सलिल

सलिल

राज्ञःअभिषेकादिकर्मकाण्डे ब्रह्माण्डतः अपसः संभरणं करणीयं भवति (द्र. आरुणकेतुकचयनम्) । अयमापः स्वेषां एवं अन्येषां पुण्यानां संभरणमस्ति। सांकेतिकरूपेणैव जलरूपस्य महाभूतस्य संभरणं क्रियते। पुण्यानां विशोधनान्तरं द्विप्रकारस्य गतिः संभवमस्ति – सुपर्णप्रकारस्य एवं सर्पप्रकारस्य।

टिप्पणी : ब्राह्मण ग्रन्थों का एक सार्वत्रिक कथन है कि 'आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत्' अर्थात् यह जो आपः है, यह पहले सलिल था(तैत्तिरीय संहिता ५.६.४.२ , ५.७.५.३, ७.१.५.१, शतपथ ब्राह्मण ११.१.६.१, तैत्तिरीय आरण्यक १.२३.१, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.३.५, २.२.९.३, २.८.९.४, जैमिनीय ब्राह्मण १.२३७, २.३१८, ३.३६०, ३.३८०) । इस सलिल से एक हिरण्मय अण्ड का आविर्भाव होता कहा गया है । सलि/शल धातु गति के अर्थ में है और ल प्रत्यय की कल्पना गति का, अव्यवस्था का लालन करने के रूप में, उसका नियन्त्रण करने के रूप में की जा सकती है ।

प्रश्न यह उठता है कि ५ महाभूतों में क्या सलिल से तात्पर्य जल नामक महाभूत से लिया जा सकता है ? भागवत ११.३.१३ के आधार पर ऐसा ही कहा जा सकता है । कहा गया है कि जब वायु पृथिवी की गन्ध का हरण कर लेती है, तो पृथिवी महाभूत सलिल महाभूत में रूपान्तरित हो जाता है । जब सलिल के रस का आहरण हो जाता है तो सलिल महाभूत ज्योति में रूपान्तरित हो जाता है । जब तम: के कारण ज्योति/अग्नि से रूप का आहरण हो जाता है तो ज्योति वायु महाभूत में रूपान्तरित हो जाती है । जब अवकाश द्वारा वायु के स्पर्श गुण का आहरण हो जाता है तो वायु नभ महाभूत में लीन हो जाती है । कालात्मा द्वारा नभ के गुण(शब्द) का आहरण होने पर नभ आत्मा में लीन हो जाता है । इन्द्रिय, मन, बुद्धि अन्य वैकारिकों के सहित अपने गुणों द्वारा अहंकार में प्रवेश कर जाती हैं । अहंकार आत्मा में लीन हो जाता है । इस कथन की व्याख्या में टीकाकार द्वारा कहा गया है कि आकाश का लय तामस अहंकार में, इन्द्रियों और बुद्धि का राजस अहंकार में तथा मन का सात्त्विक अहंकार में लय होता है । अहंकार अपने तीन प्रकार के कार्यों के साथ महत्तत्त्व में, महत्तत्त्व प्रकृति में और प्रकृति ब्रह्म में लीन होती है ( यह टीका में अतिरिक्त जोडा गया है ) । यह भगवान् की माया है । इस क्रम से प्रलय होती है । इससे उलटी स्थिति सृष्टि की होगी । डा. फतहसिंह इस कथन की सरल रूप में व्याख्या किया करते थे । उनके अनुसार जैन सम्प्रदाय में चींटी आदि एकसंज्ञी जीव कहे जाते हैं जिनमें केवल गन्ध का संज्ञान करने की क्षमता होती है । फिर दो संज्ञी, फिर तीन संज्ञी, इस प्रकार पांच संज्ञाओं वाले जीव होते हैं । डा. फतहसिंह के अनुसार यहां एकसंज्ञा, दो संज्ञा से तात्पर्य समाधि से क्रमिक व्युत्थान के रूप में लिया जाना चाहिए । जब एक साधक समाधि से व्युत्थान की स्थिति में आता है, तो उसे आरम्भ में केवल आकाश महाभूत का ज्ञान शब्द के माध्यम से होता है । फिर उसे क्रमिक रूप से वायु का स्पर्श, जल का रस, पृथिवी की गन्ध के अनुभव होने लगते हैं ।

पुराणों के कथनानुसार सलिल से पहले पुष्करपर्ण दृष्टिगोचर होता है जिसको देखकर ब्रह्मा अनुमान लगाता है कि इस पुष्करपर्ण का कोई आधार होना चाहिए और सलिल में भूमि छिपी हुई है जिसका उद्धार वह वराह रूप धारण करके करता है । यास्क निरुक्त ५.४ में वराह की निरुक्ति वरं वरं मूलं आहरति, अर्थात् जो कुछ श्रेष्ठ है, उसका आहरण करने वाले के रूप में की गई है । तैत्तिरीय संहिता ५.७.५.३ के अनुसार प्रजापति ने सलिल में प्रथम चिति के रूप में पृथिवी के दर्शन किए । उसके पश्चात् अन्य देवों ने अन्तरिक्ष, द्युलोक, दिशाओं के रूप में अन्य चितियों का निर्माण किया ।

