सीता२
There is a sacrifice called Seetaa yaaga. This sacrifice invokes different protectors of Seetaa in different directions. In east, the protectors bear a bow and quiver. In south, they bear an armour. In west, ----. In north, they are frightening, bearing high speed. It will be necessary to understand the qualities of the protectors in order to understand Seetaa. A bow has two parts – staff and a cord. The other name for cord is quality, traits. If the cord is traits, then the staff should be devoid of traits. The combination of the two creates a state where action can take place in the form of launching of an arrow. The importance of the fact of traits and without traits can be understood from the fact that Seetaa has been stated to be the original nature which sits beside lord Raama and is free from all traits. What is the quality of original nature? It can be understood by the explanation for Vrindaa by Prof. L.N. Dhoot. According to him, the progress in nature is very slow. The reason is - flickering on ultimate goal, lack of ultimate goal. This can be compared with a drunken man who has a very hazy goal of reaching his house. He takes one step forward and two steps backwards. The other trait of normal nature is that every event in this world takes place as a chance phenomenon. The original nature will be devoid of all these defects. It is also important that all traits have been incorporated into Shesha Naaga. He also becomes the cord/guna of the bow of lord Shiva. The importance of bow in puraanic literature in context of Seetaa is well known.
Seetaa has been stated to be free from phase. What is meant by phase in vedic literature, can be understood from a puraanic context which states that a sun with phase invokes energy from the universe, while a sun free from phase provides energy to the universe. All the vedic contexts of Seetaa refer to installing Seetaa inside a periphery of phases. It seems that there can be two forms of Seetaa – one which is free from phase and the other with phase. It has been stated in sacred texts that those involved in penances are able to visualize only that God associated with phases, while those involved in knowledge are able to visualize God free from phases. The puraanic story of Seetaa mentions stealing by Raavana of an image Seetaa only.
See also:
Offering of lumps/pinda by Seetaa
Disappearence of Seetaa in Fire
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पारस्कर गृह्य सूत्र २.१७ में सीता यज्ञ का वर्णन दिया गया है जिसका अनुष्ठान आवसथ्य अग्नि पर किया जाता है । इसकी कुछ पंक्तियां निम्नलिखित हैं –
