सङ्गीत२

संगीत के स्वर

टिप्पणी

श्रीमती विमला मुसलगाँवकर की पुस्तक भारतीय संगीत शास्त्र का दर्शनपरक अनुशीलन में पृष्ठ १३९ पर उल्लेख है कि विशुद्धि चक्र की स्थिति कण्ठ में है। यह सोलह दल वाला होता है। यह भारती देवी(सरस्वती) का स्थान है। इसके पूर्वादि दिशाओं वाले दलों पर ध्यान का फल क्रमशः १-प्रणव, २-उद्गीथ, ३-हुंफट्, ४- वषट्, ५-स्वधा(पितरों के हेतु), ६-स्वाहा(देवताओं के हेतु), ७-नमः, ८-अमृत, ९-षड्ज, १०-ऋषभ, ११-गान्धार, १२-मध्यम, १३-पञ्चम, १४- धैवत, १५-निषाद, १६-विष ये सोलह फल होते हैं

कण्ठेऽस्ति भारतीस्थानं विशुद्धिः षोडशच्छदम्॥

तत्र प्रणव उद्गीथो हुंफड्वषडथ स्वधा॥

स्वाहा नमोऽमृतं सप्त स्वराः षड्जादयो विषम्॥ - संगीतरत्नाकर १.२.१२९

श्रीमती मुसलगाँवकर ने ठीक ही इंगित किया है कि उपरोक्त श्लोक में सात स्वरों की स्थिति अमृत और विष के मध्य कही गई है। इसी तथ्य की और आगे व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि स्वरों की उत्पत्ति समुद्रमन्थन के परिणामस्वरूप हुई है। समुद्रमन्थन में सबसे पहले विष प्रकट हुआ था, फिर सात या चौदह रत्न और अन्त में अमृत। समुद्रमन्थन किस प्रकार किया जाएगा, इसका संकेत भागवत पुराण के आठवें स्कन्ध में गजेन्द्र मोक्ष से किया जा सकता है

एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि। जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम्॥

अर्थात् गज ने व्यवसित बुद्धि से मन को हृदय में धारण किया और तब उस परम मन्त्र का जप किया जो उसने पहले जन्म में सीखा था। इस श्लोक में ध्यान देने योग्य बात यह है कि परोक्ष रूप में मन को हृदय का मन्थन करने वाला कहा जा रहा है। ऐसी ही कोई स्थिति संगीत के स्वरों के संदर्भ में भी सोची जा सकती है।

संगीत शास्त्र में गायन के लिए हारमोनियम आदि तत् वाद्यों के द्वारा तीन सप्तकों का आश्रय लिया जाता है मन्द्र सप्तक, शुद्ध सप्तक और तार सप्तक। शुद्ध सप्तक के स्वरों की आवृत्ति मन्द्र सप्तक के स्वरों की आवृत्तियों से दो गुनी होती है। इसी प्रकार, तार सप्तक के स्वरों की आवृत्ति शुद्ध सप्तक के स्वरों की आवृत्तियों की दो गुनी होती है। सारा गायन इन्हीं आवृत्तियों में सिमटा हुआ है। राणा कुम्भा-कृत संगीतराज पुस्तक में मन्द्र सप्तक की स्थिति हृदय पर, शुद्ध सप्तक की स्थिति कण्ठ पर तथा तार सप्तक की स्थिति शिर में कही गई है। हृदय के चक्र में गुण अविकसित स्थिति में रहते हैं। कण्ठ के चक्र में आने पर गुण विकसित हो जाते हैं। तार सप्तक में गुण अपने चरमोत्कर्ष पर रहते हैं। हृदय से नीचे के चक्रों के गुणों को प्रदर्शित करने के लिए तबला आदि अवनद्ध वाद्यों का आश्रय लिया जाता है।

लौकिक संगीत के ७ स्वरों की प्रकृति के बारे में सूचना सामवेद में साम की ५ अथवा ७ भक्तियों की प्रकृतियों से प्राप्त की जा सकती है। साम की ७ भक्तियां हैं हिंकार, प्रस्ताव, आदि, उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव व निधन। इनमें हिंकार को षड्ज स्वर के तुल्य, प्रस्ताव को ऋषभ, आदि को गान्धार, उद्गीथ को मध्यम, प्रतिहार को पञ्चम, उपद्रव को धैवत तथा निधन को निषाद के तुल्य माना जा सकता है। ७ स्वरों की प्रकृति को समझने का दूसरा स्रोत पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग हो सकता है जिसका आरम्भ ऐतरेय ब्राह्मण ४.२९ से होता है।

षड्ज

ऐतरेय ब्राह्मण ४.२९ में पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग के प्रथम दिवस के लक्षणों का उल्लेख है। इन लक्षणों में से एक है करिष्यत्, अर्थात् जो भविष्य में किया जाने वाला अथवा होने वाला है। जो कुछ भविष्य में होने वाला है, जैसे आज जो गर्भ रूप में है, कल वह जन्म लेगा। गर्भ को बाहर से प्रभावित किया जा सकता है। यह षड्ज स्वर का उद्देश्य हो सकता है। करिष्यत् लक्षण के साथ-साथ अन्य लक्षणों का भी उल्लेख है जैसे एति और प्रेति, युक्तवत्, रथवत्, आशुमत्, पिबवत्, अभ्युदित, राथन्तर, गायत्र, मन्त्र के प्रथम पद में देवता का उल्लेख आदि। एति से तात्पर्य है कि बाहर से, ब्रह्माण्ड से, सूर्य से ऊर्जा का ग्रहण किया जाता है। प्रेति से तात्पर्य है कि गर्भ में स्थित चेतना बाहरी वातावरण को प्रभावित करती है। यज्ञ के संदर्भ में कहा गया है कि अग्नि से उत्पन्न धूम चन्द्रमा में जाकर उसका काला भाग उत्पन्न करता है जो देवयजन प्रदेश बनता है। एति के संदर्भ में कहा गया है कि पृथिवी पर जो ऊष/ऊसर(जहां कुछ नहीं उग सकता) प्रदेश है, वह सूर्य की ऊर्जा का रूप है जो पोषण प्रदान करता है। अभ्युदित लक्षण संकेत करता है कि वास्तविक स्थिति गर्भ की नहीं है, अपितु अभी-अभी उदित हुए सूर्य की है। इन लक्षणों की षड्ज स्वर के संदर्भ में व्याख्या कैसे की जा सकती है, यह भविष्य में अन्वेषणीय है।

षड्ज स्वर को साम की हिंकार भक्ति के तुल्य माना जा सकता है। हिंकार स्थिति में गुण अनिरुक्त/अव्यक्त/अविकसित स्थिति में, गर्भ रूप स्थिति में रहते हैं। छान्दोग्य उपनिषद में जिन गुणों की गणना हिंकार के अन्तर्गत की गई है, उनमें से कुछ प्राण, वाक्, मन आदि हो सकते हैं। यही गुण जब विकसित हो जाएंगे तो यह अगली भक्ति प्रस्ताव या ऋषभ बन जाएंगे। भागवत पुराण १०.४१ आदि में वसुदेव व देवकी के षड्गर्भ संज्ञक पुत्रों की कथा आती है जिन्हें एक-एक करके कंस ने मारा था। इनके नाम भागवत पुराण में स्मर, उद्गीथ, परिष्वङ्ग, पतङ्ग, क्षुद्रभृत् व घृणि हैं लेकिन अन्य पुराणों में यह भिन्न नाम हैं(कीर्त्तिमान, सुषेण, उदायु, भद्रसेन, ऋजदास, भद्रदेव)। इन नामों से षड्ज स्वर के विषय में क्या नई सूचना ग्रहण की जा सकती है, यह अन्वेषणीय है। हो सकता है यह अगली छह भक्तियों के ही अविकसित रूप हों।

श्रीमती विमला मुसलगाँवकर की पुस्तक भारतीय संगीत शास्त्र का दर्शनपरक अनुशीलन में पृष्ठ १३९ पर उल्लेख है कि विशुद्धि चक्र की स्थिति कण्ठ में है। यह सोलह दल वाला होता है। यह भारती देवी(सरस्वती) का स्थान है। इसके पूर्वादि दिशाओं वाले दलों पर ध्यान का फल क्रमशः १-प्रणव, २-उद्गीथ, ३-हुंफट्, ४- वषट्, ५-स्वधा(पितरों के हेतु), ६-स्वाहा(देवताओं के हेतु), ७-नमः, ८-अमृत, ९-षड्ज, १०-ऋषभ, ११-गान्धार, १२-मध्यम, १३-पञ्चम, १४- धैवत, १५-निषाद, १६-विष ये सोलह फल होते हैं। यह अन्वेषणीय है कि प्रणव, उद्गीथ आदि का षड्गर्भ के साथ तादात्म्य है या नहीं।

*चतस्रः शुक्लवर्धन्यः तासु कन्दसमाश्रयः। तद्भवत्वात् षड्जस्य चतुश्श्रुतित्वम्।।

कन्दः मूलाधारः। षड्जो विप्रः। पद्मपत्रप्रभः। ब्रह्मदैवत्तः अग्निना प्रथमं गीतः। वीररौद्राद्भुतेषु प्रवर्तते। कण्ठादुत्तिष्ठते। सनकः ऋषिः सुप्रतिष्ठा छन्दः गौरी अधिदेवता। ऋषभे राशौ विश्रामः। मयूराः ब्रुवते। शुक्लस्त्वग्निजो नादः स्वरः षड्जः चतुःश्रुतिः। - जगदेकः

उपरोक्त कथन में षड्ज स्वर के ऋषभ राशि में विश्राम करने का उल्लेख ध्यान देने योग्य है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, षड्ज रूपी अविकसित स्वर की अगली स्थिति विकसित स्थिति ऋषभ है। चूंकि उपरोक्त कथन में मयूरों को षड्ज स्वर में बोलते हुए कहा गया है, अतः अनुमान यह है कि षड्ज स्वर शरीर में प्रतिध्वनि को सूचित करता है।

*वायुः सम्मूर्छतो नाभेर्नाड्याश्च हृदयस्य च। पार्श्वयोर्मस्तकस्यापि षण्णां षड्जः प्रजायते।। - नारायणः

*अतिस्वारात्समुत्पन्नो षड्जोऽयं प्रथमः स्वरः। - जगदेकः

अतिस्वारः। सामसु सप्तस्वन्यतमः

*नासा कण्ठमुरस्तालुजिह्वादन्तांश्च चालयन्। षड्भिस्सञ्जायते यस्मात्तस्मात् षड्जोऽयमुच्यते।। - पुरुषोत्तमः

*प्रकार्थस्य शुयतेःहि गत्यर्थे षड्जेः कृति। टिलोपे षड्ज इत्युक्तः स्वरेषूत्कर्षकारकः।। - कुम्भः

