ऐसा क्यू???

सयुक्त राष्ट्र के वैश्विक पर्यावरण सम्मेलन में ग्रेटा थनबर्ग के भाषण ने दुनिया का ध्यान आकर्षण किया है.  लोग उनकी तारीफ कर रहे है. वह एक पर्यावरण कार्यकर्ता है और उनका हक है कि वे पर्यावरण से संबन्धित समस्यायो से दुनिया को ना केवल अवगत कराये बल्कि लोगो को जागरूक करे. उनका भाषण ओजस्वी और जोश से भरा था. प्रश्न गंभीर और अनुत्तरीय थे. ज्वलन्त मुद्दो को उन्होने बड़े ही गंभीरता से रखा और अपने हक को मांगा और साथ ही साथ उन्होने अपने "बचपन" को छीने जाने के लिये दुनिया के सभी राष्ट्राध्यक्षो को भी "फटकारा".


एक धरतीवासी होने के नाते मै उनसे पर्यावरण की समस्याओ पर सहमति रखता हूँ किन्तु मै उनकी आजकी परिस्थितियो के लिये पूर्ववर्ती ब्यक्तियो या लोगो को दोष से असहमति रखता हूँ. वह अभी नवयुवा है. प्रश्न करना उनका हक है. लेकिन क्या वह इस प्रश्न का उत्तर ठीक तरह से दे पायेगी जब आज से २० साल बाद कोई नवयुवा उनसे पूछेगा कि आपने उसके "अच्छे बचपन" के लिये क्या किया?


धरती की आबादी अप्रत्याशित रूप से बढ रही है. संसाधन कम हो रहे है. लोगो को जीवित रखने के लिये नित नये अनुसंधान और ऊर्जा की जरूरत है, जो ना केवल पर्यावरण को बल्कि "पंच भूत तत्वो" को भी प्रदूषित कर रहे है. प्रत्येक ब्यक्ति के लिये उसका बचपन अमुल्य है. समय के साथ "बचपन" की परिभाषा भी बदल रही है. ५० वर्ष पूर्व बचपन मिट्टी, गुड्डे-गुड़ियो, गिल्ली डंडे तक सीमित था और आज वो पब जी पर पहुच गया है. इसके दो परिद्रश्य हो सकते है. एक - बचपन उन्नति कर रहा है, मिट्टी से निकलकर चमकदार फर्श और स्मार्टफोन तक सफर कर चुका है और दूसरा - बचपन प्रक्रति से दूर हो गया है.


इस उपभोक्तावाद और स्वार्थ के समय मे हम सबकुछ सही चाहते है किन्तु त्यागना कुछ भी नही चाहते है. पर्यावरण तो १० वर्षो मे ठीक हो जाये यदि हम त्यागने की क्षमता रखते हो - इलेक्ट्रानिक यंत्रो को, वाहनो को, फैक्टरी मे बने कपडो को, मेक अप के सामान को, चमकीले भवनो को और दूसरे उन सभी वस्तुओ को जो प्रक्रति विरोधी हो.  लेकिन यह शायद संभव नही है, ना ही ५० साल की पुरानी पीढी द्वारा और ना ही जोशीले १८ साल के नवयुवा द्वारा.


ग्रेटा थनबर्ग के भाषण के दौरान मेरे आँखो के सामने कुछ चेहरे दौड़ने लगे थे, श्री अरविन्द केजरीवाल जी, श्री मोदी जी, श्री इमरान खान जी वगैरह वगैरह. सभी प्रश्न पूँछने मे माहिर और कटाक्ष ऐसे कि बड़े से बड़े ग्यानी भी मात खा जाये. उनके भाषण भी सदैव ग्रेटा थनबर्ग के भाषण जैसे जोशीले होते थे.  एक उम्मीद भारत मे और एक उम्मीद पाकिस्तान मे दिखी थी. भारतीयो को यह आभाष हुआ की उनकी सारी समस्याये तो हमारी पूर्ववर्ती शासको की वजह से है. और पाकिस्तानियो को लगा की उनकी समस्याये पूर्ववर्ती सरकरो की वजह से है. दोनो जगह शासक बदले, पर क्या परिवर्तन हुआ. केवल प्रश्न पूछने वाले और उत्तर देने वाले बदल गये.


यह वास्तविकता है कि अब गाँधी नही मिलते है जो ताकतवर होते हुये भी संयमित और सादा जीवन जीने मे विश्वास करे. उम्र के पड़ाव विचारो की गंभीरता को बदल देते है. मुझे एक कथन याद आ गया "प्रश्न पूछने का हक उसे है, जिसका ग़्यान या कर्म उत्तर देने वाले से बड़ा है." मै ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि ग्रेटा थनबर्ग एक सफल पर्यावरण कार्यकर्ता बने.