सिन्धु१
Vedic view of Sindhu(by Dr. Tomar)
सिन्धु
टिप्पणी: डा. सुकर्मपाल सिंह तोमर ने अपने शोधग्रन्थ 'वेद में उदक का प्रतीकवाद' में यह प्रतिपादित किया है कि एक अखण्डित शक्ति अदिति है जो स्वयं नौवी काष्ठा में विराजमान रहती है, लेकिन यह प्रसव अष्टम काष्ठा में करती है । यह अष्टम स्तर सिन्धु का है । इस अष्टम स्तर से निचले स्तरों पर सात सिन्धुओं की स्थिति होती है । अष्टम स्तर का सिन्धु निचले सात सिन्धुओं को जन्म देता है और इस प्रकार उनका जनक/जननी है । दूसरी ओर, सात सिन्धुओं की चरम परिणति यह अष्टम स्तर का सिन्धु है । सात सिन्धु इस अष्टम सिन्धु में समाहित हो जाते हैं । वेदों के इस दृष्टिकोण को पुराणों में किस प्रकार प्रतिपादित किया गया है, यह गणेश पुराण २.७३ से आरम्भ होने वाले वर्णन में प्राप्त होता है । इस वर्णन के अनुसार राजा चक्रपाणि ने पुत्र प्राप्ति हेतु तप किया तो सविता देव ने राजा के वेश में उसकी पत्नी उग्रा को गर्भ धारण कराया । उग्रा उस तेज को सहन नहीं कर सकी और उसने वह तेज सिन्धु/समुद्र में त्याग दिया । उस तेज से आक्रान्त होकर समुद्र ने उस बालक को राजा चक्रपाणि को दे दिया । उस बालक का नाम सिन्धु पडा । सिन्धु ने तप करके शिव से अवध्यत्व का वरदान प्राप्त किया । शिव ने उसके कण्ठ में एक अमृत पात्र दिया और कहा कि जो इस अमृत पात्र को उससे अलग कर देगा, उससे उसकी मृत्यु हो जाएगी । इसके अतिरिक्त, जो कोई ऐसा देव उत्पन्न होगा जो अपने केशों से द्युलोक को मथ देगा, जिसके अङ्गुष्ठ - नखाग्र में कोटि ब्रह्माण्डों की स्थिति होगी, वह सिन्धु को मारने में समर्थ होगा । कालान्तर में गौरी गणेश/गुणेश को पुत्र रूप में उत्पन्न करती है और वह सिन्धु का वध करता है । गणेश पुराण में गणेश को गुणेश, तीन गुणों से युक्त रूप दिया गया है । इसके अतिरिक्त, चार युगों में गणेश के चार स्वरूप बताए गए हैं जिनमें कृतयुग में गणेश सिंहारूढ है तथा १० भुजाओं वाला है, त्रेता में बर्हिण/मयूरारूढ है और छह भुजाओं वाला है, द्वापर में गजानन है और चार भुजाओं वाला है तथा आखु पर आरूढ है । कलियुग में धूमकेतु नाम है और दो भुजाओं वाला है ।
उपरोक्त वर्णन में यह समझना आवश्यक है कि सिन्धु का असुरत्व क्या है । यास्क - कृत निरुक्त १०.५ में सिन्धु की निरुक्ति स्यन्दन, स्रवण आधार पर की गई है( यः सिन्धूनामुपोदये – यः वरुण: स्यन्दमानानाम् आसामपां उपोदये ) । इसका अर्थ हुआ कि कोई अमृत सिन्धु है जिसका निचले स्तरों पर स्यन्दन कराना है । जहां यह स्यन्दन प्रतिबन्धित हो जाए, अवरुद्ध हो जाए, वही सिन्धु असुर है । यास्क निरुक्त २.२५ के निम्नलिखित कथन से इसका पर्याप्त संकेत मिलता है -
अभि ह्वयामि सिन्धुम् । बृहत्या महत्या मनीषया मनस ईषया स्तुत्या प्रज्ञया वाऽवनाय कुशिकस्य सूनु: ।
इस सिन्धु असुर के हनन का उपाय यह है कि इसका त्रिगुणात्मक स्तर पर अवतरण कराया जाए । यही गणेश/गुणेश द्वारा सिन्धु का हनन है । गणेश पुराण का कथन है कि सिन्धु का हनन करने वाले पात्र के लिए आवश्यक है कि उसके केश द्युलोक का मथन करने में समर्थ हों । यह रथन्तर साम की स्थिति प्रतीत होती है जिसमें पृथिवी आदि द्रव्य अपने बीज सूर्य या चन्द्रमा में स्थापित करते हैं । अंगुष्ठ नखाग्र में कोटि ब्रह्माण्डों की स्थिति के संदर्भ में, डा. फतहसिंह के अनुसार अंगुष्ठ 'अंगुष्ठ पुरुष' का संकेत देता है । यह चेतना की सर्वाधिक सूक्ष्म अवस्था का, सर्वाधिक घनीभूत अवस्था का सूचक है । इस अवस्था से कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन हो रहा है । यही अवस्था सिन्धु असुर को मार सकती है । यह बृहत् साम की अवस्था हो सकती है । जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.