सीता१

First published : 2-10-2007 AD (Bhaadrapada krishna saptami, Vikrami Samvat 2064)

सीता की उत्पत्ति कथा से माध्यम से पवित्रता (पवित्र सोच) की उत्पत्ति का चित्रण

- राधा गुप्ता

वाल्मीकि रामायण (बालकाण्ड, अध्याय 66, श्लोक 13, 14) में सीता की उत्पत्ति से सम्बन्धित एक छोटी सी कथा वर्णित है। कथा इस प्रकार है –

कथा का स्वरूप

एक दिन राजा जनक यज्ञ हेतु भूमि का शोधन करते समय खेत में हल चला रहे थे। तभी हल के अग्रभाग से जोती गई भूमि से एक कन्या प्रकट हुई जिसका नाम सिता से उत्पन्न होने के कारण सीता ही रखा गया।

कथा की प्रतीकात्मकता

1-जनक – जनक शब्द का अर्थ है – जननं करोति इति, अर्थात् जो पवित्रता या पवित्र सोच का जनन (उत्पन्न ) करता है, वह जनक है। तात्पर्य यह है कि जो भी मनुष्य ज्ञान का आश्रय लेकर अपने भीतर पवित्रता अर्थात् पवित्र सोच को जन्म देता है, वही जनक है।

2-यज्ञ – अध्यात्म के स्तर पर आत्मिक उत्थान हेतु किए जाने वाले कर्म को ही यज्ञ कहा जाता है।

3- भूमि और उसका शोधन – अध्यात्म के स्तर पर मनुष्य के शरीर (स्थूल – सूक्ष्म तथा कारण) को ही भूमि कहा जाता है। चूंकि यह शरीर अनेकानेक विकारों से युक्त है, अतः इसे शुद्ध करना आवश्यक है।

4 – खेत (क्षेत्र) – मन और बुद्धि को ही क्षेत्र कहा जा सकता है क्योंकि इसी क्षेत्र में ज्ञान की संधारणा सम्भव है। ज्ञान को धारण करके पहले मन और बुद्धि पवित्र बनते हैं और फिर पवित्र मन – बुद्धि स्थूल तथा कारण शरीर को भी पवित्र बना देते हैं।

5- हल – हल शब्द ज्ञान को इंगित करता है। जैसे ऊसर खेत में हल को चलाने से खेत उर्वर हो जाता है और उस उर्वर खेत में डाला गया श्रेष्ठ बीज अवश्य अंकुरित होता है, उसी प्रकार ज्ञान का हल भी ऊसर बने हुए मन – बुद्धि रूपी खेत को उर्वर बना देता है और फिर उस उर्वर बने हुए मन – बुद्धि के खेत में जो भी श्रेष्ठ विचार रूपी बीज डाला जाता है, वह अवश्य अंकुरित होकर पुष्पित एवं पल्लवित होता है।

6 – सीता – जैसे हल द्वारा खेत में बनाई गई पवित्र (उपजाऊ) रेखा को सिता कहा जाता है, उसी प्रकार ज्ञान रूपी हल के द्वारा मन और बुद्धि रूप खेत में निर्मित हुई पवित्रता को यहाँ सीता कहा गया है। तात्पर्य यह है कि सीता नामक पात्र पवित्र मन – बुद्धि अर्थात् पवित्र सोच का ही मानवीकृत स्वरूप है।

कथा का अभिप्राय

प्रस्तुत कथा के माध्यम से यह महत्त्वपूर्ण संकेत किया गया है कि पवित्र मन – बुद्धि अर्थात् पवित्र सोच (सीता ) की प्राप्ति के लिए अपने ही मन – बुद्धि रूपी क्षेत्र (खेत) में ज्ञान रूपी हल को चलाना आवश्यक है। जैसे खेत में हल चलाकर व्यर्थ उगी हुई घास तथा कंकड – पत्थर आदि के अलग हो जाने से किसी भी मनुष्य को बीज बोने योग्य शुद्ध सिता (हल द्वारा निर्मित रेखा) की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार मन – बुद्धि के क्षेत्र में ज्ञान रूपी हल को चलाकर अहंकार आदि तथा कामक्रोधादि विकारों के बाहर निकल जाने से मनुष्य को शुद्ध – पवित्र सोच की प्राप्ति अवश्य होती है, जिसे कथा में जनक द्वारा सीता को प्राप्त करना कहा गया है।

प्रस्तुत कथा आश्वस्त करती है कि यदि कोई मनुष्य आत्मिक उत्थान हेतु दृढ संकल्पित होकर अपनी ही सामान्य सोच में ज्ञान की संधारणा करता है, तब वह निश्चित रूप से पवित्र सोच को प्राप्त करता है।

प्रथम लेखन – 1-6-2014ई. (ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी, विक्रम संवत् 2071)

Origin of Sita means origin of Purity

- Radha Gupta

There is a brief story in Ramayana (Baala Kanda, 66.13-14) related with the origin of Sita. It is said that once king Janak was ploughing his field for yagna. While ploughing, a girl appeared from Sita(a line made from the plough)> Kind saw her, picked her up and named her Sita as she had appeared from sita.

The story describes that a person collects many wrong beliefs in the long journey of birth and death. These wrong beliefs strongly affect his thinking and consequently his thinking becomes impure.

Now knowledge is the only way with which purity or pure thinking can be achieved again. The story says that knowledge is just like a plough. As ploughing first makes a field free from weeds and then sita ( a place for sowing) appears, in the same way, a person imbibing knowledge first makes his mind free from all vices and then purity emerges symbolized as Sita.

The story indicates that a person determined for development of self, when willingly adopts knowledge, then knowledge compulsorily brings him purity which is symbolized as getting Sita by king Janaka.

सीता के अग्नि- प्रवेश के माध्यम से ज्ञान द्वारा पवित्र- सोच के परिष्कार का चित्रण

- राधा गुप्ता

वाल्मीकि रामायण के अन्तर्गत युद्धकाण्ड ( सर्ग 112-118) में सीता के चिता- प्रवेश की जो कथा वर्णित है, उसका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है-

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

रावण का वध करके राम जब युद्धकर्म से निवृत्त हो गए, तब लंका के राज्य पर विभीषण का अभिषेक करवाकर उन्होंने हनुमान को आज्ञा दी कि वे सीता के समीप पहुंचकर उनसे रावण के वध का समस्त समाचार निवेदित करें। तदनुसार हनुमान ने सीता के समीप पहुंचकर राम का संदेश उन्हें सुनाया और वापस लौटकर राम से मिलने की सीता की इच्छा को भी राम के समक्ष निवेदित किया। अब राम ने विभीषण को आज्ञा दी कि वे सीता को ले आएं। अतः विभीषण राम की इच्छा के अनुसार सीता को दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित करके, शिविका में बैठाकर राम के समीप ले आए। राम के आदेश से सीता शिविका से उतरकर पैदल चलकर राम के समक्ष उपस्थित हुई और राम के मुख-चन्द्र का दर्शन करके अत्यन्त प्रसन्न हुई। राम ने सीता के समक्ष रावण के वध से प्राप्त हुई अपनी सन्तुष्टता को व्यक्त किया परन्तु रावण के घर में रहने के कारण सीता के चरित्र पर संदेह करते हुए उन्हें ग्रहण करने से इन्कार कर दिया।

राम के वचनों से स्तब्ध और दुःखी सीता ने अब अग्नि में प्रवेश का निश्चय करके लक्ष्मण से प्रार्थना की कि वे उसके लिये चिता तैयार कर दें। राम के संकेत से अनुमोदन पाकर लक्ष्मण ने चिता तैयार कर दी और निष्कलंक सीता अग्निदेव से रक्षा की प्रार्थना करते हुए अग्नि में प्रविष्ट हो गई। चारों ओर विद्यमान राक्षस और वानर यह सब देखकर भयंकर हाहाकार करने लगे तथा राम भी इस हाहाकार को सुनकर दुःखी हुए और दो घडी तक कुछ सोचते रहे। इसी बीच मूर्तिमान अग्निदेव सीता को गोद में लेकर चिता से ऊपर उठे और सीता की पवित्रता को प्रमाणित करते हुए उन्होंने सीता को राम को समर्पित कर दिया। अग्निदेव द्वारा सीता की निष्पापता को सुनकर राम प्रसन्न हुए और कहा कि सीता अत्यन्त पवित्र हैं परन्तु तीनों लोकों के प्राणियों के मन में सीता की निष्पापता का विश्वास दिलाने के लिये ही उन्होंने ऐसा किया है।

