सुतीक्ष्ण

सुतीक्ष्ण मुनि की कथा के माध्यम से आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन के महत्त्व का वर्णन

- राधा गुप्ता

अरण्यकाण्ड(सर्ग 7,8, 11) में वर्णित सुतीक्ष्ण मुनि से सम्बन्धित कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है -

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

शरभंग मुनि के आश्रम पर आए हुए समस्त ऋषि समुदाय से मिलकर जब राम, लक्ष्मण एवं सीता के साथ सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम पर पहुँचे, तब मुनि ने उनका अभिनन्दन किया और कहा कि वे उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहे थे, इसीलिए शरीर को त्यागकर देवलोक में नहीं गए थे। सुतीक्ष्ण ने तप से प्राप्त हुए लोकों को राम को देना चाहा परन्तु राम ने उन्हें ही लोक प्रदान करने का आश्वासन देकर अपने निवास हेतु स्थान माँगा। सुतीक्ष्ण मुनि ने अपने आश्रम को ही निवास हेतु श्रेष्ठ बतलाते हुए राम से कहा कि यहाँ ऋषियों का समुदाय सदा आता - जाता रहता है, फल-मूल सर्वदा सुलभ होते हैं, मृगों के झुण्ड आते हैं और मन को लुभाकर लौट जाते हैं तथा मृगों के उपद्रव से सिवा यहाँ कोई दोष नहीं है। राम न लक्ष्मण और सीता के साथ रात्रि में वहीं निवास किया परन्तु प्रातःकाल होने पर दण्डकारण्य में निवास करने वाले ऋषियों के आश्रम - मण्डलों का दर्शन करने के लिए सुतीक्ष्ण मुनि से आज्ञा माँगी। सुतीक्ष्ण ने आश्रम - मण्डलों का दर्शन करके पुनः लौटने के लिए राम से प्रार्थना की। तदनुसार राम सब ओर घूम - फिरकर सुतीक्ष्ण के आश्रम पर लौट आए और दस वर्ष तक वहीं रहे।

कथा की प्रतीकात्मकता

कथा प्रतीकात्मक है। अतः सभी प्रतीकों को समझ लेना उपयोगी होगा।

1- सुतीक्ष्ण मुनि - सुतीक्ष्ण शब्द सुति और ईक्षण नाम दो शब्दों के मिलने से बना है। सुति (सु - क्तिन्) का अर्थ है - सोमरस को निकालना ौर ईक्षण का अर्थ है - सोचना, विचारना, समझना या देखना आदि। सोमरस एक वैदिक शब्द है जिसका अभिप्राय है - अमृत अर्थात् सुख - शान्ति - प्रेम तथा आनन्द से भरपूर आत्मा। अतः सोमरस को निकालने का अर्थ हुआ - सुख - शान्ति - प्रेम तथा आनन्द से भरपूर आत्मा को विस्मृति से स्मृति में लाना अर्थात् यह समझना कि मैं शरीर नहीं, अपितु शरीर को चलाने वाला, सुख - शान्ति - प्रेम तथा आनन्द से भरपूर चैतन्य शक्ति आत्मा हूँ।

मुनि शब्द मन को इंगित करता है, अतः जो मन सुख - शान्ति - प्रेम तथा आनन्द से भरपूर आत्मा के विचार में, चिन्तन में, स्मरण में प्रवृत्त हो गया है - वह सुतीक्ष्ण मुनि है। एक शब्द में यदि कहना चाहें तो आत्मकेन्द्रित मन को अथवा ध्यानस्थ मन को सुतीक्ष्ण मुनि कहा जा सकता है।

आत्मकेन्द्रित मन अथवा ध्यानस्थ मन कहने से अधिकांशतः यह धारणा उभरती है कि ध्यानस्थ मन वह है जो समस्त कर्त्तव्य - कर्मों को छोडकर आँख बन्द करके बैठ गया है। परन्तु यह धारणा सही नहीं है। आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन वह है जो सुख - शान्ति - प्रेम तथा आनन्द स्वरूप आत्मा का सतत् स्मरण रखता हुआ समस्त कर्त्तव्य - कर्मों का यथोचित निर्वाह करता है।