९.२.९ का कथन है - 'तद्यदेतैरिदं सर्वं सितं तस्मात्सिन्धव: ।' यह विचारणीय है कि क्या यह कथन भी बृहत् साम का संकेत करता है ? नौका पर टिप्पणी के संदर्भ में यह कहा जा चुका है कि बृहत् साम द्वारा सूर्य अपनी ऊर्जा का समावेश पृथिवी के द्रव्यों में करता है । रथन्तर और बृहत् को दो नौकाएं कहा गया है ।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, यास्क व सायण के अनुसार सिन्धु की निरुक्ति स्यन्दन करने वाला आपः या प्राण होती है । ऋग्वेद की ऋचाओं में सात सिन्धुओं का उल्लेख आता है । यह सात सिन्धु मनुष्य व्यक्तित्व के सात कोशों के प्रतीक हो सकते हैं । लेकिन सात कोश सात सिन्धु तभी बन सकते हैं जब एक कोश का दूसरे कोश में स्रवण हो, स्यन्दन हो । आचार्य रजनीश ने कुण्डलिनी और सात शरीर व्याख्यनमाला में यह प्रतिपादित किया है कि सात चक्रों में से ऊपर का चक्र अपने से नीचे वाले चक्रों का नियन्त्रण करता है । सूक्ष्म स्तर का चक्र स्थूल स्तर के चक्र को, स्थूल शरीर को किस प्रकार प्रभावित करता है, इसको इस प्रकार समझा जा सकता है कि भय के उपस्थित होने पर पैर लडखडाने लगते हैं । रजनीश के अनुसार तब सूक्ष्म शरीर, जो स्थूल शरीर का नियन्त्रण कर रहा है, संकुचित हो जाता है और स्थूल शरीर पर से अपना नियन्त्रण खो देता है । अतः स्थूल शरीर लडखडाने लगता है । यही बात और चक्रों के विषय में भी कही जा सकती है । ऋग्वेद की ऋचाओं में उल्लेख आता है कि अहि (न्त्सृजः सिन्धूँरहिना जग्रसानान् - ऋ. ४.१७.१, अहन्नहिमरिणात्सप्त सिन्धून् - ४.२८.१, अहन्नहिमरिणात्सप्त सिन्धून् - १०.६७.१२, त्वं सिन्धूँरवासृजोऽधराचो अहन्नहिम् - १०.१३३.२ ) या वृत्र( ऋ. ४.१८.७, ४.१९.८, ४.४२.७) इन सिन्धुओं का स्यन्दन रोके रखते हैं जिनसे मुक्ति इन्द्र ही दिलाता है । दूसरी ओर, ऋग्वेद १.१६४.२५ में जागत साम द्वारा सिन्धु (एकवचन) का द्युलोक में स्तम्भन करने तथा रथन्तर द्वारा सूर्य का दर्शन करने का उल्लेख है(जगता सिन्धुं दिव्यस्तभायद्रथंतरे सूर्यं पर्यपश्यत्) । ऋग्वेद ३.५३.९ में किसी महान् ऋषि द्वारा सिन्धु(एकवचन) का स्तम्भन करने का उल्लेख है (महाँ ऋषिर्देवजा देवजूतोऽस्तभ्नात्सिन्धुमर्णवं नृचक्षाः)।
पुराणों में सिन्धु का उल्लेख प्रतीची गङ्गा के रूप में किया गया है । ऋग्वेद २.१५.६ में इन्द्र द्वारा सिन्धु को उदीची दिशा में बहने वाला बनाने का उल्लेख है(सोदञ्चं सिन्धुमरिणान्महित्वा) । वैदिक साहित्य के सिन्धु को समझने के लिए जो कुञ्जियां उपलब्ध हो सकती हैं, इस कथन को उन कुञ्जियों में से एक कहा जा सकता है । प्रतीची दिशा पाप नाश की, पापों को जलाने की दिशा है । यह कहा जा सकता है कि सिन्धु की सारी शक्ति का व्यय इसी कार्य में हो जाता है । लेकिन कोई स्तर ऐसा भी है जहां सिन्धु को इस कार्य से मुक्त करके उसे उदीची दिशा में प्रवाहित होने वाला बनाया जा सकता है । डा. फतहसिंह के अनुसार उदीची दिशा कार्य आनन्द की दिशा है, जबकि प्रतीची दिशा वरुण के सत्यानृत विवेक की । ऋग्वेद की ऋचाओं में हमें यह ध्यान देना होगा कि सिन्धुओं के उदक् - प्रवणा होने का संकेत किस प्रकार मिलता है । उदाहरण के लिए, ऋग्वेद ४.३४.८ में सिन्धुओं को रत्नों को धारण करने वाले कहा गया है (सजोषसः सिन्धुभी रत्नधेभिः)। रत्नों को धारण करने की स्थिति उदीची दिशा का एक प्रमाण है ।
