सत्यनारायण

Different stories about Satya Naaraayana can be read on websites

There is a little difference in the description of story of Satya Naraayana between what is given in Bhavishya Puraana and that available popularly, also on websites. The story available in Bhavishya puraana also points to the vedic origin of the story. At one place, it has been stated that a king is one who protects Yajna and Dharma and a thief is one who destroys the two. Yajna has been stated to mean to propitiate gods and Dharma means to donate to Braahmins and guests. The same two facts also appear in a mantra of Rigveda whose seer is Naaraayana. Here it may be pointed out that Dharma may mean the way of life at mortal stage. This mortal stage is controlled by immortal one which is called Yajna or Shruti. The mortal level in the story has been indicated by the name Kalaavati whose husband is Shankhapati. Husband is one who protects and Shankha may mean the prescribed way of life at mortal level. This level can be protected only by the knowledge of Shruti, or the knowledge heard direct from higher levels. Therefore, Shankhapati may be one who has mastered the ways of hearing Shruti.

The story defines Dharma as donation to Braahmins and guests. Actually, in vedic and puraanic literature, donation means to attain perfection. Suppose some text prescribes donation of cereals. Then it does not mean that one should buy the cereals and donates them. It may mean that he has to produce cereals by penances in himself. Not only this. Then he has to see that his Braahmanical part is also benefited by the production of cereals.

Regarding the addition of word Satya with Naaraayana in the story, one has to learn the meaning of Naaraayana first. One puraanic text states that the first stage is Nara, man. There does not exist much harmony or cohesion between different Naras. Nara can be understood on the basis of the story of king Nala who knows the art of play of dice, but not the art of spreading, ashva. The next stage is derived from Nara and it is called Naara. Naara also means water. This stage has more cohesion between individual units. But there is not much movement of consciousness in it. The next stage is Naaraayana and it resides in Naara itself. This stage is fully cohesive, free from cause and effect. One other puraanic text states that this stage, which inspires the lower stages, can be of three types – pious, mixed and dark. The mixed one is represented by lord Brahmaa who creates all this world. The pious one can be taken to mean Satya in the story.

The mention of the abode of king Chandrachooda is important. It is Manipura. Manipoora is also the name of naval chakra. This is the abode of 10 phases of fire like hunger etc. The next higher chakra is Anaahata chakra at heart. This has 12 phases of sun. The next higher chakra is Vishuddhi chakra which has 16 phases of moon. When the story introduces the name Kalaavati, it may mean that one has learned now to identify the phases of fire, sun and moon. These phases do not have much cohesion between themselves. Therefore the story writer had to introduce the protector of phases in the form of husband of Kalaavati.

(First written 15-2-2007; Faalguna Krishna Trayodashi, Vikrami Samvata 2063)

सत्यनारायण

टिप्पणी : भविष्य पुराण ३.२.२८-२९ में दी गई सत्यनारायण की कथा तथा लोक में प्रचलित सत्यनारायण की कथा में बहुत कम अन्तर है । भविष्य पुराण के अनुसार साधुवणिक् ने मणिपुर के राजा चन्द्रचूड द्वारा पारित सत्यनारायण व्रत को देखा और उसका प्रसाद ग्रहण किया जिससे उसे कलावती नामक कन्या प्राप्त हुई । कालान्तर मेंकलावती का विवाह शंखपति से हुआ । शेष कथा लोक में प्रचलित कथा जैसी ही है । लेकिन भविष्य पुराण में इस कथा के स्रोत के संकेत भी दिए गए हैं । एक स्थान पर कहागया है कि मख और धर्म, यह दो मुख्य रूप से करणीय हैं । मख का अर्थ दिया गया है - स्वधा और स्वाहा द्वारा देवों का यजन करना और धर्म का अर्थ दिया गया है - विप्रऔर अतिथि को दान । यह कथन इस कथा के मूल को उद्घाटित करता है । नारायण नामक ऋषि वाले ऋग्वेद १०.९०.१६( पुरुष सूक्त) की ऋचा है -

