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यही कोई जेठ की गर्मी होगी और मेरी कोई आठ या नौ साल की उम्र. सही उम्र तो याद नही किन्तु आसपड़ोस में होने वाली शादियों व कार्यक्रमों की याद अभी दिमाग में जिन्दा है. मै, मेरी बहन, और मेरे मता पिता सभी घर में थे. गर्मी की अंधड़ में एक कच्चे मकान की शीतलता अन्दर तक महशूस होती थी. बाहर कोई इक्का दुक्का किसान ही दिखते थे जो अपने खेतो से लौट रहे थे. बच्चे तो घरो में ही कैद. बाहर निकलने की तो गुँजाईस ही नही थी. उस गर्मी में बड़ो का बुरा हाल होता था. बच्चे तो बीमार ही पड़ जाते थे. कही कही बुजुर्गो की फड़ लगी होती थी जिसमें वे सभी मिलकर तास खेलते. सबसे बुरा हाल तो हम बच्चो का ही था. बाहर जाना मना. खेलना मना. विद्द्याल तो वैसे ही बन्द थे. घर के लिये दिया गया काम समाप्त कर चुके होते तो बोरियत चरम पर होती थी.
तभी बड़ी जोरो से डफली और डमरू बजने की आवाजे आने लगी. आसपास सभी कौतूहल वस अपने घरो से बाहर आ गये. हमें तो वैसे भी सूरज ढलने से पहले घर से निकलने की अनुमति नही मिलती थी, दोपहर में बाहर आना बड़ा ही मुश्किल काम था. मै कभी अपनी बहन की तरफ देखता और बहन कभी मेरी तरफ. पर हम दोनो में से बाहर जाके कौन देखे कि आखिर माजरा क्या है. थोड़ी खुशर फुशर के बाद पता चला कि कोई नट करतब दिखाने आया है. हमें भी जाने की उत्सुकता हुई. पर बरदान कौन माँगे. जो भी बोले पता नही कैसी पिटाई हो जाये. जब सब्र का बाँध थोड़ा ढीला हुआ तो मेरी बहन ने माता जी से कहा,
"अम्मा हमें भी नट का खेल देखने जाना है. सभी लोग जा रहे है."
अम्मा ने ऐसे देखा जैसे हम किसी युद्ध में जा रहे हो. उम्मीद टूटने की झलक दिख रही थी पर उनकी सहमति ने हमारे अन्दर कई एटम बम की उर्जा भर दी. उनकी सहमति के सिर का हिलना जबतक रूकता, तबतक हम दोनो घर के बाहर. ना पैरो में चप्पल और ना सिर में अंगौछा. तभी पीछे से माता ने आवाज आई.
"अरे खोची तो लेते जाओ", अम्मा ने कहा.
"खोची की क्या जरूरत. हम तो बस लौट के आये", दीदी ने बाहर से ही जवाब दिया.
"अरे खाली हाथ नट के पास नही जाते. जाओ थोड़े से गेहू इस टोकरिया में ले जाओ", अम्मा तेज आवाज में बोली.
ये अम्मा की टोकरिया और गेहूँ ढूढ़ने में समय कौन बरबाद करे. मैन दीदी से कहा, "तू चली जा गेहू लेने, मै इन्तजार करता हूँ."
मै बड़ी तेजी से दौड़ते हुये उस जगह पहुँचे जहाँ नट करतब दिखा रहा था. चित्रों में नट को पुरुष बना हुआ देखा था, पर वास्तविकता में नट एक मेरी उम्र की बच्ची थी. उसका पिता या शायद बाबा उसके हर करतब में साथ दे रहा था. वह कभी ताली बजाने को कहता कभी पैसे देने को. नट वाली लड़की कभी रस्सी में एक ओर से चढ़ती कभी दूसरे छोर से उतर जाती. कभी गोले को अपने शरीर के आरपार से निकालती. कभी लोटे के ऊपर लोटे रखकर उछलकूद करती. तरह तरह के करतब दिखा रही थी और बीच बीच में उसका बाबा सभी बच्चो में जोश भर रहा था. ऐसे ही कोई एक आध घण्टा उसका करतब चलता रहा. बाद में सभी लोग अपनी अपनी खोची उसे देकर अपने घरो को लौट गये.
इस याद में कुछ खास नही है क्योकि कुछ खास बदलाव नही है. बस एक बदलाव जरूर हुआ है. हमारे घर, महीने के हर खास दिन किसी ना किसी रूप में किसी ना किसी देवता के नाम पर अपने आनाज के भण्डार से थोड़ा बहुत आनाज ऐसे ही जरूरतमन्द लोगो के लिये निकाला जाता था. सहूलियते कम थी पर भूखा कोई नही था. खाना कम था पर सभी त्रप्त थे. आज आनाज का ढेर है पर उससे खोची निकालने की हिम्मत नही. कभी कभी तो लगता है कि आज का मेरा कभी कभार शेल्फी वाला दान या गुप्त वाला दान उस एक मुठ्ठी खोची के आगे नगण्य है..