kalua ki atma

कलुआ धोबी जब से पैदा हुआ, हमेशा ही ताने सुने। चल नालायक, कपड़े धुल। जल्दी से कपड़ो में इस्तरी करके मालिक को दे आ। अखिर उस पूरे गाँव में उसका ही तो एक घर था जहाँ पूरे गाँव के चौधरियों के कपड़े धुले जाते थे। उसके बापू को गुजरे बरसो बीत गये थे। अम्मा अकेले ही काम सम्भाल रखी थी। कलुआ अपनी बहन के साथ अम्मा के काम में हाथ बटाता था। मैट्रिक करने के लिये अम्मा ने उसे पास के कस्बे में भेजा था। 

पढ़ाई के कारण कलुआ का  गाँव आना कम हो गया।  गाँव से अम्मा उसे कुछ पैसे भेज देती। जब कभी तीज त्योहार में उसका  गाँव आना होता तो वह अम्मा के साथ दिनभर काम करता। 

धीरे धीरे सालो बीत गये। मैट्रिक के बाद इण्टरमीडियेट, फिर ग्रेजुएट और इसके बाद उसे बड़ी कम्पनी में मैनजर की नौकरी मिल गई। अम्मा अब बूढ़ी हो गई थी। नजर और कमर दोनो अब ठीक से काम नही करने देते। अम्मा के खर्च के लिये कलुआ हर महीने कुछ पैसे भेज देता था। पर गाँव आना जाना नही हो पाता। अम्मा ने जोर देकर उसकी एक अच्छे घराने में शादी करा दी। पत्नी कलुआ के साथ चली गई। अम्मा अकेली रह गई।

समय के साथ अम्मा भी गुजर गई। कलुआ को कलुआ कहने वाला अब कोई नही था। कभी कभार वह अपने परिवार के साथ गाँव आता और एक दो दिन में वापस लौट जाता। अपना कहने के लिये उसके पास अपने पुस्तैनी घर के अलावा कुछ नही था। 

पिछली दीवाली को वह गाँव आया था। पूजा के बाद पटाखे और मिठाइयों का दौर चला। कलुआ अपने कमरे में एक अलमारी को निहार रहा था। उसकी बेटी ने पूँछा, "पापा इसे इतने गौर से क्यो देख रहे हो?" कलुआ क्या कहता, उसने अलमारी को खोला। "उई, ये क्या कचरा इकठ्ठा कर रखा है इसमें?" बेटी ने अलमारी में, कपड़े धोने की ब्रस, पीटने वाला पटरा, पुराना प्रेस, कुछ टूटे खिलौने, कंचे, पुरानी टूटी टार्च, झरा हुआ सेल, जंग लगे बोल्ट को देखकर चिल्लाई। कलुआ जड़ बना अलमारी को देख रहा था। "पापा आपने बताया नही। क्या है ये?" बेटी ने कलुआ को हिलाते हुयें पूछा। "आत्मा!!!! है ये।", कलुआ ने नम आखों से धीरे से जवाब दिया। बेटी अभी भी उसके उत्तर को समझ नही पाई थी।