पद्म पुराण ३.२४.३ में दक्षिण सिन्धु में आगमन से अग्निष्टोम याग फल प्राप्ति का उल्लेख है । दक्षिण सिन्धु का उल्लेख यह संकेत करता है कि प्रतीची सिन्धु को दक्षिण सिन्धु भी बनाया जा सकता है । दक्षिण दिशा दक्षता प्राप्त करने की दिशा है । ऋग्वेद १०.१३७.२ में सिन्धु और दक्षता का संकेत मिलता है (द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः । दक्षं ते अन्य आ वातु परान्यो वातु यद्रपः) ॥ ।
महाभारत में सिन्धुराज जयद्रथ की कथा आती है जिसका वध अर्जुन ने सूर्यास्त से पूर्व करने की प्रतिज्ञा की थी । योगवासिष्ठ में भी सिन्धुराज और विदूरथ के युद्ध का विस्तृत वर्णन है । इन कथाओं के संदर्भ में यह समझने की आवश्यकता है कि वेद के आधार पर सिन्धु - राज कौन हो सकता है । एक संभावना यह है कि सिन्धव:(बहुवचन) प्रजा हैं और सिन्धु(एकवचन) राजा है । राजा द्वारा प्रजा का नियन्त्रण किया जाता है । ब्राह्मण ग्रन्थों( प्राणो वै सिन्धुश्छन्दः - शतपथ ब्राह्मण ८.५.२.४) का कथन है कि प्राण सिन्धु छन्द है, मन समुद्र छन्द है, वाक् सलिल छन्द है इत्यादि । सबसे निचले स्तर पर हमारा यह शरीर, यह जीव रथ है जिसमें इन्द्रियों के रूप में विभिन्न प्राण दृष्टिगोचर होते हैं । जिसने इन प्राणों पर विजय प्राप्त कर ली, अपनी इन्द्रियों को स्रवित होने वाली शक्ति की धारा को मोड कर अन्तर्मुखी कर दिया, वही सिन्धु का राजा होगा । यह कहा जा सकता है कि इकाई बने प्राण को सिन्धु कहा गया है (उसके पश्चात् प्राण के सूर्य रूप की कल्पना की गई है ) । ऋग्वेद ९.८६.३३(राजा सिन्धूनां पवते पतिर्दिव) व ९.८९.२ (राजा सिन्धूनामवसिष्ट वास ऋतस्य नावमारुहद्रजिष्ठाम्) में सोम को सिन्धुओं का राजा कहा गया है । सोम मन के उच्च स्तर का प्रतीक है, अतः यह कहा जा सकता है कि मन द्वारा प्राण रूपी प्रजाओं का नियन्त्रण हो सकता है । महाभारत में अर्जुन द्वारा जयद्रथ के वध की कथा यह प्रश्न खडा करती है कि यदि मन द्वारा प्राण रूपी प्रजा पर नियन्त्रण करना ही जयद्रथ बनना है( पुराणों में जयद्रथ को बृहन्मना का पुत्र कहा गया है ) तो अर्जुन को सिन्धुराज जयद्रथ के वध की आवश्यकता क्यों पडी? और वध का कार्य सूर्यास्त से पहले सम्पन्न किया जाना है । जब जयद्रथ छिप गया तो उसको प्रकाश में लाने के लिए माया द्वारा सूर्य को अस्त करना पडा । और उस माया से केवल जयद्रथ ही ग्रस्त हो सका, कौरव पक्ष के अन्य महारथी नहीं । सूर्य का अर्थ होता है सूयन करने वाला, सारे जगत को क्रियाशीलता हेतु प्रेरित करने वाला । सामान्य स्थिति में हम माया से आवृत सूर्य द्वारा प्रेरित हैं । सत्य सूर्य का विकास तो तब होता है जब रथन्तर कहे जाने वाले साम द्वारा पृथिवी का बीज/वीर्य द्युलोक में स्थापित किया जाता है । अतः उपरोक्त घटना की एक संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि माया से आवृत सूर्य को हटाकर सत्य सूर्य को विकसित करना ही जयद्रथ को मारना है । महाभारत के जयद्रथ के आख्यान के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि महाभारत में जयद्रथ के पिता का नाम वृद्धक्षत्र दिया गया है जबकि पुराणों में बृहन्मना ।