कथा की प्रतीकात्मकता

कथा पूर्णरूपेण प्रतीकात्मक है और कथा में आए हुए सभी पात्र रामकथा के पूर्व- परिचित पात्र ही हैं। फिर भी कथा के मर्म को समझने के लिये पात्रों का पुनरावलोकन आवश्यक है।

1--- रावण-

रावण नामक पात्र चित्त ( अवचेतन मन) के भीतर संस्कार रूप में विद्यमान हुए देहाभिमान को इंगित करता है। देहाभिमान का अर्थ है- अपनी सही पहचान ( आत्मस्वरूपता) को भूल जाने के कारण गलत पहचान ( देह तथा देह से सम्बन्ध रखने वाली अपनी भूमिकाओं, पदों तथा छवियों को ही अपना वास्तविक स्वरूप समझ लेना) को ही अपनी सही पहचान मानकर उससे सघन रूप से जुड जाना।

2--- राम-

राम नामक पात्र नूतन उदित हुए आत्मज्ञान को अर्थात् अपनी सही पहचान- आत्मस्वरूपता में स्थिति ( मैं देह नहीं हूं, अपितु देह को चलाने वाला अजर, अमर, अविनाशी चैतन्यशक्ति आत्मा हूं) को इंगित करता है। अपनी इस सही पहचान में स्थित होकर मनुष्य एक दिन अपने ही चित्त के भीतर संस्कार रूप में विद्यमान हुए देहाभिमान रूप रावण को अवश्य विनष्ट करता है।

3--- सीता-

आत्मज्ञान में स्थित हुए मनुष्य (राम) की शक्तिस्वरूपा पवित्र- सोच को ही रामकथा में सीता नामक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जन्मों- जन्मों की यात्रा में चित्त के भीतर संस्कार रूप (बीज रूप) में विद्यमान हुए अपने ही देहाभिमान के कारण यह अपनी ही पवित्र- सोच (सीता) बन्धन में पडती है और आत्मज्ञान में स्थित होकर देहाभिमान का विनाश हो जाने पर यही पवित्र- सोच (सीता) एक दिन मुक्त भी हो जाती है। अतः पवित्र- सोच (सीता) के बन्धन का अर्थ है- जीवन-व्यवहार से पवित्र- सोच (सीता) का लुप्त हो जाना और पवित्र-सोच (सीता) की मुक्तता का अर्थ है- जीवन- व्यवहार में पवित्र- सोच (सीता) का पुनः उपस्थित हो जाना।

4--- हनुमान और विभीषण की सहायता से राम का सीता से पुनर्मिलन और दर्शन-

रामकथा में हनुमान नामक पात्र को प्रज्ञा के प्रतीक रूप में तथा विभीषण नामक पात्र को सात्विकता के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया है। राम और सीता के पुनर्मिलन में हनुमान और विभीषण के सहायक होने के रूप में इस तथ्य की ओर संकेत किया गया प्रतीत होता है कि आत्मज्ञान में स्थित हुआ मनुष्य (राम) अपनी इन्हीं दोनों शक्तियों ( प्रज्ञा अर्थात् हनुमान एवं सात्विकता अर्थात् विभीषण) की सहायता से ही देहाभिमान रूप रावण द्वारा हरण की गई अपनी पवित्र- सोच ( सीता) से पुनः मिलता और उसके दर्शन करता है। प्रज्ञाशक्ति (हनुमान) और सात्विकशक्ति (विभीषण) के अभाव में मनुष्य अपनी पवित्र सोच से मिल नहीं सकता।

5--- राम के आदेश से सीता का शिविका से उतरकर पैदल ही चलकर राम के समक्ष उपस्थित होना-

प्रस्तुत कथन आध्यात्मिक साधना की आरोहण (ऊर्ध्व गति) और अवरोहण (प्रसारण या फैलाव) नामक स्थितियों की ओर संकेत करता प्रतीत होता है। सीता का शिविका में चढना पवित्र- सोच की आरोहण स्थिति (ऊर्ध्व गति) को तथा सीता का शिविका से उतरना पवित्र- सोच की अवरोहण स्थिति (प्रसारण या फैलाव) को इंगित करता है। यहां इस महत्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत किया गया है कि देहाभिमान (रावण) का विनाश हो जाने पर आत्मज्ञानी मनुष्य (राम) की पवित्र- सोच (सीता) का केवल सोच के स्तर तक सीमित रहना उचित नहीं है। अब उसका वचन और कर्म के बाह्य स्तरों पर प्रकट अथवा अवतरित हो जाना भी अनिवार्य है।

6--- सीता के आदेश से लक्ष्मण द्वारा चिता का निर्माण और चिता की अग्नि में सीता का प्रवेश-

चिता शब्द यहां चित्ति शब्द का ही प्रच्छन्न स्वरूप प्रतीत होता है। चित्ति का अर्थ है- ज्ञान। वेद (तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3.10.4.2, सायण भाष्य) में कहा गया है – चित्तिः ज्ञानम् अचित्तिः अज्ञानम्। ज्ञान को भी अग्नि कहा गया है और यह एक ऐसी अग्नि है जो न केवल कलुषता का विनाश करती है अपितु पवित्र को भी पवित्रतम बना देती है।

7--- तीनों लोकों के प्राणियों के मन में सीता की निष्पापता का विश्वास दिलाने के लिये सीता का अग्नि- प्रवेश-

तीन लोक यहां मन, वचन तथा कर्म रूप तीन स्तरों को संकेतित करते प्रतीत होते हैं। मन (सोच) की पवित्रता ही वचन तथा कर्म को भी निस्सन्देह रूप से पवित्र बना देती है और तीनों स्तरों पर विद्यमान हुई अपनी इस पवित्रता के कारण आत्मज्ञान में स्थित हुआ मनुष्य सज्जन अथवा दुर्जन सभी के लिये अत्यन्त विश्वसनीय हो जाता है।

कथा का अभिप्राय

यह तथ्य सर्वविदित है कि प्रबल देहाभिमान की स्थिति में मनुष्य के जीवन- व्यवहार से उसकी अपनी पवित्र सोच लुप्त हो जाती है और पवित्र सोच के लुप्त होने तथा अपवित्र सोच के उदित हो जाने से अब उसके वचन तथा कर्म में भी अपवित्रता ही प्रविष्ट हो जाती है।

प्रबल देहाभिमान का अर्थ है- अपने वास्तविक स्वरूप – आत्मस्वरूप की पूर्णतः विस्मृति हो जाने के कारण मनुष्य का इस मिथ्या ज्ञान में स्थित हो जाना और आसक्त भी हो जाना कि वह एक शरीर है। मिथ्या ज्ञान में स्थिति और आसक्ति ही धीरे- धीरे संस्कार रूप धारण कर लेती है और कोई भी मिथ्या ज्ञान जब संस्कार रूप होकर चित्त ( गहरे मन) के भीतर चला जाता है, तब उसे वहां से निकालना अथवा विनष्ट करना सरल नहीं होता ठीक उसी प्रकार जैसे किसी मजबूत जडों वाले वृक्ष को मूलतः विनष्ट करना सरल नहीं होता।

भारतीय मनीषा यह संकेत करती है कि देहाभिमान में रहते हुए ही मनुष्य सतत रूप से सद्गुणों का अर्जन करता रहे। सद्गुणों का यह अर्जन निस्सन्देह रूप से देहाभिमान को तो विनष्ट नहीं कर सकता, परन्तु एक न एक दिन मनुष्य को उसके अपने वास्तविक स्वरूप – आत्मस्वरूप को पहचानने और जानने (आत्मज्ञान) की ओर निश्चित रूप से अग्रसर कर देता है और फिर आत्मज्ञान की ओर अग्रसर हुआ मनुष्य (राम) अनेकानेक प्रकार से ज्ञान में स्थित होता हुआ एक न एक दिन निस्सन्देह रूप से चित्त के भीतर संस्कार रूप में विद्यमान हुए प्रबल देहाभिमान (रावण) को भी विनष्ट कर देता है, जिसे रामकथा में राम द्वारा रावण के विनाश के रूप में चित्रित किया गया है।