जहां एक ओर डा. फतहसिंह समाधि की अवस्था को सलिल का, अव्यक्त आनन्द का रूप देते हैं, वहीं भौतिक जगत में इसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से भी की जा सकती है । विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं में यह माना जाता है कि कोई चेतना का समुद्र है जिससे निकल कर चेतनाएं विभिन्न प्राणियों के रूप में जन्म लेती हैं और फिर मृत्यु - पश्चात् इसी चेतना समुद्र में विलीन हो जाती हैं । इस चेतना समुद्र को भी अव्यक्त आनन्द वाले सलिल की अवस्था कहा जा सकता है । इस चेतना समुद्र की चेतना अव्यवस्थित स्थिति में कही जा सकती है जिसके जल में कोई व्यवस्था नहीं है । जब किसी प्राकृतिक कारण से कहीं थोडी - बहुत व्यवस्था उत्पन्न हो जाती है तो वह विभिन्न प्राणियों के रूप में जन्म ले लेती है, व्यक्त हो जाती है । यदि प्रयत्न किया जाए तो इस चेतना समुद्र की चेतना को एक व्यवस्थित रूप दिया जा सकता है । उस व्यवस्थित चेतना को ही वैदिक साहित्य की सृष्टि कहा जा सकता है । इन सब कथनों को समझना पद्म पुराण १.४०.१४२ के इस कथन से सरल हो जाता है कि अव्यक्तानन्द सलिल है और उसमें व्यक्त अहंकार फेन है । ग्रह - नक्षत्र बुद्-बुद रूप हैं ।

पुराणों में यज्ञवराह द्वारा सलिल से पृथिवी के उद्धार तथा ब्रह्मा व मार्कण्डेय द्वारा एकार्णव सलिल में अश्वत्थ या न्यग्रोध वृक्ष के नीचे बालमुकुन्द के दर्शन तथा उसके उदर में प्रवेश करके सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के दर्शन के वर्णन आते हैं । इस कथा का मूल शतपथ ब्राह्मण ३.६.२ में कद्रू - सुपर्णी आख्यान में प्राप्त होता है । इस आख्यान के अनुसार सोम द्युलोक में ही था । देवों ने उस सोम की प्राप्ति के लिए सुपर्णी और कद्रू मायाओं की रचना की । वाक् सुपर्णी है जबकि यह(पृथिवी) कद्रू है । इन दोनों ने दूर देखा । सुपर्णी ने कहा - इस सलिल के पार एक श्वेत अश्व स्थाणु/खूंटे से बंधा है । कद्रू ने कहा - उस अश्व के वाल चितकबरे हैं । उसे वात हिलाती है । कहा गया है कि सलिल वेदी का रूप हो सकता है, श्वेत अश्व अग्नि हो सकता है और यज्ञ का यूप स्थाणु हो सकता है । जो कद्रू ने कहा कि उसके वाल चितकबरे हैं, वह यूप से बंधी रशना/रस्सी हो सकता है ( वह रशना जो यूप से अश्व को सम्बद्ध करती है ) । वाजसनेयि शुक्ल यजुर्वेद संहिता १३.४२, शतपथ ब्राह्मण ७.५.२.१८, तैत्तिरीय संहिता ४.२.१०.१ आदि में निम्नलिखित यजु का उल्लेख है -

वातस्य जूतिं वरुणस्य नाभिमश्वं जज्ञानं सरिरस्य मध्ये । शिशुं नदीनां हरिमद्रिबुध्नमग्ने मा हिंसी: परमे व्योमन् ।।

इस यजु के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि कद्रू - सुपर्णी आख्यान का अश्व और इस यजु का अश्व दोनों परस्पर सम्बन्धित हैं । जहां सुपर्णी आख्यान में अश्व को सलिल के पार कहा गया है, वहीं यजु में सरिर के मध्य कहा गया है । इससे आगे शिशु का उल्लेख है । यह अन्वेषणीय है कि पुराणों में एकार्णव में न्यग्रोध वृक्ष के नीचे स्थित बाल मुकुन्द और उपरोक्त वैदिक कथन में कितना साम्य है । क्या यह शिशु वही है जिसको अन्यत्र कुमार कहा गया है ?