इस आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन का लक्ष्य है - सतत् आत्मचिन्तन करते हुए मनुष्य को उसकी इस सही पहचान में स्थित कराना कि वह शरीर नहीं, अपितु शरीर को चलाने वाला, शरीर का मालिक, सुख - शान्ति - प्रेम तथा आनन्द से भरपूर, अजर- अमर - अविनाशी - चैतन्यशक्ति आत्मा है। इस सही पहचान के आगमन को ही कथा में सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में राम का आगमन कहकर इंगित किया गया है।

2 - सुतीक्ष्ण मुनि को तप से प्राप्त हुए लोक - आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन श्रेष्ठ सामर्थ्य से युक्त होकर दया दृष्टि, सेवा दृष्टि, परोपकार दृष्टि, स्नेह दृष्टि तथा क्षमा दृष्टि जैसी जिन अनेक दृष्टियों से युक्त हो जाता है, उन्हें ही कथा में सुतीक्ष्ण मुनि द्वारा तप से प्राप्त हुए लोक कहा गया है। आत्म दृष्टि के विकसित होने पर ुपर्युक्त वर्णित दृष्टियों का आत्मदृष्टि में अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिए कथा में कहा गया है कि सुतीक्ष्ण मुनि ने तप से प्राप्त हुए लोकों को राम को देना चाहा।

3- सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में ऋषियों का आना - जाना - ऋषि शब्द श्रेष्ठ विचार का वाचक है। अतः सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में ऋषियों का आना - जाना कहकर कहकर यह संकेत किया गया है कि आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन की स्थिति में ही मन के भीतर श्रेष्ठ विचारों का आना - जाना बना रहता है। शरीर अथवा संसार की ोर लगा हुआ मन इस योग्य नहीं होता कि वह अपने भीतर श्रेष्ठ विचारों को धारण कर सके।

4- सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में फल - मूल का सर्वदा सुलभ होना -

यहाँ फल शब्द कार्य और मूल शब्द कारण का वाचक है। अतः सुतीक्ष्ण के आश्रम में फल - मूल की सुलभता कहकर यह संकेत किया गया है कि आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन ही कार्य ौर कारण का सतत् चिन्तन करता है। आत्मा (मनुष्य) की यात्रा अनवरत है। वह एक शरीर छोडता है तथा दूसरा ग्रहण करता है। शरीर छोडने और ग्रहण करने की लम्बी यात्रा में वह जो भी मानसिक, वाचिक अथवा कायिक कर्म करता है - उनकी छापें उसके चित्त(अवचेतन मन) में इकट्ठी होती हैं। फिर उन छापों के अनुसार ही जीवन में विभिन्न परिस्थितियाँ उपस्थित होती हैं। जीवन में उपस्थित हुई परिस्थितियाँ वास्तव में पूर्व में किए गए अपने ही कर्मों का कार्य (परिणाम /फल) है। उपस्थित परिस्थितियों के आधार पर जब मनुष्य पुनः कर्म करता है, तब उसका वह कर्म ही भविष्य में आने वाली परिस्थितियों का कारणरूप हो जाता है। इस आधार पर आत्म - केन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन कार्य - कारण का सम्यक् चिन्तन करता हुआ व्यर्थ, अनुपयोगी, नकारात्मक विचारों के निर्माण से बचा रहता है। शरीर अथवा संसारकेन्द्रित मन में इस कार्य - कारण की चिन्तना नहीं होती।

5- सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में मृगों का आना-जाना - मृग शब्द अन्वेषण अर्थ वाली मृग् धातु से बना है। अतः पौराणिक साहित्य में आया हुआ मृग शब्द किसी पशु - विशेष का वाचक न होकर अन्वेषण अथवा खोज के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में मृगों का आना - जाना कहकर यह संकेत किया गया है कि आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन ही अन्वेषण शक्ति से युक्त होता है, अतः उसका सारा मनन - चिन्तन ही अन्वेषण - परक होता है। वह प्रत्येक विषय की खोजबीन करके उसके मर्म को समझने का यथासम्भव प्रयास करता है। शरीर अथवा संसारकेन्द्रित मन में यह अन्वेषण क्षमता नहीं होती।

सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में मृगों का उपद्रव - मृगों का उपद्रव कहकर यह संकेत किया गया है कि आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन यद्यपि अन्वेषण क्षमता से युक्त होता है और यथासम्भव खोजबीन करके विषय के मर्म को समझ लेता है। परन्तु अनेक बार बहुत खोजबीन के बाद भी वह कठिन विषयों का मर्म नहीं समझ पाता। अतः समाधान प्राप्त होने तक मन के भीतर खोज सम्बन्धी उठापटक चलती ही रहती है, जो मन की स्थिरता में व्यवदान स्वरूप ही है।

7- राम का ऋषियों के आश्रम - मण्डलों में घूमना - चूंकि ऋषि श्रेष्ठ विचारों के प्रतीक हैं, अतः ऋषियों के आश्रम - मण्डलों में राम के घूमने का अभिप्राय है - अपने सही स्वरूप - आत्मस्वरूप की पहचान हो जाने पर मनुष्य का श्रेष्ठ विचारों के बीच रहकर उन पर सतत् चिन्तन - मनन करना, उनको जीवन में उतारना तथा उनसे यथासम्भव दिशा - निर्देश ग्रहण करना।

8 - राम का दस वर्ष तक सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में रहना -

दस वर्ष कहकह यहाँ मनुष्य के शरीर में क्रियाशील दस प्राणों - पाँच स्थूल प्राणों तथा पाँच सूक्ष्म प्राणों की ओर संकेत किया गया है। पाँच स्थूल प्राण हैं - प्राण, अपान, व्यान, समान तथा उदान। और पाँच सूक्ष्म प्राण हैं - नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त तथा धनञ्जय। राम का दस वर्ष तक सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में रहना यह संकेत करता है कि स्व-स्वरूप की पहचान अर्थात् आत्मज्ञान जब तक सम्पूर्ण प्राणों में आत्मसात् न हो जाए, तब तक मन का आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ रहना अनिवार्य है अर्थात् मनुष्य अपने ध्यान को, अपने विचार को, अपनी चिन्तना को तब तक आत्मकेन्द्रित बनाए रखे, जब तक आत्म - स्वरूपता (आत्मज्ञान) प्रगाढ होकर प्राणों में आत्मसात् न हो जाए। अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि ध्यानस्थ मन के भीतर एक न एक दिन आत्मज्ञान का जो आगमन होता है, वह तब तक वहाँ रहता है जब तक प्राणों में आत्मसात् न हो जाए।

कथा का अभिप्राय

प्रस्तुत कथा के माध्यम से आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन के महत्त्व को अनेक रूपों में दर्शाया गया है।

1 - आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन इस योग्य होता है कि वह श्रेष्ठ विचारों की धारणा करके उन पर सतत् चिन्तन - मनन करता है। सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में ऋषियों का आना - जाना कहकर इसी तथ्य को इंगित किया गया है।

2- आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन जीवन में घटित प्रत्येक घटना के कारण और कार्य पर विचार करने की सामर्थ्य से युक्त होता है। वह समझता है कि कि जीवन में घटित प्रत्येक घटना किसी पूर्व कर्म का कार्य(परिणाम) भी होती है और किसी भावी कर्म का कारण भी। सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में फल - मूल की सदैव सुलभता के रूप में इसी तथ्य को व्यक्त किया गया है।

3 - आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन अन्वेषण परक होता है। वह किसी भी विषय की खोजबीन करके समाधान तक पहुँचने का यथासम्भव प्रयत्न करता है। सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में मृगों का आना - जाना कहकर इसी तथ्य का संकेत किया गया है।

4- आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन अन्वेषणपरक होने पर भी अनेक बार समाधान प्राप्त न होने के कारण ऊहापोह में पड जाता है। मृगों के उपद्रव के रूप में इसी बात को संकेतित किया गया है।