रामकथा संकेत करती है कि आत्मज्ञान में स्थित हुआ प्रत्येक मनुष्य (राम) पवित्र- सोच (सीता) से सहज रूप से संयुक्त होता है। परन्तु अपने ही चित्त में संस्कार रूप में विद्यमान हुए देहाभिमान के कारण यह पवित्र- सोच ही एक दिन जीवन-व्यवहार से लुप्त हो जाती अथवा छिप जाती है और देहाभिमान का विनाश होने पर यह पवित्र- सोच ही पुनः प्रकट भी हो जाती है, जिसे रामकथा में रावण (देहाभिमान) द्वारा सीता (पवित्र-सोच) के बन्धन और रावण (देहाभिमान) के विनाश से सीता (पवित्र-सोच) की मुक्ति के रूप में चित्रित किया गया है।

प्रस्तुत कथा यह महत्वपूर्ण संकेत करती है कि आत्मज्ञान में स्थित हुआ मनुष्य (राम) अब इस देहाभिमान (रावण) के बन्धन से मुक्त हुई अपनी पवित्र- सोच (सीता) को पाकर भी सन्तुष्ट नहीं हो पाता और यह चाहता है कि उसकी अपनी पवित्र- सोच (सीता) एक बार ज्ञान की अग्नि (चिता की अग्नि) में तप जाए। क्योंकि ज्ञान की अग्नि में तपकर बाहर आई हुई वही पवित्र- सोच पवित्रतम होकर जब वचन तथा कर्म में प्रकट होगी, तब सभी के लिये अत्यन्त विश्वसनीय हो जाएगी।

व्यवहार में यह देखा भी जाता है कि मन, वचन तथा कर्म रूप सभी स्तरों पर विद्यमान हुई पवित्रता के कारण ही कोई मनुष्य सज्जन अथवा दुर्जन सभी के लिये अत्यन्त विश्वास योग्य होता है और उसके प्रति किसी के भी मन में किसी भी प्रकार के सन्देह का लेशमात्र भी नहीं होता।

प्रथम लेखन – १५-३-२०१६ई.(फाल्गुन शुक्ल सप्तमी, विक्रम संवत् २०७२)

Embellishment of Pure - Thinking (by Knowledge) as depicted by entering of Sita in Fire

- Radha Gupta

In Valmiki Ramayan (Yuddhakand, chapters 112-118), there is a story of Sita, entering the fire and coming out of that fire. It is said that after killing Ravana, Rama ordered Hanuman to go to Sita and inform her about killing of Ravana by Rama. Accordingly, Hanuman approached Sita, conveyed to her Rama’s message, came back, and also conveyed to Rama that Sita wishes to see him soon. Now Rama requested Vibheeshana to bring Sita, hence Vibheeshana brought her in a carriage. Sita, adorned with divine clothes and ornaments, approached Rama in the carriage but got down from that carriage as per Rama’s wish . Rama, in front of Sita expressed his satisfaction in killing of Ravana but refused to accept her expressing his doubt about her character. Hearing this, Sita became very sad and numb and requested Lakshmana to prepare a fire for her. Lakshmana , getting permission through gestures of Rama, prepared fire , in which Sita entered. Sita prayed Agni-Dev (Deity of fire) to protect her if she is pure. Agni-Dev emerged out of the fire soon taking Sita in His lap and thus declared that Sita is pure . Now Rama accepted Sita and said that Sita was already pure but he wanted to establish Purity amongst three lokas.

The story is symbolic and depicts Embellishment of Pure - Thinking by Knowledge. In Ramayan, it is said that when a person forgets his Real Identity in the long journey of births and deaths , Ego is created. This Ego becomes a Sanskar (a deep impression) and lies in sub-consious mind. Ego simply means- an Attachment to a Wrong Image about Himself and in Ramayan, Ravana represents this Ego.

It is also said in Ramayan that when a person knows his Real Self, he gets possessed with Pure - Thinking but the Sanskar of Ego emerges from his sub-conscious mind and steels away his Purity ( Pure - Thinking) symbolized as steeling (kidnapping) of Sita by Ravana.

Now the story specially points out that this Purity (Pure – Thinking i.e.Sita) stolen by Ego (Ravana) remains intact. This Purity only gets engulfed by Ego and other impurities emerging from Ego. As soon as Ego is effaced , all those impurities also get effaced and Purity (Pure –Thinking i.e.Sita) becomes free.

The present story depicts that although Purity (Pure – Thinking i.e.Sita becomes free from the clutches of Ego but a Self- Knowledged Person is not satisfied completely. He strongly wishes its embellishment by Knowledge because Knowledge is such fire that adorns this Purity. Such adorned Purity (Sita) becomes trustworthy on all levels- Thoughts, Words and Deeds (the three lokas) and no flash of doubt remains.

सीता का वैदिक स्वरूप

- विपिन कुमार

टिप्पणी : रामायण की सीता का मूल ऋग्वेद ४.५७.४-८ ऋचाएं हैं जो निम्नलिखित हैं –

शुनं वाहा शुनं नरः शुनं कृषतु लाङ्गलम् । शुनं वरत्रा बध्यन्तां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय।। ४

शुनासीराविमां वाचं जुषेथां यद् दिवि चक्रथुः पयः । तेनेमामुप सिञ्चतम् ।। ५

अर्वाची सुभगे भव सीते वन्दामहे त्वा । यथा नः सुभगाससि यथा नः सुफलाससि ।।६

इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु तां पूषानु यच्छतु । सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् ।।७

शुनं नः फाला वि कृषन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अभि यन्तु वाहैः ।

शुनं पर्जन्यो मधुना पयोभिः शुनासीरा शुनमस्मासु धत्तम् ।। ८

इन ऋचाओं की पुनरुक्ति थोडे - बहुत फेरबदल से अन्य संहिताओं जैसे शौनकीय अथर्ववेद ३.१७, पैप्पलाद संहिता २.२२, ६.१५, १२.६, माध्यन्दिन वाजसनेयि संहिता १२.७० आदि में भी हुई है । यह सूक्त क्षेत्र के कर्षण से सम्बन्धित है । इसमें प्रार्थना की गई है कि जो वाह हैं, बैल हैं, कृषक हैं, हल का फाल है, वह सब सुख(शुनं) देने वाले हों । फिर अगली ऋचा में शुनं के बदले शुनासीरौ शब्द प्रकट हुआ है । उन दोनों, शुनः और सीर से प्रार्थना की गई है कि वह दोनों इस वाक् का द्युलोक में उत्पन्न पयः से सिंचन करें । इससे अगली ऋचा में कामना की गई है कि हे सीता हम तेरी वन्दना करते हैं, तू हमारे लिए अर्वाची हो(पराची - दूर जाने वाली, अर्वाची - निकट आने वाली, नीचे उतरने वाली), हमारे लिए सुभगा हो ( भग - भाग्य, अच्छे भाग्य को प्रकाश में लाने वाली ), सुफला हो। इससे अगली ऋचा में प्रार्थना की गई है कि इन्द्र सीता को ग्रहण करे और पूषा उसको पुनः प्रदान करने वाला बने । वह हमारे लिए उत्तर – उत्तर काल में पयः प्रदान करने वाली हो । इससे अगली ऋचा में कामना की गई है हमारे लिए फाल सुखपूर्वक भूमि का कर्षण करने वाले हों, जो किसान हैं, वह वाहों के साथ सुखपूर्वक जाएं, पर्जन्य मधु व पयः द्वारा हमारे लिए सुख देने वाला हो और शुनासीर हमारे लिए सुख प्रदान करें ।