योगवासिष्ठ और महाभारत, दोनों में सिन्धु के आख्यान किसी न किसी प्रकार रथ से जुडे हैं । अतः यह जानना रोचक होगा कि पौराणिक साहित्य में इस प्रकार का चयन क्यों किया गया है । ऋग्वेद ८.१२.३ में कहा गया है कि इन्द्र ने ऋत के पन्थ का अनुसरण करने के लिए सिन्धु रूपी आपः को रथों की भांति प्रेरित किया(येन सिन्धुं महीरपो रथाँ इव प्रचोदयः । पन्थामृतस्य यातवे तमीमहे ॥) । इसके अतिरिक्त ऋग्वेद १.४६.८ में भी सिन्धुओं के तीर्थ पर रथ के योजन का उल्लेख आता है (अरित्रं वां दिवस्पृथु तीर्थे सिन्धूनां रथः ।धिया युयुज्र इन्दवः ॥)। जैसा कि ऋत शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, यह सत्य और अनृत के बीच की एक अवस्था है । ऋत को इस प्रकार समझ सकते हैं कि चेतना वृक्ष का मूल अनृत में स्थित है, पके फल सत्य में और कच्चे फल ऋत में । ऋग्वेद १०.१२३.४ में ऋत के मार्ग से यात्रा करने वाले के लिए सिन्धु को पराकाष्ठा कहा गया है (ऋतेन यन्तो अधि सिन्धुमस्थुर्विदद्गन्धर्वो अमृतानि नाम ॥)। ऋग्वेद १.१०५.१२ में सिन्धुओं द्वारा ऋत की कामना करने का उल्लेख है जबकि सत्य का विस्तार सूर्य करता है (ऋतमर्षन्ति सिन्धवः सत्यं तातान सूर्यो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥)। ऋग्वेद २.२८.४ के अनुसार सिन्धव: वरुण के ऋत को जाते हैं (ऋतं सिन्धवो वरुणस्य यन्ति)।
ऋग्वेद १.१४६.४ में सिन्धु का दर्शन करने के पश्चात् सूर्य प्रकट होता है (सिषासन्तः पर्यपश्यन्त सिन्धुमाविरेभ्यो अभवत्सूर्यो नॄन् ॥) । ऋग्वेद १.१६४.२५ में जागत साम द्वारा सिन्धु का द्युलोक में स्तम्भन करने तथा रथन्तर द्वारा सूर्य का दर्शन करने का उल्लेख है (जगता सिन्धुं दिव्यस्तभायद्रथंतरे सूर्यं पर्यपश्यत् ।)। सूर्य का अर्थ प्राणों का सूयन करने वाला, प्राणों को प्रेरित करने वाला होता है । इस ऋचा के सायण भाष्य में कहा गया है कि चूंकि रथन्तर साम में 'स्वर्दृशाम्' शब्द प्रकट होता है, अतः रथन्तर का अर्थ सूर्य को प्रकट करना, उसका दर्शन करना है ।
ऋग्वेद ८.६.४ का कथन है -
समस्य मन्यवे विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः । समुद्रायेव सिन्धव: ।।
इसका अर्थ है कि मन्यु - युक्त इन्द्र के लिए सारी(विश्वा) कृष्टियां ऐसे नमन करती हैं जैसे समुद्र के लिए सिन्धव: करती हैं । सायणाचार्य द्वारा मन्यु का अर्थ स्तुति लिया गया है । लेकिन ऐसा भी अनुमान लगाया जा सकता है कि मन्यु मन का उच्च रूप, मन - उ या मन - ॐ हो सकता है । साधारण भाषा में मन्यु क्रोध को कहते हैं, वह क्रोध जिसकी उत्पत्ति रक्त में नहीं, अपितु मज्जा में होती है । डा. फतहसिंह के अनुसार कृष्टियों का सम्बन्ध इन्द्रियों से है - जिनका कर्षण किया जा सकता है । जैसा कि ऊपर शतपथ ब्राह्मण के कथन को उद्धृत किया गया है, समुद्र मन का प्रतीक है जबकि सिन्धु प्राण का । ऋग्वेद की ऋचाओं में सिन्धुओं के समुद्र में आने/समाहित होने का सार्वत्रिक उल्लेख है ( ऋ. ६.१९.५ (सं जग्मिरे पथ्या रायो अस्मिन्त्समुद्रे न सिन्धवो यादमानाः ॥), ६.३६.३ (समुद्रं न सिन्धव उक्थशुष्मा उरुव्यचसं गिर आ विशन्ति ॥), ८.६.४ (समस्य मन्यवे विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः ।