5- आत्मकेन्द्रित अथवा ध्यानस्थ मन ेक न एक दिन आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, जो उसका मूल उद्देश्य ही है। सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में राम का आगमन कहकर इसी तथ्य को व्यक्त किया गया है।

6- मन के ध्यानस्थ रहने पर ही आत्मज्ञान सम्पूर्ण प्राणों में आत्मसात् होकर एक - एक श्रेष्ठ विचार की चिन्तना में प्रवृत्त होता है, जिसे कथा में राम का ऋषियों के आश्रम मण्डलों में घूमना और दस वर्ष तक सुतीक्ष्ण के आश्रम में रहना कहा गया है।

अतः कथा यह संदेश देती है कि मनुष्य अपने मन को आत्मकेन्द्रित करे, ध्यानस्थ बनाए।

प्रथम लेखन - 8-8-2014ई.(श्रावण शुक्ल द्वादशी, विक्रम संवत् 2071)

Importance of meditative mind through the story of sage Suteekshna

- Radha Gupta

In Aranya kanda (chapter 7,8, 11) , there is a story of sage Suteekshna. It is said that Rama with Lakshmana and Sita reached in the hermitage of sage Suteekshna. Suteekshna also was waiting for him and did not go to devaloka. He desired to donate his lokas to Rama but Rama did not accept and assured him to offer them. Now when Rama asked Suteekshna for some place to live, he requested Rama to live in his hermitage, describing it's qualities. He told Rama that rishis always visit here, fruits and roots are always available, folks of deers wander here but sometimes they also create disturbance here.

Hearing this, Rama stayed there that night but next morning he asked permission to go to other ashramas. After getting permission, Rama went to other ashramas , met there with rishis and returned back to the hermitage and lived there for ten years.

The story is symbolic and relates to the importance of a meditative mind symbolized as sage Suteekshna. Meditative mind means a mind focused on soul. The story describes the importance of this meditative mind as under -

1- A meditative mind is able in greeting, concentrating and contemplating on eminent thoughts symbolized as regular visits of rishis in the hermitage of Suteekshna.

2 - A meditative mind is able in understanding the concept of cause and effect symbolized as having fruits and roots in the hermitage of Suteekshna.

3 - A meditative mind is able in seeking or searching the secrets of those points which are deep and hidden symbolized as the free wandering of deers in the hermitage of Suteekshna.

4 - A meditative mind although is able in searching the secrets yet sometimes gets entangled in such deep subjects and topics which create panic symbolized as the panic of deers in the hermitage of Suteekshna.

5- A meditative mind is able in obtaining the knowledge of Self symbolized as the coming of Rama in the hermitage of Suteekshna.

6- A meditative mind is also able in holding the knowledge of Self until it gets totally absorbed symbolized as the living of Rama for ten years in the hermitage of Suteekshna.