- - - संपत्तिर्भूतिर्भूमिर्वृष्टिर्ज्यैष्ठ्य श्रैष्ठ्य श्रीः प्रजामिहावतु स्वाहा । यस्याभावे वैदिकलौकिकानां भूतिर्भवति कर्मणाम् । इन्द्रपत्नीमुपह्वये सीतां सा मे त्वन्नपायिनी भूयात्कर्मणि कर्मणि स्वाहा । अश्वावती गोमती सूनृतावती बिभर्ति या प्राणभृतो अतन्द्रिता । खलमालिनीमुर्वरामस्मिन्कर्मण्युपह्वये ध्रुवां सा मे त्वनपायिनी भूयात्स्वाहा । स्थालीपाकस्य जुहोति सीतायै यजायै शमायै भूत्या इति । - - - - स्तरणशेषषु( कुशेषु/कूर्चेषु) सीतागोप्तृभ्यो बलिं हरति पुरस्ताद्ये त आसते सुधन्वानो निषङ्गिणः । ते त्वा पुरस्ताद्गोपायन्तवप्रमत्ता अनपायिनो नम एषां करोम्यहं बलिमेभ्यो हरामीममिति । अथ दक्षिणतोऽनिमिषा वर्मिण आसते । ते त्वा दक्षिणतो गोपायन्त्वप्रमत्ता अनपायिनो नम एषां करोम्यहं बलिमेभ्यो हरामीममिति । अथ पश्चात् आभुवः प्रभुवो भूतिर्भूमिः पार्ष्णिः शुनङ्कुरिः। ते त्वा पश्चाद्गोपयन्त्वप्रमत्ता अनपायिनो नम एषां करोम्यहं बलिमेभ्यो हरामीममिति । अथोत्तरतो भीमा वायुसमा जवे । ते त्वोत्तरतः क्षेत्रे खले गृहे अध्वनि गोपायन्त्वप्रमत्ता अनपायिनो नम एषां करोम्यहं बलिमेभ्यो हरामीममिति । - - -
इस प्रकार सीतायज्ञ में चार दिशाओं में सीता की रक्षा करने वालों को बलि दी जाती है . पूर्व दिशा के रक्षक धनुष व तरकस लेकर रक्षा करते हैं, दक्षिण दिशा के रक्षक अनिमिष रहकर वर्म द्वारा सीता की रक्षा करते हैं, पश्चिम दिशा के रक्षकों को आभुवः, प्रभुवः, भूति, भूमि, पार्ष्णि, शुनङ्कुरि या शुनङ्करि कहा गया है । उत्तर दिशा को रक्षकों को भीम कहा गया है जिनकी गति वायु के समान है । इन कथनों का रहस्य समझने के लिए यह आवश्यक है कि धनुष, तरकस, वर्म आदि शब्दों का निहितार्थ ज्ञात हो । उदाहरण के लिए, देवीभागवत पुराण ७.३६.६, मुण्डकोपनिषद २.२.४ आदि में प्रणव को धनुष और शर को आत्मा कहा गया है । धनुष में दण्ड के शीर्षों पर एक डोरी बांधी जाती है जिसे ज्या या गुण कहते हैं । इसका निहितार्थ यह हो सकता है कि दण्ड अवस्था निर्गुण अवस्था है जबकि ज्या गुण वाली अवस्था । दोनों के मिलने से तीर को चलाने की, क्रिया की क्षमता उपलब्ध होती है । शिव पुराण २.५.८.२६ में त्रिपुर नाश के संदर्भ में शिव के धनुष का कथन है । उस धनुष में शैलेन्द्र कार्मुक या धनुष बना तथा भुजगाधिपति या शेषनाग ज्या बना । जैसा कि ऊपर प्रणव की ८ कलाओं के संदर्भ में कहा जा चुका है, शेषनाग या लक्ष्मण प्रणव की छठीं अवस्था कला है जबकि सीता सातवीं कलातीत अवस्था है । शिव पुराण २.५.८.२६ में श्रुतिरूपिणी देवी को धनुष कहा गया है । यह धनुष की सात्त्विक अवस्था हो सकती है । धनुष के अन्य महत्त्वपूर्ण उल्लेखों में पद्म पुराण २.५५.२ में धर्म को चाप और ज्ञान को बाण कहा गया है । भागवत पुराण ७.१०.६६ में त्रिपुर नाश हेतु शिव के धनुष में तप के धनुष और क्रिया के बाण होने का उल्लेख है । धनुष के साथ निषङ्ग या तूण या तरकस का भी उल्लेख है । कथासरित्सागर ८.३.७६ में देह को ही तूण बनाने का उल्लेख है जिसमें सारे तीर समा जाते हैं । सीता के संदर्भ में धनुष को समझना इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि रामायण में धनुष की प्रधानता है । वर्म या कवच का अर्थ पौराणिक साहित्य में यह होता है कि अपनी पूरी देह पर , सभी अङ्गों पर देवों को प्रतिष्ठित कर दिया जाए । फिर रक्षा का कार्य देवगण करते हैं । भागवत पुराण ७.१०.६६ में विद्या को वर्म कहा गया है जबकि ज्ञान शिव के रथ का सारथी है ।
सीता को सार्वत्रिक रूप से मूल प्रकृति भी कहा गया है । मूल प्रकृति का क्या अर्थ है, यह डा. लक्ष्मीनारायण धूत द्वारा वृन्दा पर की गई टिप्पणी से समझ सकते हैं । सामान्य प्रकृति का कालक्रम से विकास बहुत धीरे – धीरे होता है । प्रकृति एक कदम आगे चलती है तो दो कदम पीछे । उसकी हालत एक शराबी जैसी है जो लडखडाते कदमों से अपने घर की ओर आगे बढ रहा है । अपने घर तो वह पहुंच जाएगा, लेकिन बहुत देर से । दूसरी ओर ऐसी प्रकृति है जिसमें लक्ष्य विद्यमान है । यह त्वरित गति का मार्ग है । इसे ही मूल प्रकृति कह सकते हैं । सामान्य प्रकृति की घटनाएं चांस से, द्यूत से घटती हैं जबकि मूल प्रकृति को इस चांस से रहित होना चाहिए ।
