सङ्गीत३

वैदिक छन्दों व रागों की तुलना

(श्री ताराशंकर राकेश, संगीत मासिक, सितम्बर १९५२, पृ. ५९३)

उपरोक्त तालिका में स्वर के नीचे लगी रेखा उसके कोमल स्वर होने का संकेत करती है तथा ऊपर लगी खडी रेखा उसकी तीव्रता का सूचक है। यह तालिका इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि इसके आधार पर रागों की विशेषताओं का अनुमान लगाया जा सकता है। यदि थाट को राग के ही समकक्ष मान लिया जाए तो बिलावल राग जगती छन्द के तुल्य होगा। जगती छन्द की विशेषता यह होती है कि वह पापों का नाश करता है, वह श्मशान है। बिलावल राग के वादी स्वर धैवत के बारे में कहा गया है कि वह भूतग्राम को संतुष्ट करता है। यहां भूतग्राम से तात्पर्य हमारे कर्मों के फल हो सकते हैं जो कारण बनकर कार्य को प्रभावित करते हैं।

रागों की रचना का उद्देश्य :

राग के विषय में कहा गया है कि राग या तो पांच स्वरों के योग से बन सकता है(औडव), अथवा छह स्वरों के योग से(षाडव) अथवा सात स्वरों के योग से(सम्पूर्ण)। यह कथन इंगित करता है कि रागों की रचना का सम्बन्ध वेद में साम की रचना से है। साम की रचना पांच अथवा सात भक्तियों से होती है। पांच भक्तियों का नाम है – हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधन। जब साम की रचना में सात भक्तियां होती हैं तो उनके नाम हैं – हिंकार, प्रस्ताव, आदि, उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव और निधन। हिंकार आदि भक्तियों को शास्त्रों में उपलब्ध कथनों के आधार पर समझना कठिन है। लेकिन यदि संगीत के सात स्वरों से तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो भक्तियों का और साथ ही स्वरों का स्वरूप सामने आता है। किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बहुत से उपाय करने पडते हैं। इन सब सम्मिलित उपायों का नाम राग है। पहले उद्देश्य की पूर्ति के लिए दृढ निश्चय करना होता है। इसे संगीत में षड्ज और भक्ति में हिकार या हुंकार कह सकते हैं। षड्ज का अर्थ है जिसका जन्म छह स्थानों से हुआ हो। सातवां और अन्तिम स्थान इसमें सम्मिलित नहीं है। वह सातवां स्थान संगीत में ऋषभ और भक्ति में प्रस्ताव कहलाता है। ऋषभ स्वर की उत्पत्ति मज्जा में कही गई है। हम जो भी संकल्प करें, उसे मज्जा तक पहुंचना चाहिए। भक्ति में इसे प्रस्ताव, प्र-स्तुति कहा गया है। इससे संकेत मिलता है कि उद्देश्य की पूर्ति के लिए देवों से याचना की जा रही है। इससे अगली स्थिति आदि भक्ति की है। संगीत में यह गान्धार स्वर है। आदि में आदान किया जाता है। आदान किस वस्तु का? अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए जो-जो आवश्यक है उसका। संगीत में यह गान्धार स्वर है। गान्धार स्वर से एक तो गं, ज्ञान प्राप्त करने का संकेत मिलता है। दूसरे, जो साधन जड पडे हैं, उनमें चेतना उत्पन्न करने का प्रयत्न किया जाता है। इससे अगली स्थिति उद्गीथ भक्ति या संगीत में मध्यम स्वर की है। उद्गीथ को भक्ति की चरम सीमा कहा गया है। गान्धार स्वर तक तो तिर्यक् स्थिति रहती है, चारों दिशाओं में घूम कर अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न किया जाता है, लेकिन मध्यम स्वर की स्थिति में केवल मध्य में रहकर उद्देश्य की पूर्ति की जाती है। मध्यम की साधना में अन्तरात्मा की आवाज भी सुनाई पडती है। इससे अगली स्थिति प्रतिहार भक्ति या पंचम स्वर की है। प्रतिहार भक्ति के विषय में कहा गया है कि यह प्रतिहरण है, अन्न का हरण है। इससे स्थूल स्तर सहित सभी स्तरों को पोषण प्राप्त होगा। नारद अपनी वीणा पर पंचम स्वर में ही वादन करते हैं । इससे अगली स्थिति भक्ति में उपद्रव और संगीत में धैवत स्वर की है। उपद्रव भक्ति के विषय में छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है कि इससे आरण्यक पशु उपद्रवण कर जाते हैं। इस कथन को समझने के लिए यह समझना होगा कि आरण्यक पशु किन्हें कहते हैं। ग्राम्य पशुओं वह होते हैं जिन्हें न्यूनाधिक अपने वश में किया जा सकता है। लेकिन आरण्यक पशुओं पर कोई वश नहीं चलता। संगीत में इसे धैवत या दैवत स्वर नाम दिया गया है। दैवत का अर्थ है- जो देवविहित है, भाग्य बन चुका है, हमारा उस पर कोई नियन्त्रण नहीं है। इससे अगली स्थिति निधन भक्ति की या संगीत में निषाद स्वर की है। निधन का अर्थ है- अब कुछ शेष नहीं बचा है, हमारे कर्मफल समाप्त हो गए हैं, उनसे हम लिप्त नहीं रह गए हैं। संगीत में निषाद स्वर का अर्थ है निः ससाद-- पूरी तरह बैठ जाना। हमारे पाप ही ऐसे हैं जिनके पूरी तरह बैठ जाने की कामना की जाती है जिससे वह खडे होकर फलीभूत न हों।