*षड्जस्वरमन्त्रः षड्जग्रामः हृदयाय नमः। मध्यमग्रामः शिरसे स्वाहा। गान्धारग्रामः शिखायै वषट्। षाडवः कवचाय हुम्। औडुवः नेत्रत्रयाय वौषट्। संपूर्णः अस्त्राय फट्। सनक ऋषिः सुप्रतिष्ठा छन्दः गौरी देवता। ऐं श्रीं गीं संनमः। - जगदेकः

*षड्जाभिनयः दक्षिणेनालपद्मेन वामेन चतुरेण तु। परिमण्डलितेनाथ मयूरललितेन च। एवं विनिर्दिशेत् षड्जं कोविदो नाट्यनृत्तयोः।। - दामोदरः

*षड्जस्तु षोडशः कल्पः षड् जना यत्र चर्षयः। शिशिरश्च वसन्तश्च निदाघो वर्ष एव च। शरद्धेमन्त इत्येते मानसा ब्रह्मणः सुताः। उत्पन्नाः षड्ज संसिद्धाः पुत्राः कल्पे तु षोडशे। यस्माज्जातैश्च तैः षड्भिः सद्यो जातो महेश्वरः। तस्मात् समुत्थितः षड्जः स्वरस्तूदधिसन्निभः।। - वायु पुराण २१.३४

षड्ज स्वर की उत्पत्ति के संदर्भ में वायु पुराण का कथन है कि वसन्त, ग्रीष्म आदि ६ ऋतुओं की उत्पत्ति ब्रह्मा के मानस पुत्रों के रूप में हुई जो षड्ज में संसिद्ध थे तथा उनके उत्पन्न होने के पश्चात् सद्योजात महेश्वर का जन्म हुआ। अध्यात्म में ऋतुओं का क्या अर्थ हो सकता है, इसका एक संकेत जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ से मिलता है जहां ऋतुओं की तुलना प्राणों से की गई है। वसन्त को प्राण, वाक् को ग्रीष्म, चक्षु को वर्षा, श्रोत्र को शरद, मन को हेमन्त और पुरुष में स्थित आपः(प्राणों का सम्मिलित रूप) को शिशिर कहा गया है। इसका कारण भी बताया गया है, जैसे चक्षु वर्षा की भांति आर्द्र है। जब ६ ऋतुओं के रूप में प्राण, वाक्, चक्षु, श्रोत्र, मन और आपः सहयोग करेंगे, तभी षड्ज स्वर की उत्पत्ति हो सकती है। ६ ऋतुओं की उत्पत्ति का अर्थ होगा पूरा संवत्सर। भौतिक जगत में पृथिवी, सूर्य और चन्द्रमा के परस्पर मिलने से संवत्सर का जन्म होता है। अध्यात्म में वाक्, प्राण और मन के मिलने से संवत्सर का जन्म होता है। लेकिन जैमिनीय ब्राह्मण के कथन में ३ के बदले ६ के मिलन का उल्लेख है। लगभग एक संवत्सर पूर्ण होने पर ही गर्भ बाहर प्रकट होता है। लेकिन साधना में यह आवश्यक नहीं है कि ६ ऋतुओं के प्रकट होने के लिए पूरे एक संवत्सर की प्रतीक्षा की जाए। ६ ऋतुएं इसी क्षण प्रकट हो सकती हैं। वैदिक कर्मकाण्ड के अनुसार ६ ऋतुओं का जन्म सोमयाग में सोम की आहुति देते समय वौषट् शब्द के उच्चारण से होता है। जैसे सामान्य यज्ञ में आहुति देते समय स्वाहा का उच्चारण किया जाता है, इसी प्रकार सोमयाग में सोम की आहुति देते समय वौषट् का उच्चारण किया जाता है। ऐतरेय ब्राह्मण का कथन है कि असौ वाव वौ, ऋतवः षट् । यहां वौ से तात्पर्य सूर्य से है। सूर्य के अवतरण पर इस पृथिवी पर ६ ऋतुओं का जन्म होता है। वौषट् के कईं एक प्रयोजन हैं । एक तो प्रयोजन सूर्य का अवतरण हो गया। दूसरा प्रयोजन वर्षा का आगमन है। वौषट् के उच्चारण के पूर्व वर्षा हेतु जो कुछ अपेक्षित है, वह सब किया जाता है- जैसे पुरोवात का बहना, मेघों का सम्प्लावन, मेघों का गर्जन, विद्युत का चमकना और अन्त में वौषट् द्वारा मेघों का वर्षण होता है। तीसरा प्रयोजन वषट्कार द्वारा वृत्र का हनन कहा गया है। और कभी-कभी वषट् के उच्चारण द्वारा सोम की आहुति देने के पश्चात् अनुवषट्कार का भी उच्चारण किया जाता है जो इस प्रकार है सोमस्याग्नेर्वीहि वौषट्। कहा जाता है कि अनुवषट्कार का उच्चारण मर्त्य स्तर के प्राणों के लिए किया जाता है। षड्ज स्वर की उत्पत्ति में जहां वायु पुराण ६ ऋतुओं को उत्तरदायी बता रहा है, संगीतशास्त्र के ग्रन्थों में इस स्वर की उत्पत्ति दन्त, कण्ठ आदि ६ स्थानों से कही जा रही है। अतः यह अन्वेषणीय है कि क्या ६ ऋतुओं का शरीर के ६ अंगों से कोई तादात्म्य है।

ऋषभ

जैसा कि षड्ज स्वर के संदर्भ में उल्लेख किया जा चुका है, सूर्य की अथवा गुणों की अनुदित/अविकसित स्थिति षड्ज हो सकती है जबकि उदित/विकसित स्थिति ऋषभ हो सकती है। यदि प्राण षड्ज है तो वाक् ऋषभ हो सकती है। यदि मन षड्ज है तो वाक् ऋषभ हो सकती है(छान्दोग्य उपनिषद)। साम की भक्तियों में प्रस्ताव भक्ति ऋषभ के तुल्य कही जा सकती है। छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है कि पशु तो हिंकार स्थिति है जबकि मनुष्य प्रस्ताव, क्योंकि मनुष्य ही परमेश्वर की स्तुति कर सकता है। इस कथन को इस प्रकार समझा जा सकता है कि किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए अज्ञानपूर्वक जो संकल्प किया जाता है, वह तो षड्ज है और तत्पश्चात् उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जो परमेश्वर से प्रार्थना की जाती है, अभीप्सा की जाती है, वह ऋषभ है। इस कथन का दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि पशु चतुष्पाद होता है, जबकि मनुष्य द्विपाद। चतुष्पाद से अर्थ चारों दिशाओं में गति करने वाला, तिर्यक दिशा में प्रगति करने वाला लिया जा सकता है जबकि द्विपाद का अर्थ ऊर्ध्व अधो दिशाओं में प्रगति करने वाला हो सकता है।

ऋषभ स्वर के विषय में सूचनाएं पुराणों में उपलब्ध ऋषभ की कथाओं से मिल सकती हैं। स्कन्द पुराण ३.३.१० में एक कथा है जिसमें एक वेश्या व उसका पति ऋषभ योगी की सेवा करने से अगले जन्म में रानी व राजा बनते हैं। विषपान के कारण रानी व उसका पुत्र कुष्ठ रोग से ग्रसित हो जाते हैं। कालान्तर में राजा द्वारा कुष्ठग्रस्त रानी व उसके पुत्र को निर्वासित कर दिया जाता है। ऋषभ योगी की कृपा से रानी का मृत पुत्र जीवित हो जाता है। ऋषभ योगी द्वारा प्रदत्त भस्म से रानी और उसके पुत्र का कुष्ठ ठीक हो जाता है और वह पुत्र ऋषभ योगी द्वारा प्रदत्त शंख व खड्ग अस्त्रों से अपने खोए हुए राज्य की शत्रुओं से पुनः प्राप्ति करता है। इस कथा में कुष्ठ रोग से तात्पर्य, डा. फतहसिंह के शब्दों में, अथर्ववेद के सूक्त के अनुसार, कहीं दूर स्थित, छिपी हुई ज्योति से है। वेश्या से तात्पर्य हमारी वृत्तियां हो सकता हैं जो ऋषभ योगी की सेवा करने से अन्तर्मुखी हो सकती हैं। ऋषभ योगी की दूसरी कथा भागवत पुराण के पांचवें स्कन्ध में मिलती है जिसमें ऋषभ के ज्येष्ठ पुत्र भरत को भारतवर्ष का राज्य मिलता है तथा ऋषभ योगी अवधूत वृत्ति ग्रहण कर लेते हैं। भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कन्ध में ऋषभ के अन्य ९ महायोगी पुत्रों कवि, हरि आदि का वर्णन है। वायु पुराण ६५.१०२ के अनुसार ऋषभ सुधन्वा के पुत्र हैं, रथकार हैं और उनकी व्याप्ति देव व ऋषि दोनों में है। वैदिक साहित्य में ऐसी स्थिति ऋभुओं की कही जाती है। यह स्पष्ट नहीं है कि ऋषभ का ऋभुओं से यह तादात्म्य वास्तविक है या भ्रामक।

ऋषभः

*नाभेस्समुत्थितो वायुः कण्ठशीर्षसमाहतः। ऋषभं नदते यस्मादृषभो हि प्रकीर्तितः।।- जगदेकः

*नाभिमूलाद्यदा वर्ण उद्गतः कुरुते ध्वनिम्। ऋषभस्येव निर्याति हेलया ऋषभस्वरः।। - पुरुषोत्तमः

*उद्गीथायास्समुत्पन्नो ऋषभो रञ्जितस्वरः। शुकपिञ्जरवर्णोऽयं ऋषभो वह्निदैवतः।।

ब्रह्मणा कथितः पूर्वं। वीररौद्राद्भुतेषु प्रवृत्तः। शिरसः उत्थितः। सनन्दो ऋषिः। प्रतिष्ठाच्छन्दः। सरस्वत्यधिदेवता। कुलीरे विश्रामान्तः। - जगदेकः?