यह आश्चर्यजनक है कि यद्यपि सलिल शब्द केवल जल महाभूत का ही प्रतिनिधित्व करता है, फिर भी पुराणों में ब्रह्मा द्वारा सारी सृष्टि सलिल से ही होती है । ब्रह्माण्ड पुराण तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.३.५ के वर्णन के अनुसार पहले सलिल में एक हिरण्यमय अण्ड का प्रादुर्भाव हुआ । वह अण्ड सलिल में अनन्त समय तक तैरता रहा । फिर संवत्सर का निर्माण होने पर, संवत्सर के निर्माण के लिए जिन परिस्थितियों की आवश्यकता है, उनकी पूर्ति होने पर उस अण्ड में से ब्रह्मा का प्रादुर्भाव हुआ । ब्रह्मा उत्पन्न होने पर सलिल का निरीक्षण करता है और अपने को निराधार पाता है । फिर उसे सलिल से ऊपर उठा हुआ एक पुष्कर पर्ण दिखाई पडता है । वह विचार करता है कि सलिल में इस पुष्कर पर्ण का कोई आधार भी अवश्य होना चाहिए । वह यज्ञवराह का रूप धारण करके सलिल में प्रवेश करता है । सलिल में प्रवेश करने पर उसे भूमि दिखाई पडती है जिसका वह उद्धार करता है । इसके पश्चात् ब्रह्मा द्वारा सलिल से सृष्टि का वर्णन आता है । ब्रह्मा द्वारा तीन प्राकृत और पांच वैकारिक सृष्टियां की जाती हैं । इन आठ के पश्चात् नवम सर्ग कौमार सर्ग कहलाता है । कुमार सर्ग की व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थों के आधार पर की जा सकती है । इस लोक में कुमार का जन्म एक संवत्सर अर्थात् ९ मास में माना जाता है । जैसा कि अन्यत्र टिप्पणियों में भी कहा जा चुका है, संवत्सर तथा उसके अहोरात्र आदि अवयवों का निर्माण पृथिवी, सूर्य और चन्द्रमा के योग से होता है । यह तीन एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं, इसलिए दिन - रात, मास आदि घटित होते हैं । अध्यात्म में इन्हें वाक्, प्राण और मन का रूप दिया गया है । यदि इन तीनों में सहयोग न हो तो संवत्सर घटित नहीं होगा । शतपथ ब्राह्मण ६.१.१.१२, ६.१.३.१ आदि में प्रजापति के तप से आपः की उत्पत्ति कही गई है । आपः द्वारा तप से फेन की उत्पत्ति होती है, फेन से मृदा की, मृदा से सिकता की, सिकता से शर्करा की, शर्करा से अश्मा की, अश्मा से अयः की और अयः से हिरण्य की, हिरण्य से ओषधि - वनस्पतियों की । यह आठ मिलकर गायत्री के ८ अक्षरों का निर्माण करते हैं । उसके पश्चात् तप करने पर, भूतों के पति तथा उषा द्वारा संवत्सर की दीक्षा लेने पर नवें स्तर पर कुमार का जन्म होता है । दूसरी ओर, जब सलिल का उल्लेख आता है तो उससे तुरन्त हिरण्मय अण्ड की तथा पृथिवी की उत्पत्ति कह दी जाती है । यह अन्वेषणीय है कि सलिल के संदर्भ में बीच की अवस्थाओं का उल्लेख क्यों नहीं किया जा रहा है । क्या कौमार सर्ग से पूर्व सलिल के जिन आठ रूपान्तरों फेन, बुद्-बुद, मृदा, सिकता, शर्करा, अश्मा, अयः और हिरण्य का उल्लेख किया गया है, उनमें वाक्, प्राण और मन द्वारा संवत्सर बनाने का उद्योग निहित है? जब वायु और पृथिवी जल में प्रवेश कर जाते हैं तो फेन और बुद्-बुद का निर्माण होता है । फिर पृथिवी तत्त्व की क्रमशः वृद्धि होने पर मृदा का निर्माण होता है । मृदा में तेजस् तत्त्व के प्रवेश पर सिकता का निर्माण होता है इत्यादि । अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि किस प्रकार ब्राह्मण ग्रन्थों और पुराणों में इन आठ के माध्यम से संवत्सर का निर्माण किया गया है ।

एक ओर जहां सलिल आपः या जल महाभूत का रूप है, वहीं दूसरी ओर उसे वाक् भी कहा गया है( वाक् वै सरिरम् - शतपथ ब्राह्मण ७.५.२.५३) । ऋग्वेद १.१६४.४१ में गौरी सलिलों का तक्षण करती है । गौरी को सात्त्विक प्रकृति या वाक् का रूप समझा जा सकता है । यह उल्लेखनीय है कि यहां सलिल शब्द बहुवचन में प्रकट हुआ है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.७.२ में भी सलिल बहुवचन में प्रकट हुआ है और उसके विशेषण के रूप में 'उदार' शब्द प्रकट हुआ है । इन उदार सलिलों के दो रूप कहे गए हैं - स्थावर और प्रोष्य । ऐतरेय आरण्यक ५.३.२ के अनुसार जब वाक् धेनु का रूप ग्रहण कर लेती है तो वह सलिल की पुष्टि करती है ?

