मेरी हिंदी कविताएं
©अमनदीप सिंह
©अमनदीप सिंह
कविता दरया का बहाव है
कविता नयनों की चमक है
‘उस सोहने’ से मिलने की
एक तीखी सी तड़प है!
फ़िज़ा में भटकती कविता के सूक्ष्म बोल
या तलवार पे लिखी गर्म इबारत!
शायद …
मैं यह दोनों ही हूँ!
छितिज पे चमकता सुबह का तारा
या सुलगती लकड़ियों में उठती चिंगारी
नीले सागर में उठती लहरें
या मदभरे नयनों से बहते आँसू
शायद …
मैं यह सभ कुछ ही हूँ!
शायद …
मैं - मैं ही नहीं हूँ!
(किसानों के संघर्ष को समर्पित)
चाहे कितनी भी रोकें आएं
हम चलते जायेंगे!
अपने हकों के संघर्ष को
और पक्का करते जायेंगे!
देख तूफ़ानो को राहों में
हमने सी नहीं करना।
पानी की बौछारों से
ज़रा भी नहीं डरना।
हर बैरिकेड पार
हम करते जायेंगे।
हम चलते जायेंगे!
हम कभी न झुकेंगे।
हम कभी न मिटेंगे।
ज़ोरो-ज़ुल्म से डर कर
हम कभी न रुकेंगे!
दिल्ली की तरफ़ कूच
हम करते जायेंगे।
हम चलते जायेंगे!
उदास सी इस रात का क्या करें
आँसुओ की सौगात का क्या करें
जीवन में जब तारीकी ही छा गई
तारों की बारात का क्या करें
बदल गए हैं तख़्त के ताबेदार
ना बदले हालात का क्या करें
रात को बीच में ही जो रह गई
राजा रानी की बात का क्या करें
बस आये और आकर वो चले गए
अैसी एक मुलाकात का क्या करें
जब भी मिलती है ज़िन्दगी
एक अजनबी मोड़ पे है ले जाती
उस मोड़ पे अकेले छोड़ के
फिर कहीं दूर है निकल जाती !
उस मोड़ पे अकेला खड़ा
आज मैं हैरान सा हूँ
आँखों में पड़ी धूल से
ज़रा परेशान सा हूँ
ज़िन्दगी के इस मोड़ पे आकर
जैसे वक़्त एक दम रुक सा गया है
कोमल सी हसरतों का बूटा
यहां पनप नहीं रहा है
उस बूटे को -
किसी और ज़मीन की तलाश है
ज़िन्दगी आज मुझे
एक नए मोड़ की तलाश है !
भटकते हैं फिर रहे हम इस जहां में
पंछी जैसे भटकते हैं आसमां में
विसाले-यार की तमन्ना करते रहे
पर हिजर ही मिला इस अशिआं में
सभ दुख दर्द भूल के हाँ जी रहे
खारों से भरे इस गुलिस्तां में
सिर्फ एक प्यार ही हमने माँगा था
कुछ और नही माँगा था जहां में
जिसकी जुस्तजू में हैं हम फिर रहे
उसका पता किसी ने ना बताया कारवां में
परदेस को हम देस बना के बैठे हैं
यह कैसा हम भेस बना के बैठे हैं
सात समन्दर पार भी कर लीए
सोचों के दरिया भी तर लीए
आंसुओं के कुछ हौके भर लीए
फिर भी दिल में याद समा के बैठे हैं
हिजर के वो बोझिल पल
जो बीते थे ग़ुज़रे कल
दिल के बीच मचावे हलचल
किसको दिल का हाल सुना के बैठे हैं
अब तो लगता अपना जिहा
परदेस भी लगता देस जिहा
कुछ भी तो नहीं इसने कहा
फिर भी क्यों यह हाल बना के बैठे हैं
परदेस को हम देस बना के बैठे हैं
यह कैसा हम भेस बना के बैठे हैं
अपने चिहरे से यह हिजाब हटा दो
अपना हसीं चिहरा ज़रा दिखा दो
ज़िंदगी यदि मनमोहक नग़मा है
तो यह नग़मा मुझे आज सुना दो
मेरी ज़िन्दगी की खाली किताब में
प्यार का सिर्फ़ एक पन्ना ही लगा दो
सहबा से लबरेज़ अपने नैनों से
मदहोशी का एक जाम ही पिला दो
बहुत दर्द है सहा मैने हिज्र में
अब तो वस्ल के हसीं लम्हे ला दो
यह मेरे सवाल का जवाब है
