आलोचना

यूँ तो ईमानदारी और बेईमानी की अपनी पराकाष्ठायें है, किन्तु इनमें कोई खास अन्तर नही है। दोनो एक दूसरे की पूरक है और दोनो एक दूसरे की सहायक। दोनो की अपना ब्यक्तित्व है और दोनो का अपना चरित्र। यदि बेईमान ब्यक्ति के पास बेईमानी के लिये वक्त और ताकत ना हो तो वो दूसरो को बेईमान होने के प्रमाणपत्र बाटता रहता है लेकिन मौका मिलने पर वह खुद बेईमानी करता है और अपने क्रत्य के समर्थन में यही वाक्य दोहराता है "यदि अपने लिये थोड़ा सा स्वार्थी हो भी गया तो दुनियाँ का क्या बिगड़ा?"

मंतब्य किसी के ईमानदार या बेईमान होने का नही है, मंतब्य उस एक पतली और महीन रेखा से है जो बेईमानी और ईमानदारी के बीच होती है। यह इतनी बारीक होती है कि हमें पता ही नही चलता कि कब हम इसे पार कर गये। यह रेखा हमारे जीवन, परिवार, कार्यस्थल, अनुशासन, ब्यवहार, विचार और कर्म, हर जगह होती है। जो ब्यवहार हम दूसरो के साथ करते है अगर वही ब्यवहार हम अपनो के साथ ना करे तो हमारा दोहरा चरित्र हमें बेईमान और इमानदार बना देता है। किसी के लिये उस ब्यवहार से हम ईमानदार होते है और किसी के लिये उसी ब्यवहार से बेईमान। यदि हम अपने बच्चों को वक्त ना दे सके तो हम उनके साथ बेईमानी कर रहे है जबकि प्रितत्व या मात्रत्व प्यार में हम खुद को पूर्ण ईमानदार मानते है।

ईमानदारी और बेईमानी दोनो ही एक दूसरे से जुदा है। जहाँ बेईमानी की उम्र लंबी होती है, इमानदारी की उम्र छोटी। ईमानदारी ताउम्र अर्जित करनी होती है और बेईमानी कभी भी आपके पास आ जाती है। एक छोटी सी बेईमानी कठिन मेहनत और परिश्रम से अर्जित ईमानदारी को समाप्त कर देती है। सौ महान इमानदारी पर एक छोटी सी बेईमानी भारी पड़ती है, इस लिये ईमानदार लोगो को अपने चरित्र को बचाये रखने के लिये अधिक मेहनत करनी पड़ती है। अनादि काल से महात्मा और साधु लोगो को ईमानदार होने की परीक्षाये देनी पड़ी है। ईश्वर भी इमानदारो की ही परीक्षा लेता है बेईमानो की नही।

आदि काल से इमानदारी और बेईमानी के बीच के द्वन्द पर अनेको दर्शन और शास्त्र लिखे गये है। इन दोनो के बीच की रेखा के निर्धारण के लिये ऋषी और मुनियों ने जंगल मे सैकड़ो हजारो सालो तक तपस्या की। जो इस रेखा की प्रक्रति और चरित्र जान गया वह महात्मा कहलाया। गाँधी जी भी सदैव कहा करते थे कि यदि आप कोई संकल्प लेते है तो वह इतना उछला नही होना चाहिये कि छोटे से संकट में ही टूट जाये। यदि आप ईमानदार है तो सदैव ईमानदार ही रहे चाहे जो भी समय हो। गाँधी पर बहस हो सकती है पर आलोचना नही क्यो कि अलोचना करने से पहले अलोचना करने वाले को उतना ही ईमानदार होना चाहिये जितना ईमान्दार वह है जिसकी आलोचना की जा रही है। 

शिक्षा - दूसरो को बेईमान कहने से पहले यह देखे कि आप कितने ईमानदार है।