सुतीक्ष्ण का वैदिक स्वरूप

- विपिन कुमार

वाल्मीकि रामायण में सम्पाती गृद्ध का कहना है

तीक्ष्णकामास्तु गन्धर्वास्तीक्ष्णकोपा भुजंगमाः

मृगाणां तु भयं तीक्ष्णं ततस्तीक्ष्णक्षुधा वयम् – वा.रा. 4.58.9

अर्थात् गन्धर्वों को काम की तीक्ष्णता सताती है, सर्पों को क्रोध की तीक्ष्णता, मृगों को भय की तीक्ष्णता और उससे भी अधिक गृद्धों को क्षुधा की तीक्ष्णता। इन तीक्ष्णताओं से अपने जीवन में हम सभी परिचित हैं। इन तीक्ष्णताओं को सौम्यताओं में रूपान्तरित कैसे किया जा सकता है, इनका सदुपयोग कैसे किया जा सकता है, यह अज्ञात है(भागवत पुराण में गोपियां काम द्वारा कृष्ण को प्राप्त करती हैं, कंस भय द्वारा, शिशुपाल द्वेष द्वारा आदि)। लेकिन वाल्मीकि रामायण आदि शास्त्रों के सुतीक्ष्ण शब्द को समझने के लिए हम अपनी क्षुधा की तीक्ष्णता का आश्रय ले सकते हैं। कहा जाता है कि भूख में गूलर भी पकवान लगता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो अन्न सुप्त है, नीरस है, वह भूख की तीक्ष्णता से जाग्रत होकर अन्नाद्य, अन्नों में श्रेष्ठतम बन सकता है। जैमिनीय ब्राह्मण 3.174 के कथन (परीणसं कृणुते तिग्मतेजा) को इसी दृष्टिकोण से समझा जा सकता है। पुराणों में मुख्य रूप से तीक्ष्ण शब्द का प्रयोग हुआ है जबकि वैदिक साहित्य में तीक्ष्ण के अतिरिक्त तिग्म शब्द का प्रयोग भी हुआ है। और दैनिक जीवन में जो भय, क्रोध, क्षुधा आदि तीक्ष्णताएं हैं, उनका रूपान्तर वैदिक साहित्य में तेज शब्द द्वारा व्यक्त किया गया है। तेज में भय, क्रोध, क्षुधा आदि सबका समावेश हो जाता है। यदि तेज तीक्ष्ण है तो इससे छुरे का, परशु का काम लिया जा सकता है। तीक्ष्ण शब्द में तक्षण, काटना - छांटना भी निहित है। क्षुरिकोपनिषद का कथन है कि सुतीक्ष्ण बुद्धि को छुरा बना लो और इस बुद्धि को मन के हाथ में सौंप दो। इस छुरे से क्या करना है? इस छुरे से शरीर के सात चक्रों से जो 72000 नाडियां निकल रही हैं, उनका क्रमिक रूप से छेदन करते जाना है। केवल सुषुम्ना नाडी शेष रहेगी जिससे चेतना ऊर्ध्व दिशा में उत्क्रमण कर सकती है। चेतना के तिर्यक गमन के लिए जितने मार्ग थे, नाडियां थी, उन सबको इस छुरी से काट देना है। यह कहा जा सकता है कि परशुराम और सुतीक्ष्ण के कर्मों में बहुत समानता है।

रामायण में सुतीक्ष्ण मुनि की कथा पर ध्यान दें तो राम को सुतीक्ष्ण मुनि से मिलने का निर्देश शरभङ्ग मुनि से मिला है। जैसा कि शरभङ्ग मुनि की टिप्पणी में कहा जा चुका है, चेतना की पहली स्थिति है वाल स्थिति, बिखरी हुई स्थिति। उससे ऊपर की स्थिति है शर की स्थिति जिसमें ऊर्जा के क्षरण को, वाल स्थिति को समाप्त कर दिया जाता है और शर से भी ऊपर की स्थिति है शरभङ्ग की स्थिति जिसमें शर अवस्था, इन्द्रियों का स्वामी बनने, क्षत्रिय बनने की अवस्था को भी समाप्त कर दिया जाता है, केवल ब्रह्म या ब्राह्मण स्थिति शेष रहती है। इसके पश्चात् तेज का क्या उपयोग रह जाएगा? इसका संकेत सुतीक्ष्ण मुनि की संक्षिप्त कथा के द्वारा किया गया है। जैसे क्षुधा की तीक्ष्णता द्वारा नीरस अन्न के रस का ज्ञान हो जाता है, ऐसे ही तेज की तीक्ष्णता द्वारा इस लोक से ऊपर के लोकों का दर्शन होने लगता है(डा. फतहसिंह संस्कृत के लोक शब्द की तुलना अंग्रेजी के लुक शब्द से किया करते थे)। तैत्तिरीय ब्राह्मण 3.5.12 में कहा गया है कि तिग्मतेज अग्नि द्वारा गार्हपत्य के विषय हमारे लिए अस्थूल बन जाएं। वैदिक साहित्य में इस स्थिति का संकेत तीक्ष्णशृङ्ग, तिग्मशृङ्ग (वृषभ या अग्नि) आदि शब्दों द्वारा दिया गया प्रतीत होता है। तीक्ष्णशृङ्ग क्यों कहा गया है, यह अन्वेषणीय है। शतपथ ब्राह्मण 9.2.2.5 में मन, वाक्, प्राण, चक्षु व श्रोत्र को पांच शीर्ष प्राण कहा गया है और कहा गया है कि तिग्मतेज वाली अग्नि से इन्हीं पांच का संश्यन/ तक्षण करना है। फिर ऊपर के लोकों का दर्शन संभव है। गरुड पुराण 1.197.26 का कथन है कि आत्मा के परितः वायु (प्राण का रूप) का मण्डल है जो तीक्ष्ण है। फिर हमारे शीर्ष के परितः, शिखा के ऊपर दिव्य, व्यापक, अप्रमाण, अमृतोपम शुद्धस्फटिक समान तेजोमण्डल है। स्पष्ट है कि इस मण्डल में तीक्ष्णता नहीं है, अपितु सौम्यता है। शतपथ ब्राह्मण 1.2.4.7 का कथन है कि जब इस लोक में वायु (वैदिक साहित्य में वायु से तात्पर्य प्राणों के अनिर्दिष्ट रूप से है) बहती है, तो वह इस लोक का संश्यन, तक्षण करने के लिए ही बहती है। इस तीक्ष्ण वायु का स्पर्श स्वयं से नहीं होने देना है, अपितु इससे आसुरी प्रवृत्तियों का तक्षण करना है। ।