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।

ते ह नाकं महिमान: सचन्ते यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा: ।।

इससे पहली ऋचा देवों द्वारा यज्ञ हेतु पुरुष पशु को बांधने की है । उपरोक्त ऋचा में भी सत्यनारायण की कथा की भांति यज्ञ और धर्म दो मुख्य शब्द हैं । जैसा कि यम शब्दकी टिप्पणी में स्पष्ट किया जा चुका है, श्रौत स्तर पर यम का अस्तित्व होता है तो स्मार्त्त स्तर पर धर्म का । भविष्य पुराण की कथा में इस तथ्य को कलावती - पतिशंखपति द्वारा इंगित किया गया है । याज्ञिक परम्परा में पहले सामवेद के अनुसार स्तोत्र का गायन होता है, फिर ऋग्वेद आदि के अनुसार उसका शंसन होता है । शंसन कीप्रक्रिया मर्त्य स्तर से जबकि स्तोत्र गान की प्रक्रिया अमर्त्य स्तर से सम्बन्धित होती है । दूसरे शब्दों में यह श्रौत और स्मार्त्त से सम्बन्धित है । शंसन को ही पुराणों में शंखकहते हैं । अतः जब कलावती के पति का नाम शंखपति - शंख की रक्षा करने वाला रखा गया है तो उसका अर्थ होगा कि उसकी पहुंच श्रुति तक है । बिना श्रुति के शंसन या शंस सुरक्षित नहीं रह पाएगा । कथा में शंसन और श्रवण/श्रुति हेतु दो मार्गों का उल्लेख किया गया है - धर्म और यज्ञ । धर्म का अर्थ बताया गया है - विप्रों और अतिथियोंको दान । पौराणिक तथा वैदिक परम्परा में दान का अर्थ होता है किसी वस्तु विशेष के संदर्भ में दक्षता प्राप्त करके उसे अपने लिए तथा दूसरों के लिए भी सुलभ कराना ।उदाहरण के लिए, यदि निर्देश दिया जाता है कि यव का दान करो तो उसका अर्थ यह नहीं है कि पार्थिव यव को ग्रहण करके उसको दूसरे को दे दिया जाए । उसका वास्तविकअर्थ होगा अपने स्वयं के तप द्वारा यव का जनन और इतना ही नहीं, उस यव को इतना सबल बनाना है कि उसका प्रभाव हमारे विप्र भाग तक, शुद्ध सात्विक भाग तक भीपहुंच सके ।

सत्यनारायण कथा में नारायण के साथ सत्य शब्द को जोडना महत्त्वपूर्ण है । पहले नारायण शब्द को समझना होगा । पौराणिक साहित्य का एक सार्वत्रिक श्लोक है :

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनव: ।

अयनं मम तत् पूर्वमतो नारायणो ह्यहम् ।। - महाभारत शान्ति पर्व ३४१.४०

दूसरा श्लोक है :