ऋग्वेद १०.१२९.३ के प्रसिद्ध नासदीय सूक्त में सलिल को अप्रकेत, अर्थात् केतु से रहित कहा गया है । फिर कहा गया है कि तप से एक केतु का जन्म हुआ? नासदीय सूक्त के संदर्भ में जैमिनीय ब्राह्मण ३.३६० का कथन है कि जो ऋत है, वह वाक् है । जो सत्य है, वह प्राण है और जो तप है, वह मन है । इस प्रकार इस सूक्त में पुनः वाक्, प्राण और मन के युग्मन से संवत्सर का प्रादुर्भाव दृष्टिगोचर होता है ।

तैत्तिरीय संहिता ४.३.१२.२ में पञ्चमी चिति में असपत्न इष्टका की स्थापना के संदर्भ में कहा गया है - - - - सिन्धुश्छन्द: समुद्र: छन्द: सलिलं छन्द: - - - - - । शतपथ ब्राह्मण ८.५.२.४ में ४० छन्दस्या इष्टकाओं के संदर्भ में कहा गया है कि प्राण ही सिन्धु छन्द है । मन ही समुद्र छन्द है और वाक् ही सरिर छन्द है । शतपथ ब्राह्मण ७.५.२.५२ के अनुसार मन समुद्र से वाक् अभ्रि द्वारा तीन विद्याओं का खनन किया जाता है । वाक् सरिर है । शतपथ ब्राह्मण १२.६.१.३४ में ज्योतिष्टोम प्रायश्चित्त के संदर्भ में कहा गया है कि अवभृथ के लिए ले जाने को उद्यत सोम? से यदि कुछ गिर जाए तो उसके प्रायश्चित्त के लिए सिन्धवे स्वाहा कह कर आहुति दी जाती है । अवभृथ के लिए ले जाए जा रहे सोम से यदि कुछ गिर जाए तो उसके लिए समुद्राय स्वाहा कहकर आहुति दी जाती है । यदि प्रप्लुत सोम से कुछ गिर जाए तो उसके लिए सलिलाय स्वाहा कह कर आहुति दी जाती है ।

शतपथ ब्राह्मण ८.६.३.२१ में पंचमी चिति में ८ गार्हपत्य इष्टकाओं की स्थापना के संदर्भ में इन लोकों को सरिर कहा गया है जिनके मध्य अग्नि विभ्राजमान होती है । तैत्तिरीय आरण्यक ३.११.८ तथा ६.११.६ में सरिर के मध्य हिरण्यज्योति के विद्यमान होने का उल्लेख है । इस संदर्भ में नासदीय सूक्त का यह कथन उल्लेख योग्य है कि आरम्भ में सलिल अप्रकेत था । सरिर के मध्य हिरण्यज्योति अथवा अर्क की विद्यमानता को केतु के रूप में समझा जा सकता है । यह ज्योति कैसे प्रकट हो सकती है, इसकी एक व्याख्या भागवत पुराण के आधार पर की जा सकती है जहां सलिल महाभूत से रस का आहरण होने पर वह ज्योति रूप धारण कर लेता है । बृहदारण्यक उपनिषद ४.३.३२ में सलिल को एक द्रष्टा, अद्वैत, ब्रह्मलोक, परम आनन्द कहा गया है । अन्य भूत इस आनन्द की एक मात्रा ही प्राप्त कर पाते हैं । इस कथन की टीका में इसे सुषुप्ति अवस्था कहा गया है । ऋग्वेद ७.४९.१ में सलिल के मध्य से देवी आपः का प्रादुर्भाव कहा गया है । डा. जी.एन. भट्ट द्वारा अपनी पुस्तक वैदिक निघण्टु(मंगलौर युनिवर्सिटी) में दी गई सूचना के अनुसार ऋग्वेद में सलिल शब्द ६ बार प्रकट हुआ है । वैदिक निघण्टु में सलिल शब्द का वर्गीकरण उदक नामों तथा बहु नामों के अन्तर्गत किया गया है । उदक नाम वाले सलिल शब्द में अन्तिम अक्षर ल उदात्त है, जबकि बहु नाम वाले सलिल में कोई अक्षर उदात्त नहीं है, सभी अनुदात्त हैं । ऋग्वेद में सलिल का बहु रूप गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षति के रूप में ही प्रकट हुआ है । शतपथ ब्राह्मण ३.६.२.५(वेदिर्वै सलिलं), ८.५.२.४( वाग्वै सरिरं छन्द: ) तथा बृहदारण्यक उपनिषद ४.३.३२( सलिल एको द्रष्टा अद्वैतो भवति) में बहुनाम वाला सलिल शब्द प्रकट हुआ है । यह आश्चर्यजनक है कि बहुनाम वाला सलिल एक द्रष्टा, अद्वैत बन रहा है । ऋग्वेद ७.४९.१ में सायणाचार्य ने सलिल को अन्तरिक्ष नाम माना है ।