सीता शब्द की निरुक्ति के संदर्भ में, पाणिनीय उणादि कोश दुर्गवृत्ति ५.२९ में सीता शब्द की निरुक्ति षिञ् धातु के आधार पर की गई है । यह धातु बन्धे अर्थ में है जिसका प्रयोग मुख्य रूप से सिनोति, बध्नाति के रूप में होता है । सेतु शब्द भी इसी धातु से बना है । इस धातु के साथ यदि ह्रस्व इ का प्रयोग करते हैं तो सिंह शब्द बनता है जो हिंसक अर्थ में होता है । यदि दीर्घ इ का प्रयोग करते हैं तो सीता शब्द बनता है । सीता द्वारा व्यावहारिक जीवन में बन्धन कहां – कहां हो रहा है, यह अन्वेषणीय है . पुराणों का कथन है कि चित्रकूट पर देवी का नाम सीता होता है . इसका अर्थ यह हो सकता है कि चित्त - कूट, चित्त की सर्वोच्च स्थिति में ही सीता देवी का रूप धारण कर सकती है । श्री जे.ए.गोवान ने अपनी वेबसाईटों में इस तथ्य का विस्तृत रूप से विवेचन किया है कि पृथिवी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति विश्व के सृजन में अपना योगदान किस प्रकार दे रही है । उनके अनुसार सूर्य की किरणें इस ब्रह्माण्ड में निरन्तर फैल रही हैं, प्रकाश की गति से, जिसके कारण ब्रह्माण्ड का, दिक् का विस्तार हो रहा है . जड पदार्थ की गुरुत्वाकर्षण शक्ति सूर्य की किरणों को अपनी ओर खींचती है जिससे किरणें उतनी तेजी से नहीं फैल पाती । अतः ब्रह्माण्ड का विस्तार उतनी तेज गति से नहीं हो पाता । अध्यात्म में इस तथ्य की एक व्याख्या इस प्रकार हो सकती है कि हमारी देह हमारी पृथिवी है । भौतिक पृथिवी में तो गुरुत्वाकर्षण स्वाभाविक रूप से विद्यमान है लेकिन अपनी पृथिवी में सीता रूपी गुरुत्वाकर्षण उत्पन्न करना है(श्रीमती राधा के अनुसार प्राणियों में अहंकार गुरुत्वाकर्षण का रूप है ) । तब यह सीता ब्रह्माण्ड की ऊर्जा का कर्षण करेगी । मनुष्य की सबसे बडी आवश्यकता ब्रह्माण्ड की ऊर्जा को आत्मसात् करने की है । उसी ऊर्जा को आत्मसात् करने के लिए हम भोजन करते हैं । लेकिन मनुष्य की तृप्ति भोजन के पश्चात् भी नहीं हो पाती । सीता द्वारा ऊर्जा को आत्मसात् करना और भोजन द्वारा ऊर्जा को प्राप्त करना, इन दोनों में अंतर है । भोजन की प्रक्रिया क्रिया के अन्तर्गत आती है । भोजन की प्राप्ति के लिए क्रिया आवश्यक है । दूसरी ओर, सीता के माध्यम से केवल इच्छा मात्र से भोजन की प्राप्ति होनी चाहिए । यदि ऐसा नहीं है तो इसका अर्थ है कि सीता तक, कलातीत अवस्था तक हमारी पहुंच नहीं है . अतः कलाओं द्वारा भोजन प्राप्ति पर विचार करना होगा जिसके लिए कला शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है . सीता की चेष्टा ऊर्जा को संवत्सर का रूप देने की, सूर्य, चन्द्रमा व पृथिवी के परस्पर भ्रमण चक्र में सम्मिलित करने की है ।
