तीन पत्थर

मै आसमान में उड़ता हुआ जा रहा था. मानो सदियो बाद मुझमे पंख लगे हो. खुशी से अपनी रंगत को हवा मे बिखेरते हुये, सीधा उड़ते हुये एक खाखी रंग के कपड़े पहने हुये ब्यक्ति के सिर पर जा गिरा. वैसे हो मुझे कोई चोट नही लगी, लेकिन उस ब्यक्ति ने बड़े जोर से किसी की बहन को याद किया. आसमान से कूदे और ताड़ पर अटके वाली कहानी नही हुई क्यो कि मै खुद ही जमीन पर आ गिरा तब मुझे अहसास हुआ कि मेरा कुछ हिस्सा मुझसे टूटकर नाली मे जा गिरा है.  थोड़ा दर्द कम होने पर आँख उठाकर देखा तो बगल मे एक और बड़े भाई साहब पड़े थे और मेरी तरफ दयाद्रष्टि की नजरो से घूर रहे थे.  थोड़ा असहज होकर बोले,

"चोट तो नही लगी. जरा दूर से उड़ते हुये आये हो."

मैने कहाँ, "नही नही. बस थोड़ा सा विरूप हुआ हूँ. पर अब ठीक हूँ"

मेरे जवाब को सुनकर बगल बाले भाई साहब को थोड़ा संतोश हुआ और फिर बोले, "कहाँ से हो?"

मैने भी जवाव दिया, "बस थोड़ी दूर से हूँ". शायद उन्हे मेरे जवाव से संतोश नही हुआ और फिर आगे बोले, "मेरा मतलब यह नही था. मतलब आप कहाँ से हो? मतलब घर से हो, मन्दिर से हो या मस्जिद से हो या फिर खड़ंजे से हो?"

"अच्छा अच्छा, आप ये पूछना चाहते थे. वैसे मै नीव से हूँ. अभी अभी आजाद हुआ हूँ. मुगलकाल से मुझे नीव मे दबाकर रखा था. अभी कुछ लोग आये और दीवार गिराकर मुझे आजाद किया". मैने बड़ी विनम्रता से जवाब दिया.

बड़े भाई साहब ने कहा, "ओह, आपको अभी अभी आजादी मिली है. पर आपका वजूद तो अधूरा है".

"हाँ, मुझे आजाद करने वाले दो लोग थे. हमारी विरादरी कम पड़ गई तो उन्होने मेरे दो हिस्से कर मेरे भाई को पैदा कर दिया और उन्होने आपस मे बाँट लिया. अभी यही कही होगा". मैने उत्तर देने मे कोई कोताही नही बरती. तभी दूर से उड़ता हुआ मेरा भाई फिर एक खाखी कपड़े पहने हुये ब्यक्ति के सिर पर आकर गिरा. उस ब्यक्ति ने किसी की मा का बहुत जोर से नाम लिया. सिर घुमाकर देखा पाया कि अभी अभी मेरा छोटे भाई वहाँ पर प्रकट हुआ है. 

बड़े भाई साहब ने छोटे भाई साहब से कहा, "आप की तारीफ".

प्रश्न पूछते ही छोटे भाई साहब तैस मे आकर बोला, "लोगो ने जीना हराम कर रखा है. कोई इतनी दूर से किसी को फेकता है क्या. संविधान भी कोई चीज है. मेरे संवैधानिक अधिकारो का हनन कर रहे है". छोटे भाई साहब ने बड़े भाई साहब की बात पर गौर किये बिना बड़बड़ाये. और उल्टा बड़े भाई साहब से ही प्रश्न पूछ लिया, "आप की तारीफ?"

"मेरा नाम पूरा ईटा है. मै बगल वाली मस्जिद की दीवार में लगा था. कुछ लोग आये और संविधान खतरे में है बोलकर मुझे यहाँ तक उछाल दिया", बड़े भाई साहब ने एक साँस में अपनी पूरी जीवनी खोल दी. 

"हाँ, मुझे भी हाथ मे लेकर कोई बोला था कि संविधान खतरे में है. समझ मे नही आता कि यदि संविधान खतरे मे है तो हमे क्यो फेका. संविधान को बचाना चाहिये था". अपनी आजादी की मासूमियत से मैने पूँछा.

मेरी बात को सुनकर मेरे छोटे भाई ने गुस्से से जवाव दिया, "संविधान को वो बचायेंगे जिन्होने संविधान को पढ़ा होगा और अगर इन लोगो ने संविधान को पढ़ा होता तो हमे इधर उधर क्यो उछालते?" उसकी बात को सुनकर मै थोड़ा गंभीर होकर सोचने लगा, "बात तो सही कही है मेरे छोटे ने". तभी छोटे भाई साहब ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुये कहा, "जी करता है कि उछल कर इनके सर फोड़ दू, पर मजबूर हूँ. दूसरो के हाथो की बैसाखी जो चाहिये".

"ऐसे गुस्सा नही करते है छोटे. कभी कभी लोगो से गलतियाँ हो जाती है." मैने उसके गुस्से को शांत करने की कोशिश की.

"गलतियाँ, नही जी इसे गुनाह कहते है. कभी जाति खतरे मे पड़ती है, कभी धर्म खतरे मे पड़ता है और कभी संविधान? इतने खतरो के बीच लोगो कैसे जिन्दा रहते है समझ में नही आता". छोटे भाई साहब जब तक अपनी बात पूरी करते, पूरा आसमान धाँय धाँय की आवाज से गूँज गया और एक रक्त रंजित शरीर छोटे भाई साहब के बगल में आकर गिर पड़ा. मै जोर से चिल्लाया, "शांत रह छोटे, तूने बोला और सत्य हो गया".  

"नास हो जाये सालो का. इस दुधमुहे बच्चे के हाथ मे पत्थर पकड़ाकर गोली से मरवा दिया कुत्तो ने.  सबके घरो मे आग लगे. .....", बड़े भाई साहब बड़े जोर जोर से चीखने लगे. हम दोनो ने हैरानी से पूछा, "क्या हुआ?"

"अकेला बच्चा था विधवा जरीना का. इसी मस्जिद मे साफ सफाई कर परिवार का पेट भरता था. बरगला दिया बेचारे को. अब कौन देखभाल करेगा जरीना का?", बड़े भाईसाहब के आँसू और बददुआये बदस्तूर जारी थी. और हम दोनो कभी एक दूसरे को देखते और कभी आसमान को. कानों में "संविधान खतरे में है" की आवाजे गूँज रही थी. हमारी संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी. तभी तीन हाथो ने हम तीनो को उठाया और बड़े तबियत से जोर से आसमान की तरफ उछाला. हम फिर से किसी के सिर मे गिरने के लिये तैयार थे.