१०० करोड़ की फिल्म

एम डी एच के संस्थापक श्री महाशय जी, एम डी एच मसालो के सभी विज्ञापन में खुद ही मुख्य भूमिका निभाते है.  पिछले दो दशको से वे एम डी एच और ब्यवसायिक क्षेत्र में एक जाना माना चेहरा है. यह एक प्रश्न हो सकता है कि वो दूसरे मसाला ब्यवसायिक घरानो की तरह दूसरो को प्रचार का मुख्य चेहरा क्यो नही बनाते है जिससे नये प्रतिभाशाली लोगो को उचित मौका मिल सके. किन्तु इस प्रश्न में कोई दम नही है क्योकि आखिर बेचना तो उन्हे मसाले ही है, प्रचार में मसाला क्यो डाले.


पिछले दिनों में नये और उभरते कलाकारो की आत्महत्याओ ने ना केवल मनोरंजन क्षेत्र में भाई भतीजावाद के बढ़ते प्रभाब पर चर्चा को जन्म दिया है, बल्कि उनके उत्पीड़न और घुटन को भी उजागर किया है. यह कोई नई बात नही है, इससे पहले भी मीटू के माध्यम से कई कलाकारो ने बड़े बड़े फनकारो और निर्माताओ पर उत्पीड़न और पक्षपात का आरोप लगाया था. अब प्रश्न यह है कि क्या सचमुच में बालीबुड में जानबूझ कर भाई भातीजाबाद फैलाया जा रहा है. मुझे लगता है कि नही. अब प्रश्न है कि क्यो? इसके उत्तर के लिये कुछ दशक का बालीबुड़ इतिहास खोज लेते है.


पहले सुपर स्टार स्वर्गीय राजेश खन्ना जी ने लगातार १५ के करीब सुपरहिट फिल्में दी थी और उन सभी फिल्मो में उन्होने शालीन प्रेमी का किरदार निभाया था. उस दौर में सफल और असफल फिल्म को पैसे से नही बल्कि कितने समय तक सिनेमा हाल पर चली इससे आँका जाता था. खैर उस दौर में फिल्मे भी कम बनती थी पर स्टार्स के फैन जबरदस्त हुआ करते थे. धीरे धीरे, नय कलाकारो का आगमन हुआ और नय सुपर स्टार्स बालीबुड को मिले.  रितिक रोशन की पहली फिल्म लगातार २५ हफ्तो तक सिनेमाघरो में चलकर सिल्वर जुबली मनाई थी. 


वक्त बदला, समय के साथ फिल्मो का बनना भी बढ़ गया. अब तो हर सप्ताह एक नई फिल्म आती है. वेब सिरीज की तो बाढ़ आ गई है. कला फिल्में तो गायब ही हो गई है या केवल फिल्म फेस्टीवल तक सीमित रह गई है.  दर्शक कंफ्यूजन में है कि किस फिल्म को देखने के लिये कैसे पैसे और समय की ब्यवस्था करे. क्या देखू, क्या ना देखू और क्या बंद कर दू? फिल्म की सफलता इस तर्क से नही होती कि वह कितने समय तक दर्शको के बीच में रही बल्कि उसके करोड़ो के ब्यापार से होती है.  दबंग फिल्म श्रंखला ने हमेशा १०० करोड़ से ज्यादा का ब्यापार किया और खान साहब पैसा बनाने की मशीन बन गये. कोई भी मसाला इस मशीन में डाले, बाहर केवल पैसा ही आयेगा.  सारा खेल वीकेण्ड का है. तीन दिन, ३००० सिनेमाघर और २५० करोड़ का ब्यापार. अगले हफ्ते फिर से एक नई फिल्म. 


सूचना क्रान्ति के दौर मे, जब मोबाईल से हर तरह के कंटेन्ट की पहुँच है, दर्शको का स्वाद भी बदल गया है. कहानी, अभिनय, पटकथा, संवाद के तो अब मायने भी नही पता. २.५ घण्टे की फिल्म में उन्हे सारा मसाला चाहिये. कभी ३.५ घण्टे की फिल्म में "कितने आदमी थे?" का जवाब "तीन थे सरदार" देकर उस ३० सेकेण्ड के सीन से नये कलाकार साँभा का जन्म हुआ था. हर फिल्म किसी ना किसी नये कलाकार को खोज कर लाती थी. जैसे कि महिमा चौधरि, ग्रेमी, प्रीति जिंटा तो बस कुछ उदाहरण है. पर इन कलाकारो का अभिनय कुछ वर्षो तक ही रहा. अब तो फिल्मों की बाढ़ में किसी भी फिल्म का एक द्रष्य भी याद नही रहता. दिल को छू लेने वाले गाने, जो आज भी गुनगुनाये और रिमिक्स किये जाते है, याद है. आजकल के गानो का तो मुखड़ा भी याद नही रहता. इस दौर में जब फिल्म का जीवन ३ दिन, गाने का २ दिन और फिल्मकारो का ५ साल हो तो कोई निर्देशक, निर्माता क्यो किसी नये और प्रतिभाशाली कलाकर पर दाँव लगायेगाँ. वो ४५ करोड़ में खान साहब के साथ मुफ्त में अपनी मरियल, संवादहीन और अभिनयहीन पुत्र और पुत्री के साथ फिल्म बनाकर करोड़ो नही कमायेगा. खर्च बचा सो अलग. कुछ दिन इंतजार कीजिये जल्द ही आपको "कोरोना आफ बच्चन" बेब सिरीज में पूरे सभी बच्चन को एक साथ देख पाने अवसर प्राप्त होगा.