आज उसके चिहरे पे हिजाब है
तेरी चाराग़री की यह तासीर है
मन पहले से भी इज़्तराब है
उसकी फ़ुरक़त का असर है यह
कि दिल दर्द से शादाब है
अहले-दिल ज़रा आ के देख
मेरी ज़िंदगी में हशर-अज़ाब है
आंखों में ख़ुमार सा क्यों है
यह दिल मेरा बेकरार सा क्यों है
उसके आने की नहीं कोई उम्मीद
फिर भी उसका इंतज़ार सा क्यों है
तेरे वादे पे नहीं भरोसा मुझको
तेरे लारे पे ऐतबार सा क्यों है
यह सच है कि हसीन सुबह आएगी
लेकिन फ़लक पे यह ग़ुबार सा क्यों है
आओ एक और हरित क्रान्ति लाएं
बंजर हो रही धरती को स्वर्ग बनाएं
हर तरफ़ बिखरा हुआ कूड़ा और कर्कट -
आओ इसे चुन के कुछ फूल लगाएं
सड़कों पे छाया प्रदूषण का ग़ुबार
आओ उस ग़ुबार को खितिज से हटाएं
हर तरफ़ हरयाली का मौसम ला कर
बच्चों के लिए सुंदर वातावरण बनाएं
जब सारे फ़ौजी घर वापिस आएंगे
तब संसार पे अमन के बादल छाएंगे
यह जो जंग का सामान है आ रहा
मानवता को अंदर ही अंदर खा रहा
यह कब सदा के लीये ख़त्म होगा?
कब कोमल फुहार का मौसम होगा?
कब माताओं की आंखो में आंसू न होंगे
कब बच्चे डर कर गले लग न रोंगे?
इतनी नफ़रत क्यों करता है आदमी ?
कि जान लेने से भी नहीं डरता है आदमी।
प्यार के लिए यह जीवन है मिला -
उसमें नफ़रत क्यों भरता है आदमी।
लहू का रंग तो लाल है फिर -
सफ़ेद और स्याह क्यों समझता है आदमी।
अब तो नफ़रत की इंतहा है हो गयी -
ज़ुल्म की हर हद पार कर गया है आदमी।
इस जीवन की यही मर्यादा है
सुख थोड़ा कम और दुख ज़्यादा है
काँटों पे भी कभी चलना है पड़ता
इश्क़ के खेल का यही कायदा है
सभ कुछ भूल कर इस मोड़ पे आ पहुँचा -
अब ज़िन्दगी पूछती है तेरा क्या इरादा है ?
हर किसी के लीये यहां एक सितारा है होता !
एक खूबसूरत सा मित्र प्यारा है होता !
चला जाता है वो साजन फिर दूर कहीं -
जो हमें जान से भी प्यारा है होता !
यादें ही फिर जीने का आधार हैं बनतीं -
सिर्फ़ उन यादों का ही सहारा है होता !
काली घटा घिर घिर के आयी !
फिर से यद् आई वे चन्ना -
तेरी बेपरवाही!
बीते नाही बोझिल से दिन
कटती नहीं बेचैन यह रातें
रोज़ रो कर जमा हैं करते
ग़म की भीगी सी सौगातें
हाय ! बड़ी कमबख़्त है जुदाई !
काली घटा घिर घिर के आयी !
फिर से यद् आई वे चन्ना -
तेरी बेपरवाही !
कभी कभी ज़िन्दगी किस मोड़ पे ले जाती है -
यहाँ अपनों का साथ छूट है जाता …
ऐसा क्यों है होता ?
अपने हमें छोड़ कर कहीं दूर क्यों हैं जाते ?
अपने पीछे यादों के अम्बार हैं छोड़ जाते।
फिर हमें वो यादें ही बहुत हैं तड़पाती
आँखों से आंसुओं का सैलाब है बहाती
दिल में एक ग़ुबार सा उठता है -
एक तड़प की लहर बदन में फैल है जाती …
हम कुछ नहीं कर सकते
अफ़सोस ! मर भी नहीं सकते !
एक अकेली सी जान
हिज्र में परेशान
आज है बहुत उदास
दूर कहीं जंगल के पास
ढल गया दिन छुप गए साये
दिया जलाने कोई आये!
हवा के एक बुल्ले से दीया डोला
बुझ गया पर कुछ नहीं बोला!
मन हठ कर रहा
सभ दुःख जर रहा
मन हठ न करो
उसे आस से भरो
उठो कोई और दीप जलाओ
अपने प्यार को पास बुलाओ!