सुतीक्ष्ण मुनि राम को अगस्त्य आश्रम के मार्ग का निर्देश करते हैं। डा. फतहसिंह के अनुसार अगस्त्य संसार में फैलने की स्थिति है। इसका अर्थ यह होगा कि सुतीक्ष्ण स्थिति तक तो ब्रह्म साधना की, एकान्तिक साधना की, वसिष्ठ साधना की आवश्यकता है। इससे आगे विकास होने पर उस एकान्तिक साधना द्वारा अर्जित लाभ को समाज में वितरित करने की आवश्यकता है। सुतीक्ष्ण की स्थिति तक तो अपने तेज का उपयोग शाप आदि देने के लिए भी नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि सुतीक्ष्ण के आश्रम के परितः तापस गण निशाचरों के प्रकोप से त्रस्त हैं, लेकिन शाप आदि देकर अपने तेज को नष्ट नहीं करना चाहते। अगस्त्य की स्थिति में शाप - वरदान दोनों दिये जा सकते हैं।

प्रथम लेखन - 19-8-2014ई.(भाद्रपद कृष्ण नवमी, विक्रम संवत् 2071)

संदर्भ -

(४.३७.६ ) एयमगन्न् ओषधीनां वीरुधां वीर्यावती ।

(४.३७.६ ) अजशृङ्ग्यराटकी तीक्ष्णशृङ्गी व्यृषतु ॥६॥

(८.७.९ ) अवकोल्बा उदकात्मान ओषधयः ।

(८.७.९ ) व्यृषन्तु दुरितं तीक्ष्णशृङ्ग्यः ॥९॥ - अथर्ववेद

८,०६०.१३ शिशानो वृषभो यथाग्निः शृङ्गे दविध्वत् ।

८,०६०.१३ तिग्मा अस्य हनवो न प्रतिधृषे सुजम्भः सहसो यहुः ॥

१०,०८७.०९ तीक्ष्णेनाग्ने चक्षुषा रक्ष यज्ञं प्राञ्चं वसुभ्यः प्र णय प्रचेतः ।

१०,०८७.०९ हिंस्रं रक्षांस्यभि शोशुचानं मा त्वा दभन्यातुधाना नृचक्षः ॥

१०,१५५.०२ चत्तो इतश्चत्तामुतः सर्वा भ्रूणान्यारुषी ।

१०,१५५.०२ अराय्यं ब्रह्मणस्पते तीक्ष्णशृङ्गोदृषन्निहि ॥

तद् यथा ह वै मयूखो वा तीक्ष्णश् शंकुर् वैवम् एष यत् त्रिवृत् स्तोमः। तद् यथा मयूखेन वा तीक्ष्णेनाभिनिधाय शंकुना वा कूटेनाभिहन्याद्, एवमेवैतेन त्रिवृता स्तोमेन वलम् अभिनिधाय पञ्चदशेन वज्रेण व्यासुः। अथो आहुर् - अग्निर् एवैष यत् त्रिवृत् स्तोमः। वज्र एष यत् पञ्चदशः। तद् यथाग्निनाश्मानम् अभ्योप्य तं कूटेन भिन्द्याद्, एवम् एवैतेन त्रिवृताग्निना स्तोमेन वलम् अभ्योप्य पञ्चदशेन वज्रेण व्यासुर् इति। - जै.ब्रा. 2.90

