शब्दो में बहुत कुछ है

एक ब्यक्ति की बाहरी पहचान उसके कपड़े, तौर तरीके, खानपान और भौतिक संसाधनो से होती है किन्तु असली पहचान उसके अन्दर छिपी होती है जिसे प्राय: चरित्र कहते है. चरित्र और ब्यक्तित्व में बहुत अन्तर होता है. चरित्र की पहचान तब होती है जब ब्यक्ति एकाकी होता है और ब्यक्तित्व का दिखावा भीड़ में होता है. अर्थात चरित्र को पहचानना होता है जबकि ब्यक्तित्व एक दिखावा होता है जिसे अंग्रेजी में "प्रेजेन्टेशन" कहते है.  एक ब्यक्ति चरित्रवान है यदि वह यह जानते हुये कि, कोई भी उसके इस क्रत्य को नही पकड़ पायेगा, फिर भी वह उस क्रत्य को नही करता है. चरित्र के दो आधार मुख्य है, (अ) चरित्रवान ब्यक्ति के अन्दर मनुष्यता के सारे गुण होते है और (ब) वह हमेशा सही शब्दो का चयन करता है.


शब्द जो कुछ अक्षरो से मिलकर बने होते है, कहने को केवल शब्द होते है पर उनका प्रभाब बिकराल होता है. कर्ण को जब "दासी पुत्र" कह कर द्रौपदी के स्वयंबर में तिरस्क्रत किया गया था तब किसी ने नही सोचा होगा कि भविष्य में इन शब्दो की बेदना से आहत कर्ण दुर्योधन का साथ देगा. वैसे "दासी" और "पुत्र" शब्द अलग अलग प्रयोग करने पर उतनी वेदना नही प्रकट करते है जितन की एक साथ प्रयोग करने में प्रकट करते है.


भूतकाल से निकलकर अगर बर्तमान में देखे तो शब्दो का प्रयोग "प्रभाव" दर्शाने के लिये किया जाता रहा है. नित दिन नये शब्द युग्म गढ़े जा रहे है. जिनका प्रयोग "ध्यानाकर्षण" करने में ज्यादा हो रहा है, ना कि वास्तविक अर्थ समझाने में. उदाहरण के लिये, "चलती कार में आग लगी" वाक्य उतना ध्यान आकर्षित नही करता है जितना "चलती कार चिता बनी". वैसे इतिहास गवाह है कि शब्दो ने ब्यक्ति की पहचान बदल दी.  किसी को याद है गाँधी जी की पत्नी के अन्तिम समय के बारे मे. नही, क्योकि "म्रत्यु" शब्द उतना वजन नही रखता जितना कि "हत्या", "फाँसी" जैसे शब्द रखते है. वैसे कोई भी इतिहासकार इस बात से इन्कार नही कर सकता है कि गाँधी जी को महात्मा गाँधी जी बनाने में उनकी पत्नी का बहुत बड़ा हाथ है.  कितने देश प्रेमी अण्डमान की जेल में तड़पकर "म्रत्यु" को प्राप्त हुये किन्तु उनके बारे में हम कम ही जानते है क्यो की "कारावास की सजा" से ज्यादा आकर्षण, या कहे प्रभाव, "मौत की सजा" में है.  इतिहास में ऐसी बहुत सी समानताये और मिल जायेगी जिसमें उन ब्यक्तियो के बारे में ज्यादा दिलचस्पी ली गई जिनका अंत "हत्या", "फाँसी", "आत्महत्या", "मौत की सजा" के साथ हुआ. स्वर्गीय शास्त्री जी, स्वर्गीय नरसिंम्हा जी का उदाहरण सामने है जिनके, देश के बुरे वक्त मे, किये गये अतुलनीय योगदान पर हमेशा कम चर्चा होती है या हम उन्हे भूल सा गये है.