हालात बदल जाते हैं, जज़्बात बदल जाते हैं,
वक़्त के बदलते ही, ख़यालात बदल जाते हैं
वो लोग जो रात को महफ़िल में, हंस के बातें करते हैं
वो लोग फिर महफ़िल खिंडते ही प्रभात बदल जाते हैं
वो साथी जो हर वक़्त साथ चलने की बातें करते हैं
जब चलने का वक़्त आता है तो बात बदल जाते हैं
हे सागर! इस बर्स आँखों में
एक नई सुबह की लो बसा कर
तेरे शांत हृदय की गहराई में
गहरे उतर जाने को जी है करता।
जी करता है मैं बर्फ़ से ढकी
ऊँची चोटीयों तक पहुंच जाऊं -
ता जो सभयता के खँडर -
मुझे मेरे कल की याद ना दिलाएं।
इस बर्स, गगन में दूर तक
पँछी बन के उड़ने की चाहत है।
सूरज की तरह चमक कर
हर तरफ़ प्रकाश बिखेरन को जी है करता।
मेरी सांसों में तू है बस रही
धीरे धीरे मेरी रूह के
हर कतरे में है रच रही।
मेरी पहिचान तो सिर्फ़ तेरे साथ है
एक तेरा साथ है तो
हसीं हर एक रात है।
*
कई सदियों से, कई जन्मों से
मैं अपने महिबूब के दर पे बैठा रहा
अन्दर से आवाज़ आई - “कौन है?”
“मैं हूँ” - मैंने बड़े प्यार से कहा
पर वो दर न खुला
मैं बहुत देर इंतज़ार करता रहा
अंत निराश हो कर मैं
अनमने मन से वापिस लौट गया!
कई बर्स बीत गए …
उम्र की धुप से
चिहरे पर झुरड़ियां आ गईं
लेकिन मन-मस्तक में
उजाला हो गया।
मैं फिर अपने महिबूब के दर पे पहुंचा
अन्दर से फिर आवाज़ आई - “कौन है?”
“जो तू है” - मैने कहा
यकदम किवाड़ खुल गए
जलवे के तेज से
मेरी ऑंखें चुंधिया गईं
मैं सिर्फ़ अपने महिबूब के
चरण कमलों को ही निहार पाया!
मैंने हाथों में चिहरा छुपा लिया है।
छलकते ऑंसुओं को लुका लिया है।
उम्र भर की हसरतों के साथ -
अपने दिल में दर्द बसा लिया है।
जिस से बचने के लिए बहुत सोचा -
वही रोग दिल को लगा लिया है।
रूह की तड़प ही कम नहीं होती -
जिस से मन बहुत तड़पा लिया है।
दर्द से कांपते हाथों के साथ -
दिल का शिकस्ता साज़ बजा लिया है।
जीवन पथ पे तन्हा चलते चलते -
राज़ इस ज़िन्दगी का पा लिया है।
आज की रात ख़ुशनसीब है
मेरी अहिल मेरे करीब है
दिल अंदर यही ख़लिश है-
मेरा हबीब मेरा रक़ीब है
उसके जबीने-शौक़ पे तेबर
मेरे ख़ाबों की तख़रीब है
मेरे दिल में जो दर्द है
मेरा अपना नसीब है
तेरी कातिल मुस्कराहट को हैं याद कर रहे।
जो कभी न हुई उस आहट को हैं याद कर रहे।
याद कर रहे हैं तेरे खुले गेसुओं को -
उनसे होने वाली टिपटपाहट को हैं याद कर रहे।
वो नूरी चिहरा और वो झुकी हुई पलकें -
तेरी आँखों की निलाहट को हैं याद कर रहे।
तेरा वो बेपरवाही से चलना -
और उस से होने वाली सरसराहट को हैं याद कर रहे।
तेरे मिलने की उस घड़ी को हैं याद कर रहे
और अपने दिल की घबराहट को हैं याद कर रहे!
अै बहार के बादल !
कभी मेरे भी अँगना आना
अहसासों की तपती धरती पे
ठंडी फुहार बन कर छाना
वक़्त ने करवट ली
और मौसम बीत गए
हमें अकेले छोड़
मन के मीत गए
मेरी सूनी ज़िंदगी के लिए
मेरे मीत वापिस लाना !
निराश है ज़िंदगी
निराशा के गीत गए रही
टूटी हुई आशा
हर पल है तड़पा रही
मेरी टूटी आशा के लिए
एक नया सपना सजाना !
ज़िन्दगी पता नहीं कैसे मिलती है?
कभी अजनबी बन कर जो अपना लगता है -
कभी अपने बन कर जो अजनबी लगते हैं!
अजीब सा लगता है -
अपनों को अजनबी कहना और
अजनबीओं को अपने कहना!