आपो नारास्तत्तनव इत्यपां नाम शुश्रुम ।

अयनं तेन चैवास्ते तेन नारायण: स्मृतः ।। - महाभारत वन पर्व २७२.४२

पद्म पुराण ६.२२६.५० में नारायण शब्द की विभिन्न प्रकार से व्याख्या का प्रयास किया गया है । उनमें से एक व्याख्या यह है कि नर से उत्पन्न तत्त्व नार हैं ।उस(नारायण) का अयन वही नार हैं, अतः : उसका नाम नारायण है । अन्य व्याख्याओं को साथ मिलाकर यह निष्कर्ष निकलता है कि नर तत्त्व ऐसा है कि उसमेंपरस्पर संघात नहीं है( पुराणों में राजा नल की कथा में नल अक्ष विद्या/अपने को केन्द्रीभूत करने, अन्तर्मुखी होने की विद्या को नहीं जानता है लेकिन सार्वत्रिक रूप सेअपने को फैलाने की अश्व विद्या को जानता है ) । नर से अगला विकास नार या आपः का है जिसमें परस्पर संघात है, वह परस्पर मिला हुआ सा है । लेकिन यहसंघात पूर्ण नहीं है । इससे अगली स्थिति नारायण की है । वहां संघात की पूर्णता है । वहां कार्य और कारण मिलकर एक हो जाते हैं । ब्रह्माण्ड पुराण १.२.६.६२ का कथन है कि सूर्यों द्वारा अपनी किरणों से प्रलय करने के पश्चात् आपः, जल की स्थिति आती है । प्रकृति की इस अव्यक्त स्थिति में नारायण की विद्यमानता रहती है । यहनारायण की स्थिति तीन प्रकार की हो सकती है - सत्त्व, रज और तम । पुराणों में प्रायः वर्णन आता है कि आरम्भ में जल ही जल था । उस जल से एक पुष्कर का प्रादुर्भावहुआ । उस पुष्कर पर ब्रह्मा का प्राकट्य हुआ । ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार यह ब्रह्मा रजोगुण वाले नारायण का परिचायक है जो सृष्टि करता है ( इस कथन के अनुसारऋग्वेद के पुरुष सूक्त की प्रथम ऋचा सहस्रशीर्षा पुरुष: इत्यादि इसी रजोगुणी नारायण या ब्रह्मा के लिए है ) । इसी प्रकार तमोगुण वाले नारायण को समझ सकते हैं ।अतः सत्यनारायण की कथा यह संकेत करती है कि सत्त्व गुण वाले नारायण का प्राकट्य अभीष्ट है । सत्य का दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि वह नारायण जिसका प्रभावअमर्त्य व मर्त्य दोनों स्तरों पर फैल गया हो । पुरुष सूक्त की कुछ ऋचाओं में तीन और एक पादों का उल्लेख आता है । यह संदेह उत्पन्न करता है कि कहीं यह धर्म के चारपादों से सम्बन्धित तो नहीं है ? ऐसी स्थिति में सत्य नारायण सत्ययुग का परिचायक होगा । यह कहा जा सकता है कि धर्म के तीन पादों को ऊर्ध्वगामी बनाना तो सरल हैलेकिन जड पदार्थ में संघात उत्पन्न करना सरल नहीं है । पुरुष सूक्त की चौथी ऋचा में साशना ( क्षुधा रखने वाले भूत) और अनशना( ऐसे भूत जिनमें क्षुधा उत्पन्ननहीं होती ) का उल्लेख है । ऋचा के अनुसार पुरुष ने इन दोनों प्रकार के भूतों में अपना विस्तार किया ।

भविष्य पुराण की कथा में मणिपुर के राजा चन्द्रचूड का उल्लेख है जबकि लौकिक कथा में राजा उल्कामुख का नाम आता है । यहां मणिपुर शब्द महत्त्वपूर्ण है ।मणिपूर नाभि चक्र का नाम भी है । यहां अग्नि की स्थिति है जो दस कलाओं में विद्यमान रहती है । इन कलाओं के नाम क्षुधा, तृष्णा आदि आते हैं ( नारद पुराण ) । इससेअगली स्थिति अनाहत चक्र की है जहां सूर्य की १२ कलाएं विद्यमान रहती हैं । इससे अगली स्थिति विशुद्धि चक्र की है जहां चन्द्रमा की १६ कलाएं विद्यमान रहती हैंजिनके नाम अमृता, मानिनी, पूषा, पुष्टि, तुष्टि, रति - - - - - -पूर्णा व पूर्णामृता हैं । सत्यनारायण की कथा में साधु - पुत्री कलावती के नाम का समावेश यह संकेत करता है किअब साधक ने मणिपूर आदि चक्रों की कलाओं का अलग - अलग अभिज्ञान करना सीख लिया है । यह कलाएं मर्त्य स्तर का प्रतीक हैं । इससे ऊपर की स्थिति होगीकलावती के पति शंखपति की, जो शंसन की रक्षा कर सके, उसे श्रुति के अनुसार ढाल सके । और कलाओं के घटने की स्थिति में विभिन्न कलाओं के बीच अधिक तादात्म्यनहीं होता । यह तादात्म्य तो नारायण की स्थिति में, सत्यनारायण की स्थिति में ही पूर्णता प्राप्त करता है ।

भविष्य पुराण की कथा में साधु वणिक् के समावेश के संदर्भ में यह अन्वेषणीय है कि यह साधु पुरुष सूक्त के साध्य देवों का कोई रूपान्तर तो नहीं है ?