इस सूक्त में सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द शुनः और सीर हैं । सायणाचार्य ने तैत्तिरीय आरण्यक ६.६.२ आदि की व्याख्या करते समय इन दो शब्दों की व्याख्या के लिए यास्काचार्य को उद्धृत किया है ( यास्क निरुक्त ९.४०) जिनके अनुसार शुनं का अर्थ वायु और सीर का अर्थ आदित्य है। जब क्षेत्र कर्षण के संदर्भ में इन शब्दों के अर्थों पर विचार करते हैं तो वायु(प्राण – अपान आदि ) के सीमित आयतन को प्राण कहा जा सकता है । अपनी देह के कर्षण का एक माध्यम प्राण है, दूसरा माध्यम मन हो सकता है आदि । हमारी क्षुधा आदि हमारी देह का कर्षण करती हैं । विपश्यना ध्यान करने वाले यह ध्यान देते हैं कि क्षुधा की यह अग्नि देह का किस प्रकार कर्षण कर रही है, क्या यह अग्नि सारे शरीर को व्याप्त कर रही है या केवल जठर तक ही सीमित है । वेद की ऋचा का कहना कि यह कर्षण सुख उत्पन्न करने वाला होना चाहिए । क्षुधा से प्राणों में व्याकुलता नहीं होनी चाहिए । जब यह स्थिति आ जाए, उसके पश्चात् शुनासीरौ की स्थिति आती है । इसके पश्चात् ही सीता के बारे में सोचा जा सकता है । रामायण में इस शुनं स्थिति की कल्पना लगता है कि विदेह जनक के रूप में की गई है । विदेह शब्द में शुनं का समावेश कर लिया गया है । सूक्त का दूसरा महत्त्वपूर्ण शब्द सीर है जिसका यास्क ने अर्थ आदित्य किया है । यह आदित्य रामायण के राम का, सूर्यवंशी राम का बोधक हो सकता है । होता यह है कि अपनी देह का कर्षण करने से तेज उत्पन्न होता है । यह तेज विकसित होते – होते आदित्य का रूप ले सकता है । ऋग्वेद की ऋचा से ऐसा संकेत मिलता है कि वहां वाक् को सीता का पूर्वरूप कहा गया है जिसके लिए कहा गया है कि शुनासीर इस वाक् का पयः द्वारा सिंचन करें ।

शुनासीरौ शब्दों को और अधिक समझने के लिए चातुर्मास यज्ञ की क्रियाविधि समझना उपयोगी होगा । चातुर्मास याग के चार भाग होते हैं जिन्हें क्रमशः वैश्वदेव, वरुण प्रघास, साकमेध और शुनासीर कहा जाता है । शुनासीर शब्द की निरुक्ति में कहा गया है कि वृत्र पर विजय प्राप्त करते समय जो इन्द्र का इन्द्रिय वीर्य था(), वह शुनं है और उसके पश्चात् संवत्सर पर विजय प्राप्त करने पर जो पयः या श्री देवों को प्राप्त हुई, वह सीर है(यद्वा इन्द्रस्य वृत्रं जघ्नुष इन्द्रियं वीर्यमासीत् तच्छुनम् । यत्संवत्सरस्य प्रजितस्य पयस्तत् सीरम् (जैमिनीय ब्राह्मण २.२३४)। इससे मिलता – जुलता कथन शतपथ ब्राह्मण २.६.३.२ में भी प्राप्त होता है । यह कहा जा सकता है कि शुनं शब्द भद्र का वाचक है जहां सभी दुःख शान्त हो जाते हैं और सीर आनन्द का वाचक है जहां आनन्द अचेतन मन से निकल कर व्यक्त होने लगता है ( द्र. – भद्र शब्द पर टिप्पणी) । रामपूर्वतापिन्युपनिषद ४.६ का कथन है कि “जानकीदेहभूषाय रक्षोघ्नाय शुभाङि्गने । भद्राय रघुवीराय दशास्यन्तकरूपिणे ।“ यहां राम को भद्र और जानकी सीता को शुभ कहा गया है । शुभ श्री का पर्यायवाचक है । रामरहस्योपनिषद २.९५ का कथन है कि “सीता भगवती प्रोक्ता श्री बीजं नतिशक्तिकम् ।“

ऋग्वेद ४.५७.७ में इन्द्र द्वारा सीता के ग्रहण की कामना की गई है । पैप्पलाद संहिता २.२२.५ से संकेत मिलता है कि इन्द्र जिस सीता का ग्रहण करता है, वह गौ रूप है । विष्णुधर्मोत्तर पुराण में सीता नदी का वाहन जीवजीवक व अजा होने का उल्लेख है । अतः यह कहा जा सकता है कि जिस सीता का गौ रूप में विकास हो रहा है, उसका पूर्व रूप अज है । जैसा कि छान्दोग्य उपनिषद के आधार पर अन्यत्र टिप्प्णयों में कहा जा चुका है, अज अवस्था सूर्योदय से पूर्व की अवस्था, ताप की अवस्था है, अवि सूर्योदय के समय की तथा गौ मध्याह्न काल की, पूर्ण सूर्य की अवस्था है । गौ अवस्था को इस प्रकार समझ सकते हैं कि यह सूर्य की ऊर्जा को अपने अन्दर सुरक्षित रखने में सबसे अधिक सक्षम है ।

सीता हल के फाल द्वारा भूमि में बनाई गई नाली को कहते हैं । इसमें बीज का वपन किया जाता है । शतपथ ब्राह्मण ७.२.२.५ में इस सीता को एक योनि का नाम दिया गया है । यह योनि बीज की रक्षा करती है, उसको प्रस्फुटित होने के लिए पोषक तत्त्व प्रदान करती है । सीता किस बीज का प्रस्फुटन करती है ? पैप्पलाद संहिता ६.१५.३ व १२.६.११ के अनुसार सीता भग को, हमारे पिछले कर्म रूपी बीजों को प्रस्फुटित करती है ( पौराणिक साहित्य में भग देवता को अन्धा करने का उल्लेख आता है ) ।

तैत्तिरीय संहिता ५.२.५.४-५ में अग्निचयन, आहवनीय खर आदि की स्थापना के संदर्भ में यज्ञ भूमि में १२ सीताएं बनाने का निर्देश है जिन्हें संवत्सर के १२ मासों का प्रतीक कहा गया है । प्रत्येक दिशा में तीन सीताएं बनाई जाती हैं जो मिलकर १२ हो जाती हैं । पैप्पलाद संहिता १६.५४.२ का कथन है कि दिशाएं पार्श्वों का प्रतीक हैं और सीताएं पर्शुओं या पसलियों का । शतपथ ब्राह्मण में १६ सीताएं बनाने का निर्देश है जिनमें से चार का निर्माण यजुओं के वाचन सहित होता है और १२ का तूष्णीं होता है । डा. फतहसिंह का कथन है कि वेद में दिव्यता तभी उत्पन्न होती है जब कोई शब्द बहुवचन से एकवचन का रूप ग्रहण करता है । जहां संहिताओं में सीता के अर्वाची बनने की कामना की गई है, वहीं तैत्तिरीय आरण्यक ६.६.२ में ६ पराची सीता बनाने का भी निर्देश मिलता है । पराची से क्या तात्पर्य है, इसकी एक व्याख्या उषा शब्द की टिप्पणी में की गई है । जो उषा एक दिन जैसी उदित हुई थी, यदि वैसी ही वह अगले दिन उदित न हो तो वह पराची कहलाती है । पराची का अर्थ होगा कि वह संवत्सर चक्र से बंधी हुई नहीं है । यह उल्लेखनीय है कि वैदिक साहित्य में वर्णित इन सभी सीताओं का निर्माण तिर्यक् रूप में, पृथिवी के अनुदिश किया जाता है । लेकिन रामायण की सीता ऊर्ध्वमुखी है ।