समुद्रायेव सिन्धवः ॥), ८.६.३५ (इन्द्रमुक्थानि वावृधुः समुद्रमिव सिन्धवः ।), ८.४४.२५ (अग्ने धृतव्रताय ते समुद्रायेव सिन्धवः । गिरो वाश्रास ईरते ॥), ८.९२.२२ (आ त्वा विशन्त्विन्दवः समुद्रमिव सिन्धवः ।), ९.८८.६ (वृथा समुद्रं सिन्धवो न नीचीः सुतासो अभि कलशाँ असृग्रन् ॥), ९.१०८.१६ (इन्द्रस्य हार्दि सोमधानमा विश समुद्रमिव सिन्धवः ।) । यह ध्यान देने योग्य है कि जिन सिन्धुओं के समुद्र में समाहित होने का उल्लेख इन ऋचाओं में है, उन सबकी प्रकृति भिन्न - भिन्न है । ऋग्वेद ८.६.४ का सिन्धु कृष्टियों का सिन्धु है, ८.६.३५ में उक्थों का सिन्धु है, ८.४४.२५ में गिराओं का सिन्धु है, ८.९२.२२ में इन्दव: का सिन्धु है । ऋग्वेद ९.८८.६ में सोमयाग में सोमरस को छानने वाली दशापवित्र/कपडे की छलनी को सिन्धु कहा गया है जिससे शुद्ध होकर सोमरस नीचे रखे द्रोण कलश रूपी समुद्र में समाहित होता है ।
राजा को प्रजाओं का पति भी कहा जाता है । ऋग्वेद ७.६४.२ में मित्रावरुण को सिन्धु का पति- द्वय कहा गया है । ऋग्वेद ९.१५.५ में पवमान सोम/वाजी के सिन्धुओं का पति बनने का उल्लेख है । ऋग्वेद १०.१८०.१ में इन्द्र के सिन्धुओं का पति होने का उल्लेख है ।
योगवासिष्ठ में सिन्धुराज और विदूरथ के युद्ध का विस्तृत वर्णन आता है जहां कहा गया है कि सिन्धुराज की सीमा पर शत्रु के रूप में विदूरथ उपस्थित रहता है । सिन्धुराज ने सरस्वती की उपासना की । सरस्वती ने कहा कि वह प्रत्येक भक्त की मनोकामना पूर्ण करती है । चूंकि विदूरथ ने अपनी मुक्ति की और सिन्धुराज ने सदैव अपनी जय की प्रार्थना की है, अतः सिन्धुराज विजयी होगा । लगता है कि योगवासिष्ठ में विदूरथ की कल्पना इसी आधार पर की गई है । शतपथ ब्राह्मण ८.५.२.४ में कहा गया है कि प्राण सिन्धु छन्द है, मन समुद्र छन्द है और वाक् सरिर/सलिल छन्द है । यह कथन सिन्धु को समझने में आगे सहायक हो सकता है । प्राण का उच्च रूप सूर्य होता है, मन का चन्द्रमा और वाक् का पृथिवी । इस कथन से ऐसा लगता है कि प्राण, मन और वाक् को परस्पर सम्बद्ध करके एक त्रिक का निर्माण करना है, वैसे ही जैसे सूर्य, पृथिवी और चन्द्रमा परस्पर सम्बन्धित हैं ।
तैत्तिरीय संहिता ४.४.९.१ में कहा गया है कि 'ऽसुरात्त: सिन्धुरवभृथमवप्रयन्त्समुद्रोऽवगतः सलिल: प्रप्लुतः सुवरुदृचं गतः ।' इस वाक्य के सायण भाष्य में कहा गया है कि असु आत्त है, सिन्धु अवभृथ स्नान के लिए जाने वाली स्थिति है, समुद्र अवभृथ स्नान हेतु जाने के पश्चात् की स्थिति है, और वाक्/सलिल अवभृथ स्नान के समय जल में डुबकी लगाने की स्थिति है और सुव: उदृचं ? की स्थिति है ।तैत्तिरीय संहिता के उपरोक्त कथन के साथ ही, तैत्तिरीय संहिता ४.३.१२.२ का निम्नलिखित कथन भी उल्लेखनीय है :- 'आच्छच्छन्दो मनश्छन्दो व्यचश्छन्द: सिन्धुश्छन्द: समुद्रं छन्द: सलिलं छन्द:') । अवभृथ स्नान सोमयाग के अन्त में उन पापों का नाश करने के लिए किया जाता है जो यज्ञ के पश्चात् भी शेष रह गए हैं । यह ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि ऋग्वेद की ऋचाओं में सिन्धु शब्द प्रभूत रूप में प्रकट होता है ( डा. जी. एन. भट्ट की पुस्तक 'वैदिक निघण्टु' के अनुसार ऋग्वेद में सिन्धु शब्द २०९ बार प्रकट हुआ है ), लेकिन कर्मकाण्ड में सिन्धु का प्रत्यक्ष विनियोग अवभृथ के उपरोक्त उल्लेख के सिवाय विरल ही है । अतः उपरोक्त अकेले विनियोग को भली भांति समझने की