पुराणों में प्रायः नर व नारायण का उल्लेख साथ - साथ आता है । वैदिक साहित्य में नारायण के साथ नर का उल्लेख नहीं मिलता । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १६.२८.३में आपस्या इष्टकाओं के चयन के संदर्भ में पहले मा, प्रमा, प्रतिमा व अस्रीवयः छन्द इष्टकाओं का उल्लेख आता है और उसके पश्चात् पंक्ति आदि छन्द इष्टकाओं का ।इसके पश्चात् नारायण का उल्लेख आता है । शतपथ ब्राह्मण ८.३.३.५ में मा, प्रमा आदि छन्दों को अनिरुक्त और पंक्ति आदि छन्दों को निरुक्त छन्द कहा गया है । मा का अर्थ होता है मित, सीमित । अतः यह कहा जा सकता है कि पुराणों में जो तथ्य नर के द्वारा इंगित किया गया है, वही वैदिक साहित्य में मा, प्रमा आदि के द्वारा इंगितकिया गया है ।

The following is a reproduction of a part of explanation of the story of Satyanaaraayana by Shri Hari Shankar Joshi in "Panchama Veda Puraana"(Banaras Hindu University publication), p. 1266

The main character in the story is the merchant Saadhu. It seems that one who goes in trance is called Saadhu. Merchant means whose life force is involved in the outer business of life. The abode of the merchant, Ratnapura, is his divine trance. The boat is the boat of yoga.

The mention of the merchant being without progeny may mean that he has not yet gained any success in his penances or trance. He requires a proper preceptor which he gets in the form of king Chandrachooda observing Satya Naaraayan fast. On going home( which means on sitting for trance, his wife becomes pregnant. Here pregnancy means the appearance of some light. This light gradually ripens and takes birth in the form of phases of sun, moon etc. The marriage of Kalaavati with Shankhapati reminds one a divine marriage. In divine marriage, lord Vishnu becomes the groom.

Now, both father – in – law and groom proceed for business and reach river Narmadaa. Here Narmadaa is the key to understand the later part of the story. Narmadaa is the river which divides India into two parts – north and south. This is symbolic of two types of yoga – centering on north and centering on south. Sadhu has completed the southern part of yoga by giving birth to Kalaavati. Now he has to perform the northward yoga which can be done only by leaving behind his gross body. The king who imprisoned Saadhu and his son – in – law is actually this gross body itself. One remains imprisoned in this gross body. There are two sides of a person – divine and demonical. With demonical part, he wants to enjoy the worldly enjoyments. This part is represented in the story by the king. Now, to get free from the prison means he has left behind his gross body and now he ascends with his ethereal body. The gems which the merchant has collected are the pious deeds and sins which he has collected in this and other births.

Now the merchant meets a mendicant who turns all his gems into creepers. Then these creeper again turn into gems. This means that if the merchant proceeds on his divine journey with past deeds – good or bad, he has to return in this world after his treasure becomes empty. But the re-conversion of his gems means that only his good deeds remain after that.

At last, when the merchant returns home, Kalaavati finds that her husband has drowned. The reality is that wife of the merchant – Leelaavati is the state of trance. When she comes out of trance, she finds the whole world devoid of bliss. This is the drowning. To get the prasaada means – again going into trance. Then she again finds the bliss.