अजनबी तो कभी कभी अपने बन जाते हैं -
पर जब अपने अजनबी हो जाते हैं
फिर उनको अपना बनाना
बहुत मुश्किल है हो जाता।
झूठे से रिश्ते पालने है पड़ते
मन नहीं मानता
फिर भी मज़बूरी में मिलना है पड़ता
हम दिखावे की ज़िन्दगी क्यों हैं जीते
क्यों हम झूठी दिखावट -
झूठे रिवाज़ हैं पालते रहते
जब के हमें पता होता है वो झूठे हैं!
पर क्यों?
क्योंकि हम दिखावट की ज़िन्दगी के आदी हो चुके हैं
एक तरह के टाइप्ड हो गए हैं
अपने आप को बदलना नहीं चाहते
जिस तरह दुनियां चलती है
वैसे ही चलते रहना है चाहते ...
हम तुम्हारे लिए तड़पते रहे !
रूह के कफ़स में सहकते रहे !
अब आज़ाद होने को भी मन नहीं करता !
और बर्बाद होने को भी मन नहीं करता !
रूह के पेचों को ज़ंग है लग रहा।
आँखों का दीप तेरी आस में है जग रहा।
पर तेरी आमद का कोई संकेत नहीं !
हमें इस जीवन से कोई हेत नहीं !
आ मेरी बर्बाद ज़िन्दगी, आबाद कर दे !
आदमी की नफ़रत की इंतहा जब हो गई।
हर कोमल ह्रदय और आंख भी नम हो गई।
अब तो ख़ुदा की इबादत करना भी ग्वारा नहीं।
'उस के' घर में भी अब कोई सहारा नहीं !
आज-कल संसार में कैसा अंधेर है हो रहा!
इंसान खुदा के नाम पे क़त्ल है हो रहा!
फिर भी हम ख़ुदा की इबादत न छोड़ेंगे।
उसके दर से हम कभी भी मुँह न मोड़ेंगे।
या ख़ुदा प्यार की ठंडी फुहार से भरे बादल ला।
नफरत से तपते संसार में अपनी रहमत बरसा!
आओ जीवन में उल्फ़त का रंग भरें
सपनों की एक रंगली दुनिआ त्यार करें
जो पल समय के सैलाब में वह गए
आज उन पलों को फिर साकार करें
दिल के ज़ख्मों पे प्यार की मरहम लगा
आओ दर्द का सागर धीरे धीरे तरें
बीत रहे साल की यादों को सजा कर
आने वाले साल का सुस्वागतम करें
पल जो जिस्मों के अंधेरों में रच गए -
उन्हें कैसे याद करें!
परत-दर-परत रौशनी की
एक लकीर फैलती है -
जब ख्यालों के बादलों में
तब दरया के पानी को
संगीत भूल जाता है!
सूहे गुलाबी मुखड़े पे
फैली परेशानी की
एक हल्की सी रेखा
दिल को कैसे रुला देती है!
नीला अँधेरा जब
अपनी हमनवा रौशनी के दर पे दस्तक देता है
तो समन्दर की लहरें उछलने लगतीं हैं!
आइये! हम भी
एक पल, बस एक पल
नीले अँधेरे में गुम हो जाएं
और झिलमल करती हुई
जीवन-मंज़िल की रौशनी को
हाथों में पकड़ने की एक कोशिश करें!
धीरे धीरे बहार है आ रही …
हरे पत्तों की हरयाली -
हर तरफ़ है छा रही!
लाल, पीले, गुलाबी
फूलों की भरमार है
हर एक जन
ख़ुशी से सरशार है
गुलाब के लाल, पीले,
और सफ़ेद फूल -
प्यार, दोस्ती,
और अमन के प्रतीक हैं।
हमारी खुशिओं
और ग़म में
हर वक़्त शरीक हैं।
कितने सफ़ेद हैं
गुलबहार (डेज़ी) के फूल!
नीलोफ़र के नीले फूल।
समुंदर के जैसे
फूलों की रंगबिरंगी लहरें!
खिले हुए फूल -
हर तरफ़ रंग बिखेरते
कुदरत के कैनवस पे
खूबसूरत चित्र हैं उतारते।
यही है बसंत -
बहार का सुखद मौसम!
रुपहली धूप के प्यारे दिन!
रंगों से शृंगारे दिन!
जब दिलो-दिमाग़ काम में व्यस्त है होता।
जब मन कुछ भी नही करने को करता।
शायद हम तब ख़ुश होते हैं!
जब बच्चों को कोई कहानी सुनाते हैं।
या फिर हम कुछ गुनगुनाते हैं।
शायद हम तब ख़ुश होते हैं!
