सङ्गीत४

संगीत में श्रुति

स्वर और उनसे सम्बद्ध श्रुतियां

षड्ज स्वर को उसकी श्रुतियों के आधार पर समझने का प्रयत्न किया जा सकता है। षड्ज स्वर की चार श्रुतियां हैं – तीव्रा, कुमुद्वती, मन्द्रा व छन्दोवती। तीव्रा श्रुति के गुणों के बारे में प्रामाणिक रूप से तो कुछ नहीं कहा जा सकता, केवल अनुमान भर लगाया जा सकता है। एक तीव्र है, एक मन्द। पशु तो अपना भोजन पृथिवी पर उत्पन्न ओषधियों से ग्रहण कर लेते हैं, लेकिन मनुष्य के लिए यह अपेक्षित है कि वह अपने भोजन के लिए पृथिवी पर उगी ओषधियों पर निर्भर न करे, अपितु अपने लिए अपेक्षित ऊर्जा का कर्षण ब्रह्माण्ड से सीधे करे। हम कोई भी अभीप्सा करते हैं, वह मन्द होती है, इतनी तीव्र नहीं कि पूरी हो सके। यही तथ्य ब्रह्माण्ड से ऊर्जा के कर्षण के बारे में भी है।

कुमुद्वती श्रुति के गुणों को पुराणों की कथाओं के आधार पर समझने का प्रयत्न किया जा सकता है। एक कुमुद है, एक कुमुद्वती, या कुमुदा। लक्ष्मीनारायण संहिता २.२७.२७ का कथन है कि सूर्योदय से कमल खिलते हैं जबकि चन्द्रोदय से कुमुद। इसका अर्थ यह हुआ कि कुमुद किसी प्रकार से चन्द्रमा के उदय से सम्बन्धित है। वायु पुराण ४८.३५ का कथन है कि कुमुद द्वीप में महादेव-भगिनी कुमुदा के दर्शन से चित्त-दोष दूर होते हैं। स्कन्द पुराण ५.३.१९८.६५ तथा मत्स्य पुराण १३.२७ का कथन है कि मानस तीर्थ में उमा देवी कुमुदा नाम से विराजती हैं। यह कथन संकेत करते हैं कि कुमुद स्थिति में अचेतन मन चेतन मन में परिवर्तित हो जाता है। यही चन्द्रमा का उदय हो सकता है। स्कन्द पुराण ३.१.४४.३४ में कुमुद वानर द्वारा अकम्पन राक्षस का वध करने का उल्लेख है। इससे संकेत मिलता है कि जो कुछ जड स्थिति में पडा है, उसमें कम्पन कुमुद द्वारा उत्पन्न हो सकता है। कुमुद की निरुक्ति प्रायः इस प्रकार की जाती है – कु अर्थात् पृथिवी तथा मुद अर्थात् मोद। अतः जब हमारी पृथिवी रूपी देह मोदयुक्त हो जाए, वह कुमुद स्थिति होगी। लेकिन यदि देह के मोद युक्त होने को भौतिक अर्थों में लिया जाएगा तो वह आसुरी स्थिति बन जाएगी। कार्तिक अमावास्या के पश्चात् शुक्ल प्रतिपदा को कौमुदी उत्सव होता है जिसमें वृक्ष आदि की शाखाओं पर दीपों द्वारा नीराजन किया जाता है। डा. फतहसिंह के अनुसार दीप द्वारा नीराजन का अर्थ है चेतना के उच्च स्तरों पर प्राप्त ज्ञान को चेतना के निम्न स्तरों पर स्थान्तरित करना। दूसरे शब्दों में, विप्र स्थिति में प्राप्त ज्ञान को शूद्र स्थिति तक पहुंचाना। तभी यह पृथिवी कुमुद्वती बन सकती है। मार्कण्डेय पुराण आदि में कुमुद पर्वत पर ऋतवाक् मुनि आदि के विराजमान होने की कथाएं आती हैं। पद्म पुराण ६.१३३.३० के अनुसार कुमुद पर्वत पर सत्यवादन तीर्थ स्थित है।

मन्द्रा श्रुति के बारे में ऋग्वेद की निम्नलिखित ऋचाएं उल्लेखनीय हैं-

यद्वाग्वदन्त्यविचेतनानि राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा।

चतस्र ऊर्जं दुदुहे पयांसि क्व स्विदस्याः परमं जगाम।।

देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।

सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु।। - ऋग्वेद ८.१००.१०-११

तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.६.१० व ११ में उपरोक्त ऋचा का स्पष्टीकरण मिलता है कि चतस्र से अभिप्राय हो सकता है कि मन्द्रा वाक् रूपी धेनु के लिए चारों दिशाएं ऊर्जा का दोहन करती हैं। ऐतरेय ब्राह्मण ३.४४ का कथन है कि प्रातः काल जब सूर्य उदित होता है, उस समय वाक् का स्वरूप मन्द्रा प्रकार का होता है। उसके पश्चात् जैसे-जैसे सूर्य प्रखर होगा, वैसे-वैसे वाक् का रूप भी तीव्रतर होता जाएगा। अन्यत्र ऋग्वेद में सार्वत्रिक रूप से होता अग्नि का मन्द्र विशेषण दिया गया है। मन्द्र शब्द में एक तो मन्द भाव निहित है, एक किसी प्रकार का आह्लाद निहित है। स्वयं मन्द शब्द में भी मद धातु निहित है। पुराणों में मन्दर पर्वत की कल्पना की गई है जिस पर शिव अपने वाहन वृषभ नन्दी के साथ विराजमान हैं। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि आह्लाद तत्त्व की उपस्थिति के कारण ही मन्दर पर्वत का उपयोग समुद्र मन्थन के लिए किया जाता है। मन्द्र स्थिति के आसुरी स्वरूप का संकेत हमें गर्ग संहिता ७.४२.१५ से मिलता है जहां परावसु गन्धर्व के मन्दार, मन्दर आदि ९ पुत्र जन्मान्तर में शकुनि, शम्बर आदि दैत्य बनते हैं।

गान्धार स्वर की दो श्रुतियां कही गई हैं – क्रोधा और रौद्रा। गान्धार स्वर का रस शान्त कहा गया है तथा अज पशु गान्धार स्वर में वादन करता है, ऐसा कहा गया है। सूर्योदय से पूर्व की स्थिति को भी अज कहा जाता है और पुराणों में अज को व्याधि का रूप भी कहा गया है। इससे संकेत मिलता है कि क्रोध को शान्त रस में रूपान्तरित करना ही गान्धार स्वर का उद्देश्य हो सकता है। यह तब हो सकता है जब अज स्थिति का रूपान्तरण हो।

मध्यम स्वर की चार श्रुतियों के रूप में वज्रिणी, प्रसारिणी, प्रीति और मार्जनी का उल्लेख है। क्रौञ्च को मध्यम स्वर में वादन करने वाला कहा गया है। शुक्ल यजुर्वेद में क्रुङ् आंगिरस का उल्लेख आता है जो धी द्वारा आपः से क्षीर का पान कर लेता है। यह कथन मध्यम स्वर की मार्जनी श्रुति की पुष्टि कर सकता है।

निषाद स्वर की दो श्रुतियों उग्रा व क्षोभिणी का उल्लेख है। इससे संकेत मिलता है कि प्रकृति में जहां-जहां भी उग्रता व क्षोभ विद्यमान है, उसका रूपान्तरण किया जाना है। क्षोभ शोभा में रूपान्तरित हो सकता है।

प्रथम लेखन- 20-5-2011ई.( ज्येष्ठ कृष्ण तृतीया, विक्रम संवत् 2068)