मुख्य नेता पात्र है साधु नामक वैश्य । यह दुर्गा सप्तशती के समाधि नामक वैश्य के जोडे का है । साधु और समाधि का अभिप्राय प्रायः एक ही है । जो साधना करता है, वही साधु कहलाता है – साधयतीति साधु और जो समाधि लगाता है, वह समाधि है – समं (प्राणान्) धारयतीति वा समा धियः प्राणा यस्य वा समाधिः है । साधना इसी समाधि की साधना है, अतः समाधि वाला ही साधु है . ये दोनों वैश्य हैं । वैश्य का काम व्यापार है । इनके प्राणों का बहिर्वृत्तियों में फंसकर अधोमुख होना, सांसारिक मायाजाल में फंसना ही इनका व्यापार है । इन्हीं व्यापारों से निवृत्ति के लिए इस साधु या समाधि को साधना में या समाधि में लगाना ही इन दोनों कथाओं का मुख्य उद्देश्य है और अन्त में होता भी यही है । इस साधु को लक्षपति(लाखपति) कहा है । वह इसका अनन्ताक्षरी गौरी वाक् रूप शरीर है । रत्नपुर उसकी देवमयी समाधि है । यह साधना करना चाहता है । अतः इसे राजा चन्द्रचूड की राजधानी केदारमणि पुरी में सांसारिक व्यापार वृत्ति के बहाने से भेजा जाता है । नाव पर सवार होकर जाना योग की नाव पर चढकर जाना है । चन्द्रचूड तो स्वयं योगात्मा सोमज्योति का छत्र पहने हुए है ।

साधु या समाधि नामक वैश्य का निःसन्तान होना उसकी समाधि की असफलता है । उसे गुरु चाहिए और आशीर्वाद चाहिए तभी यह कार्य सफल हो सकता है । अब यहां राजा चन्द्रचूड जैसे सोमयाजी सोमछत्री के पास पहुंचकर इसे उपयुक्त गुरु और आशीष मिल गई है । घर जाते ही, समाधि में बैठते ही, योगमयी मायाएं या लीलाएं या क्रियाएं करने वाली अतः लीलावती या मायाविनी नाम से प्रसिद्ध साधु की महायोगिनी पत्नी साध्वी(समाधि भूमि) गर्भवती हो गई है अर्थात् कुछ – कुछ प्रकाश आने लग गया है । वही धीरे – धीरे दस महीने या उचित समय पर उत्तरोत्तर बढते बढते एक दिन पूर्ण रूप में कलावती चन्द्रिका या सोमज्योति पूर्ण चन्द्रमा की कान्ति के रूप में प्रकट हो गई । कलावती नाम भी चुन चुन कर रखा है, ज्योतिषियों ने नहीं, वरन् पुराणकार ने, सोम की ज्योति की सूचिका के रूप में । लौकिक व्यवहार में ज्योतिषी नामाक्षर या नाम बताते हैं । अतः कथा को भिडाने के लिए लिखा है कि ज्योतिषियों ने नाम रखा . साथ में स्पष्टता के लिए यह भी तो साफ लिखा है कि वह कलावती(सोम ज्योति) चन्द्रमा की कलाओं के समान उत्तरोत्तर और और अधिक विकसित होती गई ।

शंखपति नाम भी विष्णु का है । शंख विष्णु के हाथ में (कर में) है । शंख नाम वास्तव में सोम का है, शब्द ब्रह्ममय नादवान् ओंकार नादवान् का है ( सोम देखें) । अतः शंखपति भी विष्णु ही हुआ। इस साधु और साध्वी ने अपनी समाधि जन्य इस कलावती सोम ज्योति का विवाह भगवान् विष्णु पुरुषोत्तम से किया है, कितना उत्तम वर छांटा है ।

इस साधु की समाधि की सोम ज्योति रूप कलावती नित्यप्रति अपने पिता साधु की समाधिभूमि रूप घर में ही अपने पति विष्णु से बिना किसी लाज वाज के रमण करती है । इसका निर्लज्ज रूप से विष्णु रूप शंखपति से रमण करना ही साधु ओर साध्वी दोनों को आनन्द की लहरों में आकाश पाताल झकझोरते रहते हैं, यहां लौकिक विवाह नहीं है, लौकिक लडकी नहीं है, लौकिक नाज नखरे नहीं हैं, लौकिक दुराचार नहीं है, लौकिक हंसी मजाक नहीं है, सब कुछ पारलौकिक है, शुद्ध है, आत्मीय है, निर्लेप है, एकमय आनन्दमय है । यही घर जवांई रखने का आशय है ।

