Sanskar

राधेश्याम जी एक नवयुवक और जोशीले अफसर थे, और शाथ मे जिले के कप्तान भी। वह जितने सुन्दर थे, उतने ही समझदार भी थे। बस उनकी आशिक मिजाजी ही उनका अवगुण था। हो सकता है कि मेरे पुराने खयालतो की वजह से मै ऐसा सोचता हूँ। कभी कभी उनके साथ हँसी ठिठोली में उनसे पूछ लेता था कि आपके कितनी....? वह हँसकर कहते, उतनी जितने मे जिन्दगी रं.... लगे। उनकी शादी के बाद हम पहली बार उनसे मिलने गये। उनकी पत्नी इतनी सुन्दर कि अप्सरा भी उनकी दासी लगे। हाजिरजवाबी में तो कप्तान साहब भी गच्चा खा जाते थे। खाने पीने के बाद हम सभी डाइनिंग रूम मे बैठ कर गपसप कर रहे थे। तभी उनकी सचिव फाईल ले के आई। राधेश्याम जी उठकर अपने घर मे बने आफिस मे चले गये। हम उनकी पत्नी के साथ बैठ कर जिन्दगी के विचारो के बारे मे गपसप करने लगे। बातो बातो मे पता चला कि वो एक धार्मिक प्रबत्ति की महिला थी। परिवार एवं संसकार के बंधन मे ही अपनी दुनियाँ ढूढ़ती थी। मन में आया कि राधेश्याम जी की आदत का जिक्र करू। पर दूसरे के परिवार मे दखल देने का ख्याल त्याग दिया। 


मुझे याद है जब मै कुछ दिनो बाद राधेश्याम जी से मिला था। बातो ही बातो में मैने उनसे उनकी पत्नी की सोच का जिक्र कर उनसे अपनी आशिक मिजाजी को छोड़ने की बात की थी। कितना नाराज हुये थे उस दिन। मैने भी हिम्मत कर उनसे कहाँ था, "इस स्वार्थ भरी जिन्दगी मे आप अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्री को तो मना लोगे, लेकिन अपनी पुत्र बधू को कैसे समझाओगे?" मेरी बातो को अनसुना कर वो चले गये थे, शायद उन्हे मेरे शब्दो का अर्थ नही समझ आया था।


३२ वर्ष की सरकारी सेवा से, बड़े धूमधाम के साथ कार्यामुक्त होकर राधेश्याम जी अपने घर में लोगो का स्वागत कर रहे थे। उनकी पुरानी सचिव भी उनके हर काम मे हाथ बटा रही थी। बेटा अपनी पत्नी के साथ मेहमानो के खानपान की ब्यवस्था कर रहा था। एक आगन्तुक की भाति मै भी एक कोने मे खड़ा होके चाय पी रहा था। सभी मेहमान धीरे धीरे प्रस्थान कर रहे थे। मै भी जैसे ही चलने को हुआ, पीछे से आवाज आई, अरे आप तो रुकिये। पीछे मुड़ा तो देखा, कि राधेश्याम जी लपकते हुये बोल रहे थे। मैने कहा कि क्यो नही? 


कुछ घण्टो के बाद सभी कार्य मुक्त होकर अहाते मे बैठ गये। बातो का दौर चला। नये और पुरानी पीढी का अन्तर साफ झलक रहा था। कभी के आशिक मिजाज राधेश्याम जी अब प्रौढता के साथ संसकार और परिवार की बात करने लगे थे। उनकी पत्नी अब जिन्दगी की हकीकत से रूबरू होकर गंभीर रहने लगी थी। हँसी ठिठोली, हाजिरजवाबी और अप्सरा जैसी सुन्दरता मे उम्र और जिन्दगी की हकीकत पर्दा डाल रही थी। बातो के दौर मे, बेटे की ओर मुह कर राधेश्याम जी बोले, "अब क्या इरादा है बेटा, यही साथ मे रहकर कुछ काम कर लो?" बेटा अनमने सा सुनने का बहाना कर, अपनी पत्नी के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था। बेटा से उत्तर ना पाकर उन्होने अपनी बहू की ओर इसारे से पूँछा, "तुम क्या कहती हो बहू?" इतना काफी था, बहू ने पट से उत्तर दिया, "हमारा घर तो नोयडा मे है, हम वही रहेगे"। "क्या ये तुम्हारा घर नही है?" राधेश्याम जी ने पूछा। बहू ने और द्रढता से कहा, "यह आपका घर है, आपही रहिये। हम नोयडा मे ही रहेगें।" बहू का नकारात्मक उत्तर सुन राधेश्याम जी मन ही मन ही बुदबुदाये, "क्या असंसकारी बात कर रही है?" वो अपनी बात पूरी कर भी नही पाये थे, कि बहू अन्दर से ही चिल्लाई, "आप संसकारो की बात ना हि करो पापा जी। क्या मुझे आप की सचिव और आशिक मिजाजी के बारे मे पता नही है?" इतना सुनना था कि महौल मे सन्नाटा छा गया। मुझे अपनी ३२ साल पुरानी बात याद आ गयी और मैने अब वहाँ से निकलना ही मुनासिब समझा।