सत्यवती

Satyavati was found by a fisherman in the stomach of a fish. The fish conceived her with the semen of a kind named Uparichara Vasu, a wealth which flies high. This story may be interpreted on the basis that the fisherman represents the gross level(which depends on food) of our personality. This gross level persists on those divine waters of our higher consciousness which he is able to access by chance. A fish may mean the active content of those divine waters. Sometimes it happens that these fishes are able to supply high energy also to the gross level. Satyavati is symbolic of that very high energy. Satyavati makes it possible for us to cross the river by her boat. When she conceives from Paraashara, she gives birth to Vyaasa( a personality having broad range). But this Vyaasa becomes invisible as soon as he is born – he goes to the wild. The advantage which Satyavati is able to get by meeting with Paraashara is that until now she was having fishy smell. It can be interpreted in the way that whatever transcends to lower or gross level, that naturally becomes impure, having bad smell. By the boon of Paraashara she becomes sweet smelling. This type of ripe gross level, the fisherman who is able to bring up Satyavati, is able to bestow it’s powers to higher levels, to establish marital relations with them. These higher levels in the story are represented by king Shantanu. At the same time, this ripe gross level is demanding that only the son of her daughter, and not Bhishma should become the future king.

- Fatah Singh

सत्यवती को निषाद ने मत्स्य के पेट में से पाया था । उपरिचर वसु का वीर्य मछली के गर्भ में स्थापित होने से सत्यवती का जन्म हुआ था । अन्नमय कोश के प्रतीक निषाद की जीविका विज्ञानमय कोश के दैवी आपः में उत्पन्न हुए मत्स्यों पर चला करती है जो उसके हाथ लग जाते हैं । मत्स्य का तात्पर्य दैवी आपः के सजीव तत्त्व से हो सकता है । इन मत्स्यों से कभी - कभी भारी शक्ति का अवतरण भी अन्नमय कोश में हो जाया करता है । सत्यवती उसी भारी शक्ति का प्रतीक है । सत्यवती नौका में बैठाकर पार लगाने वाली है । महर्षि पराशर से समागम होने पर सत्यवती व्यास( विस्तीर्ण व्यक्तित्व) को जन्म देती है । लेकिन यह व्यास व्यक्तित्त्व उत्पन्न होते ही अदृश्य हो जाता है - जंगल में चला जाता है । पराशर से समागम का लाभ सत्यवती को यह होता है कि अभी तक वह मत्स्य - गन्धा थी । अन्नमय कोश में जो दैवी आपः अवतरित होता है, वह दुर्गन्धयुक्त हो ही जाता है । पराशर के वरदान स्वरूप वह पुण्यगन्धा हो जाती है । ऐसा पका हुआ अन्नमय कोश अपनी शक्ति उच्चतर कोशों( शन्तनु) को देने, उनसे विवाह सम्बन्ध स्थापित करने में सक्षम हो जाता है । लेकिन अन्नमय कोश मांग कर रहा है कि राजा उसकी पुत्री के पुत्र को ही होना चाहिए, भीष्म के रूप में अवतरित वसु को नहीं । - फतहसिंह

The story can be read on the website Satyavati. The symbolism in this story is like this. King Uparichara Vasu is the consciousness of our soul. Soul is the king of this body. His queen Girikaa is one which takes the individual to a higher level of consciousness. Hence this can be the consciousness at the level of Vijnaanmaya kosha. The pitris, or the manes are our impressions collected in previous births. This world is the forest. Various pleasures of this world are the materials which lead to sex. The hawk is the mind. The river Yamunaa is the river of karma/action in this world. The female damsel living in this water(Adrikaa) is our outward consciousness. Adri in Sanskrit means which does not flow. If the goal is worldly, then only outward consciousness can achieve that goal. The joining of Adrikaa with semen of the king, i.e., the combination of consciousness with outwardliness leads to a wisdom that this world is true. This is symbolic of the birth of Satyavati. This Satyavati has a feeling of truth about this world. This is symbolic of her having the foul smell of fish. Sage Paraashara means the distant goal. Vyaasa means a special status. Achievement of inward consciousness is this special status. This later on gets converted into a broad view, the Vyaasa.