( कुलीरः -- कर्कटः)।

*ऋषभस्त्रिश्रुतिस्तालुमूले तस्यापि संभवात्। मज्जाधात्वग्निजो नाद ऋषभस्त्रिश्रुतिः स्मृतः।। - जगदेकः

ऋषभस्य शाकद्वीपः। ऋषभ स्वर के विषय में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह स्वर मज्जा धातु में उत्पन्न होता है और वहां से इसका प्रभाव हृदय में आकर रक्त में मिलता है। राग देस आदि जितने स्वरों में ऋषभ स्वर वादी है, एक सोरठ राग को छोडकर अन्य सभी रागों में उसका संवादी स्वर पंचम है। यह संकेत देता है कि मज्जा धातु के अन्दर उत्पन्न हुए प्रभाव से सारे व्यक्तित्व को ओतप्रोत करना है।

कथासरित्सागर में ऋषभ पर्वत पर सूर्यप्रभ, नरवाहनदत्त आदि के चक्रवर्ती पद पर अभिषेक के उल्लेख आते हैं। अभिषेक को इस प्रकार समझा जा सकता है जैसे शिव मूर्ति पर कलश के जल से लगातार अभिषेक होता रहता है। इसी प्रकार मनुष्य के सिर में किसी प्रकार के शीतल जल से अभिषेक संभव है।

कुलीर/कर्कट राशि में ऋषभ स्वर के विश्राम के संदर्भ में, कर्क राशि कृक केका, प्रतिध्वनि से सम्बन्धित है। कर्क राशि को अंग्रेजी भाषा में कैंसर कहते हैं और कैंसर रोग भी है। कैंसर रोग तब उत्पन्न होता है जब नई कोशिकाएं पुरानी कोशिकाओं का स्वरूप ग्रहण नहीं कर पाती, उनके स्वरूप में अन्तर आ जाता है। कर्क राशि का अभिप्राय यही है कि कोशिकाएं पुरानी कोशिकाओं का प्रतिरूप हों। इससे निष्कर्ष निकलता है कि ऋषभ स्वर किसी प्रकार से कैंसर के निदान में उपयोगी हो सकता है।

*तिस्रो धमन्यो वर्धन्यो मज्जाया नाभिमाश्रिताः। तस्माद्धात्वाश्रितत्वेन ऋषभस्त्रिश्रुतिर्भवेत्।। - जगदेकः

*ऋषभः स्वरहस्तः मृगमौलिश्चापविद्धो ऋषभस्वर ईरितः। - शृङ्गा

*ऋषभस्वरमन्त्रः दक्षिणो हृदयाय नमः। वार्तिक शिरसे स्वाहा। चित्रशिखायै वषट्। चित्रः कवचाय हुम्। चित्रतरः नेत्रत्रयाय वौषट्। चित्रतमः अस्त्राय फट्। सनन्दन ऋषिः प्रतिष्ठाच्छन्दः सरस्वती देवता। ऐं क्लीं सौं रिं नमः। - जगदेकः

शिर में ऋषभ स्वर की स्थिति वार्तिक रूप में कही गई है। वार्तिक शब्द का प्रयोग किसी मन्त्र की व्याख्या करने के लिए होता है। हो सकता है कि वार्तिक का शुद्ध रूप वर्तन, बारम्बारता हो। वर्तन के लिए अपेक्षित है कि यह वर्तन प्रतिदिन एक जैसा हो, इसमें जडता न आए। यह वर्तन उपरिलिखित कर्क राशि का प्रतीक भी हो सकता है। इससे आगे मन्त्र में ऋषभ स्वर की चित्र, चित्रतर व चित्रतम स्थितियों का उल्लेख है। चित्र स्थिति किसी शुद्ध गुण के पृथिवी पर अवतरित होने पर विकृत अवस्था को प्राप्त होने की स्थिति है।

ऋषभ स्वर के मन्त्र में हृदय में ऋषभ को दक्षिणा कहा गया है। यह कथन महत्त्वपूर्ण है और व्यवहार में जहां-जहां भी दक्षिणा/दक्षता प्राप्ति की आवश्यकता पडे, वहां ऋषभ स्वर का विनियोग किया जाना चाहिए। दक्षता को इस प्रकार समझा जा सकता है कि जब हम कोई कार्य करते हैं तो एक प्रकार की ऊर्जा को दूसरे प्रकार की ऊर्जा में रूपान्तरित करते हैं। उदाहरण के लिए, बिजली के पंखे में वैद्युत ऊर्जा का यान्त्रिक ऊर्जा में रूपान्तरण होता है। लेकिन यह रूपान्तरण सौ प्रतिशत नहीं होता, कुछ प्रतिशत ऊष्मा प्रकार की ऊर्जा में व्यर्थ हो जाता है। आवश्यकता सौ प्रतिशत रूपान्तरण की है, वही दक्ष स्थिति कहलाएगी। यह विचित्र है कि पुराणों में जहां जहां ऋषभ पर्वत आदि के उल्लेख आए हैं, उनमें से अधिकांश में उसकी स्थिति दक्षिण दिशा में कही गई है। दक्षता/दक्षिणा को कैसे उत्पन्न किया जा सकता है, इसके लिए ऐतरेय ब्राह्मण ४.३१ में पृष्ठ्य षडह सोमयाग के संदर्भ में याग के द्वितीय दिवस को समझना होगा। इस याग के लक्षण हैं कुर्वत्(वर्तमान काल), न एति, न प्रेति, स्थितवत्, ऊर्ध्ववत्, प्रतिवत्, अन्तर्वत्, वृधन्वत्, वृषन्वत्, अभ्युदित, बार्हत इत्यादि। श्री रजनीश ने अपने व्याख्यानों में बहुत जोर दिया है कि हम वर्तमान में जीना सीखें। अभ्युदित लक्षण का उल्लेख षड्ज स्वर के लिए भी हो चुका है। ऋषभ स्वर के संदर्भ में भी जब अभ्युदित का उल्लेख है तो यह पहले अभ्युदित से भिन्न होना चाहिए। व्याख्या अपेक्षित है।

*ऋषभाभिनयः हंसास्याभिधहस्तेन दक्षिणेन करेण तु। कटिस्थेनार्धचन्द्रेण समेन शिरसा तथा। ब्राह्माख्यस्थानकेनापि धीमान् ऋषभमादिशेत् । - दामोदरः

*ऋषभस्तु ततः कल्पो ज्ञेयः पञ्चदशो द्विजाः। ऋषयो यत्र सम्भूताः स्वरो लोकमनोहरः।। - वायु पुराण २१.३१

गान्धार

गान्धार स्वर साम की आदि भक्ति के तुल्य हो सकता है। आदि के विषय में कहा गया है कि चूंकि इसमें आदान किया जाता है, अतः इसका नाम आदि है(प्रस्ताव में प्र/प्रति वर्ण को महत्त्व दिया गया है। प्र ऊर्जा का प्रेषण हो सकता है)। आदि भक्ति में आदान किस वस्तु का किया जाता है, यह गान्धार स्वर के आगे के वर्णन से स्पष्ट हो जाता है। किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए जिन-जिन वस्तुओं को एकत्रित करना आवश्यक होता है, वही आदि हो सकते हैं। जैसे रोटी बनाने के लिए आटा, जल, अग्नि आदि। सूक्ष्म स्तर पर पहुंच कर स्थूल स्तर से ज्योति का आदान करना पडता है, अतः वही आदि है।

नारद भक्ति सूत्र, शाण्डिल्य भक्ति सूत्र आदि में आदि भक्ति का एक और लक्षण बताया गया है। वह है संगव काल तथा पक्षियों का अन्तरिक्ष में अनाधार उडना। अन्तरिक्ष में अनाधार तभी उडा जा सकता है जब किसी ऊर्जा का क्षय न हो, अथवा जितनी ऊर्जा का क्षय हो, उतनी प्राप्त भी हो जाए।

*नाभेस्समुद्गतो वायुः गलं श्रोत्रं च चालयन्। सशब्दं येन निर्याति गान्धारस्तेन कथ्यते।। - पुरुषोत्तमः

*नाभेः समुद्गतो वायुरुरःकण्ठसमाहतः। गान्धर्वसुखहेतुत्वाद्गान्धारः परिकीर्तितः। गोशब्दोपपदाद्धारेः कर्ण्यप्यथवा मतः।। - कुम्भः

*गान्धारस्त्वेकवदनो गौरवर्णः चतुःकरः। वीणाफलाब्जघण्टाभृत्करः स्यान्मेषवाहनः।। शङ्करो दैवतं क्रौञ्चो द्वीपं सुपर्वजं कुलं। विष्णुर्गाता रसो वीरः . . . . . . . सुधाकलशः

*त्रिष्टुप् छन्दः करुणो रसः छागो रौति, देवकुलसम्भवः सुवर्णवर्णः वैश्यजातिः कुशद्वीपभवः स्वर्लोके वासः गौडदेशगः कुजो वासराधीशः यजुर्वेदी माध्यन्दिनी शाखा पञ्चविंशतिवर्षदेशीयः तिस्रः कलाः ईश्वरसत्कारे प्रयोगः उच्चध्वनिः नादो गन्धं गन्धवहमित्यन्वेति यत्स्फुटं। तेन गान्धार एवासौ स्वरो गान्धार उच्यते। गान्धारो द्विश्रुतिः।। - पण्डितमण्डली

गान्धार स्वर हेतु कुज या मंगल वार अधिपति का उल्लेख है। मंगल के विषय में कहा जाता है कि वह पृथिवी तत्त्व की तन्मात्रा अग्नि है। इसे रोहित/लोहित भी कह सकते हैं।अथवा सूक्ष्म शरीर भी कह सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि पृथिवी पर जो भी जीवन है, वनस्पति, जीव आदि, उसका कारण मंगल/लोहित रूपी अग्नि तत्त्व है। यदि अग्नि तत्त्व न हो तो पृथिवी नग्न की भांति होगी। गान्धार देश का एक राजा नग्नजित् है जिसकी पुत्री सत्या का परिणय कृष्ण ने स्वयंवर में सात वृषों को एक साथ वश में करने के द्वारा किया। नग्नजित् से तात्पर्य अज्ञान रूपी नग्नता पर विजय पा लेने वाले से हो सकता है।

गान्धार शब्द की एक निरुक्ति गं-ज्ञान को धारण करने वाले के रूप में हो सकती है। इस स्वर के बारे में सूचना का एक स्रोत महाभारत में धृतराष्ट्र-भार्या गान्धारी हो सकती है जो गान्धार देश के राजा की पुत्री है तथा जिसके सुबल, शकुनि आदि भ्राता हैं जो द्यूत विद्या में प्रवीण हैं। धृतराष्ट्र को अज्ञान का प्रतीक समझा जा सकता है। गान्धार स्वर हेतु त्रिष्टुप् छन्द का उल्लेख हुआ है। त्रिष्टुप् छन्द दक्षता प्राप्ति हेतु होता है।

*गान्धार स्वरहस्तः - करोऽप्यजमुखश्चापि गान्धारः स्वरनिर्णये। - शृङ्गार

*चतुर्दशस्तु गन्धर्वो गान्धर्वो यत्र वै स्वरः। उत्पन्नस्तु यथा नादो गन्धर्वा यत्र चोत्थिताः।। - वायु पुराण २१.३०

*गान्धारस्वरमन्त्रः चतुरश्रो हृदयाय नमः। त्र्यश्रः शिरसे स्वाहा। मिश्रः शिखायै वषट्। खण्डः कवचाय हुम्। सङ्करो नेत्रत्रयाय वौषट्। चतुरश्रमिश्रखण्डसंकरा अस्त्राय फट्। सनत्कुमार ऋषिः अत्युक्तछन्दः दुर्गा देवता ऐं ह्रीं श्रीं गं नमः। - जगदेकः