आवश्यकता है । अवभृथ कर्म की विस्तृत विधि डा. नारायण दत्त शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक 'अग्निष्टोम यज्ञ पद्धति विमर्श'( अमर ग्रन्थ पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, २००२ ई. ) में देखी जा सकती है । इस विधि के अनुसार सोमयाग के अन्तिम चरण में बहुत से यज्ञ - पात्रों तथा सोम - रहित ऋजीष को एकत्रित करके जल में प्रवाहित किया जाता है और यजमान सहित ऋत्विज गण जल में स्नान करते हैं । जब यज्ञ मण्डप से स्नान हेतु प्रस्थान करते हैं, उस समय निम्नलिखित साम (ग्रामगेयः साम ४६५।३ ) का गान किया जाता है - अहावो अहावो अग्निष्टपति प्रतिदहती । अग्निं होतारम् मन्ये दास्वन्तम् । अहावो अहावो इत्यादि । इसका अर्थ यह हुआ कि अवभृथ स्नान के आरम्भ में अग्नि से शत्रुओं को तपाने और उनका दहन करने की प्रार्थना की गई है । यही प्रतीची सिन्धु का लक्षण है ।
अवभृथ साम के संदर्भ में तैत्तिरीय संहिता के कथन में वाक् के सलिल छन्द होने के तथ्य को आगे समझने की आवश्यकता है । पद्म पुराण १.४०.१४२ में सलिल को अव्यक्तानन्द की स्थिति कहा गया है ( इसके पश्चात् फेन को व्यक्ताहंकार कहा गया है - अव्यक्तानंदसलिलं व्यक्ताहंकारफेनिलम्॥) । ऋग्वेद के नवम मण्डल में सिन्धु शब्द के साथ प्रायः ऊर्मि, ऊर्मा आदि शब्द प्रकट होते हैं( उदाहरण के लिए ऋ. ९.१२.३ (मदच्युत्क्षेति सादने सिन्धोरूर्मा विपश्चित् ।), ९.१४.१ (परि प्रासिष्यदत्कविः सिन्धोरूर्मावधि श्रितः ।), ९.२१.३ (सिन्धोरूर्मा व्यक्षरन् ॥), ९.३९.४(सिन्धोरूर्मा व्यक्षरत् ॥), ९.५०.१ (उत्ते शुष्मास ईरते सिन्धोरूर्मेरिव स्वनः ।), ९.७३.२ (सिन्धोरूर्मावधि वेना अवीविपन् ।), ९.८०.५ (इन्द्रं सोम मादयन्दैव्यं जनं सिन्धोरिवोर्मिः पवमानो अर्षसि ॥) आदि ) । ऋग्वेद ९.९६.७ से संकेत मिलता है कि यह ऊर्मि वाक् हो सकती है (प्रावीविपद्वाच ऊर्मिं न सिन्धुर्गिरः सोमः पवमानो मनीषाः ।)। वाक् के अन्तर्गत अगले - पिछले जन्मों की स्मृति आदि का तथा भक्त की स्तुति आदि का भी समावेश होता है । पद्म पुराण १.४०.१४६ के अनुसार ऊर्मि सलिल सन्ध्य - असन्ध्य है(संध्यासंध्योर्मिसलिलमापूर्णानिलशोभितम्॥) । ऊर्म के द्वारा सलिल सिन्धु से बाहर फेंका जाता है । जो सलिल ऊर्मि के द्वारा सिन्धु से बाहर चला जाता है, वही सोम आदि का रूप ले सकता है, ऐसा प्रतीत होता है ।
अवभृथ प्रक्रिया का निर्देश करने वाले वाक्य का अन्त सुवरुदृचं पर होता है । यहां सुव: शब्द ध्यान देने योग्य है । यह सुव: वही स्व: की स्थिति है जहां सूर्य का दर्शन होता है । यदि अवभृथ स्नान की क्रियाओं पर ध्यान दिया जाए तो अवभृथ स्नान के अन्त में उदयनीय इष्टि होती है । यह विचारणीय है कि यह उदय सूर्य का है या चन्द्रमा का ।
शतपथ ब्राह्मण १०.६.४.१ तथा बृहदारण्यक उपनिषद १.१.१ में अश्व के अवयवों में विराट की उपासना करने के संदर्भ में कहा गया है कि उषा ही मेध्य अश्व का मुख है , - - - - गुदा सिन्धव: हैं इत्यादि । इस कथन को इस प्रकार समझा जा सकता है कि प्राणि मात्र में सामान्य रूप से गुदा का कार्य मल का विसर्जन करना, विसर्ग करना होता है । मेध्य अश्व की गुदा को सिन्धव: का रूप दिया गया है । सिन्धव: सारे चेतन शरीर के मल का विसर्जन किस प्रकार करते हैं, यह विचारणीय है ।