वायुरसि तिग्मतेजा इति । एतद्वै तेजिष्ठं तेजो यदयं योऽयं पवत एष हीमांल्लोकांस्तिर्यङ्ङनुपवते संश्यत्येवैनमेतद्द्विषतो वध इति यदि नाभिचरेद्यद्यु अभिचरेदमुष्य वध इति ब्रूयात्तेन संशितेन नात्मानमुपस्पृशति न पृथिवीं नेदनेन वज्रेण संशितेनात्मानं वा पृथिवीं वा हिनसानीति तस्मान्नात्मानमुपस्पृशति न पृथिवीम् - मा.श. १.२.४.[७]

नमः सु ते निर्ऋते तिग्मतेज इति । तिग्मतेजा वै निर्ऋतिस्तस्या एतन्नमस्करोत्य - मा.श. ७.२.१.[१०]

स वै पञ्चगृहीतं गृह्णीते । पञ्चधाविहितो वा अयं शीर्षन्प्राणो मनो वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमेतमेवास्मिन्नेतत्पञ्चधाविहितं शीर्षन्प्राणं दधात्यग्निस्तिग्मेन शोचिषेति तिग्मवत्या शिर एवास्यैतया संश्यति तिग्मतायै - मा.श. ९.२.२.[५]

सध्र्यश्वो ह स्माह तैग्मायुधिः क उ स्विद् अद्य रसदिहाव् उरसि निमृदिष्यत इति। एते ह वै रसदिहौ ये एते गायत्र्या उत्तमे अक्षरे। यस् ते उद्गायन्न् आरभते रसदिहाव् उरसि निमृदते। य उ एने निर्हरति गायत्रीं छिद्रां करोति। गायत्रीं छिद्राम् अनु यज्ञस् स्रवति यज्ञम् अनु यजमानो यजमानम् अनु प्रजाः॥जै.ब्रा. 1.114॥

अथानुमन्त्रयेत प्राणैर् अमुष्य प्राणान् वृङ्क्ष्व॥ तक्षणेन तेक्षणीयसायुर् अस्य प्राणान् वृङ्क्ष्व॥ - जै.ब्रा. 1.129

ते देवा एताव् उद्भिद्वलभिदाव् अपश्यन्। ताभ्यां एना अभिप्रावयन्। ते वलभिदैव वलम् अभिन्दन्। उद्भिदा गा उदसृजन्त। स वा एष त्रिवृत् पञ्चदशो वलभिद् भवति रथन्तरसामोत्सेधब्रह्मसामा। अथैष उद्भित् सप्तिसप्तदशो भवति बृहत्सामा निषेधब्रह्मसामा। तद् यथा ह वै मयूखो वा तीक्ष्णश् शंकुर् वैवम् एष यत् त्रिवृत् स्तोमः। तद् यथा मयूखेन वा तीक्ष्णेनाभिनिधाय शंकुना वा कूटेनाभिहन्याद्, एवमेवैतेन त्रिवृता स्तोमेन वलम् अभिनिधाय पञ्चदशेन वज्रेण व्यासुः। अथो आहुर् - अग्निर् एवैष यत् त्रिवृत् स्तोमः। वज्र एष यत् पञ्चदशः। तद् यथाग्निनाश्मानम् अभ्योप्य तं कूटेन भिन्द्याद्, एवम् एवैतेन त्रिवृताग्निना स्तोमेन वलम् अभ्योप्य पञ्चदशेन वज्रेण व्यासुर् इति। - जै.ब्रा. 2.90