इस मन्त्र में खण्ड शब्द द्यूत का संकेतक हो सकता है। गान्धार स्वर मध्यम स्वर से पूर्ववर्ती स्वर है। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि मध्यम स्वर की स्थिति मध्य में है तो गान्धार चतुर्दिक दिशाओं का प्रतीक हो सकता है। इसकी पुष्टि उपरोक्त गान्धारस्वर मन्त्र से होती है जहां चतुरस्र, त्रयस्त्र, मिश्र, संकर, खण्ड आदि का उल्लेख है। प्रत्येक दिशा एक विशिष्ट कार्य की सिद्धि हेतु होती है, जैसे पूर्व में ज्ञान की सिद्धि, दक्षिण में दक्षता की, पश्चिम में पाप नाश की, उत्तर में आनन्द की। गान्धार स्वरमन्त्र में मिश्र स्थिति का भी उल्लेख है। मन्त्र में चतुरस्र से अभिप्राय आयत द्वारा प्रदर्शित चार दिशाओं से और त्र्यस्र से अभिप्राय त्रिकोण द्वारा प्रदर्शित तीन दिशाओं से हो सकता है। आयत की चार दिशाएं तिर्यक् होती हैं। डा. फतहसिंह के अनुसार त्रिकोण दो प्रकार का होता है अधोमुखी और ऊर्ध्वमुखी । यह उन्मनी और समनी स्थितियों का सूचक हो सकता है। वास्तविक संगीत में गान्धार स्वर क्या इन्हीं उद्देश्यों के लिए प्रकट हुआ है, यह अन्वेषणीय है।

गान्धार स्वर को ऐतरेय ब्राह्मण ५.१ में पृष्ठ्य षडह याग के तृतीय दिवस के लक्षणों के आधार पर समझने का प्रयत्न भी किया जा सकता है। तृतीय अह के लक्षण हैं जगती छन्दः, कृतम्, समानोदर्कं, अश्ववत्, अन्तवत्, पुनरावृत्तं, पुनर्निनृत्तं, रतवत्, पर्यस्तवत्, त्रिवत्, अन्तरूप, उत्तम पद में देवता, असौ लोक, अभ्युदित, वैरूप आदि। इन लक्षणों में कृत और अन्त लक्षण ध्यान देने योग्य हैं। यदि किसी कर्म के कर्मफल का अन्त हो जाए तो वह कृत कहलाएगा। गान्धार शब्द का अर्थ होता है गं को, ज्ञान को धारण कर लिया, अब उसका क्षय नहीं होगा, क्षयरहित स्थिति। यह तभी हो सकता है जब कर्मफलों का अन्त/अस्त हो जाए, कोई पाप शेष न रहे। लेकिन गान्धार स्वर की पृष्ठ्य षडह के तृतीय दिवस से तुलना करने में दुविधा यह है कि गान्धार स्वर का छन्द त्रिष्टुप् कहा गया है जबकि तृतीय अह का छन्द जगती है। जगती में ही पापों का नाश होता है। त्रिष्टुप् छन्द दक्षता प्राप्ति के लिए होता है।

भागवत पुराण के तृतीय स्कन्ध के आधार पर भी गान्धार स्वर की व्याख्या का प्रयास किया जा सकता है। इस स्कन्ध में कर्दम-देवहूति आख्यान है। कर्दम उस कीचड को कहते हैं जो पापनाश के कारण उत्पन्न होता है।

मध्यम

मध्यम स्वर साम की उद्गीथ भक्ति के तुल्य हो सकता है। इसे सूर्य की सबसे विकसित स्थिति, मध्याह्न काल की स्थिति के रूप में समझा जा सकता है।

मध्यम स्वर को समझने का एक माध्यम शुनःशेप आख्यान को बनाया जा सकता है। आख्यान इस प्रकार है कि हरिश्चन्द्र को पुत्र रोहित वरुण की कृपा से प्राप्त हुआ था और वरुण ने मांग की कि उसे पुत्र की बलि दी जाए। जब रोहित ने यह सुना तो वह जंगल में भाग गया और सात साल बाद लौटा। लौटने पर उसने अपने स्थान पर अजीगर्त के पुत्र शुनःशेप को बलि हेतु तैयार कर लिया। इसके लिए उसने अजीगर्त को कुछ गाएं दी। शुनःशेप ने यज्ञ में अपने जीवन की रक्षा के लिए विभिन्न देवों की स्तुति की। अन्त में यज्ञ के होता? विश्वामित्र ने शुनःशेप को अपना ज्येष्ठ पुत्र बनाने का प्रस्ताव किया जिसे शुनःशेप ने स्वीकार कर लिया। लेकिन विश्वामित्र के १०० पुत्रों में से ज्येष्ठ ५० पुत्रों ने शुनःशेप का कनिष्ठ भ्राता बनना स्वीकार नहीं किया और उन्हें विश्वामित्र ने शाप दे दिया कि उनके वंशज दस्यु आदि हों। शेष ५० पुत्रों ने, जिनमें ज्येष्ठ मधुच्छन्दा था, शुनःशेप का अनुज बनना स्वीकार कर लिया। यह ध्यान देने योग्य है कि शुनःशेप के पिता अजीगर्त ने शुनःशेप का विक्रय इसलिए किया क्योंकि उनके लिए वह उपयोगी नहीं था। ज्येष्ठ पुत्र तो पिता को प्रिय था, कनिष्ठ माता को, और मध्यम पुत्र शुनःशेप किसी को नहीं। विश्वामित्र द्वारा शुनःशेप को पुत्र बना लिए जाने से विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व का लाभ हुआ। यह ध्यान देने योग्य है कि शुनः का क्या अर्थ हो सकता है। लक्ष्मीनारायण संहिता १.५७३.३२ के अनुसार यदि शिव की अर्चना की जाती है लेकिन पार्वती की नहीं, तो यह शुनः की स्थिति है। यदि शुनःशेप मध्यम स्वर का प्रतीक है तो रोहित कौन से स्वर का प्रतीक हो सकता है, यह अन्वेषणीय है। रोहित भ्रमणप्रिय है(चरैवैति), अतः यह गान्धार हो सकता है। रोहित के विकास तक की स्थिति वरुण से(कार्य-कारण सम्बन्ध?) बद्ध है। रोहित को इस बन्धन से मुक्त करना है। यह मध्यम स्वर की स्थिति हो सकती है।

मध्यम स्वर को समझने के लिए मध्यम स्वर के बृहती छन्द होने के उल्लेख का आश्रय लिया जा सकता है। बृहती छन्द की स्थिति गवामयन याग में छह मास के पश्चात् आती है। गवामयन याग के पहले छह मास विश्वजित् कहलाते हैं तथा बाद के छह मास सर्वजित्। बीच का दिन दिवाकीर्त्यं अह कहलाता है। कहा गया है कि इस दिन सूर्य की किरणें पृथिवी पर विषुवत् रेखा के अनुदिश पडती हैं। यह बृहती छन्द की स्थिति कही गई है। गवामयन याग का संक्षिप्त स्वरूप यह है कि एक श्येन के दो पक्षों का निर्माण करना होता है जो छह-छह महीनों में किया जाता है। इस प्रकार यह श्येन उडने लायक बन जाता है। मध्य में आत्मा का स्थान होता है। छह-छह महीनों के बीच के कुछ दिन बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। दिवाकीर्त्यं अह पर एक आख्यान का उच्चारण किया जाता है कि स्वर्भानु असुर ने सूर्य को ढंक लिया था। इस दिन स्वर्भानु असुर का वध हो जाता है और सूर्य कलंकरहित हो जाता है। विश्वजित् और सर्वजित् का क्या अर्थ हो सकता है, इसका विवेचन करना कठिन है, लेकिन गर्ग संहिता में एक विश्वजित् खण्ड है जिसके आधार पर विश्वजित् को समझने का प्रयत्न किया जा सकता है।

यदि क्रौञ्च द्वीप की प्रकृति के आधार पर मध्यम स्वर को समझने का प्रयत्न किया जाता है तो क्रौञ्च शब्द की टिप्पणी में क्रौञ्च की तीन स्थितियां दी गई हैं- क्रन्दन या प्रकृति रूप, पुरुष-प्रकृति का मिथुन रूप और पुरुष रूप। शुक्ल यजुर्वेद में क्रुङ् आंगिरस का उल्लेख आता है जो धी द्वारा आपः से क्षीर का पान कर लेता है।

मध्यम स्वर को समझने का एक प्रयत्न पुष्कर द्वीप के तीन प्रकारों- ज्येष्ठ, मध्यम और कनिष्ठ प्रकारों से किया जा सकता है। ज्येष्ठ पुष्कर में ब्रह्मा सोमयाग का अनुष्ठान करते हैं जिसमें उनकी पत्नी सावित्री नहीं आती, अतः उस यज्ञ का अनुष्ठान एक गोपकन्या को गौ के माध्यम से पवित्र करके उसकी गायत्री रूप में प्रतिष्ठा द्वारा किया जाता है। गायत्री सावित्री के स्थान पर ब्रह्मा की पत्नी बनती है। मध्यम पुष्कर में तप करते समय परशुराम अपनी असफलता का कारण मृग-मृगी के वार्तालाप के रूप में सुनते हैं कि यदि परशुराम कनिष्ठ पुष्कर में जाकर अगस्त्य से कृष्ण प्रेमामृत स्तोत्र सीख लें तो उन्हें सफलता मिल सकती है। अतः यह कहा जा सकता है कि जिस स्थिति में मृग रूपी अन्तरात्मा की आवाज बोलने लगे, वह मध्यम स्वर है। मध्यम स्वर की तुलना पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग के चतुर्थ अह से की जा सकती है। इस दिवस के लक्षण प्रथम दिवस के समान ही हैं, लेकिन उन लक्षणों में जातवत्, हववत्, शुक्रवत्, वाक् रूप, वैमद, विरिफित, विच्छन्द, ऊनातिरिक्त, वैराज, अनुष्टुप् आदि लक्षण और जुड जाते हैं। जातवत् लक्षण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि षड्ज स्वर की स्थिति में जो लक्षण गर्भरूप में थे, मध्यम स्वर की स्थिति में वही लक्षण अब बाहर प्रकट हो गए हैं।

मध्यमः

*नादः समुत्थितो नाभेरुरःकण्ठसमाहृतः। नाभिं प्राप्तः पुनर्मध्यस्थानगो मध्यमः स्मृतः।। - पण्डितमण्डली