तैत्तिरीय ब्राह्मण २.३.१०.१ में उल्लेख है कि सीता सावित्री को सोम राजा की कामना है जबकि सोम राजा की कामना श्रद्धा को प्राप्त करने की है । उपाय हेतु सीता सावित्री प्रजापति के पास गई । प्रजापति ने उसे स्थागर अलंकार दिया और विभिन्न दिशाओं में चतुर्होता, षड्होता आदि प्रदान किए (प्राची दिशा में १० होता, दक्षिण दिशा में ४ होता, पश्चिम दिशा में पंच होता, उत्तर दिशा में षड् होता और ऊर्ध्व दिशा में सप्त होता )। तब सोम ने सीता की कामना की और सीता सावित्री को तीन वेद दिए । इससे पूर्व तैत्तिरीय ब्राह्मण २.३.३, तैत्तिरीय आरण्यक ३.११.४ आदि में बताया गया है कि दश होता, चतुर्होता, पंच होता आदि क्या होते हैं । कहा गया है कि गवामयन नामक संवत्सर यज्ञ में दश होता होते हैं । इसमें प्रजापति गृहपति बनता है, तप का आह्वान किया जाता है और तप द्वारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व का शोधन किया जाता है । दर्शपूर्णमास इष्टि चार होताओं द्वारा सम्पन्न होती है । सोम गृहपति बनता है, अग्नि, वायु, आदित्य व चन्द्रमा का आह्वान किया जाता है और ओषधियों की प्राप्ति की जाती है । चातुर्मास याग में पांच होता होते हैं, अग्नि गृहपति बनता है, असुरों को भगाकर उनके पशुओं पर आधिपत्य प्राप्त किया जाता है, पशुओं का आह्वान किया जाता है, लोम, त्वक्, मांस, अस्थि व मज्जा का शोधन किया जाता है । पशुबन्ध याग में छह होता होते हैं, धाता गृहपति बनता है, ऋतुओँ का आह्वान व कल्पन किया जाता है, स्तन, अण्ड, शिश्न तथा अवाङ् प्राणों का शोधन किया जाता है । सोमयाग में ७ होता होते हैं, अर्यमा गृहपति बनता है, सुवः की तथा इन लोकों की प्राप्ति की जाती है, सात शीर्ष प्राणों का शोधन किया जाता है, उनमें सूर्य की प्रतिष्ठा की जाती है । महाभारत आश्वमेधिक पर्व २१ में इन होताओं का वर्णन भिन्न प्रकार से किया गया है जो प्रत्यक्ष में सर्वथा भिन्न प्रतीत होते हुए भी तैत्तिरीय ब्राह्मण के कथनों की व्याख्या प्रतीत होता है । महाभारत के अनुसार दश होताओं वाले गवामयन यज्ञ में दस होता पांच ज्ञानेन्द्रियां व पांच कर्मेन्द्रियां हैं जो अपने – अपने विषयों को विभिन्न अग्नियों में आहूत करती हैं । इसी अध्याय में मन और वाक् की श्रेष्ठता की स्पर्द्धा का वर्णन है और निष्कर्ष निकाला गया है कि स्थावर होने पर मन श्रेष्ठ है और जंगम होने पर वाक् । चतुर्होता के रूप में करण, कर्म, कर्त्ता और मोक्ष का वर्णन है । करण या कारण, कर्म व कर्त्ता गुणों से युक्त हैं जबकि मोक्ष गुणरहित है । पंचहोताओं के रूप में प्राण, अपान आदि पांच वायुओं का वर्णन है । सप्त होताओं के रूप में घ्राण, जिह्वा आदि ५ ज्ञानेन्द्रियों के सहित मन व बुद्धि का वर्णन है । इस वर्णन से ऐसा लगता है कि रामायण में सीता के वाल्मीकि आश्रम में निवास करने का जो वर्णन है, उसका मूल रूप तैत्तिरीय ब्राह्मण का यह कथन है । वाल्मीकि का अर्थ है जो वर्म से, सुरक्षा कवच से युक्त है । विभिन्न यज्ञों द्वारा वर्म के निर्माण से अच्छा और कौन सा कवच हो सकता है । सीता के वाल्मीकि के आश्रम में निवास करते समय राम द्वारा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्टान किया जाता है । अश्वमेध यज्ञ में अश्व को, हमारी सारी बहिर्मुखी वृत्तियों को मेध्य बनाया जाता है । अश्वमेध को सोमयाग की पराकाष्ठा कहा जाता है । अतः जब तैत्तिरीय ब्राह्मण में सीता सावित्री द्वारा सोम को प्राप्त करने की कामना का उल्लेख आता है, तो यह संकेत हो सकता है कि अश्वमेध याग द्वारा सूर्य रूपी राम चन्द्रमा की पराकाष्ठा को पहुंचने का प्रयत्न कर रहे हैं । यह उल्लेखनीय है कि भौतिक विश्व में सूर्य का स्थान चन्द्रमा से ऊपर होता है, लेकिन आध्यात्मिक जगत में चन्द्रमा को सूर्य से ऊपर स्थापित करना होता है ( मन को चन्द्रमा का पूर्व रूप कहा जाता है )। यह उल्लेखनीय है कि वैदिक साहित्य में सावित्री के दो रूप प्रतीत होते हैं – एक सूर्य से सम्बद्ध रूप गायत्री मन्त्र रूप( तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् – गोपथ ब्राह्मण १.१.३४) और दूसरा चन्द्रमा से सम्बन्धित सीता सावित्री रूप ।

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, गवामयन सत्र में १० होता होते हैं जो विभिन्न विषयों का आह्वान करते हैं । महाभारत में इन होताओं को श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, जिह्वा, नासिका, चरण, कर, उपस्थ व पायु कहा गया है । यह १०( पांच ज्ञानेन्द्रियां, ५ कर्मेन्द्रियां) अपनी – अपनी अग्नियों में विषयों को आहूत करते हैं । यह विचारणीय है कि जब रामायण में दशमुख रावण का उल्लेख आता है तो उससे तात्पर्य क्या इन्हीं दश होताओं से है ? यदि ऐसा है तो अन्य यागों का मूल भी रामायण की कथा में खोजना होगा ।

रामोत्तरतापिन्युपनिषद २.३ में सीता को मूल प्रकृति कहा गया है और प्रकृति को प्रणवरूप कहा गया है – अर्धमात्रात्मको रामो ब्रह्मानन्दैकविग्रहः । श्रीरामसान्निध्यवशाज्जगदानन्ददायिनी । उत्पत्ति स्थिति संहारकारिणी सर्वदेहिनाम् । सा सीता भवति ज्ञेया मूलप्रकृति संज्ञिता । प्रणवत्वात्प्रकृतिरिति वदन्ति ब्रह्मवादिनः । रामपूर्वतापिन्युपनिषद ३.६ का कथन है कि प्रकृति के सहित होने पर परमात्मा का वर्ण श्याम हो जाता है – प्रकृत्या सहितः श्यामः पीतवासा जटाधरः । सीता को राम के वाम पार्श्व में विराजमान कहा जाता है – ( “सीतालङ्कृतवामाङ्ग लक्ष्मणेनोपसेवितम् – रामरहस्योपनिषद २.४६) और लक्ष्मण दक्षिण पार्श्व में रहते हैं ( दक्षिणे लक्ष्मणेनाथ सधनुष्पाणिना पुनः – रामपूर्वतापिन्युपनिषद ३.९)। वह मूल प्रकृति किन गुणों से युक्त हो सकती है जो परम परमात्मा के निकट आसीन होने में समर्थ हो । इसका उत्तर तारकोपनिषद २.१ व ३.७ से मिलता है जहां ओंकार की आठ कलाओं का वर्णन किया गया है । प्रथम कला अ ब्रह्मा या जाम्बवान् का प्रतीक है, दूसरी कला उ हरिनायक उपेन्द्र का, तीसरी कला म शिव रूप हनुमान का, चौथी कला बिन्दु सुदर्शन चक्र के अवतार शत्रुघ्न का, पांचवीं कला नाद शंख के अवतार भरत का, छठीं कला ‘कला’ शेषनाग के अवतार लक्ष्मण का, सातवीं कला कलातीता सीता का और आठवीं ‘पर’ कला स्वयं परमात्मा का सूचक है ( चन्द्रमा की १६वीं कला को कलातीता कहा जाता है जो वृद्धि – ह्रास से परे है ) । शतपथ ब्राह्मण १०.४.१.१९ में सोमयाग के १६ ऋत्विजों को १६ कलाएं कहा गया है । १६ कलाओं के रूप में लोम, त्वक्, असृक्, स्नायु, मांस, अस्थि और मज्जा के १६ अक्षरों को गिनाया गया है . ऐसा प्रतीत होता है कि तैत्तिरीय ब्राह्मण के संदर्भ में जो सीता के परितः १० होता, चतुर्होता आदि का न्यास किया जाता है, वह कलारहित सीता के परितः मण्डल के रूप में कलाओं की प्रतिष्ठा करना है । तैत्तिरीय आरण्यक १०.१.२ के अनुसार विद्युत पुरुष से निमेष, कला, मुहूर्त, काष्ठा आदि काल के अवयवों का जन्म होता है । जब सीता को कलातीत कहा जाता है, तो उसका क्या निहितार्थ हो सकता है, यह अन्वेषणीय है ।