ऋग्वेद ५.७५.२ में हिरण्यवर्तनी सुषुम्ना के सिन्धुवाहसा होने का उल्लेख है(दस्रा हिरण्यवर्तनी सुषुम्ना सिन्धुवाहसा माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥) । ऋग्वेद ८.२६.१८ में सिन्धु के हिरण्यवर्तनी होने का उल्लेख है (उत स्या श्वेतयावरी वाहिष्ठा वां नदीनाम् । सिन्धुर्हिरण्यवर्तनिः ॥) । हिरण्यवर्तनी होने का अर्थ डा. फतहसिंह के अनुसार यह हो सकता है कि जो हिरण्यय कोश में जाकर वहां से शक्ति प्राप्त करके वापस लौट सके । ऋग्वेद १.९७.८ (स नः सिन्धुमिव नावयाति पर्षा स्वस्तये ।
अप नः शोशुचदघम् ॥), १.९९.१ (स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः ॥), १.१८२.५ (युवमेतं चक्रथुः सिन्धुषु प्लवमात्मन्वन्तं पक्षिणं तौग्र्याय कम् ।), ५.४.९ (विश्वानि नो दुर्गहा जातवेदः सिन्धुं न नावा दुरिताति पर्षि ।), ९.७०., ९.७०.१० (नावा न सिन्धुमति पर्षि विद्वाञ्छूरो न युध्यन्नव नो निद स्पः ॥), १०.११६.९ (प्रेन्द्राग्निभ्यां सुवचस्यामियर्मि सिन्धाविव प्रेरयं नावमर्कैः ।), १०.१५५.३ (अदो यद्दारु प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम् । तदा रभस्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम् ॥) में सिन्धु की तुलना एक नौका से की गई है । जिस प्रकार नौका द्वारा सिन्धु को पार किया जाता है, उसी प्रकार किसी नौका से दुरितों को पार किया जाता है । यह नौका किस प्रकार की है, यह बहुत स्पष्ट नहीं है । ऋग्वेद १.१८२.५ में इस नौका/प्लव को आत्मन्वत् पक्षी कहा गया है । ऋग्वेद १०.१५५.४ में इसे दारु कहा गया है । डा. फतहसिंह के अनुसार दारु काष्ठ को कहते हैं जो समाधि का प्रतीक हो सकता है । वैदिक साहित्य में तो अग्निहोत्र, रथन्तर, बृहत् आदि को नौका कहा गया है ।
ऋग्वेद १.१२२.६ (श्रोतु नः श्रोतुरातिः सुश्रोतुः सुक्षेत्रा सिन्धुरद्भिः ॥) तथा ४.३३.७ (सुक्षेत्राकृण्वन्ननयन्त सिन्धून्धन्वातिष्ठन्नोषधीर्निम्नमापः ॥) में सिन्धु के आगमन से धन्व/मरुस्थल के सुक्षेत्र बनने का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ५.५.११.१ में सिन्धोः शिꣳशुमारः उल्लेख है जिसका निहितार्थ अपेक्षित है । ऋग्वेद में बहुत सी ऋचाओं की द्वितीय पंक्ति 'तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्ताम् अदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौ: ' है जिसका निहितार्थ अपेक्षित है ।
ऋग्वेद की कईं ऋचाओं जैसे १.६५.३ (सिन्धुर्न क्षोदः क ईं वराते), १.६६.१० (सिन्धुर्न क्षोदः प्र नीचीरैनोन्), १.९२.१२ (सिन्धुर्न क्षोद उर्विया व्यश्वैत्), २.२५.३ (सिन्धुर्न क्षोदः शिमीवाँ ऋघायतो), ५.५३.७ (ततृदानाः सिन्धवः क्षोदसा रजः ) आदि में सिन्धु के साथ क्षोद शब्द प्रकट होता है । क्षुद धातु चूर्णीकरण के संदर्भ में प्रयुक्त होती है । वैदिक निघण्टु में क्षोद शब्द का वर्गीकरण उदक नामों में किया गया है । वास्तविक अर्थ अन्वेषणीय है ।
पुराणों में सिन्धु/समुद्र से जलंधर असुर की उत्पत्ति की कथा आती है । जलंधर की कथा के संदर्भ में सिन्धु को समझना अपेक्षित है ।
वर्तमान काल में श्री डेनियल सलास द्वारा मोहन जोदरो से प्राप्त सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों में मुद्राओं पर 'अश्वमेध' आदि उत्कीर्ण होने का उल्लेख किया गया है । यह अन्वेषणीय है कि क्या सिन्धु प्रदेश में अश्वमेध याग अधिक प्रचलित था? और यदि यह उस स्थान में प्रचलित था तो यह क्या संकेत देता है ?
