरकारी कामकाज की मात्र एक भाषा बना दिया था।  सरकार के संरक्षण में अंग्रेजी का भारत में बहुत तेजी से प्रसार हुआ. यदि आज हमें हिन्दी को सभी की भाषा बनाना चाहते है तो इसका संरक्षण और प्रसार बहुत ही जरूरी है और यह भी जरूरी है की हिन्दी की अनिवार्यता केवल सरकारी काम काज में ही ना हो बल्कि हर क्षेत्र में हो नही तो संकुचित नियन्त्रण सिर्फ हिन्दी को ही नुकसान पहुँचायेगा जैसा की संस्क्रत के साथ हुआ और वह आज ब्राह्मणो की भाषा बनकर रह गई है। इसके साथ यह भी जरूरी है कि हम एक सर्वांगीण भाषा के साथ मे क्षेत्रीय भाषाओ को भी संरक्षण दे जिससे उनका भी विकास हो सके।