पारस्कर गृह्य सूत्र २.१७ में सीता यज्ञ का वर्णन दिया गया है जिसका अनुष्ठान आवसथ्य अग्नि पर किया जाता है । इसकी कुछ पंक्तियां निम्नलिखित हैं –

- - - संपत्तिर्भूतिर्भूमिर्वृष्टिर्ज्यैष्ठ्य श्रैष्ठ्य श्रीः प्रजामिहावतु स्वाहा । यस्याभावे वैदिकलौकिकानां भूतिर्भवति कर्मणाम् । इन्द्रपत्नीमुपह्वये सीतां सा मे त्वन्नपायिनी भूयात्कर्मणि कर्मणि स्वाहा । अश्वावती गोमती सूनृतावती बिभर्ति या प्राणभृतो अतन्द्रिता । खलमालिनीमुर्वरामस्मिन्कर्मण्युपह्वये ध्रुवां सा मे त्वनपायिनी भूयात्स्वाहा । स्थालीपाकस्य जुहोति सीतायै यजायै शमायै भूत्या इति । - - - - स्तरणशेषषु( कुशेषु/कूर्चेषु) सीतागोप्तृभ्यो बलिं हरति पुरस्ताद्ये त आसते सुधन्वानो निषङ्गिणः । ते त्वा पुरस्ताद्गोपायन्तवप्रमत्ता अनपायिनो नम एषां करोम्यहं बलिमेभ्यो हरामीममिति । अथ दक्षिणतोऽनिमिषा वर्मिण आसते । ते त्वा दक्षिणतो गोपायन्त्वप्रमत्ता अनपायिनो नम एषां करोम्यहं बलिमेभ्यो हरामीममिति । अथ पश्चात् आभुवः प्रभुवो भूतिर्भूमिः पार्ष्णिः शुनङ्कुरिः। ते त्वा पश्चाद्गोपयन्त्वप्रमत्ता अनपायिनो नम एषां करोम्यहं बलिमेभ्यो हरामीममिति । अथोत्तरतो भीमा वायुसमा जवे । ते त्वोत्तरतः क्षेत्रे खले गृहे अध्वनि गोपायन्त्वप्रमत्ता अनपायिनो नम एषां करोम्यहं बलिमेभ्यो हरामीममिति । - - -

इस प्रकार सीतायज्ञ में चार दिशाओं में सीता की रक्षा करने वालों को बलि दी जाती है . पूर्व दिशा के रक्षक धनुष व तरकस लेकर रक्षा करते हैं, दक्षिण दिशा के रक्षक अनिमिष रहकर वर्म द्वारा सीता की रक्षा करते हैं, पश्चिम दिशा के रक्षकों को आभुवः, प्रभुवः, भूति, भूमि, पार्ष्णि, शुनङ्कुरि या शुनङ्करि कहा गया है । उत्तर दिशा को रक्षकों को भीम कहा गया है जिनकी गति वायु के समान है । इन कथनों का रहस्य समझने के लिए यह आवश्यक है कि धनुष, तरकस, वर्म आदि शब्दों का निहितार्थ ज्ञात हो । उदाहरण के लिए, देवीभागवत पुराण ७.३६.६, मुण्डकोपनिषद २.२.४ आदि में प्रणव को धनुष और शर को आत्मा कहा गया है । धनुष में दण्ड के शीर्षों पर एक डोरी बांधी जाती है जिसे ज्या या गुण कहते हैं । इसका निहितार्थ यह हो सकता है कि दण्ड अवस्था निर्गुण अवस्था है जबकि ज्या गुण वाली अवस्था । दोनों के मिलने से तीर को चलाने की, क्रिया की क्षमता उपलब्ध होती है । शिव पुराण २.५.८.२६ में त्रिपुर नाश के संदर्भ में शिव के धनुष का कथन है । उस धनुष में शैलेन्द्र कार्मुक या धनुष बना तथा भुजगाधिपति या शेषनाग ज्या बना । जैसा कि ऊपर प्रणव की ८ कलाओं के संदर्भ में कहा जा चुका है, शेषनाग या लक्ष्मण प्रणव की छठीं अवस्था कला है जबकि सीता सातवीं कलातीत अवस्था है । शिव पुराण २.५.८.२६ में श्रुतिरूपिणी देवी को धनुष कहा गया है । यह धनुष की सात्त्विक अवस्था हो सकती है । धनुष के अन्य महत्त्वपूर्ण उल्लेखों में पद्म पुराण २.५५.२ में धर्म को चाप और ज्ञान को बाण कहा गया है । भागवत पुराण ७.१०.६६ में त्रिपुर नाश हेतु शिव के धनुष में तप के धनुष और क्रिया के बाण होने का उल्लेख है । धनुष के साथ निषङ्ग या तूण या तरकस का भी उल्लेख है । कथासरित्सागर ८.३.७६ में देह को ही तूण बनाने का उल्लेख है जिसमें सारे तीर समा जाते हैं । सीता के संदर्भ में धनुष को समझना इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि रामायण में धनुष की प्रधानता है । वर्म या कवच का अर्थ पौराणिक साहित्य में यह होता है कि अपनी पूरी देह पर , सभी अङ्गों पर देवों को प्रतिष्ठित कर दिया जाए । फिर रक्षा का कार्य देवगण करते हैं । भागवत पुराण ७.१०.६६ में विद्या को वर्म कहा गया है जबकि ज्ञान शिव के रथ का सारथी है ।

सीता को सार्वत्रिक रूप से मूल प्रकृति भी कहा गया है । मूल प्रकृति का क्या अर्थ है, यह डा. लक्ष्मीनारायण धूत द्वारा वृन्दा पर की गई टिप्पणी से समझ सकते हैं । सामान्य प्रकृति का कालक्रम से विकास बहुत धीरे – धीरे होता है । प्रकृति एक कदम आगे चलती है तो दो कदम पीछे । उसकी हालत एक शराबी जैसी है जो लडखडाते कदमों से अपने घर की ओर आगे बढ रहा है । अपने घर तो वह पहुंच जाएगा, लेकिन बहुत देर से । दूसरी ओर ऐसी प्रकृति है जिसमें लक्ष्य विद्यमान है । यह त्वरित गति का मार्ग है । इसे ही मूल प्रकृति कह सकते हैं । सामान्य प्रकृति की घटनाएं चांस से, द्यूत से घटती हैं जबकि मूल प्रकृति को इस चांस से रहित होना चाहिए ।

