संस्क्रत और मुस्लिम

जरूरी नही है कि किसी समाज में सभी लोग बुरे हो या सभी अच्छे. समाज मे विभिन्न प्रक्रति के लोगो होते है.  एक बहुमत के आधार पर समाज की दिशा और दशा तय होती है.  बहुमत कभी सही और कभी गलत हो सकता है. कभी कभी बहुमत में, खुद सही होते हुये भी अपने अन्दर दूसरी विचार्धारा को साथ लेकर आगे बढने की शक्ति होनी चाहिये. सत्य पर आधारित क्रत्य नजरऽंदाज होते हुये भी सही होते है फिर चाहे उसे झुठलाने की कितनी भी कोशिश की जाये. एक समाज तभी आगे बढ सकता है जब वो सही और अच्छे लोगो का ना केवल साथ दे बल्कि उन्हे सुरक्षित रखे.


इस्लाम और उसके अनुयायियों को कट्टर धार्मिक प्रब्रत्ति का माना जाता है. कई इस्लामिक देशो मे तो मूर्तियो, धर्म स्थलो, धर्म ग्रन्थ एवं रीति रिवाजो को ना केवल अपमानित किया जाता है बल्कि उनका विध्वंश एक सामान्य घटना की तरह देखा जाता है. ऐसा नही है वहाँ के सभी लोग इसी सोच के है. कुछ अच्छे लोग इस प्रकार के क्रत्य का विरोध भी करते है पर उनकी संख्या कम होने के कारण उनकी सुनवाई नही होती या फिर वे डर की वजह से इन घटनाओ का विरोध नही करते है. ऐसे समाज मे लचीलापन या विचारो की विविधता नष्ट हो जाती है और समाज संकीर्ण, जटिल और कट्टर प्रब्रत्ति का हो जाता है. 


अपना देश एक बहुप्रथावदी, बहुधर्मवादी, बहुसंस्क्रति, बहुभाषी और अनेक विविधताओ से भरा है. प्रत्येक ब्यक्ति संवैधानिक अधिकारो के अन्दर जीवन जीने कि लिये स्वतंत्र है. किन्तु जो कुछ भी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में डा. फिरोज के संस्क्रति विभाग में नियुक्त को लेकर विरोध प्रदर्शन हो रहा है उससे मै सहमत नही हूँ. मै एक हिन्दू हूँ, हिन्दू धर्म की मान्यतावो पर विश्वाश करता हूँ, हिन्दू धर्म दर्शन सभी के लिये उपलब्ध हो, इसके लिये मैं गीता प्रेस का आभारी हूँ किन्तु एक मुस्लिम हिन्दू दर्शन या संस्क्रत को पढ नही सकता या पढा नही सकता, इससे सहमत नही हूँ. किसी भाषा और धर्मग्रंथ मे सभी का बराबर का अधिकार है. क्या यह सत्य नही है कि जैन और बौद्ध साहित्य ईसाईयत वाले देशो मे भारत से ज्यादा पढा जाता है. हिन्दी और संस्क्रत के प्रबल विद्वान पश्चिमी देशो मे भी मिलते है. क्या यह सही नही कि डा. फिरोज अपने समाज के रूढियो और बेड़ियो को तोड़कर "तथाकथित गैर इस्लामी साहित्य" का ना केवल अध्ययन कर रहे है बल्कि उसके गूढ़ ज्ञान को लोगो तक पहुँचा रहे है. यदि हम आज डा. फिरोज का विरोध कर उनकी नियुक्ति को रोक देते है तो फिर हम एक प्रग्रतिवादी सोच के ब्यक्ति को ना केवल उसके समाज मे अकेला छोड़ देगे बल्कि उन्हे उसी सोच के साथ आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करेगें जिसे हम कट्टर सोच कहते है.