राग सारंग

शार्ङ्ग नारद १.६६.९२(शार्ङ्गी की शक्ति प्रभा का उल्लेख), विष्णु १.२२.७१(विष्णु द्वारा भूतादि व इन्द्रियादि अहंकार-द्वय को शंख व शार्ङ्ग धनुष रूप में धारण करने का उल्लेख), विष्णुधर्मोत्तर १.२३७.७(शार्ङ्गी से ऊरु की रक्षा की प्रार्थना), गोपालोत्तरतापिन्युपनिषद १७(आद्या माया के शार्ङ्ग होने का उल्लेख )

शार्ङ्गधर गणेश १.७४.९(सारङ्गधर - पुत्री सुन्दरी का वृत्तान्त ), लक्ष्मीनारायण २.२६४.४(शूद्र द्वारा शृङ्गमृग का वेधन, जन्मान्तर में मूक विप्र बालक रूप में जन्म लेकर तप द्वारा मूकता का निवारण तथा शार्ङ्गधर नामक ओषधि विज्ञान ज्ञाता बनना), ४.१०१.८४(कृष्ण-भार्या सरस्वती के पुत्र शार्ङ्गधर व सुता कौमुदी का उल्लेख), ४.१०१.१२८(कृष्ण-भार्या मोघवती के पुत्र शार्ङ्गधर व सुता तलायना का उल्लेख)

पुराणों के उपरोक्त संदर्भ राग सारंग की प्रकृति के बारे में सूचना दे सकते हैं। जो व्यक्ति सामान्य जीवन जीते हुए भी शृङ्ग पर, समाधि में स्थित रहे, वह शार्ङ्गधर हो सकता है। यह राग सारंग का उद्देश्य हो सकता है।

राग वृन्दावनी सारंग

वादी स्वर- रे, संवादी स्वर-प, वर्जित स्वर- ग,ध

आऽज बन नीऽको राऽस बनायो

साऩिसा रेम पनिसां नि॒पाम रेऩिसा

पुलिन पवित्र सुभग यमुना तट

रेमामापा निनिसां सांसांसां नि॒पम ऩिसा

मोहन वेऽणु बजायो

मामापापा नि॒पामरे ऩिसासा

कल कंकन किंकिनि नूपुर धुनि

रेरे ममपापा निनिसां सांरेंनि सांसां

सुनि खग मृग सचु पायो

निसां सांसां सांनिप मरे ऩिसा

युवतिन मंडल मध्य श्याम घन सारंग राग जमायो।।

रेरेमम पपनि निसां सांरेंनि सांसां सांनिप मरे ऩिसासा

ताल मृदंग उपंग मुरज डफ मिलि रस सिन्धु बढायो।

विविध विशद वृषभानु नन्दिनी अंग सुधंग दिखायो।।

सकल उदार नृपति चूडामणि सुख वारिधि बरसायो।

परिरंभन चुम्बन आलिंगन उचित जुवति जन पायो।।

बरषत कुसुम मुदित नभ नायक इन्द्र निसान बजायो।

जै श्रीहित हरिवंश रसिक राधापति जस बितान जग छायो।।

आज बन नीको रास बनायो।।

राग असावरी

गौरीमेल समुत्पन्नारोहणे गनिवर्जिता।

मध्यमोद्ग्राहधांशाद्यासावरी न्यासपञ्चमा।।

अपराह्न गेया। - अहोबिलः(संगीत पारिजात, ४४२)

असावेरी राग ध्यानम्-

कुचाभोगाहारां गलितवसनां सद्विलसनां भुजादेशप्राञ्चत्कचभरधरां कन्दुकधराम्।

नमद्गात्रामेव प्रकटितमुखीं गौरसुनखीमसावेरीं ध्याये मम मनसि रक्ताम्बरयुताम्।। - रागसागरः

असावेरी – मेलरागः(रत्नाङ्गीमेलजन्यः)

(आ) स रि म प ध – स.