सलिल का एक रूप ऐसा है जो पवित्र करता है, शोधन करता है । इस सलिल को सलिल वात कहा गया है ( इदं क्षत्रं सलिलवातमुग्रम् - तैत्तिरीय संहिता ४.४.१२.३) । इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण १४.२.२.३ में घर्मप्रचरण के संदर्भ में कहा गया है - सरिराय त्वा वाताय स्वाहा । यहां भी सरिर को पवन करने वाला कहा गया है । और ऐसा प्रतीत होता है कि स्वयं सलिल का भी पवन करने की, शोधन करने की आवश्यकता पडती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.२.५ में नक्षत्रों/तारकों की निरुक्ति करते हुए कहा गया है कि द्युलोक और पृथिवी के बीच में जो उपस्थित है, उसकी सलिल संज्ञा है । जो इस सलिल का तारण कर सकता है, उसकी तारक या नक्षत्र संज्ञा है । इस तारक के आधार पर ही पुराणों में तारकासुर की कल्पना की गई प्रतीत होती है जिसके वध के लिए कुमार कार्तिकेय को उत्पन्न करने की आवश्यकता पडी । आगे कहा गया है कि इस पृथिवी पर जितने चित्र रूप हैं, वह सब नक्षत्रों का रूप हैं । चित्रों में जो अश्लील हैं, उनमें देवयजन न करे । यह संकेत देता है कि द्युलोक में जो नक्षत्र हैं, वही पृथिवी पर विकृत होकर चित्र या प्राणियों में चित्त बनता है । अंग्रेजी में इसे अनकांक्शस माइंड कह सकते हैं । विपश्यना ध्यान द्वारा अचेतन मन को चेतन मन में रूपान्तरित करने की कितनी आवश्यकता है, इसका विवेचन श्री रजनीश द्वारा अपने व्याख्यानों में भली भांति किया जा चुका है । महाभारत उद्योग पर्व ११० में सलिल के गोपन/रक्षण के लिए कश्यप द्वारा पश्चिम दिशा में वरुण का अभिषेक किया गया । वरुण को सलिलेश्वर कहा गया है जिसके छत्र से सोम रूप सलिल का वर्षण होता है (महाभारत उद्योगपर्व ९८.२१) । पश्चिम दिशा पापों के नाश की दिशा, श्मशान की दिशा है, सूर्य के अस्त की दिशा है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि इन्द्रियों के माध्यम से सामान्य रूप में जो आनन्द प्राप्त हो रहा है, वह पापयुक्त स्थिति में प्राप्त हो रहा है । यह अव्यक्त आनन्द कहलाएगा । जब हमारी इन्द्रियों का यह आनन्द समाप्त हो जाएगा, तब यह सलिल की स्तम्भित अवस्था कहलाएगी । महाभारत शल्य पर्व में दुर्योधन माया द्वारा स्तम्भित द्वैपायन ह्रद के सलिल में विश्राम करता है । यह कहा जा सकता है कि हम सभी रात्रि में माया द्वारा स्तम्भित सलिल में ही विश्राम करते हैं । आवश्यकता इस बात की है कि यह सलिल माया द्वारा स्तम्भित न होकर सत्य रूप में स्तम्भित हो ।

अथर्ववेद १०.७.३८, ११.७.२६ १८.४.३६ में सलिल पृष्ठ पर तप करने करने के उल्लेख हैं । यह सलिल पृष्ठ क्या होगा, यह अन्वेषणीय है । तप को मन का रूप कहा गया है ।

गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी । अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन् ॥ऋ. १.१६४.४१

समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः । इन्द्रो या वज्री वृषभो रराद ता आपो देवीरिह मामवन्तु ॥७.४९.१

यद्देवा अदः सलिले सुसंरब्धा अतिष्ठत।

अत्रा वो नृत्यतामिव तीव्रो रेणुरपायत॥ १०.०७२.०६

तेऽवदन्प्रथमा ब्रह्मकिल्बिषेऽकूपारः सलिलो मातरिश्वा।

वीळुहरास्तप उग्रो मयोभूरापो देवीः प्रथमजा ऋतेन॥ १०.१०९.०१

तम आसीत्तमसा गूळ्हमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्। तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्॥ऋ. १०.१२९.३