*मध्यमश्चैकवक्त्रः स्याद्धैमवर्णश्चतुःकरः। सवीणाकलशी हस्तौ सपद्मवरदौ तथा।। भारती दैवतं द्वीपं कुशं वंशं सुपर्वजम्। गाता चन्द्रो रसश्शान्तः क्रौञ्चो वाहनमस्य तु।। - सुधाकलशः

*बृहतीछन्दः, हास्यशृङ्गारौ रसौ, ऋष्यादौ विनियोगः। क्रौञ्चः क्वणति, देवकुलसंभवः, कुन्दवर्णः, ब्राह्मणजातिः, क्रौञ्चद्वीपजः, महोलोकवासी, काश्मीरवासी, सौम्यवासरजः, यजुर्वेदी, माध्यन्दिनी शाखा, त्रिंशद्वर्षः, कलाचतुष्ट्यवान्, स्वरकर्मणि प्रयुक्तः, चतुःश्रुतिः। - पण्डितमण्डली

*मध्यमो मध्यमस्थानाच्छरीरस्योपजायते। अभिमूलाच्च गम्भीरः किञ्चित्तारस्वभावतः।। - सङ्गीतसरणिः

*मध्यमस्वरमन्त्रः तत्वं हृदयाय नमः। ओखः शिरसे स्वाहा। अनुगतः शिखायै वषट्। समः कवचाय हुम्। उपरि नेत्रत्रयाय वौषट्। उपपदास्त्राय फट्। मित्र ऋषिः सुप्रतिष्ठा छन्दः। सावित्री देवता। ऐं क्लीं सैं मं नमः। - जगदेकः

*मध्यमस्वराभिनयः पताकौ स्वस्तिकौ कृत्वा शिरसा विधुतेन च। शैवाख्यस्थानकेनापि कटिछिन्नेन वा पुनः। दृष्ट्या च हास्यया धीरैरभिनेयोऽत्र मध्यमः।। - दामोदरः

*ततस्तु मध्यमो नाम कल्पोऽष्टादश उच्यते। यस्मिंस्तु मध्यमो नाम स्वरो धैवतपूजितः। उत्पन्नः सर्वभूतेषु मध्यमो वै स्वयंभुवः।। - वायु पुराण २१.३६

लौकिक संगीत में कोई राग किस समय गाया जाएगा, इसका निर्णय आंशिक रूप में मध्यम स्वर के शुद्ध अथवा तीव्र होने से किया जाता है। तीव्र से लगता है कि अभिप्राय यह है कि मध्यम स्वर की ध्वनि की आवृत्ति पंचम स्वर के समकक्ष या उससे भी अधिक हो जाएगी। छान्दोग्य उपनिषद २.२२ में उद्गीथ की निम्नलिखित स्थितियों का उल्लेख है

अग्नेरुद्गीथोऽनिरुक्तः प्रजापतेर्निरुक्तः सोमस्य मृदु श्लक्ष्णं वायोः श्लक्ष्णं बलवदिन्द्रस्य क्रौञ्चं बृहस्पतेरपध्वान्तं वरुणस्य तान्सर्वानेवोपसेवेत वारुणं त्वेव वर्जयेत्।

पञ्चम

पञ्चम स्वर साम की प्रतिहार भक्ति के तुल्य हो सकता है। प्रतिहार के विषय में कहा गया है कि इसमें अन्न का हरण किया जाता है। मध्यम अथवा उद्गीथ भक्ति द्वारा विकसित हुए सर्वोच्च स्थिति के प्राणों को, गुणों को जिस अन्न की आवश्यकता पडती होगी, पञ्चम स्वर उस अन्न को प्रदान करता होगा। नारद का वीणावादन पञ्चम स्वर में होता है।

पञ्चम स्वर हेतु पंक्ति छन्द का निर्देश है। पंक्ति छन्द का एक लक्षण यह होता है कि इस छन्द में पांच पंक्तियां या पद होते हैं। सोमयाग का एक प्रकार पृष्ठ्य षडह कहलाता है जिसमें मुख्य साधना के छह दिन होते हैं। पहले दिन की संज्ञा रथन्तर, दूसरे दिन की बृहत्, तीसरे दिन की वैरूप, चौथे दिन की वैराज, पांचवें दिन की शक्वर तथा छठें दिन की संज्ञा रैवत होती है। इन नामों का कारण यह है कि इन दिनों में इन-इन सामों का गान पृष्ठ साम के रूप में होता है। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक दिवस के कुछ विशिष्ट लक्षण ऐतरेय ब्राह्मण आदि में कहे गए हैं। पांचवें दिवस के लक्षणों में से कुछ यह हैं(ऐतरेय ब्राह्मण ५.६)- गौर्वै देवता पञ्चममहर्वहति त्रिणवः स्तोमः शाक्वरं साम पङ्क्तिश्छन्दो यथादेवतमेनेन यथास्तोमं यथासाम यथाछन्दसं राध्नोति य एवं वेद। यद्वै नेति न प्रेति यत्स्थितं तत्पञ्चमस्याह्नो रूपम्। यद्धेव द्वितीयमहस्तदेतत् पुनर्यत्पञ्चमम्। यदूर्ध्ववत् प्रतिवद्यदन्तर्वद् यद् वृषण्वद्यद् वृधन्वद्यन्मध्यमे पदे देवता निरुच्यते यदन्तरिक्षमभ्युदितम्। यद्दुग्धवद् यदूधवद्यद्धेनुमद्यत्पृश्निमद्यन्मद्वत्पशुरूपं यदध्यासवद् विक्षुद्रा इव हि पशवो, यज्जागतं जागता हि पशवो, यद्बार्हतं बार्हता हि पशवो, यत्पाङ्क्तं पाङ्क्ता हि पशवो, यद्वामं वामं हि पशवो, यद्धविष्मद्धविर्हि पशवो, यद्वपुष्मद्वपुर्हि पशवो, यच्छाक्वरं यत्पाङ्क्तं यत्कुर्वद्, यद्द्वितीयस्याह्नो रूपमेतानि वै पञ्चमस्याह्नो रूपाणि। इन लक्षणों में दुग्धवत् लक्षण ध्यान देने योग्य है। प्रकृति में दुग्ध की स्थिति तभी उत्पन्न होती है जब सारे तनाव समाप्त हो जाते हैं। चतुर्थ अह के लक्षणों में से एक है हववत्। लेकिन पंचम अह में आकर यह लक्षण हविष्मत् हो गया है। यह देवताओं को हवि प्रदान कर सकता है। पङ्क्ति छन्द लक्षण के विश्लेषण के संदर्भ में, सोमयाग में अग्निचयन नामक एक कृत्य होता है जिसमें अग्नि का चयन पांच चितियों या परतों में किया जाता है। चयन से अर्थ है कि मिट्टी की पकी ईंटों द्वारा एक परत का निर्माण इस प्रकार किया जाता है कि एण्ट्रांपी या अव्यवस्था न्यूनतम हो। यदि पांच परतों में एण्ट्रांपी को न्यूनतम रखने में सफलता मिल जाए तो अग्नि श्येन का रूप धारण कर उडने और स्वर्ग से सोम लाने में सफल हो सकती है। इन पांच परतों को पंक्ति छन्द के पांच पद कहा गया है(तैत्तिरीय संहिता ५.६.१०.३)। यह पांच परते पशु में लोम, त्वक्, मांस, अस्थि व मज्जा हो सकती हैं(ऐतरेय ब्राह्मण २.१४, ६.२९) जिनका चयन करना है। यहां लोम, त्वक् आदि को सामान्य जीवन के स्तर पर न लेकर साधना के स्तर पर लेना अधिक उपयुक्त होगा। उदाहरण के लिए, जब साधना में हर्ष उत्पन्न होता है तो रोमांच के कारण लोम खडे हो जाते हैं।

जहां संगीत के ग्रन्थ पंचम स्वर की पहिचान पांच स्थानों से उत्पन्न होने वाले अथवा उठने वाले स्वर के रूप में कर रहे हैं, वहीं साधना के स्तर पर पंचम दिवस की पहिचान पांच स्तरों पर व्यवस्था उत्पन्न करने के रूप में की जा रही है। यह व्यवस्था पांचों स्तरों पर, लोम से लेकर मज्जा तक, एक साथ उत्पन्न होनी है, अथवा इसे क्रमिक रूप में भी किया जा सकता है, इस पर मतभेद हो सकता है। शतपथ ब्राह्मण में पंक्ति छन्द के विषय में कहा गया है कि पशु के चार पाद होते हैं लेकिन एक अतिरिक्त छिपा हुआ पाद भी होता है जो उसका मुख है। यह ऊर्ध्व पाद का एक उदाहरण है। चार पाद तो तिर्यक् दिशा में ही हैं। भागवत के पंचम स्कन्ध में जड भरत का आख्यान है जहां जड भरत जब सौवीरराज की शिबिका का वहन कर रहे होते हैं तो वह शिबिका ऊपर- नीचे होती है। यहीं से पांचवें पाद का आरम्भ कहा जा सकता है।

पंचम अह का एक लक्षण शाक्वर है। शाक्वर का स्वरूप इस दिन गाए जाने वाले शाक्वर या महानाम्नी साम के आधार पर समझा जा सकता है। महानाम्नी के संदर्भ में कहा गया है कि महानाम्नियों ने प्रजापति से पांच बार नाम प्रदान करने की मांग की और प्रत्येक बार प्रजापति ने उन्हें नाम प्रदान किए। नाम से तात्पर्य होता है वह स्वर जिससे सोए हुए प्राण जाग जाएं। सोता हुआ व्यक्ति भी नाम लेने पर उठ खडा होता है। लगता है वैदिक साहित्य में सोए हुए प्राणों की पहिचान यव-व्रीहि के रूप में की गई है(शतपथ ब्राह्मण १.२.३.७)। जब यवों को पीस दिया जाता है तो वह लोम सदृश बन जाते हैं। जब उनमें आपः मिलाया जाता है तो वह त्वक् जैसे बन जाते हैं। जब उनका संयोजन किया जाता है तो वह मांस जैसे, संतत बन जाते हैं। जब उनको पकाया जाता है तो वह अस्थि बन जाते हैं। अस्थि दारुण होती है। जब पकाने के पश्चात् उन पर घृत लगाया जाता है तो वह मज्जा को धारण करने वाले बन जाते हैं।