कला और कलातीत अवस्था की एक व्याख्या भविष्य पुराण १.१४४.१२ में सकल और निष्कल सूर्य के संदर्भ में प्राप्त होती है । कहा गया है कि जो सूर्य ब्रह्माण्ड के विभिन्न पदार्थों से आदान करता है, वह सकल आदित्य या सूर्य है और जो सूर्य आदान नहीं करता, केवल वृष्टि, घर्म आदि के रूप में प्रदान करता है, वह निष्कल सूर्य है । आदित्य का अर्थ ही आदान करने वाला होता है । वैदिक साहित्य में कहा गया है कि वह अपनी किरणों के माध्यम से ब्रह्माण्ड से आदान करता है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२६ व ३.३५८ में वर्णन आता है कि किस वस्तु से सूर्य क्या ग्रहण करता है । उदाहरण के लिए, सूर्य ने द्युलोक से वश(डा. फतहसिंह के शब्दों में – वक्ष, अंग्रेजी का वैक्सिंग – वेनिंग) का ग्रहण किया, नक्षत्रों से क्षत्र का, अन्तरिक्ष से आत्मा का, वायु से रूप का, मनुष्यों से आज्ञा का, पशुओं से चक्षण का आदि आदि । सामान्य रूप से ऐसा कहा जा सकता है कि जब तक हमारी ज्ञानेन्द्रियां ब्रह्माण्ड से विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं का ग्रहण कर रही हैं, तब तक वह कलायुक्त अवस्था में हैं । जब सूर्य, पृथिवी व चन्द्रमा के मिलने से संवत्सर का निर्माण होता है, उसमें एक दूसरे से ऊर्जाओं का आदान – प्रदान होता है । लेकिन भविष्य पुराण का कथन है कि निष्कल अवस्था में आदान समाप्त हो जाता है, केवल प्रदान ही रह जाता है . सीता के संदर्भ में यह कथन महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सीता से सम्बन्धित सारे वैदिक साहित्य में सीता के परितः होताओं की, आहूत करने वालों की, कलायुक्त स्थितियों की प्रतिष्ठा की गई है । और भविष्य पुराण का यह कथन पुराणों में छाया सीता को समझने में भी उपयोगी हो सकता है कि क्या आहूत करने वाली ‘कला’ अवस्था को छाया सीता कह सकते हैं ? स्कन्द पुराण ५.१.६.४-७ का कथन है कि तपस्वी सकल देव का दर्शन करते हैं जबकि ज्ञानी निष्कल देव का –
त्रिविधो दर्शनोपायस्तस्य देवस्य सर्वदा । श्रद्धा ज्ञानेन तपसा योगेनैव निगद्यते । सकलं निष्कलं चापि देवाः पश्यन्ति योगिनः । तपस्विनस्तु सकलं ज्ञानिनो निष्कलं परम् । समुत्पन्नेपि विज्ञाने मन्दश्रद्धो न पश्यति । भक्त्या परमयोपेताः परं पश्यन्ति योगिनः । द्रष्टव्यो निर्विकारोऽसौ प्रधानपुरुषेश्वरः ।।
मुण्डकोपनिषद ३.१.८ द्वारा भी इस कथन की पुष्टि होती है – ज्ञान प्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं व्यायमानः । यह उल्लेखनीय है कि प्रणव की ‘कला’ को धारण करने वाले लक्ष्मण तपोरत रहते हैं ।
अथ यत्रैतल्लाङ्गले ससृजतः पुरोडाशं श्रपयित्वा । अरण्यसार्धमभिव्रज्य । प्राचीं सीतां स्थापयित्वा । सीताया मध्ये प्राञ्चमिध्ममुपसमाधाय परिसमुह्य पर्युक्ष्य परिस्तीर्य बर्हिः शम्याः परिधीन्कृत्वा । अथ जुहोति । वित्तिरसि पुष्टिरसि श्रीरसि प्राजापत्यानां तां त्वाहं पुष्टिकामो जुहोमि स्वाहा । कुमुद्वती पुष्करिणी सीता सर्वाङ्गशोभनी । कृषिः सहस्रप्रकारा प्रत्यष्टा श्रीरियं मयि । उर्वी त्वाहुर्मनुष्याः श्रियं त्वा मनसो विदुः । आशये अन्नस्य नो धेह्यनमीवस्य शुष्मिणः । पर्जन्यपत्नि हरिण्यभिजितास्यभि नो वद । कालनेत्रे हविषो नो जुषस्व तृप्तिं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे । याभिर्देवा असुरानकल्पयन्यातून्मनून्गन्धर्वान्राक्षसाश्च । ताभिर्नो अद्य सुमना उपा गहि सहस्रापोषं सुभगे रराणा ।। हिरण्यस्रक्पुष्करिणी श्यामा सर्वाङ्गशोभनी । कृषिर्हिरण्यप्रकारा प्रत्यष्टा श्रीरियं मयि । अश्विभ्यां देवि सह संविदाना इन्द्रेण राधेन सह पुष्ट्या न आ गहि । विशस्त्वा रासन्तां प्रदिशोऽनु सर्वा अहोरात्रार्धमासमासा आर्तवा ऋतुभिः सह ।भर्त्री देवानामुत मर्त्यानां भर्त्री प्रजानामुत मानुषाणाम् । हस्तिभिरितरासैः क्षेत्रसारथिभिः सह । हिरण्यैरश्वैरा गोभिः प्रत्यष्टा श्रीरियं मयि । अत्र शुनासीराण्यनुयोजयेत् । वरमनड्वाहमिति समानम् । - कौशिक सूत्र १०६