सीता शब्द की निरुक्ति के संदर्भ में, पाणिनीय उणादि कोश दुर्गवृत्ति ५.२९ में सीता शब्द की निरुक्ति षिञ् धातु के आधार पर की गई है । यह धातु बन्धे अर्थ में है जिसका प्रयोग मुख्य रूप से सिनोति, बध्नाति के रूप में होता है । सेतु शब्द भी इसी धातु से बना है । इस धातु के साथ यदि ह्रस्व इ का प्रयोग करते हैं तो सिंह शब्द बनता है जो हिंसक अर्थ में होता है । यदि दीर्घ इ का प्रयोग करते हैं तो सीता शब्द बनता है । सीता द्वारा व्यावहारिक जीवन में बन्धन कहां – कहां हो रहा है, यह अन्वेषणीय है . पुराणों का कथन है कि चित्रकूट पर देवी का नाम सीता होता है . इसका अर्थ यह हो सकता है कि चित्त - कूट, चित्त की सर्वोच्च स्थिति में ही सीता देवी का रूप धारण कर सकती है । श्री जे.ए.गोवान ने अपनी वेबसाईटों में इस तथ्य का विस्तृत रूप से विवेचन किया है कि पृथिवी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति विश्व के सृजन में अपना योगदान किस प्रकार दे रही है । उनके अनुसार सूर्य की किरणें इस ब्रह्माण्ड में निरन्तर फैल रही हैं, प्रकाश की गति से, जिसके कारण ब्रह्माण्ड का, दिक् का विस्तार हो रहा है . जड पदार्थ की गुरुत्वाकर्षण शक्ति सूर्य की किरणों को अपनी ओर खींचती है जिससे किरणें उतनी तेजी से नहीं फैल पाती । अतः ब्रह्माण्ड का विस्तार उतनी तेज गति से नहीं हो पाता । अध्यात्म में इस तथ्य की एक व्याख्या इस प्रकार हो सकती है कि हमारी देह हमारी पृथिवी है । भौतिक पृथिवी में तो गुरुत्वाकर्षण स्वाभाविक रूप से विद्यमान है लेकिन अपनी पृथिवी में सीता रूपी गुरुत्वाकर्षण उत्पन्न करना है(श्रीमती राधा के अनुसार प्राणियों में अहंकार गुरुत्वाकर्षण का रूप है ) । तब यह सीता ब्रह्माण्ड की ऊर्जा का कर्षण करेगी । मनुष्य की सबसे बडी आवश्यकता ब्रह्माण्ड की ऊर्जा को आत्मसात् करने की है । उसी ऊर्जा को आत्मसात् करने के लिए हम भोजन करते हैं । लेकिन मनुष्य की तृप्ति भोजन के पश्चात् भी नहीं हो पाती । सीता द्वारा ऊर्जा को आत्मसात् करना और भोजन द्वारा ऊर्जा को प्राप्त करना, इन दोनों में अंतर है । भोजन की प्रक्रिया क्रिया के अन्तर्गत आती है । भोजन की प्राप्ति के लिए क्रिया आवश्यक है । दूसरी ओर, सीता के माध्यम से केवल इच्छा मात्र से भोजन की प्राप्ति होनी चाहिए । यदि ऐसा नहीं है तो इसका अर्थ है कि सीता तक, कलातीत अवस्था तक हमारी पहुंच नहीं है . अतः कलाओं द्वारा भोजन प्राप्ति पर विचार करना होगा जिसके लिए कला शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है . सीता की चेष्टा ऊर्जा को संवत्सर का रूप देने की, सूर्य, चन्द्रमा व पृथिवी के परस्पर भ्रमण चक्र में सम्मिलित करने की है ।

कला और कलातीत अवस्था की एक व्याख्या भविष्य पुराण १.१४४.१२ में सकल और निष्कल सूर्य के संदर्भ में प्राप्त होती है । कहा गया है कि जो सूर्य ब्रह्माण्ड के विभिन्न पदार्थों से आदान करता है, वह सकल आदित्य या सूर्य है और जो सूर्य आदान नहीं करता, केवल वृष्टि, घर्म आदि के रूप में प्रदान करता है, वह निष्कल सूर्य है । आदित्य का अर्थ ही आदान करने वाला होता है । वैदिक साहित्य में कहा गया है कि वह अपनी किरणों के माध्यम से ब्रह्माण्ड से आदान करता है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२६ व ३.३५८ में वर्णन आता है कि किस वस्तु से सूर्य क्या ग्रहण करता है । उदाहरण के लिए, सूर्य ने द्युलोक से वश(डा. फतहसिंह के शब्दों में – वक्ष, अंग्रेजी का वैक्सिंग – वेनिंग) का ग्रहण किया, नक्षत्रों से क्षत्र का, अन्तरिक्ष से आत्मा का, वायु से रूप का, मनुष्यों से आज्ञा का, पशुओं से चक्षण का आदि आदि । सामान्य रूप से ऐसा कहा जा सकता है कि जब तक हमारी ज्ञानेन्द्रियां ब्रह्माण्ड से विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं का ग्रहण कर रही हैं, तब तक वह कलायुक्त अवस्था में हैं । जब सूर्य, पृथिवी व चन्द्रमा के मिलने से संवत्सर का निर्माण होता है, उसमें एक दूसरे से ऊर्जाओं का आदान – प्रदान होता है । लेकिन भविष्य पुराण का कथन है कि निष्कल अवस्था में आदान समाप्त हो जाता है, केवल प्रदान ही रह जाता है . सीता के संदर्भ में यह कथन महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सीता से सम्बन्धित सारे वैदिक साहित्य में सीता के परितः होताओं की, आहूत करने वालों की, कलायुक्त स्थितियों की प्रतिष्ठा की गई है । और भविष्य पुराण का यह कथन पुराणों में छाया सीता को समझने में भी उपयोगी हो सकता है कि क्या आहूत करने वाली ‘कला’ अवस्था को छाया सीता कह सकते हैं ? स्कन्द पुराण ५.१.६.४-७ का कथन है कि तपस्वी सकल देव का दर्शन करते हैं जबकि ज्ञानी निष्कल देव का –

त्रिविधो दर्शनोपायस्तस्य देवस्य सर्वदा । श्रद्धा ज्ञानेन तपसा योगेनैव निगद्यते । सकलं निष्कलं चापि देवाः पश्यन्ति योगिनः । तपस्विनस्तु सकलं ज्ञानिनो निष्कलं परम् । समुत्पन्नेपि विज्ञाने मन्दश्रद्धो न पश्यति । भक्त्या परमयोपेताः परं पश्यन्ति योगिनः । द्रष्टव्यो निर्विकारोऽसौ प्रधानपुरुषेश्वरः ।।

मुण्डकोपनिषद ३.१.८ द्वारा भी इस कथन की पुष्टि होती है – ज्ञान प्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं व्यायमानः । यह उल्लेखनीय है कि प्रणव की ‘कला’ को धारण करने वाले लक्ष्मण तपोरत रहते हैं ।

अथ यत्रैतल्लाङ्गले ससृजतः पुरोडाशं श्रपयित्वा । अरण्यसार्धमभिव्रज्य । प्राचीं सीतां स्थापयित्वा । सीताया मध्ये प्राञ्चमिध्ममुपसमाधाय परिसमुह्य पर्युक्ष्य परिस्तीर्य बर्हिः शम्याः परिधीन्कृत्वा । अथ जुहोति । वित्तिरसि पुष्टिरसि श्रीरसि प्राजापत्यानां तां त्वाहं पुष्टिकामो जुहोमि स्वाहा । कुमुद्वती पुष्करिणी सीता सर्वाङ्गशोभनी । कृषिः सहस्रप्रकारा प्रत्यष्टा श्रीरियं मयि । उर्वी त्वाहुर्मनुष्याः श्रियं त्वा मनसो विदुः । आशये अन्नस्य नो धेह्यनमीवस्य शुष्मिणः । पर्जन्यपत्नि हरिण्यभिजितास्यभि नो वद । कालनेत्रे हविषो नो जुषस्व तृप्तिं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे । याभिर्देवा असुरानकल्पयन्यातून्मनून्गन्धर्वान्राक्षसाश्च । ताभिर्नो अद्य सुमना उपा गहि सहस्रापोषं सुभगे रराणा ।। हिरण्यस्रक्पुष्करिणी श्यामा सर्वाङ्गशोभनी । कृषिर्हिरण्यप्रकारा प्रत्यष्टा श्रीरियं मयि । अश्विभ्यां देवि सह संविदाना इन्द्रेण राधेन सह पुष्ट्या न आ गहि । विशस्त्वा रासन्तां प्रदिशोऽनु सर्वा अहोरात्रार्धमासमासा आर्तवा ऋतुभिः सह ।भर्त्री देवानामुत मर्त्यानां भर्त्री प्रजानामुत मानुषाणाम् । हस्तिभिरितरासैः क्षेत्रसारथिभिः सह । हिरण्यैरश्वैरा गोभिः प्रत्यष्टा श्रीरियं मयि । अत्र शुनासीराण्यनुयोजयेत् । वरमनड्वाहमिति समानम् । - कौशिक सूत्र १०६

प्रथम प्रकाशन 2-10.2007ई.(भाद्रपद कृष्ण सप्तमी, विक्रम संवत् 2064)

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The origin of Seetaa/Sita of Raamaayana is found in a hymn of Rigveda and other samhita texts. This hymn is related to drawing of plough in the field. It is desirable that all this work by a farmer should generate pleasure. The first requirement is that the farmer and his implements should generate pleasure and then the two combined should be able to attract rain from the heaven for the benefit of this earth/voice. It is stated that let lord Indra accept this Seetaa and lord Pooshaa again be the mediator to impart her. In spirituaility, the job of drawing of plough is done by one’s breath/praana, mind/manas etc. And this job can be done best when one is hungry. One can easily experience how painful is the experience of bearing hunger. But the hymn says that the pain should not generate uneasiness of life forces, the praanas. The pain of hunger can transform in a sort of pleasure only when hunger gets spreaded throughout the body, instead of remaining confined to the stomach. After that comes the stage of a dog/tranquility and plough combined. Then only one can think of Sita/Seetaa.In Raamaayana, it seems that this state of tranquility has been symbolized by king Janaka, who is called Videha, devoid of body. The other important word of the hymn is plough and Yaaska has taken it to mean sun. This sun may be symbolic of Raama of Raamaayana. The fact is that during ploughing of field, ploughing of our own body, a luster is developed which may ultimately take the form of a sun. The verse of Rigveda indicates that Vaak/inner voice is the initial form of Seetaa, for which it has been said that let Shunaaseera irrigate this Vaak with milk.