(अव) स नि ध प म ग रि – स.

सावेरी—मेलरागः(मायामालवगौलमेलजन्यः)

(आ) स रि म प ध स .

(अव) स नि ध प म ग रि स .

मेलरागः – सावेरी तीव्रगान्धारा धैवतोद्ग्राहसंभवा।

मध्यमांशा निहीना चारोहणे गनिवर्जिता।। - अहोबिलः

सावेरी रागः-

धैवतांशा च तन्न्यासा स्वस्थाने स्यात्प्रकम्पिता।

निषादे मध्यमे नित्यं तिरिपा कम्पसंयुता।।

तारमध्यमषड्जाद्या पञ्चमेन विवर्जिता।

षड्जदेशी निजस्थाने सावेरी सर्वकम्पिता।। - क्षेमेश्वरः

सावेरीरागध्यानम् –

कुसुमावृतधम्मिल्लां चन्द्रकिपिञ्छावतंसितप्रकोष्ठाम्।

सावेरीं ध्यायामि प्रकटितवीणाधरां सितवसनाम्।। - रागसागरः

डा. शोभा माथुर ने अपनी पुस्तक भारतीय संगीत में मेल अथवा ठाठ का ऐतिहासिक अध्ययन में असावरी शब्द की व्युत्पत्ति सौवीर शब्द से मानी है। लेकिन ऋग्वेद १.८४.१ की ऋचा निम्नलिखित है –

असावि सोम इन्द्र ते शविष्ठ धृष्णवा गहि। आ त्वा पृणक्त्विन्द्रियं रजः सूर्यो न रश्मिभिः।।

अर्थात् हे इन्द्र, तेरे लिए सोम को शुद्ध कर लिया गया है अथवा सोम का सवन कर लिया गया है। तुम आओ। तुझे इन्द्रिय इसी प्रकार प्राप्त हो जैसे सूर्य की रश्मियों में रजकण। इस ऋचा में शविष्ठ शब्द समाधि की अवस्था की ओर इंगित करता प्रतीत होता है। इस ऋचा से आभास होता है कि असावरी और असावि शब्दों में साम्य हो सकता है। और यदि असावि शब्द असावरी का मूल है तो फिर हमें सव शब्द पर विचार करना होगा(असावि शब्द भूतकाल का वाचक है) । वैदिक साहित्य में सविता सवन करने वाला, प्रेरणा देने वाला देवता माना गया है। सविता देवता हिरण्यपाणि है। उसके सामान्य हाथ तो किसी कारण से काट दिए गए थे, फिर उसको हिरण्यपाणि से युक्त किया गया। शतपथ ब्राह्मण ९.३.४.५, ९.४.३.१२, ९.४.४.८ आदि में इस वाक्य की पुनरावृत्तियां की गई हैं कि जिसके लिए देवता सवन करना चाहते हैं, उसी के लिए सवन हो पाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम पुरुषार्थ कर सकते हैं, लेकिन पुरुषार्थ के साथ दैव को साथ लेकर चलना आवश्यक है। इसी को सविता देवता के हिरण्यपाणि रूप में दिखाया गया हो सकता है। शतपथ ब्राह्मण ५.३.३.११ में विभिन्न देवता विभिन्न सवों के लिए कार्य करते हैं – सविता सवों का सुवन करता है, अग्नि गृहपतियों का, सोम वनस्पतियों का, बृहस्पति वाक् का, इन्द्र ज्येष्ठ्य के लिए, रुद्र पशुओं के लिए, मित्र सत्य का, वरुण धर्मपतियों का। और शतपथ ब्राह्मण ५.३.३.१३ से संकेत मिलता है कि देवताओं की ओर से जो सवन किया गया है, वह वर्तमान में भी घटित हो सकता है और भविष्य(श्वः) में भी। अतः सव में श्वः शब्द भी निहित है।

डा. शोभा माथुर की पुस्तक से कुछ अंश –

भरत के नाट्यशास्त्र में आसावरी नामक किसी ग्राम राग अथवा जाति का वर्णन नहीं मिलता।