प्रजापतिः सलिलादा समुद्रादाप ईरयन्न् उदधिमर्दयाति ।

प्र प्यायतां वृष्णो अश्वस्य रेतोऽर्वान् एतेन स्तनयित्नुनेहि ॥शौअ. ४.१५.११

तेऽवदन् प्रथमा ब्रह्मकिल्बिषेऽकूपारः सलिलो मातरिश्वा ।

वीडुहरास्तप उग्रं मयोभूरापो देवीः प्रथमजा ऋतस्य ॥ शौअ. ५.१७.१

कुतस्तौ जातौ कतमः सो अर्धः कस्माल्लोकात्कतमस्याः पृथिव्याः ।

वत्सौ विराजः सलिलादुदैतां तौ त्वा पृच्छामि कतरेण दुग्धा ॥ शौअ. ८.९.१

विधुं दद्राणं सलिलस्य पृष्ठे युवानं सन्तं पलितो जगार ।

देवस्य पश्य काव्यं महित्वाद्य ममार स ह्यः समान ॥ शौअ. ९.१५.९

महद्यक्षं भुवनस्य मध्ये तपसि क्रान्तं सलिलस्य पृष्ठे । तस्मिन् छ्रयन्ते य उ के च देवा वृक्षस्य स्कन्धः परित इव शाखाः ॥शौअ १०.७.३८

यो वेतसं हिरण्ययं तिष्ठन्तं सलिले वेद ।

स वै गुह्यः प्रजापतिः ॥ शौअ. १०.७.४१

अप्स्वासीन् मातरिश्वा प्रविष्टः प्रविष्टा देवाः सलिलान्यासन्॥

बृहन् ह तस्थौ रजसो विमानः पवमानो हरित आ विवेश ॥ शौअ. १०.८.४०

एकं पादं नोत्खिदति सलिलाद्धंस उच्चरन् ।

यदङ्ग स तमुत्खिदेन् नैवाद्य न श्वः स्यात्।

न रात्री नाहः स्यान् न व्युछेत्कदा चन ॥ शौअ. ११.४.२१

तानि कल्पन् ब्रह्मचारी सलिलस्य पृष्ठे तपोऽतिष्ठत्तप्यमानः समुद्रे । स स्नातो बभ्रुः पिङ्गलः पृथिव्यां बहु रोचते ॥शौअ ११.७.२६

यार्णवेऽधि सलिलमग्र आसीत्यां मायाभिरन्वचरन् मनीषिणः ।

यस्या हृदयं परमे व्योमन्त्सत्येनावृतममृतं पृथिव्याः ।

सा नो भूमिस्त्विषिं बलं राष्ट्रे दधातूत्तमे ॥ शौअ. १२.१.८

ऋतेन गुप्त ऋतुभिश्च सर्वैर्भूतेन गुप्तो भव्येन चाहम् ।

मा मा प्रापत्पाप्मा मोत मृत्युरन्तर्दधेऽहं सलिलेन वाचः ॥ शौअ. १७.१.२९

उत्तिष्ठ प्रेहि प्र द्रवौकः कृणुष्व सलिले सधस्थे ।

तत्र त्वं पितृभिः संविदानः सं सोमेन मदस्व सं स्वधाभिः ॥ शौअ. १८.३.८

सहस्रधारं शतधारमुत्समक्षितं व्यच्यमानं सलिलस्य पृष्ठे । ऊर्जं दुहानमनपस्फुरन्तमुपासते पितरः स्वधाभिः ॥शौअ १८.४.३६

सा ह सुपर्ण्युवाच । अस्य सलिलस्य पारेऽश्वः श्वेत स्थाणौ सेवते तमहं पश्यामीति....सा यत्सुपर्ण्युवाच । अस्य सलिलस्य पार इति वेदिर्वै सलिलं वेदिमेव सा तदुवाचाश्वः श्वेत स्थाणौ सेवत इत्यग्निर्वा अश्वः श्वेतो यूप स्थाणुः – माश ३.६.२.५

मनः समुद्रो वाक्तीक्ष्णाभ्रिस्त्रयी विद्या …..सरिरे त्वा सदने सादयामीति । वाग्वै सरिरं वाचि तां सादयति।....अपां त्वा क्षये सादयामीति । चक्षुर्वा अपां क्षयः.... अपां त्वा सधिषि सादयामीति । श्रोत्रं वा अपां सधिः – माश ७.५.२.५३]

प्राणो वै सिन्धुश्छन्दः.... मनो वै समुद्रश्छन्दः..... वाग्वै सरिरं छन्दः – माश ८.५.२.४

सहस्रियो दीप्यतामप्रमत्त इत्येतद्विभ्राजमानः सरिरस्य मध्य इतीमे वै लोकाः सरिरं दीप्यमान एषु लोकेषु – माश ८.६.३.२१