शतपथ ब्राह्मण ३.२.३.१ में प्रायणीय इष्टि के संदर्भ में पंक्ति की पहिचान पांच देवताओं के रूप में की गई है जो यज्ञ के निष्पादन में सहयोग करते हैं। पांच स्तरों पर यज्ञ होने लगे, यही पांच चितियों के चयन के तुल्य हो सकता है। कहा गया है कि यज्ञ के निष्पादन के लिए पहला देवता तो अदिति है। इससे प्रायणीय आदित्य का स्वरूप क्या होगा तथा उदयनीय आदित्य का स्वरूप क्या होगा, इसका ज्ञान होता है। प्रायणीय से अर्थ है कि यज्ञ आरम्भ करने से पूर्व आदित्य के जिस स्वरूप को हमें यज्ञ का आधार बनाना है वह। आरम्भ में तो अपने अन्दर कहीं आदित्य के दर्शन नहीं होते। अतः हो सकता है कि क्षुधाग्नि के रूप में आदित्य की कल्पना करनी पडे, अथवा तीसरे चक्षु के रूप में आदित्य की कल्पना करनी पडे। इसी प्रकार यज्ञ के अवसान पर आदित्य का स्वरूप उदयनीय कहलाता है। इसकी पहचान करने वाली देवता को भी अदिति ही कहा गया है। यह आदित्य सूर्य जैसा होगा अथवा चन्द्रमा जैसा, इसकी पहिचान अदिति देवता द्वारा करनी होगी। अदिति देवता की स्थापना के पश्चात् पथ्या स्वस्ति देवता का प्राकट्य होना चाहिए जो वाक् का, आकाशवाणी का रूप है। इसके पश्चात् अग्नि देवता का प्राकट्य होना चाहिए जो यज्ञ के शुष्क भाग के विषय में सूचना देगी। इसके पश्चात् चन्द्रमा देवता का प्राकट्य होना चाहिए जो यज्ञ के आर्द्र या सौम्य भाग के विषय में सूचना देगा। इसके पश्चात् सविता देवता का प्राकट्य होना चाहिए जो यज्ञ का निष्पादन किस प्रकार करना है, इस विषय में प्रेरणा देगा।

पञ्चमः

*नाभेः समुत्थितो वायुरोष्ठकण्ठशिरोहृदि। पञ्चस्थानसमुद्भूतः पञ्चमस्तेन कीर्तितः।। - कुम्भः

*प्राणो ऽपानस्समानश्चोदानो व्यान एव च। एतेषां समवायेन जायते पञ्चमस्वरः।। - संगीतसरणिः

*मरुन्नाभिस्थितो वक्षःकण्ठशीर्षाधराहतः। पञ्चस्थानोद्भवो यस्मात्पञ्चमः कथितस्ततः।। - पण्डितमण्डली

*पञ्चमो ऽप्येकवदनो भिन्नवर्णश्च षट्करः। वीणाकरद्वये शङ्खाब्जे वापि वरदाभये।। स्वयंभूर्दैवतं द्वीपं शाल्मलिः पितृवंशजः। कोकिलावाहनं गाता नारदः प्रथमो रसः।। - सुधाकलशः

*पङ्क्तिच्छन्दः, हास्यशृङ्गारयोर्विनियोगः, कोकिलो रौति पितृवंश्यः, जलदश्यामः, ब्राह्मणः, शाल्मलिद्वीपभूः, जनोलोकवासी, कान्यकुब्जदेशीयः, जीववारजः, सामवेदी, कौथुमशाखी, पञ्चत्रिंशद्वत्सरः, पञ्चकलः, उत्सवे विनियुक्तः, चतुश्श्रुतिः। - पण्डितमण्डली

*पञ्चमस्वरमन्त्रः द्रुतो हृदयाय नमः। मध्यश्शिरसे स्वाहा। विलम्बितं शिखायै वषट्। द्रुतलम्बः कवचाय हुम्। द्रुतमध्यः नेत्रत्रयाय वौषट्। मध्यमलम्बः अस्त्राय फट्। वरुण ऋषिः सुप्रतिष्ठा छन्दः आन्हवी देवता। ऐं ह्रीं श्रीं पं नमः। - जगदेकः

धैवत

नारद पुराण में धैवत स्वर द्वारा असुर, निषाद व भूतग्राम के तृप्त होने का उल्लेख है। यहां भूतग्राम से तात्पर्य हमारे पूर्व जन्म के संस्कारों से हो सकता है। यदि धैवत शब्द का वास्तविक रूप दैवत हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ होगा कि धैवत स्वर में पुरुषार्थ का अभाव है, केवल कृपा, दैव शेष है। प्रथम स्थिति में धैवत/दैवत स्वर का रस भयानक या बीभत्स कहा जाएगा और दैवकृपा प्राप्त होने पर यह करुण रस बन जाएगा।

नारदीय शिक्षा में धैवत स्वर के देवता के रूप में ह्रास-वृद्धि वाले सोम का उल्लेख है। अध्यात्म में, वृद्धि-ह्रास हमारे चेतन-अचेतन मन में हो सकता है।

धैवत शब्द का मूल धे धातु है जिससे धयति शब्द बनता है जिसका अर्थ वत्स द्वारा माता के दुग्ध का पान करना, अथवा माता द्वारा वत्स को दुग्ध का पान कराना होता है। इस प्रकार धैवत शब्द का रूप धयवत् या धयवत्स होना चाहिए। सोमयाग के कर्मकाण्ड में गौ के सारे दुग्ध का दोहन यज्ञ में आहुति हेतु कर लिया जाता है, वत्स को भूखा रखा जाता है। इसका कारण यह दिया गया है कि वत्स आसुरी है। गौ के पयः का उपयोग दैव कार्य के लिए होना चाहिए, न कि आसुरी कार्य के लिए। धैवत स्वर का भयानक व करुण रस और हाहा ऋषि है, जबकि निषाद स्वर का शान्त रस और हूहू ऋषि है। पुराणों में हाहा-हूहू ऋषियों में प्रतिस्पर्द्धा चलती रहती है। हाहा-हूहू ऋषि ही परस्पर शाप से गज-ग्राह बनते हैं जिनकी कथा भागवत में प्रसिद्ध है। ऐसा कहा जा सकता है कि हाहा साधना में कोई भयानक रस की स्थिति है जबकि हूहू कोई आनन्द की स्थिति। इस कल्पना की पुष्टि कथाओं से अपेक्षित है।

*गत्वा नाभेरधो भागं वस्तिं प्राप्योर्ध्वगः पुनः। धावन्निव च यो याति कण्ठदेशं स धैवतः।। - सङ्गीतसरणिः

*धैवतो गौरवर्णः स्यादेकवक्त्रश्चतुर्भुजः। वीणाकलशखट्वाङ्गफलशोभितसत्करः। शम्भुस्तु दैवतं श्वेतं द्वीपं स्यादृषिजं कुलम्। रसो भयानकश्चाश्वो यानं गाता तु तुम्बुरुः।। - सुधाकलशः

अविकसित स्थिति में धैवत/दैवत स्वर का रस भयानक या बीभत्स कहा जाएगा और दैवकृपा प्राप्त होने पर यह करुण रस बन जाएगा।

*पताकः पुङ्खिताकारो रेचित्वमुपाश्रितः। द्रुता दृष्टिश्च विज्ञेया धैवतार्थे प्रयुज्यते।। - शृङारः

*उष्णिक् छन्दः करुणरसः दर्दुरो वदति, ऋषिकुलीनः, चम्पकप्रभः, क्षत्रियः, श्वेतद्वीपभूः, सत्यलोकवासी, चोलदेशीयः, शुक्रवारजः, सामवेदी, कौमुदशाखी, चत्वारिंशद्वार्षिकः, षट्कलावान्, क्षात्रकर्मणि प्रयुक्तः, नीचस्वरः, त्रिश्रुतिः पण्डितमण्डली

इस कथन में धैवत स्वर का छन्द उष्णिक् कहा गया है । उष्णिक् छन्द वह हो सकता है जिसमें किसी कार्य को करते समय ऊष्मा का अवशोषण या जनन होता हो। देवनागरी वर्णमाला में अन्तस्थ वर्णों य, र, ल, व को ऊष्मा का अवशोषण करने वाले तथा ऊष्माण वर्णों श, ष, स को ऊष्मा का जनन करने वाला कहा गया है। अन्तस्थ वर्णों को आत्मा का बल तथा ऊष्माणों को इन्द्रिय कहा गया है(भागवत पुराण)। उष्णिक् छन्द के सम्बन्ध में एक अनुमान दुर्गा सप्तशती के मध्यम चरित्र से लगाया जा सकता है। मध्यम चरित्र का छन्द उष्णिक् है। दुर्गा सप्तशती के मध्यम चरित्र में देवगण अपना-अपना तेज देकर एक देवी का निर्माण करते हैं जो महिषासुर का वध करने में समर्थ होती है। अतः यह कहा जा सकता है कि यदि अतिरिक्त मात्रा में ऊष्मा विद्यमान है तो उसे शुद्ध तेज में रूपान्तरित होना चाहिए।

धैवत स्वर को शुक्रवार से सम्बद्ध किया गया है। जब सात वारों के आधार पर एक वृक्ष की कल्पना की जाती है तो शुक्र को कच्चा फल कहा गया है। बृहस्पति(वर्तमान संदर्भ में पञ्चम स्वर) को पका फल या जीव कहा गया है। ज्योतिष शास्त्र में शुक्र ग्रह के प्रभाव में जन्मे जातक को भोगप्रिय, स्त्रीप्रिय कहा जाता है। शुक्र से प्रभावित व्यक्ति संसार के सारे भोगों का आस्वादन क्षण भर में ही कर लेना चाहता है, बिना उचित प्रयत्न किए। लेकिन पौराणिक और वैदिक साहित्य में शुक्र की दूसरी अवस्था की ओर भी संकेत है उत्तान स्थिति(उत्तानपर्णे सुभगे ऋग्वेद १०.१४५.२ ऋचा का विनियोग शुक्र ग्रह हेतु है), सिर नीचे, पैर ऊपर। मन्त्र में दर्दुर को धैवत शब्द उच्चारण करने वाला कहा गया है। साहित्य में मण्डूक सर्वदा वृष्टि की, दिव्य प्राणों की वृष्टि की कामना करता रहता है। हो सकता है धैवत स्वर इस कामना की पूर्ति करता हो।

*धैवतस्वरमन्त्रः गोपुच्छ हृदयाय नमः। स्रोतोवहः शिरसे स्वाहा। समा शिखायै वषट् समा कवचाय हुम्। अर्तिसमः नेत्रत्रयाय वौषट्। हाहा ऋषिः प्रतिष्ठा छन्दः शची देवता। ऐ क्लीं सौं धं नमः।

धैवत के उपरोक्त मन्त्र में इस स्वर को स्रोतवाही कहा गया है। आयुर्वेद में स्रोतवाही द्रव्य वह होते हैं जो देह के सूक्ष्म छिद्रों में प्रवेश की सामर्थ्य रखते हैं, जैसे गुग्गुल, तिल आदि। प्रयुज्यमान ओषधि को स्रोतवाही द्रव्य के साथ मिश्रित कर दिया जाता है जिससे वह देह के अपेक्षित अंग तक पहुंच सके। देह में शुक्र धातु को भी एक प्रकार से स्रोतवाही के रूप में समझा जा सकता है।