अब अध्याय चार में ससुर जवाईं दोनों विदेशों में व्यापार के लिए घर से बाहर निकल पडते हैं । घर में लीलावती और कलावती ही रह जाती हैं । ये दोनों ससुर जवाईं जा पहुंचते हैं नर्मदा के किनारे राजा वीरसिंह की राजधानी में । यहां पर नर्मदा का उल्लेख ही इस कथा की कुञ्जी है । नर्मदा भारतवर्ष को उत्तर और दक्षिण दो भागों में विभक्त करती है । इन्हीं दो भागों को आधार बनाकर इस कथा में उत्तरायण और दक्षिणायण योगों की व्याख्या की प्रस्तावना की गई है । इस साधु नामक योगी ने दक्षिणायनीय योग को सिद्ध कर कलावती सी सोममयी ज्योत्स्ना रूपिणी कन्या और विष्णु रूपी जामाता को प्राप्त कर लिया है । अब उसे इसके उपरान्त उत्तरायणीय योग करना है । इस योग को करने के लिए शरीर का त्याग करके, शरीर से मुक्ति लेकर, केवल प्राणमय शरीर से ही यम की पन्था का अनुसरण करते हुए आगे बढना पडता है । नर्मदा के तीर पर पहुंचने का आशय यही है कि साधु दक्षिणायनीय योग सिद्ध करके अब उत्तरापथ या उत्तरायण योग के यमस्य पन्था का बटोही बनने जा रहा है । इसके लिए शरीर त्याग की आवश्यकता है । लीलावती साध्वी जो अपने पति साधु को बार बार स्मरण दिलाती है कि तुमने अभी तक बाबा सत्यनारायण की कथा करने की प्रतिज्ञा करके कलावती कन्या के पा जाने पर, बढते बढते सयानी होकर उसका ब्याह कर देने पर भी उसकी पूजा को नहीं किया है, वह बस इसी घटना का संकेत करती है । वह समाधि रूपिणी साध्वी रात दिन समाधि की नाना चेष्टाएं करते करते हैरान परेशान होकर ऊब गई है । वह भी इस शरीर की मुक्ति की अभिलाषा रखती है । अतः साधु को बार बार टोकती रहती है । पर साधु इसकी टालमटूल करते जाता है । आज तक यह फंसा रह गया है पञ्जे में , राजा वीरसिंह के । यह राजा वीरसिंह कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है । ध्यान रहे, साधु न कहीं दूसरी जगह यात्रा में गया न किसी दूसरे का बन्दी बना । वह नाव में सवार होकर गया के माने भी वह समाधि या मनो रूप अदिति की स्वारित्रा नाव में बैठा है जो अखिल ब्रह्माण्ड में विचरण करती है । साधु तो महायोगी है, उसे ऐसे लौकिक पापी व्यापार से क्या करना । वह अपने ही स्थान में समाधिस्थ है । पर यह, योग करते रहने पर भी दीर्घ काल तक सांसारिक सुखभोग धनधान्यमय माया जाल में फंसे रहने की आसुरी वृत्ति इसी साधु का शरीर है । यह भौतिक शरीर द्विमुख होता है, दैवी और आसुरी दो मुखों से युक्त होता है । यह साधु दैवी मुख से तो योग करता है, पर आसुरी मुख से सांसारिक रत्नहार सुवर्ण धन धान्य प्रतिष्ठा आदि का उपभोग वीरसिंह या वीर और सिंह की तरह अकड कर करना चाहता है या वीर नामक सोम ज्योति का भोग सिंह या सूर्य रूप में करता रहता है, इसीलिए इसे यहां राजा वीरसिंह कहा गया है । कलावती तो सोममयी ज्योति है और लीलावती साध्वी समाधि है । ये साधु ही की समाधि और सोम ज्योतियां हैं इन्होंने ही चेतावनी दी है, और वीरसिंह इन्हें क्या छोडेगा, इन्होंने ही उसे दुत्कार कर दूर फेंक दिया है । साधु ने अपने भौतिक शरीरी आसुरी प्राण रूप वीरसिंह के कारागार से मुक्ति पा ली है । उसने शरीर त्याग दिया है । यह काम उसकी साध्वी रूपिणी समाधि और उसमें उत्पन्न या प्रदीप्त कलावती रूपिणी ज्योति ने ही बाबा सत्यनारायण की पूजा, या योगानुभूति साक्षात् करके किया है । साधु इनका दैवी प्राण रूप शरीर है । वीरसिंह आसुरी प्राण । उसने भी हारकर इसे सद्भावना सद्गति मुण्डनादि आदर सम्मान भेंट सहित पूर्णतः विदा कर दिया है । इसने इसकी नाव को रत्नों से पुनः भर कर दे दी है, ये रत्न उसके अपने जन्मभर कमाये या किए पाप पुण्यों के अच्छे बुरे गहनों या रत्नों की गठरियां हैं, मरने के पश्चात् यही साथ जा सकते हैं । अतः सर्वत्र चोरी करने वाले चोर तो योगी के मोक्ष योग प्रक्रिया करने वाले दैवी प्राण हैं । दैवी प्राणों ने इन सबकी आंखें खोल दी हैं, शरीर के विभिन्नाङ्ग रूप रत्नों को चोर लिया या निर्जीव बनाकर फेंक दिया या शरीर त्याग कर दिया । अब केवल दैवी प्राणमात्र शेष रह गये । शरीर नष्ट हो गया । अब वह प्राणों से ही योग करेगा । समाधि भी प्राण रूप होगी, सोम ज्योति भी प्राण रूपा होगी, जामाता भी प्राण रूप ही होगा . अब इनका मिलन प्राण रूप मिलन रह गया है । देह को त्यागते ही दक्षिणयनीय शारीरिक योग समाप्त हो गया है, अब नर्मदा के उत्तरभागीय उत्तरायणीय त्रिपादामृतीय योग की यात्रा, प्राणों के सागर में अदिति माता की स्वारित्रा शतारित्रा नाव में चढकर चल कर सम्पादित की जावेगी ।