Every person is bestowed with soul consciousness. The consciousness which resides at the level of Vijnaanmaya kosha is the wife of this soul consciousness. This means that this wife called higher wisdom/prajna is the first one who receives the light of this soul consciousness. But when an individual enters this world to wash out his impressions of previous births, he forgets his main goal and gets involved in worldly pleasures. This leads to a widening distance from her real wife (Girikaa) which can be achieved only by inwardness. On the other hand, the outward consciousness(apsaraa) gets in touch with soul consciousness which gives rise to the birth of Satyavati. As has been said earlier, Satyavati is the feeling of truthfulness about this world. This type of wisdom is beautiful, but does not have sweet smell. It means that this does not have a power that can attract higher consciousness towards herself. But at a moment when this wisdom with foul smell gets associated with a goal of attaining soul( Paraashara), then on one hand, she becomes sweet smelling and on the other hand she achieves a special power. This special power is the power of seeing of inner self. This power of wisdom is not normally visible but when a complex situation arises, then this wisdom is able to utilize her power of inwardness. This has been symbolized in the story by the appearance of Vyaasa before Satyavati.

(Composed by mutual discussions among Radha Gupta, Dr. L.N.Dhoot, Dr. Krishna Chandra Shukla, Shri Pathak, Shri Goyal).

सत्यवती की कथा के लिए महाभारत आदिपर्व अध्याय ६३ आदि द्रष्टव्य हैं । संक्षेप में कथा इस प्रकार है कि एक दिन पितरों ने राजा उपरिचर वसु को हिंसक पशुओं का वध करने की आज्ञा दी । पितरों की आज्ञा का पालन करने के लिए उपरिचर वसु वन में चले गए । वन में किसी कारण से राजा का वीर्य स्खलित हो गया । पत्नी गिरिका का ऋतुकाल व्यर्थ न जाए - यह सोचकर राजा ने वीर्य को पत्ते पर उठा लिया और अपनी पत्नी गिरिका के पास श्येन के माध्यम से भेज दिया । मार्ग में जाते हुए श्येन द्वारा धारण किया हुआ वह वीर्य यमुना के जल में गिर पडा । अद्रिका नामक एक अप्सरा शापवश मत्स्य रूप में उस जल में रहती थी । वह उस वीर्य को निगल गई । धीवरों ने उस मत्स्य को पकडा तो उसके उदर से एक पुरुष और एक कन्या प्राप्त हुए । पुरुष को तो राजा उपरिचर वसु ने ग्रहण कर लिया और कन्या को धीवरों को दे दिया । मत्स्य से उत्पन्न होने के कारण कन्या के शरीर से मत्स्य की गन्ध आती थी, परन्तु वह रूप, सत्त्व और सद्गुणों से सम्पन्न थी, अतः सत्यवती नाम से प्रसिद्ध हुई । कथा में आगे चलकर सत्यवती नौका चलाती है । एक दिन मुनि पराशर ने सत्यवती से समागम किया और उसे सुगन्धित होने का वरदान दिया । उनके समागम से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो व्यास कहलाया और जो उत्पन्न होते ही वन में चला गया । सत्यवती ने पराशर के वरदान स्वरूप पुनः कन्याभाव को प्राप्त कर लिया ।

सत्यवती की कथा की व्याख्या का प्रयास इस प्रकार किया जा सकता है कि राजा उपरिचर वसु हमारा आत्म रूप चैतन्य है । आत्मा ही इस शरीर का राजा है । गिरिका मनुष्य व्यक्तित्व को उच्चता प्रदान करने वाली, अतः विज्ञानमय कोश के स्तर पर रहने वाली प्रज्ञा रूप चेतना है । हमारे जन्म - जन्मान्तर के संचित संस्कार ही पितर हैं । संसार ही वन है । संसार के नाना भोग कामोद्दीपन करने वाली सामग्री है । श्येन तीव्र गति वाले मन का प्रतीक है । यमुना संसार में बहती हुई कर्म की नदी है । यमुना जल में रहने वाली अप्सरा हमारी बहिर्मुख चेतना है । अप्सरा का नाम अद्रिका है । अद्रि अर्थात् पहाड, द्रवित न होने वाला । यदि लक्ष्य सांसारिक हो तो बहिर्मुखता ही उस लक्ष्य को प्राप्त कराती है । राजा के वीर्य अर्थात् चैतन्य का संयोग बहिर्मुखता से होने पर जगत् के प्रति सत्यता बुद्धि का उत्पन्न होना सत्यवती का जन्म है । जगत् के प्रति सत्यता बुद्धि का होना, मैं - मेरे के भाव से युक्त होना उसका मत्स्य गन्धा होना है । पराशर मुनि का अर्थ है - परा - शर अर्थात् दूरस्थ लक्ष्य । इस दूरस्थ लक्ष्य से जुडना सत्यवती का पराशर से समागम है । व्यास का अर्थ है - वि - आस:, अर्थात् विशिष्ट स्थिति । अन्त:दर्शन की प्राप्ति ही यह विशिष्ट स्थिति है । यही विशिष्ट स्थिति बाद में समग्र के प्रति समर्पित होने पर व्यास अर्थात् विस्तार को प्राप्त करती है ।