*धैवताभिनयः काङ्गूलहस्तकौ कृत्वा दृष्ट्या बीभत्सया तथा। परावृत्ताख्यमूर्ध्ना च प्रत्यालीढाभिधेन च। स्थानकेन विनिर्देश्यो धैवतो निपुणैर्नटैः।।

*निर्हासो यश्च वृद्धिश्च ग्राममासाद्य सोमवत्। तस्मादस्य स्वरस्यापि धैवतत्वं विधीयते।। - नारदीय शिक्षा १.५.१८

साम भक्तियों में उपद्रव भक्ति को धैवत के तुल्य कहा जा सकता है। उपद्रव भक्ति के विषय में कहा गया है कि आरण्यक पशु उपद्रवण कर जाते हैं, अतः इसका नाम उपद्रव है। ग्राम्य पशु वह हैं जिन पर हम थोडा-बहुत नियन्त्रण कर सकते हैं। लेकिन आरण्यक पशुओं पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता। यह हमारे विशिष्ट प्रकार के पापों, बन्धनों का रूप हो सकता है।

*द्यौर्वै देवता षष्ठमहर्वहति त्रयस्त्रिंशः स्तोमो रैवतं सामातिच्छन्दाश्छन्दो यथादेवतमेनेन यथास्तोमं यथासाम यथाछन्दसं राध्नोति य एवं वेद। यद्वै समानोदर्कं तत्षष्ठस्याह्नो रूपं यद्ध्येव तृतीयमहस्तदेतत्पुनर्यत्षष्ठं यदश्ववद्यदन्तवद्यत्पुनरावृत्तं यत्पुनर्निनृत्तं यद्रतवद्यत्पर्यस्तवद्यत्त्रिवद्यदन्तरूपं यदुत्तमे पदे देवता निरुच्यते यदसौ लोकोऽभ्युदितः, यत्पारुच्छेपं यत्सप्तपदं यन्नाराशंसं यन्नाभानेदिष्ठं यद्रैवतं यदतिच्छन्दा यत्कृतं यत्तृतीयस्याह्नो रूपमेतानि वै षष्ठस्याह्नो रूपाणि इति। - ऐतरेय ब्राह्मण ५.१२

धैवत के वैदिक संदर्भ

सा(आहुतिः) हैनं नाऽभिराधयाञ्चकार। केशमिश्रमिव हास। तां व्यौक्षत्-ओषं धयेति। तत ओषधयः समभवन्-तस्मादोषधयो नाम। - शतपथ ब्राह्मण २.२.४.५

अथ द्वितीयां जुहोति- उपसृजन्धरुणं मात्रे इति। अग्निमेवैतत्पृथिव्याऽउपसृजन्नाह। धरुणो मातरं धयन् इति। अग्निमेवैतत्पृथिवीं धयन्तमाह। - शतपथ ब्राह्मण ४६.९.९

यदापिपेष मातरं पुत्रः प्रमुदितो धयन्। एतत्तदग्ने अनृणो भवाम्यहतौ पितरौ मया इति। - शतपथ ब्राह्मण १२.७.३.२१

इयं वै धेनुः। इमामेव सर्वान् कामान् दुहे । वत्सं पूर्वस्यां दधाति। मातरमुत्तरस्याम्। यदा वै वत्सो मातरं धयति। अथ सा प्रत्ता दुहे प्रत्तामेवैमां सर्वान् कामान् दुहे। - शतपथ ब्राह्मण १२.९.३.११

निषाद

निषाद स्वर हेतु जगती छन्द का निर्देश है। जगती छन्द पाप नाश हेतु होता है। निषाद स्वर का वार शनिवार कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण ४.६.८.१-२ का कथन है या वै दीक्षा सा निषत्, तत् सत्रम्। शतपथ ब्राह्मण ५.४.४.५ तथा १२.८.३.१० में वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता १०.२७ व २०.२ में प्रकट हुई निम्नलिखित यजु की व्याख्या की गई है-

निषषाद धृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा। साम्राज्याय सुक्रतुः।।

इस यजु का विनियोग आसन्दी पर बिछे हुए कृष्णाजिन पर आरूढ होने हेतु है। पस्त्यम् का अर्थ शतपथ ब्राह्मणकार ने विशः या प्रजा तथा सायणाचार्य ने वैरिग्रह किया है। इन कथनों से यह संकेत मिल रहा है कि साधना काल में मनुष्य को दृढ निश्चय के साथ बैठना पडता है कि अब या तो मेरी साधना पूर्ण होगी या मेरा अन्त हो जाएगा। लेकिन फिर मन में बहुत से संकल्प-विकल्प आते हैं, बहुत भय लगता है। लगता है कि निषाद स्वर मन्त्र में वादी, विवादी, अनुवादी आदि कहकर इन्हीं संकल्पों-विकल्पों की ओर संकेत किया गया है। यह सब निषाद व्यञ्जन के रूप हो सकते हैं। इन व्यञ्जनों से शुद्ध निषाद स्वर का विकास करना है। उस स्थिति में निषाद स्वर का रस शान्त रस कहा जा सकता है।

निषाद शब्द को पुराणों में निषध, नैषध शब्द के आधार पर भी समझने का प्रयत्न किया जा सकता है। नैषध देश का राज्य आग्नीध्र-पुत्र हरिवर्ष को प्राप्त होता है। और नैषधराज की रानी का नाम सीमन्तिनी है। नैषध देश का राजा नल है। कर्मकाण्ड में आग्नीध्र नामक ऋत्विज की यह प्रकृति है कि वह अन्तर्मुखी भी हो सकता है, बहिर्मुखी भी। वह सीमा पर बैठा हुआ है। कथासरित्सागर ५.२.३३ में शक्तिदेव नामक विप्रकुमार कनकपुरी का मार्ग पूछने के लिए सत्यव्रत नामक निषाद के पास पहुंचता है। दूसरी ओर, ब्रह्माण्ड पुराण में उल्लेख आता है कि परशुराम ने निषधराज का वध शक्ति से किया। शक्ति से अर्थ हमारी सांसारिक कार्यों में लग रही ऊर्जा से, तिर्यक् शक्ति से है। कनकपुरी के दर्शन हेतु यह आवश्यक है कि इस शक्ति को समाप्त किया जाए। जब यह शक्ति बहिर्मुखी होगी तो यह आह्लाद उत्पन्न करेगी। यह निषाद स्वर का हूहू ऋषि हो सकता है। रामायण में राम निषादराज गुह से मित्रता करते हैं। इस आख्यान में गुह शब्द को भी गुहा, कनकपुरी के अर्थों में लिया जा सकता है। स्कन्द पुराण में निषध पर्वत को ओषधि से रहित कहा गया है। ओष का अर्थ उषा लिया जा सकता है। जो उषा से रहित है, जहां सूर्य का उदय नहीं होता, सदैव रात्रि, सदैव अन्तर्मुखी स्थिति रहती है, वह निषध पर्वत है। निषाद/अतिस्वार्य स्वर द्वारा ओषधि व अन्य जगत के तृप्त होने का उल्लेख है(सामविधान ब्राह्मण)।

साम की भक्तियों में निषाद स्वर निधन भक्ति के तुल्य हो सकता है।

निषादः

*जगती छन्दः, करुणो रसः, गजो बृह्मति, दैत्यकुलजः, नानावर्णः, वैश्यः, पुष्करद्वीपभवः, तपोलोकवासी, नेपालदेशीयः, शनिवारजः, आथर्वणः, काण्वशाखी, षष्टिवार्षिकः, सप्तकलः, विनोदकर्मनियुक्तः, उच्चस्वरः, द्विश्रुतिः, गणेशदैवत्यः। - पण्डितमण्डली

*निषीदन्ति स्वरा अत्र निषादस्तेन हेतुना पण्डितमण्डली

*निषादो गजवक्त्रः स्याच्चित्रवर्णश्चतुर्भुजः। त्रिशूलपद्मपरशुबीजपूरकभृत्करैः।। गणेशो दैवतं क्रौञ्चो द्वीपं वंशं सुपर्वजम्। गाता च तुम्बुरुः शान्तो रसस्स्याद्वाहनं गजः।। - सुधाकलशः

*निषादस्वरमन्त्रः मूर्छना हृदयाय नमः। तानः शिरसे स्वाहा। वादी शिखायै वषट्। संवादी कवचाय हुम्। अनुवादी नेत्रत्रयाय वौषट्। विवादी अस्त्राय फट्। हूहू ऋषिः अत्युक्तश्छन्दः महालक्ष्मीर्देवता। ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौं निं नमः। - जगदेकः

*निषादाभिनयः हस्तेन करिहस्तेन कटिहस्तेन दीनया। दृष्ट्या विधूतशिरसा निषादं सन्निरूपयेत्।। - दामोदरः

*ततो विंशतिमः कल्पो निषादः परिकीर्तितः। प्रजापतिस्तु तं दृष्ट्वा स्वयम्भूप्रभवं तदा। विरराम प्रजाः स्रष्टुं निषादस्तु तपो अतपत्। दिव्यं वर्षसहस्रन्तु निराहारो जितेन्द्रियः। तमुवाच महातेजा ब्रह्मा लोकपितामहः। ऊर्ध्वबाहुं तपोग्लानं दुःखितं क्षुत्पिपासितम्। निषीदेत्यब्रवीदेनं पुत्रं शान्तं पितामहः। तस्मान्निषादः सम्भूतः स्वरस्तु स निषादवान्। - वायु पुराण २१.४२

*निषीदन्ति स्वरा यस्मान्निषादस्तेन हेतुना। सर्वाँश्चाभिभवत्येमं यदादित्योस्य दैवतमिति।। - नारदीय शिक्षा १.५.१९

श्री एम. रामकृष्ण कवि-कृत भरतकोशः (मुन्शीराम मनोहरलाल, दिल्ली) से साभार संकलित २२-४-२०११ ई.( वैशाख कृष्ण पञ्चमी, विक्रम संवत् २०६८)

स्वर और उनसे सम्बद्ध श्रुतियां

*कण्ठादुत्तिष्ठते षड्जः शिरसस्त्वृषभः स्मृतः। गान्धारस्त्वनुनासिक्य उरसो मध्यमः स्वरः। उरसः शिरसः कण्ठादुच्छ्रितः पञ्चमः स्वरः। ललाटाद्धैवतं विद्यान्निषादं सर्वसन्धिजम्।। - नारदीय शिक्षा १.५.५

सामवेद व गान्धर्ववेद में स्वर

संगीत रत्नाकर १.३.५२ के अनुसार स्वरों के कुल, जाति आदि(श्रीमती विमला मुसलगाँवकर की पुस्तक से साभार)

उपरोक्त तालिका में स्वरों के नक्षत्र, राशि आदि कहां से लिए गए हैं, यह पता नहीं है।