वर्तमान में हम अखबार पढ़ते है तो हमारी नजरे कभी भी अच्छाई नही ढूढ़ पाती है, "स्कूली बच्चो ने सड़क साफ की" की जगह हमें "आई ए एस ने झाड़ू पकड़ी" ज्यादा आकर्षित करता है. हम बिरले ही उच्च कोटी के शब्दो को समझ या खोज पाते है. अखबारो में शिक्षा, स्वास्थ्य, और विज्ञान के शब्दो की जगह "बलात्कार", "छेड़ाखाड़", "हत्या", "आत्महत्या", "धर्म" जैसे शब्दो की भरमार होती है. शब्दो को मिलाकर ऐसे वाक्य बनाये जाते है जो अधिक से अधिक ध्यान खीच सके चाहे उस वाक्य से कोई भी उद्देश्य प्राप्त ना हो रहा हो. शायद यह भी "बिकने" का एक प्रबंधन है. सही भी है, कभी कभी प्रबन्धन करना पड़ता है. अभी कुछ दिन पहले एक पिक्चर आई थी, उसमें एक ब्यक्ति की जीवनी दिखाई गई, प्रभाव डालने कि लिये "गरीब", "गुरबत", "रंक" और ना जाने कितने प्रभावशाली शब्दो का प्रयोग किया गया. जब कि उस ब्यक्ति के पास कई एकड़ की क्रषि भूमि और कई एकड़ का बाग है. हमारे यहाँ का पटवारी तो दो एकड़ की जमीन वाले को कभी भी "गरीबी" की रेखा तो दूर "नान क्रीमी लेयर" में भी नही आने देता है, आय प्रमाणपत्र देना तो दूर की बात है. 


कभी शेक्सपियर ने कहा था. "नाम में क्या रखा है?". अगर वो जिन्दा होते तो उन्हे एक दिन कानपुर के विक्रम में बैठालते और कहते, "सुन भाई, शब्दो में क्या रखा है?" आगे वाला सड़क में साईड ना दे तो आप कहते रहिये, "भाई जी रास्ता दे दो", अगर वह सुनने को तैयार हो जाये. लेकिन कनपुरिये स्टाईल में बोलो, "अबे भो$%^$^ के, मा&^^$^@# #@$#द, सुनाई नही दे रहा क्या. रास्ता दे" और देखो कैसे रास्ता मिल जाता है. शब्दो की ताकत के बल पर ही तो यू पी अपने आप में नायाब है. ध्यान खीचने के लिये आजकल आम बोलचाल में भी "कुत्ते", "कमीने", "ह#@$# #@$दे", "मा@#!$%% %$#", "भो^&॰$#@! #@" जैसे शब्द अधिक प्रयोग हो रहे है और ये शब्द हमारी जबान में चढ़ते जा रहे है. माँ, बहन, बहन की बहन, बेटी, बेटी की बेटी से बने अलंकारित शब्दो का गहना बड़ा होता जा रहा है. 


ये सत्य है कि सही शब्दो का चुनाव ब्यकि के ब्यक्तित्व से ज्यादा उसके चरित्र पर निर्भर करता है, किन्तु इसका दायरा समाज के हर क्षेत्र और तबके में फैला हुआ है. एक पूर्ववर्ती मुख्यमन्त्री एक जाति विशेष के डी एम और एस पी को विशेष किस्म के शब्दालंकार से प्रत्येक समूह वार्ता में नवाजती थी. बड़े से बड़े शिक्षा संस्थानो में पढने वाले बच्चे भी "विशेष" शब्द ज्ञान से प्रेरित है. वैसे बालिकाये भी पीछे नही है. पिछले दिनो मैने जब एक पुलिस मैडम को एक राहगीर को डाटते सुना तो मुझ पता चला कि मेरा शब्द ज्ञान छोटा है, बाप और बेटे से बने अलंकार भी शब्द कोष में आ चुके है. सोशल मीडिया में आजकल जितना हम दूसरो से संवाद नही करते है उससे ज्यादा हम उन्हे ट्रोल करते है. किसी को गाली देना, गलत सूचनाओ को गलत शब्दो के साथ पुन: प्रदर्शित करना इत्यादि.  हमेशा दूसरो में निर्वारण रहित दोष ढूढ़ना और भी बहुत कुछ. कभी कभी तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि अर्थहीन और अनर्गल बाते कौन, क्यो और कैसे लिख रहा है.  शब्दो की गरिमा हमारे चरित्र की तरह धूमिल हो रही है. बेहतर है कि हम सही शब्दो का प्रयोग करे.