जब हम निस्वार्थ सेवा हैं करते।
अपने लिए कुछ भी नहीं चाहते।
क्या हम तब ख़ुश होते हैं?
जब हम प्रार्थना हैं करते।
ईश्वर का शुक्र हैं करते।
क्या हम तब ख़ुश होते हैं?
जीवन के पल यूँ ही बीत जायेंगे।
आइये, ख़ुशी से यह जीवन जीएं।
अपनों को समझें और जानें।
किसी अजनबी को पहचाने।
यह आरज़ू है मेरी
कि मैं अंजुम हो जाऊं
तेरे ख़यालों की कहकशों में
गुंम हो जाऊं
तेरे नयनों की कैफ़ है
एक जादू के जैसे
तेरे होठों की मैं
महकती तबस्सुम हो जाऊं !
तूफ़ान आएगा,
पर मौत नहीं आएगी!
नयन बरसेंगे,
पर रात नहीं जाएगी!
चल तू अँधेरी रात में ही -
चमकते प्रकाशपुंज की तलाश में निकल पड़!
एक दिन ख़ुद ही हट जायेगा -
रौशनी के गिर्द लिपटा हुआ अँधेरे का ग़ुबार!
फिर तुम रौशनी की लम्बी लकीर का इतिहास
लिखने के लिए रहना त्यार!
शक्ति और चेतना का
खितिज तुम बना देना
दिन का उजाला
तुम रात में मिला देना
चल, क्रांति तेरा ही इंतज़ार कर रही -
तेरी आमद पे वो किरणों में वट जाएगी
तुम अँधेरे की नदी के
इस तरफ़ ख्लो कर
एक पुल बना देना
किरण चुपके चुपके पाँव दबोच के
तेरे पास आ जाएगी
फिर नयन चमकेंगे
और रात चली जाएगी!
खितिज पर मुस्करा रहा सूर्य
धीरे धीरे घुसमुसे में धस्ता है जा रहा!
अंधेरे की चुनरी में लिपटा सभ्यता का गोरा मुख
असभ्यता के बहाव में बहता है जा रहा।
नए जीवन की चिंगारी अभी मघ नहीं रही …
हम कैसे देंगे, चिंतन के दस्म द्वार पे दस्तक?
जीवन-नय्या तूफ़ान के आने से पहले ही
हिचकौले खा रही है।
कोमल सी कविता, तपते अक्षरों के प्रहार से
बिखरती जा रही है।
हे राही! तुम अपनी मंज़िल से पहले ही
नींद के तलिस्म में है खो रहा …
फिर तुम कैसे हटाओगे -
मंज़िल की देवी के चिहरे से घूंघट?
अनंत तूफ़ान आ रहे हैं …
हमारे स्थूल मन भी घबरा रहे हैं!
हमने अपने मज़बूत जिस्म पे,
हंस हंस के तूफ़ान सहना है!
आज हमने लम्बी नींद से जागना है!
सभ को बिजली और पानी मिले
आओ, हम वो सहर लाएं
दुख दर्द की रात हटा कर
आओ, ख़शी के पहर लाएं
कोई भी न तरसे जहां में
आओ, हम वो लहर लाएं
सर पर कफ़न बांध कर जो टुरे
अपना फ़र्ज़ निभा गए
अपने वतन की ख़ातिर
अपना आप मिटा गए
यही उम्मीद है
उनकी क़ुरबानी रंग लाएगी
इस ज़मीं पे एक दिन
अमन की सुबह आएगी!
आतंक और ज़ुल्म के कहीं
निशां न होंगे
सभ फौजी फिर
अपने घर वापिस होंगे!
समय क्या है?
बिना पंखों के उड़ता है
पल भर में कहीं दूर
चला जाता है!
हम अपल्क शून्य में
निहारते रह जाते हैं
अपनी बेबसी पे
तड़पते रह जाते हैं।
कुछ भी तो नहीं कर सकते!
लेकिन जी तो सकते हैं ...
आइए किसी के लिए जीएं -
पैसे लिए नहीं -
जगीरों के लिए भी नहीं -
महलों के लिए भी नहीं -
किसी अपने के लिए!
पश्चिम पंजाब से सूर्य उदय हुआ -
रहस्मई बेईं नदी से
एक सदा आई -
‘न कोई हिन्दू, न मुस्लमान!’
इस में कितना सत्य और कितनी जान है!
अगर सभ लोग इस बात को समझें
तो धरती से सभ दुःख दर्द मिट जाएँ
न कहीं मज़हबी दंगे हों
न निर्दोषों की जानें जाएं!
सतिगुरु नानक के सपने फिर सच हो जाएं!