In order to further understand the words tranquility and plough, one has to understand the procedure of sacrifice of 4 months duration. This sacrifice has 4 parts. The last part is called Shunaaseera. This word has been interpreted in the way that the wealth obtained by gods by conquering demon Vritra is called Shunam, while the wealth obtained by gods after conquering the year is called plough/seera. This indicates that Shunam indicates the state where all sorrows get subdued and plough is symbolic of pleasure, where the pleasure starts manifesting itself from the unconscious mind. One upanishada uses adjective Bhadra for Raama and Shubha for Seetaa. Here Shubha is synonym with Shree.

One verse of Rigveda states the craving of Indra to receive Seetaa. Paippalaada Samhitaa indicates that the Seetaa which Indra receives is a form of cow. Vishnudharmottara puraana states the carrier of Seetaa as a goat. Hence, it can be said that Seetaa which is developing in the form of a cow, it’s earlier form is a goat. As has been stated in comments elsewhere on the basis of Chhaandogya upanishada, goat is the state before sunrise, sheep at sunrise, cow at mid day and horse in afternoon.

Literally, Seetaa is the name of a line on earth drawn by a plough. Seed is sown in this. Shatapatha Bhaahmana names this line as a womb. This womb protects the seed, provides it with all the nutrients so that it may sprout. Which one is this seed? According to Paippalaada Samhita, this is the seed of our past deeds. In puraanic literature, one is supposed to make god Bhaga blind.

Taittireeya Samhita directs for formation of 12 Seetaas in sacrificial groung which have been called symbolic of 12 months of an year. 3 Seetaas are formed in every direction. Paippalaada Samhitaa states that directions are symbolic of our sides and Seetaas of our ribs. Shatapatha Braahmana directs for formation of 16 Seetaas, out of which 12 are formed without recitation of any mantra, while 4 are formed with recitation of mantras. Dr. Fatah Singh states that in Vedas, a word becomes divine only when it gets converted from plural form into singular form.

There is statement of Seeta which is downwards, which comes near to us. At the same time, there is reference of a Seetaa which is sliding away. It is noteworthy that all these Seetaas of vedic literature are formed horizontally, while the Seetaa of Raamaayana is vertical.

One text T.B. states that Seetaa Saavitree craves for king Soma, while king Soma has a craving for Shraddhaa. Seetaa goes to Prajaapati for solution. Prajaapati provided her different invokers in different directions. In east, he provided 10 invokers, in south 4, in west 5, in north 6 and in upper 7. Then only Soma developed craving for Seetaa and provided her three vedas. It has been told in T.B. who are these different invokers. The text states that Gavaamayana sacrifice is performed by 10 invokers. Penance is invoked which purifies whole personality. Full and new moon sacrifice is performed by 4 invokers and herbs are the achievements. Four – month sacrifice is performed by 5 invokers, demons are driven away, control is established over their animals and hair, skin, flesh, bone, bonemarrow are purified. Controller of animal sacrifice involves 6 invokers, seasons are invoked and lower life forces like breast, testicles etc. are purified. Soma sacrifice involves 7 invokers and 7 higher life forces are purified, sun is established in these. Mahaabhaarata explains these invokers in an apparently different way, but which actually seems to be an explanation of the above statement of T.B. With reference to sacrifice of 10 invokers, these invokers have been defined as 5 sense organs and 5 action organs, which invoke their individual objects. At the same time, this chapter involves a quarrel between mind and speech and it has been concluded that a still mind is superior, while a moving speech is superior. Regarding sacrifice of 4 invokers, reason, action, actor and moksha have been described. Reason, action and actor are attached with qualities, while moksha is free from quality. With reference to sacrifice of 5 invokers, 5 types of airs have been mentioned. With reference to sacrifice of 7 invokers, 5 sensory organs along with mind and intellect have been mentioned. It seems tbat the description of Vaalmeeki Raamaayana describing stay of Seetaa at his hermitage, this statement of T.B. is the origin for that. Vaalmeeki means one who is equipped with armour. What can be a better armour than an armour of sacrifices? While Seetaa stays at the hermitage of Vaalmeeki, Raama performs a horse sacrifice. A horse sacrifice involves purifying all our outer tendencies. Horse sacrifice has been given the highest place among soma sacrifices. Hence, performance of horse sacrifice by Raama may mean that he is trying to approach the moon state from sun state. In outer world, sun is situated above moon, but in spirituality, moon can be either below or above the sun. Hence, Saavitree has two forms in vedic literature – One, saavitri associated with sun ( Tat savitur vrineemahe etc. ) and the other associated with moon( Seetaa Saavitri of the present context).

As has been stated above, there is a sacrifice in east which involves 10 invokers. Mahaabhaarata explains these invokers in normal life as ears, skin, eyes, tounge etc. These senses invoke different objects within themselves. It is to be investigated whether the 10 – faces of demon Raavana also mean these 10 sense organs. If it is so, then one will be compelled to investigate the origin of other sacrifices in this story.

There is another word meaning of Seetaa base on the root shinj – to bind. It is worth thinking what can be bound by earth/Seetaa? According to J.A.Gowan, the universe or space is expanding at the rate of speed of light. The magnetic field of matter like earth attracts this expanding space or in other words, contracts the space. How can this phenomenon can be utilized in spirituality, is yet to be investigated. One possibility is that Seetaa binds with sun, so that it may become a part of the cycle of sun, moon and earth.

There is a sacrifice called Seetaa yaaga. This sacrifice invokes different protectors of Seetaa in different directions. In east, the protectors bear a bow and quiver. In south, they bear an armour. In west, ----. In north, they are frightening, bearing high speed. It will be necessary to understand the qualities of the protectors in order to understand Seetaa. A bow has two parts – staff and a cord. The other name for cord is quality, traits. If the cord is traits, then the staff should be devoid of traits. The combination of the two creates a state where action can take place in the form of launching of an arrow. The importance of the fact of traits and without traits can be understood from the fact that Seetaa has been stated to be the original nature which sits beside lord Raama and is free from all traits. What is the quality of original nature? It can be understood by the explanation for Vrindaa by Prof. L.N. Dhoot. According to him, the progress in nature is very slow. The reason is - flickering on ultimate goal, lack of ultimate goal. This can be compared with a drunken man who has a very hazy goal of reaching his house. He takes one step forward and two steps backwards. The other trait of normal nature is that every event in this world takes place as a chance phenomenon. The original nature will be devoid of all these defects. It is also important that all traits have been incorporated into Shesha Naaga. He also becomes the cord/guna of the bow of lord Shiva. The importance of bow in puraanic literature in context of Seetaa is well known.

Seetaa has been stated to be free from phase. What is meant by phase in vedic literature, can be understood from a puraanic context which states that a sun with phase invokes energy from the universe, while a sun free from phase provides energy to the universe. All the vedic contexts of Seetaa refer to installing Seetaa inside a periphery of phases. It seems that there can be two forms of Seetaa – one which is free from phase and the other with phase. It has been stated in sacred texts that those involved in penances are able to visualize only that God associated with phases, while those involved in knowledge are able to visualize God free from phases. The puraanic story of Seetaa mentions stealing by Raavana of an image Seetaa only.

See also:

First published : 2-10-2007 AD (Bhaadrapada krishna saptami, Vikrami Samvat 2064)