प्रत्येक मनुष्य आत्म - चैतन्य से युक्त है । हमारे विज्ञानमय कोश के स्तर पर रहने वाली प्रज्ञा रूप चेतना इस आत्मचैतन्य की पत्नी है । अर्थात् आत्मा के चैतन्य को, प्रकाश को सर्वप्रथम उच्च चेतना रूप पत्नी, जिसे प्रज्ञा कहा गया है - ग्रहण करती है । जन्म - जन्मान्तरों की अपनी यात्रा में यह आत्मचैतन्य ढेर सारे संस्कारों या छापों को ग्रहण कर लेता है । इन संस्कारों या छापों को ही पितर कहा जाता है । जब तक ये संस्कार अथवा छापें समाप्त नहीं हो जाते, तब तक वास्तविक मुक्ति नहीं मिलती । इन संस्कारों का ह्रास/नाश तभी हो पाता है जब इन्हें कर्म रूप में परिणत करके भोग लिया जाए । परन्तु कर्म संसार में प्रवेश करते ही यहां के नाना भोग इतना आकर्षित कर लेते हैं कि जीवात्मा इनमें ही उलझ जाता है । वह भूल ही जाता है कि पितरों ने हिंसक पशुओं का वध करने के लिए ही अर्थात् संस्कारों को भूनने के लिए ही उसे इस संसार रूपी वन में भेजा था । अतः उसकी प्रज्ञा चेतना ( गिरिका ) जो अन्तर्मुखता से ही प्राप्त हो पाती है - उससे दूर होती चली जाती है । इसके विपरीत, बहिर्मुख चेतना ( अप्सरा ) से आत्मचैतन्य का संयोग हो जाता है और तभी सत्यवती का जन्म हो जाता है । जैसा कि पहले कहा गया है - सत्यवती, अर्थात् परिवर्तनशील जगत् के प्रति सत्यता का भाव । यह सत्यता बुद्धि ( लौकिक बुद्धि ) सुन्दर, आकर्षक और सत्त्वयुक्त तो होती है, परन्तु सुगन्धा नहीं होती अर्थात् इस बुद्धि में इतनी सामर्थ्य नहीं होती कि किसी उच्च चैतन्य को आकर्षित कर सके । मैं मेरे का भाव अधिक होने से यह बुद्धि दुर्गन्धा ही होती है । परन्तु किसी समय जब यही दुर्गन्धा बुद्धि( लौकिक बुद्धि ) आत्म प्राप्ति रूप लक्ष्य( पराशर ) से जुड जाती है - तब यह एक ओर तो सुगन्धा बन जाती है तथा दूसरी ओर एक विशिष्ट स्थिति या क्षमता को भी प्राप्त कर लेती है । यह विशिष्ट क्षमता होती है - अन्त:दर्शन की । बुद्धि की यह क्षमता प्रत्यक्ष रूप में दिखाई तो नहीं देती, परन्तु जब - जब विषम परिस्थिति उपस्थित होती है, तब - तब बुद्धि अपनी इस अन्त:दर्शन की क्षमता का सम्यक् उपयोग कर लेती है ( कथा में सत्यवती के समक्ष व्यास का प्रकट होना ) । महाभारत की कथा के प्रारम्भ में व्यास ऋषि का आगमन तभी होता है जब सत्यवती चित्राङ्गद, विचित्रवीर्य तथा शन्तनु की मृत्यु हो जाने तथा भीष्म के भी राज्यसिंहासन से विमुख होने पर रिक्त सिंहासन को लेकर विशेष रूप से चिंतित थी ।

इस कथा में धीवर/मल्लाह हमारे अन्नमय कोश के प्राण हैं, चेतना है जो जगत् के प्रति सत्यता रूपी बुद्धि रूप सत्यवती का पालन करते हैं । व्यास को द्वैपायन कहा गया है । मनुष्य की देह एक द्वीप है । अन्त:दर्शन की क्षमता प्राप्त व्यक्तित्व जब तक आत्मकेन्द्रित रहता है, तब तक द्वैपायन कहलाता है । पश्चात् आत्मकेन्द्रित व्यक्तित्व समग्र के प्रति अर्थात् समाज, राष्ट्र के प्रति समर्पित होने पर व्यास कहलाने लगता है ।

( राधा गुप्ता, डा. लक्ष्मीनारायण धूत, डा. कृष्णचन्द्र शुक्ल, श्री पाठक, श्री गोयल के परस्पर वार्तालाप पर आधारित )