अब पांचवें अध्याय में इस साधु और जामाता को मार्ग में सबसे पहले एक तपस्वी मिला । कौन है यह तपस्वी । यह तपस्वी है तो वही बाबा सत्यनारायण, जो शतानन्द विप्र को वृद्ध ब्राह्मण के वेष में साकार रूप में अनुभूत हुआ था, परन्तु इस समय यह ब्राह्मण रूप का न होकर ऋषि रूप या तपस्वी रूप का है . इन दोनों रूपों में महान् अन्तर है । ब्राह्मण रूप का बाबा सत्यनारायण केवल नारायण रूप का है, यह शारीरिक समाधि में अनुभूत किया जा सकने वाला बाबा सत्यनारायण है । इस समय का ऋषि रूप का बाबा सत्यनारायण केवल सत्य रूप का है जिसे केवल शरीर त्यागान्तर मात्र प्राणों की ही समाधि से अनुभूत किया जा सकता है . इसने साधु से पूछा था तेरी नाव में क्या क्या है । इसने पुनः चोरी के भय से कह दिया था कि कुछ नहीं लता पत्रादिक हैं, और सचमुच में तपस्वी के ऐसा ही हो कहते ही, सारी नाव ही उन्हीं लतापत्रादिकों से भर गई जिनका उसने उल्लेख किया था । यह दूसरी बडी भारी चोरी हो गई है । क्या चोरी हुई जो इस नाव में धरा या भरा था, इसे तो खाली ही रहन चाहिए था । नहीं । इसमें साधु के सम्पूर्ण जीवन में किए पुण्यों के फल अनन्त रत्न राशियां थी, वे सब एक मात्र वचन में लुट गईं । यदि साधु अपने इन्हीं रत्नों के भरोसे या साथ स्वर्गारोहण करता है तो उसे ते तं भुक्त्वा स्वर्गं लोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यं लोकं विशन्ति(गीता) के अनुसार इस पुण्य रत्न राशियों के व्यय के अनन्तर पुनः पुनः पुनर्जन्मादिकों के चक्कर में ही बारम्बार चक्कर काटते रहने पडते । उसे इन पुण्यों के कारण ही शारीरिक पूर्ण मुक्ति नहीं मिलती। स्थूल शरीर त्याग के अनन्तर पुनः इस स्थूल शरीर के मूल स्वरूप दिव्य शरीर से भी मुक्ति पाना उतना ही आवश्यक है जितना इस स्थूल शरीर से । बाबा सत्यनारायण ने इस पर एक और महती कृपा करके इसके पुण्य – पापों के रत्नों के पत्थरों से भरी नाव के पुण्य पापों का एक साथ नाश करके उसे लता – पत्रादिक या अमरवेलि रूप का शुद्ध अमृतमय बना दिया है । अब वह इस अमृतवेलि भरी नाव के द्वारा अपनी अग्रिम यात्रा को क्रमशः स्वयं पार करने में समर्थ होकर अन्त में बाबा सत्यनारायण के सत्यस्य सत्य रूप के सत्य रूप में या सत्य नारायण रूप में एकात्म्य पा जावेगा। उस संशोधित रत्न धन का जो भाग सत्य नारायण की पूजा के लिए निश्चित किया गया है उसका आशय है कि साधु ने अपने रत्न धन रूप शुद्ध शरीर को योग या पूजा के लिए ही प्रयोग करने का निश्चय किया है । यहां पर बाबा सत्यनारायण ने जो नाव को रत्नों से पुनः भर दिया है वह उसके पाप पुण्यों को संशोधित करके शुद्ध रत्नों से भरा है । यह संशोधन साधु के पश्चात्ताप तथा पुनः पूर्व प्रतिज्ञा को पूरा करने के वचन से स्वयं हो गया है । ये शुद्ध रत्न अब उसके योग मार्ग के सम्बल हैं ।