वैदिक कर्मकाण्ड के विभिन्न कृत्यों में तानों में वर्जित स्वर(संगीत रत्नाकर १.४.७२ के अनुसार डा. लक्ष्मीनारायण गर्ग द्वारा तालिकाबद्ध)

उपरोक्त तालिका में षड्जहीन और षड्जपंचमहीन तानों के प्रयोग का उल्लेख है। लेकिन वर्तमान में लौकिक रागों में जो तानें उपलब्ध हैं, उनमें तो इस प्रकार की तानें उपलब्ध नहीं हैं। दूसरे स्तम्भ में स्विष्टकृत् याग के लिए ऋषभहीन तानों के प्रयोग का औचित्य इस प्रकार दिया जा सकता है कि अग्निहोत्र आदि इष्टियों में इष्टि के अन्त में जो प्राण शेष बचते हैं, जिन्हें इष्टि का लाभ नहीं मिल पाता, वह उपद्रव करते हैं(समाज में तो ऐसा सर्वत्र होता ही है)। इन निचले प्राणों की तुष्टि के लिए स्विष्टकृत् आहुति दी जाती है(शतपथ ब्राह्मण ११.१.६.३०)। कहा गया है कि जो उच्च स्तर के प्राण हैं, वह इन निचले स्तर के प्राणों से घृणा करते हैं, इसलिए स्विष्टकृत् आहुति अन्य प्राणों के लिए दी गई आहुति के स्थान से बचाकर दी जाती है। इसी प्रकार पत्नी के लिए भी स्विष्टकृत् आहुति का विधान है(शांखायन ब्राह्मण ३.९)। स्विष्टकृत् को वास्तु कहा गया है। ऋषभ स्वर का प्रयोग दक्षता प्राप्ति के लिए किया जाता है। स्वाभाविक है कि निचले प्राणों के लिए, पत्नी रूपी प्रकृति के लिए दक्षता का सिद्धान्त नहीं चलता। अतः यहां ऋषभहीन तानों के प्रयोग का निर्देश है। यही स्थिति महाव्रत नामक सोमयाग में भी है। आरोह-अवरोह दोनों में ऋषभहीन राग गोपीवसन्त, कमलमनोहरी, कामकेश व हरीनाट हैं। इससे अगला स्तम्भ पञ्चमहीन तानों का है। पंचमहीन राग कईं हैं। इससे अगला स्तम्भ निषादहीन तानों का है। इस स्तम्भ में उक्थ व उद्भिद् आदि के लिए निषादहीन तानों के प्रयोग का निर्देश है। उक्थ से तात्पर्य सोए हुए प्राणों को उठाने का, जगाने का है। उद्भिद् से अभिप्राय उन प्राणों से है जो सीधे उठ खडे होते हैं। प्रकृति में उद्भिद् प्राण वनस्पति जगत के हैं। निषाद स्वर में निषाद शब्द निःशेषेण सीदति, अर्थात् पूर्ण रूप से बैठ जाता है, इस अर्थ का द्योतक है। अतः यह उद्देश्य के विपरीत है। निषादहीन तान का प्रयोग बंगालभैरव जैसे एकाध राग में ही हुआ है। इससे अगला स्तम्भ निषादगान्धारहीन तानों का है। इस स्तम्भ में दर्श व पौर्णमास आदि इष्टियों के लिए निषादगान्धारहीन तानों के प्रयोग का निर्देश है। इसका औचित्य यह दिया जा सकता है कि गान्धार स्वर में आरोहण-अवरोहण विद्यमान रहता है, जबकि दर्श और पूर्णिमा का चन्द्रमा इस आरोहण-अवरोहण की स्थिति से मुक्त है। तान को गान्धार के साथ-साथ निषाद स्वर से भी रहित करने का क्या उद्देश्य है, यह अन्वेषणीय है। निषादगान्धारहीन तानों वाले राग श्रीकल्याण, गुणकरी, जलधर केदार, दुर्गा बिलावल व यशरंजनी हैं। इससे अगले स्तम्भ में पंचमऋषभहीन तानों का प्रयोग कहां-कहां किया जाना है, इसका निर्देश है। शान्तिकृत्, पुष्टिकृत्, उच्चाटन, वशीकरण आदि उद्देश्यों के लिए पंचमऋषभहीन तानों के प्रयोग का निर्देश है। पंचमऋषभहीन तानों वाले राग चन्द्रकौंस, दुर्गाभैरव, भिन्नषड्ज, मालकौंस, राजेश्वरी, सांझ का हिंडोल, व हिंडोल हैं। कहा गया है कि मालकौंस राग का प्रयोग शिव सर्पों को माला की भांति गले में धारण हेतु करते हैं। यह शान्तिकृत् व वशीकरण का एक उदाहरण हो सकता है।

प्रथम लेखन २३-१२-२०११ई.(पौष कृष्ण चतुर्दशी, विक्रम संवत् २०६८,

अन्तिम संशोधन९-३-२०१२ई.(चैत्र कृष्ण प्रतिपदा, विक्रम संवत् २०६८)


*कण्ठादुत्तिष्ठते षड्जः शिरसस्त्वृषभः स्मृतः। गान्धारस्त्वनुनासिक्य उरसो मध्यमः स्वरः। उरसः शिरसः कण्ठादुच्छ्रितः पञ्चमः स्वरः। ललाटाद्धैवतं विद्यान्निषादं सर्वसन्धिजम्।। - नारदीय शिक्षा १.५.५

सामवेद व गान्धर्ववेद में स्वर

संगीत रत्नाकर १.३.५२ के अनुसार स्वरों के कुल, जाति आदि(श्रीमती विमला मुसलगाँवकर की पुस्तक से साभार)

उपरोक्त तालिका में स्वरों के नक्षत्र, राशि आदि कहां से लिए गए हैं, यह पता नहीं है।

वैदिक कर्मकाण्ड के विभिन्न कृत्यों में तानों में वर्जित स्वर(संगीत रत्नाकर १.४.७२ के अनुसार डा. लक्ष्मीनारायण गर्ग द्वारा तालिकाबद्ध)

षड्जग्राम-तान बोधिनी

उपरोक्त तालिका में षड्जहीन और षड्जपंचमहीन तानों के प्रयोग का उल्लेख है। लेकिन वर्तमान में लौकिक रागों में जो तानें उपलब्ध हैं, उनमें तो इस प्रकार की तानें उपलब्ध नहीं हैं। दूसरे स्तम्भ में स्विष्टकृत् याग के लिए ऋषभहीन तानों के प्रयोग का औचित्य इस प्रकार दिया जा सकता है कि अग्निहोत्र आदि इष्टियों में इष्टि के अन्त में जो प्राण शेष बचते हैं, जिन्हें इष्टि का लाभ नहीं मिल पाता, वह उपद्रव करते हैं(समाज में तो ऐसा सर्वत्र होता ही है)। इन निचले प्राणों की तुष्टि के लिए स्विष्टकृत् आहुति दी जाती है(शतपथ ब्राह्मण ११.१.६.३०)। कहा गया है कि जो उच्च स्तर के प्राण हैं, वह इन निचले स्तर के प्राणों से घृणा करते हैं, इसलिए स्विष्टकृत् आहुति अन्य प्राणों के लिए दी गई आहुति के स्थान से बचाकर दी जाती है। इसी प्रकार पत्नी के लिए भी स्विष्टकृत् आहुति का विधान है(शांखायन ब्राह्मण ३.९)। स्विष्टकृत् को वास्तु कहा गया है। ऋषभ स्वर का प्रयोग दक्षता प्राप्ति के लिए किया जाता है। स्वाभाविक है कि निचले प्राणों के लिए, पत्नी रूपी प्रकृति के लिए दक्षता का सिद्धान्त नहीं चलता। अतः यहां ऋषभहीन तानों के प्रयोग का निर्देश है। यही स्थिति महाव्रत नामक सोमयाग में भी है। आरोह-अवरोह दोनों में ऋषभहीन राग गोपीवसन्त, कमलमनोहरी, कामकेश व हरीनाट हैं। इससे अगला स्तम्भ पञ्चमहीन तानों का है। पंचमहीन राग कईं हैं। इससे अगला स्तम्भ निषादहीन तानों का है। इस स्तम्भ में उक्थ व उद्भिद् आदि के लिए निषादहीन तानों के प्रयोग का निर्देश है। उक्थ से तात्पर्य सोए हुए प्राणों को उठाने का, जगाने का है। उद्भिद् से अभिप्राय उन प्राणों से है जो सीधे उठ खडे होते हैं। प्रकृति में उद्भिद् प्राण वनस्पति जगत के हैं। निषाद स्वर में निषाद शब्द निःशेषेण सीदति, अर्थात् पूर्ण रूप से बैठ जाता है, इस अर्थ का द्योतक है। अतः यह उद्देश्य के विपरीत है। निषादहीन तान का प्रयोग बंगालभैरव जैसे एकाध राग में ही हुआ है। इससे अगला स्तम्भ निषादगान्धारहीन तानों का है। इस स्तम्भ में दर्श व पौर्णमास आदि इष्टियों के लिए निषादगान्धारहीन तानों के प्रयोग का निर्देश है। इसका औचित्य यह दिया जा सकता है कि गान्धार स्वर में आरोहण-अवरोहण विद्यमान रहता है, जबकि दर्श और पूर्णिमा का चन्द्रमा इस आरोहण-अवरोहण की स्थिति से मुक्त है। तान को गान्धार के साथ-साथ निषाद स्वर से भी रहित करने का क्या उद्देश्य है, यह अन्वेषणीय है। निषादगान्धारहीन तानों वाले राग श्रीकल्याण, गुणकरी, जलधर केदार, दुर्गा बिलावल व यशरंजनी हैं। इससे अगले स्तम्भ में पंचमऋषभहीन तानों का प्रयोग कहां-कहां किया जाना है, इसका निर्देश है। शान्तिकृत्, पुष्टिकृत्, उच्चाटन, वशीकरण आदि उद्देश्यों के लिए पंचमऋषभहीन तानों के प्रयोग का निर्देश है। पंचमऋषभहीन तानों वाले राग चन्द्रकौंस, दुर्गाभैरव, भिन्नषड्ज, मालकौंस, राजेश्वरी, सांझ का हिंडोल, व हिंडोल हैं। कहा गया है कि मालकौंस राग का प्रयोग शिव सर्पों को माला की भांति गले में धारण हेतु करते हैं। यह शान्तिकृत् व वशीकरण का एक उदाहरण हो सकता है।

मध्यमग्राम-तान-बोधिनी

प्रथम लेखन – २३-१२-२०११ई.(पौष कृष्ण चतुर्दशी, विक्रम संवत् २०६८,

अन्तिम संशोधन—९-३-२०१२ई.(चैत्र कृष्ण प्रतिपदा, विक्रम संवत् २०६८)