उत स्वानासो दिवि षन्त्व् अग्नेस् तिग्मायुधा रक्षसे हन्तवा उ।

मदे चिद् अस्य प्र रुजन्ति भामा न वरन्ते परिबाधो अदेवीः॥ - जै.ब्रा. 3.96

तद् यथा ह वै परशोस् तिग्म यथाग्निर् देवतानाम् एवम् एष यत् त्रिवृत् स्तोमः। तद् यथा परशुना पुरस्तात् संवृच्यन्न् इयाद् अग्निना पश्चात् समं कुर्वन्न्, एवम् एव तद् वसवस् त्रिवृता स्तोमेनेमान् लोकान् प्रायुवन्। - जै.ब्रा. 2.208

परीणसं कृणुते तिग्मशृंग इति । परीणसम् इत्य् आह - अन्नं वै परीणसम् - अन्नाद्यस्यैवावरुद्ध्यै। - जै.ब्रा. 3.174

तिग्मशृङ्गो वृषभः शोशुचानः ।

प्रत्नम्̐ सधस्थम् अनुपश्यमानः । - तै.ब्रा. 2.4.2.6

वायुर् नक्षत्रम् अभ्येति निष्ट्याम् ।

तिग्मशृङ्गो वृषभो रोरुवाणः ।

समीरयन् भुवना मातरिश्वा ।

अप द्वेषाम्̐सि नुदताम् अरातीः । तै.ब्रा. 3.1.1.10

वयम् उ त्वा गृहपते जनानाम् ।

अग्ने अकर्म समिधा बृहन्तम् ।

अस्थूरिणो गार्हपत्यानि सन्तु ।

तिग्मेन नस् तेजसा सम्̐शिशाधि । - तै.ब्रा. 3.5.12.

मनसस्तु क्षुरं गृह्य सुतीक्ष्णं बुद्धिनिर्मलम्।

पादस्योपरि मर्मृज्य तद्रूपं नाम कृन्तयेत्।

मनोद्वारेण तीक्ष्णेन योगमाश्रित्य नित्यशः। - क्षुरिकोपनिषद 11

भिन्नाञ्जननिभाकारं निखिलं व्याप्य संस्थितम्।

आत्ममूर्तिस्थितं ध्यायेद्वायव्यं तीक्ष्णमण्डलम्॥१,१९७.२५॥

शिखोपरि स्थितं दिव्यं शुद्धस्फटिकवर्चसम्।

अप्रमाणमहाव्योमव्यापकं चामृतोपमम्॥ गरुड पु. १,१९७.२६॥

किं वारणाग्रे मरणेन सौख्यं किं वा मखादेः समनुष्ठितेन।

समस्ततीर्थेष्वटनेन किं किमधीतशास्त्रेण सुतीक्ष्णबुद्ध्या॥गरुड पु.३,२०.११॥

१.००७.०१० ब्रह्मक्षत्रमहिंसन्तस्ते कोशं समपूरयन्

१.००७.०१० सुतीक्ष्णदण्डाः संप्रेक्ष्य पुरुषस्य बलाबलम् – वा.रा.

४.०४८.००९ सुग्रीवः क्रोधनो राजा तीक्ष्णदण्डश्च वानराः

४.०४८.००९ भेतव्यं तस्य सततं रामस्य च महात्मनः – वा.रा.

४.०५८.००९ तीक्ष्णकामास्तु गन्धर्वास्तीक्ष्णकोपा भुजंगमाः

४.०५८.००९ मृगाणां तु भयं तीक्ष्णं ततस्तीक्ष्णक्षुधा वयम् – वा.रा.

५.०१०.००५ न मेऽस्ति सुग्रीवसमीपगा गतिः॑ सुतीक्ष्णदण्डो बलवांश्च वानरः – वा.रा.