आपो ह वा इदमग्रे सलिलमेवास। ता अकामयन्त कथं नु प्रजायेमहीति ता अश्राम्यंस्तास्तपोऽतप्यन्त तासु तपस्तप्यमानासु हिरण्मयमाण्डं सम्बभूवाजातो ह तर्हि संवत्सर आस तदिदं हिरण्मयमाण्डं यावत्संवत्सरस्य वेला तावत्पर्यप्लवत । ततः संवत्सरे पुरुषः समभवत्। - माश ११.१.६.१

अथ यद्यवभृथायोद्यतः किंचिदापद्येत। सिंधवे स्वाहा इति जुहुयात्।.....अथ यद्यभ्यवह्रियमाणः किंचिदापद्येत। समुद्राय स्वाहा इति जुहुयात्। .... अथ यदि प्रप्लुतः किंचिदापद्येत। सलिलाय स्वाहा इति जुहुयात्। सलिलो हि स तर्हि भवति। - माश १२.६.१.३६

सरिराय त्वा वाताय स्वाहेति अयं वै सरिरो योऽयं पवत एतस्माद्वै सरिरात्सर्वे

देवाः सर्वाणि भूतानि सहेरते – माश १४.२.२.३

सलिल एको द्रष्टाद्वैतो भवति । एष ब्रह्मलोकः सम्राट् । इति हैनमनुशशास याज्ञवल्क्यः - बृहदा.उप. ४.३.३२

पशुशीर्षकोपधानम् -- वातस्य ध्राजिं वरुणस्य नाभिम् अश्वं जज्ञान सरिरस्य मध्ये । शिशुं नदीना हरिम् अद्रिबुद्धम् अग्ने मा हिसीः परमे व्योमन् ॥ - तैसं ४.२.१०.१

असपत्न इष्टका -- सिन्धुश् छन्दः समुद्रं छन्दः सलिलं छन्दः – तैसं ४.३.१२.२

यज्ञतन्वाख्या इष्टकाः -- असुर् आत्तः सिन्धुर् अवभृथम् अवप्रयन् समुद्रो ऽवगतः सलिलः प्रप्लुतः सुवर् उदृचं गतः ॥ - तैसं ४.४.९.२

विश्वे देवाः सप्तदशेनवर्च इदं क्षत्र सलिलवातम् उग्रम् ॥ तैसं ४.४.१२.३

हेतयो नाम स्थ तेषां वः पुरो गृहाः । अग्निर् व इषवः सलिलः । - तैसं ५.५.१०.३

आपो वा इदम् अग्रे सलिलम् आसीत् स प्रजापतिः पुष्करपर्णे वातो भूतो ऽलेलायत् सः

प्रतिष्ठां नाविन्दत स एतद् अपां कुलायम् अपश्यत् तस्मिन्न् अग्निम् अचिनुत तद् इयम् अभवत् ततो वै स प्रत्य् अतिष्ठत् । - तैसं ५.६.४.२

आपो वा इदम् अग्रे सलिलम् आसीत् स एताम् प्रजापतिः प्रथमां चितिम् अपश्यत् ताम् उपाधत्त तद् इयम् अभवत् तं विश्वकर्माब्रवीत् । उप त्वायानीति नेह लोको ऽस्तीति

अब्रवीत् । स एतां द्वितीयां चितिम् अपश्यत् ताम् उपाधत्त तद् अन्तरिक्षम् अभवत् स यज्ञः प्रजापतिम् ब्रवीत् । तैसं ५.७.५.३

आपो वा इदम् अग्रे सलिलम् आसीत् तस्मिन् प्रजापतिर् वायुर् भूत्वाऽचरत् स इमाम् अपश्यत् तां वराहो भूत्वाऽहरत् तां विश्वकर्मा भूत्वा व्य् अमार्ट् साऽप्रथत सा पृथिव्यभवत् – तैसं ७.१.५.१

पञ्चानां त्वा सलिलानां धर्त्राय गृह्णामीति पशवो वै सलिलं पशूनेवास्मै गृह्णाति । काठ ३२,६ । मै १.४.९

आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत् । तेन प्रजापतिरश्राम्यत् । कथमिद स्यादिति । सोऽपश्यत्पुष्करपर्णं तिष्ठत् । सोऽमन्यत । अस्ति वै तत् । यस्मिन्निदमधि तिष्ठतीति । स वराहो रूपं कृत्वोप न्यमज्जत् । स पृथिवीमध आर्छत् । तस्या उपहत्योदमज्जत् । तत्पुष्करपर्णेऽप्रथयत् । यदप्रथयत्। तत्पृथिव्यै पृथिवित्वम् । तैब्रा १.१.३.५, जैउ १.१८.१.१