अब इसने उस अन्तिम लक्ष्य पर पहुंचने की सूचना साध्वी और कलावती दोनों के पास अग्निदूतं के द्वारा भेज दी है । क्योंकि अब इनसे भी अन्त में विदा लेनी है । कलावती अकेले ही भाग कर माता साध्वी से भी पहले ही उनसे मिलने की इच्छा से दौडी आई तो उसे पति की नाव डूबी मिलती है । क्यों बात यह है कि उसका पति शंखपति तो शंख चक्र गदा पाणि हाथों में लिए हुए विष्णु ही है . अब यह यहां इस लोक में क्षीर सागर का वासी हो गया है, शेष शय्या में चला गया है, अतः वह डूबा सा प्रतीत हो रहा है, डूबा नहीं है, वहीं आनन्द में है । योग छूटा है, कलावती मनोमयी है उसका योग छूटने से साधु और लीलावती दोनों को भी वह डूबा सा दीखा, जब कलावती भाग कर आई थी तब वह योग में बैठी थी, योग छोड कर आई तो सामने अन्धकार स्वभावतः हो गया । जो विष्णु ज्योति भीतर जल रही थी, वह बुझ गई । अतः उसको पति डूबा सा या गुहा निगूढ सा लगा तो ठीक ही तो हुआ । पुनः प्रसाद पाकर या योग करके उसे फिर वही पति विष्णु जीवित दीखा । बाबा सत्यनारायण का प्रसाद रूप समाधि जन्य ज्योति पाकर आई तो वही साधु वही जामाता विष्णु सभी साथ साथ मिल गये । - श्री हरिशंकर जोशी (पञ्चम वेद पुराण, पृष्ठ १२६६)