Dr. Tomar in his thesis 'Symbolism of Waters in Veda' has propounded that Sindhu at 8th level gives rise to 7 Sindhus at lower levels. Therefore, this Sindhu of 8th level is the mother of other 7. On the other hand, the other 7 Sindhus dissolve in the 8th one. 8th is the crux of other seven. The ninth level is the abode of integral power named Aditi. She bears Sindhu at 8th level. According to the story of Ganesha Puraana, demon Sindhu makes penances and gets the boon that only one whose front part of nail of toe imbibes in itself infinite universes, will be able to kill Sindhu. Later on, goddess Gauri gives birth to Ganesha who imbibes in himself all the 3 gunas - Sat, raj and tama. He is able to kill demon Sindhu. It means that if the Sindhu of 8th level can not be extended into other 7 lower levels, it is demonic. The 7 levels may be symbolic of the three gunas. It is important to know the meaning of the boon given to demon Sindhu. According to Dr. Fatah Singh, toe is symbolic of ethereal body. This ethereal body can be extended at grosser levels.
The above facts can be understood better on the basis of the concept of 'Seven Bodies Seven Chakras' by Rajneesh. According to him, there are 7 levels of our consciousness. Each upper level influences other lower levels. This can be called the seepage. In normal conditions, the quantity of seepage may be very small. It has been stated in sacred texts that only lord Indra can enable free flow.
Puraanic texts mention Sindhu as a river whose direction of flow is west. One veda mantra states that lord Indra is able to divert this flow to north. It is important to understand the concept of directions in vedic literature. According to Dr. Fatah Singh, west is the direction of burning one's sins. North is the direction of bliss. Therefore, it can be said that in normal conditions, Sindhu is connected with burning one's sins. But there is also a possibility that this energy can be diverted towards bliss.
There is a universal statement in vedic mantras that Sindhus proceed towards ocean and merge in it. It has been stated that life forces are Sindhus and mind is ocean. Life forces are controlled by mind/ocean. There is a story of king of Sindhu country whose name is Jayadratha. Jayadratha means who has conquered his chariot. Our self is chariot. One has to conquer it by diverting the sensory powers or life forces inwards. Jayadratha is killed tactically by Arjuna. Jayadratha sees an illusionary sunset and makes his appearance from the hiding. This prompts waiting Arjuna to kill him. Sun means which inspires our senses. In normal course, the sun providing illumination to our senses is illusionary. One has to make efforts to make the real sun visible.
There are very few rituals which provide any clue about the nature of Sindhu. Out of these, one is final bathing after performing a soma yaaga. There it is stated that starting for bath is Sindhu, reaching for bath is Samudra/ocean, taking bath is salila and coming out? is seeing self/sun. Here it has been stated that sindhu represents life forces, ocean mind, salila/water voice/unmanifested bliss. It has also been stated that the final abode of all life forces should be the mind.
There are vedic verses which talk of crossing sindhu with a boat. What type of boat this may be, is not clear.
Daniel S Salas is able to read the inscriptions on the seals available from Mohan - jo - daro. Some of these seals have written on them Ashwamedha. It is to be investigated whether sindhu region has any special significance with respect to purification of horse. In vedic literature, the anus of sacrificial horse is attributed to sindhu. Anus is supposed to throw away the undesirable parts of energy.
Vedic view of Sindhu(by Dr. Tomar)
First published : 16-3-2008( Faalguna shukla dashamee, Vikrama samvat 2064)
संदर्भाः
यस्सप्तरश्मिर्वृषभस्तुविष्मानवासृजत्सर्तवे सप्त सिन्धून्यो रौहिणमस्फुरद्वज्रबाहुर्द्यामारोहन्तं स जनास इन्द्र इति ७ यस्सप्तरश्मिरिति सप्त ह्येत आदित्यस्य रश्मयः वृषभ इति एष ह्येवासां प्रजानामृषभः तुविष्मानिति महीयैवास्यैषा ८ अवासृजत्सर्तवे सप्त सिन्धूनिति सप्त ह्येते सिन्धवः तैरिदं सर्वं सितं तद्यदेतैरिदं सर्वं सितं तस्मात्सिन्धवः जैमि.उ.ब्रा. १.९.२.९