सलिलं वा इदमन्तरासीत् । यदतरन् । तत्तारकाणां तारकत्वम् । - तैब्रा १.५.२.५

तद्वा इदमापस्सलिलमासीत् । सोऽरोदीत्प्रजापतिः । स कस्मा अज्ञि । यद्यस्या अप्रतिष्ठाया इति । यदप्स्ववापद्यत । सा पृथिव्यभवत् । यद्व्यमृष्ट । तदन्तरिक्षमभवत् । यदूर्ध्वमुदमृष्ट । सा द्यौरभवत् । तैब्रा २.२.९.३

अम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् । न मृत्युरमृतं तर्हि न रात्रिया अह्न आसीत्प्रकेतः । आनीदवात स्वधया तदेकम् । तस्माद्धान्यं न परः किं चनास । तम आसीत्तमसा गूढमग्रे प्रकेतम् । सलिल सर्वमा इदम् । तुच्छेनाभ्वपिहितं यदासीत् । तमसस्तन्महिनाजायतैकम् । कामस्तदग्रे समवर्तताधि – तैब्रा २.८.९.४

सर्वानुदारान्त्सलिलान् । अन्तरिक्षे प्रतिष्ठितान् । सर्वास्ताः । सर्वानुदारान्त्सलिलान् । स्थावराः प्रोष्याश्च ये । सर्वास्ताः । सर्वां धुनिँ सर्वान्ध्वँ सान् । हिमो यच्च शीयते । सर्वास्ताः । तैब्रा ३.१२.७.२

पूर्वं सर्वं वाक्परागर्वाक्सप्रु सलिलं धेनु पिन्वति । - ऐआ. ५.३.२

सप्रु – विप्रुड्सहितं – सायणभाष्यम्

शंभुमयोभुभ्यां (शौअ १.५.१ - १.६.१) ब्रह्म जज्ञानम् (शौअ ४.१.१, ५.६.१ ) अस्य वामस्य(शौअ ९.१४.१, ९.१५.१) यो रोहित(शौअ १३.१.२५) उदस्य केतवो (शौअ १३.२.१) मूर्धाहं(शौअ १६.३.१ ) विषासहिम् (शौअ १७.१.१-५) इति सलिलैः क्षीरौदनमश्नाति - कौशिकसूत्रम् ३.१८.२५

अम्बयो यन्ति शम्भुमयोभुभ्यां ब्रह्म जज्ञानमस्य वामस्य यो रोहित उदस्य क्रतवो मूर्धाहमिति द्वे सूक्ते विषासहिमिति सलिलगणः ॥ - अथर्वपरिशिष्ट ३२.२२


All vedic and puraanic texts refer to manifestation by lord Brahmaa from unmanifest Salila, a kind of water. What the nature of this Salila can be, has hardly been explained in Braahmanic texts. But it’s explanation can be found in puraanic texts where it has been called as the state of unmanifest joy. This unmanifest joy can be explained in several ways. According to Dr. Fatah Singh, it can be the joy of the state of Samadhi, which manifests gradually into sensual pleasures. This can also be said to be the ocean of unmanifest consciousness of ancient cultures. It can also be interpreted as unconscious mind. Puraanic and vedic texts mention gradual manifestation of 8 states before the manifestation of final state – the baby. Manifestation of baby is possible only in an year. Therefore, the earlier 8 mauifestations may be the preparation of the final stage. An year in vedic literature is formed by a coupling of earth, moon and sun, or in spirituality, by a coupling of (inner)speech, praana and mind.

First published : 3-10-2009 AD(Aashwin shukla poornimaa, Vikrama samvat 2066)


Comments on Salila by Dr. Sakhamuri Siva Ram Babu

‘Sarateeti Salilam’ means that flows. Vedic sages considered that before creation there was Salila. The common meaning of Salila is water. So the whole world came to believe that there was water every where in the beginning. It gave rise to many popular myths. According to Bible Genesis 1.1-2and 1.6-7 in the beginning the universe consisted of water only. The Koran 21.30 said that there was nothing but water in the beginning. Thus the message of Vedas spread far and wide and Vedic science had given to many popular myths.

The Vedic meaning of Salila is that it is the primordial state of the universe, where there is nothing manifest. There is complete equilibrium and homogeneity. That is why ‘apraketa’ was used as adjective for Salila. In puranas it is described as milky ocean.

Vedas tells us that in the beginning every thing was Salila. So it is the soup all parts of the universe. It is an undifferentiated primordial fluid existing before the moment of creation from which the whole universe is originated.

Thus Salila can be defined as the source of all forms of energy. But the energy can be known by its action and the action of energy requires other supporting factor. When such supporting factor is not available, the energy is latent and it can not be recognized. It is called un-manifest.