संगीत रत्नाकर में शार्ङ्गदेव ने आसावरी का वर्णन किया है। उन्होंने इसे ककुभ नामक ग्राम राग की भाषा में रगन्तिका से उत्पन्न रागिनी माना है। संगीत रत्नाकर की आसावरी के विषय में मतभेद है, क्योंकि इसके अर्थ का उचित स्पष्टीकरण नहीं हो पाया है।

दामोदर के संगीत दर्पण में हनुमत मत के प्रमाण में आसावरी को श्रीराग की भार्या माना गया है(संगीत दर्पण, पृष्ठ ७९)।

नारद तृतीय कृत चत्वारिंशद् राग निरूपणम् में आसावरी तथा सावेरी को क्रमशः दीपक तथा वसन्त की भार्याएं माना गया है।

स्वरमेलकलानिधि(१५५०ई.) में रामामात्य ने सावेरी को शुद्ध बिलावल जैसे सातों शुद्ध स्वर का राग बताया। यह सावेरी सारंगनाट मेल से उत्पन्न हुई है। रामामात्य ने तुरुष्कतोडी में दोनों गन्धार तथा कोमल निषाद स्वरों का प्रयोग बताया।

लोचन आसावरी तथा सैन्धवी आसावरी को गौरी मेल में बताते हैं। इसी प्रकार हृदयनारायण, अहोबल तथा श्रीनिवास भी आसावरी को गौरी मेल अथवा भैरव के अन्तर्गत मानते हैं।

सोमनाथ ने १६०९ ई. में राग विबोध ग्रन्थ में आसावरी को मालवगौड मेल में माना है। सावेरी मृदु सा तथा मृदु म युक्त मल्लारी मेल का राग है। सोमनाथ के अनुसार भी आसावरी भैरव के ही अन्तर्गत आती है।

वैंकटमखी(१६४०ई.) ने चतुर्दण्डिप्रकाशिका में सावेरी राग का वर्णन हनुमत्तोडी मेल में किया है। इसका स्वरूप कोमल आसावरी का सा है-

हनुमत्तोडीमेलाच्च जाता सावेरिनामिका।

सन्यासं सांशकं चैव सषड्जग्रहमुच्यते।।

आरोहे मनिवर्ज्यं स्यादवरोहे समग्रकम्।

सा रे॒ म प ध॒ सां, सां नि॒ ध॒ प म ग॒ रे॒ सा।।

इस समय तक भी आसावरी में रे ग ध नि स्वर कोमल थे।

पुण्डरीक विट्ठल रचित सद्राग चन्द्रोदय में कोमल रे ध युक्त मालवगौड का जन्य राग आसावरी है।

पुण्डरीक द्वारा ही लिखित रागमाला में आसावरी को शुद्ध भैरव की भार्या माना गया है। सावेरी को नट नारायण की भार्या माना गया है।

भावभट्ट (१७वीं शताब्दी) ने तीन प्रकार की आसावरी का वर्णन किया है –

प्रोक्ता सासावरी प्रोक्ता जोगिया, नायकी, त्रिधा।

इनमें जोगिया आसावरी व नायकी आसावरी आजकल प्रचलित नहीं हैं।

संगीत सारामृत (१७२९-३५ ई.) में सावेरी का वर्णन मालवगौड के अन्तर्गत है तथा शुद्ध सावेरी मालवगौड का ही षाडव राग है।

प्रताप सिंह ने संगीत समयसार में लिखा है – आसावरी को शिवजी ने ईशान मुख सों गाईके श्रीराग की छाया युक्ति देखिके श्रीराग को दीनि।

आसावरी का प्राचीन रूप कोमल आसावरी का ही था। परन्तु भातखण्डे जी ने सुविधा हेतु इसमें रे शुद्ध तथा गान्धार, धैवत, निषाद को कोमल कर दिया है। उनके अनुसार कोमल ऋषभ में गायकों को तान लेने में कठिनाई होती थी, इसलिए शुद्ध ऋषभ का प्रयोग किया है। आजकल इसी आसावरी को ठाठ की मान्यता प्राप्त है। इसमें रे शुद्ध तथा ग, ध, नि स्वर कोमल हैं।

श्री शास्त्री ने कर्नाटक संगीत में सावेरी के कईं प्रकार बताए हैं जो कि विभिन्न मेलों में हैं, जैसे-

उदाहरण संगीत शिक्षक श्री भगवान सिंह शर्मा(रुडकी) तथा शिष्या(श्रीमती लक्ष्मी अग्रवाल) द्वारा -

खेलत रास रसिक ब्रज मण्डन।

युवतिन अंस दिए भुज दण्डन।।

शरद विमल नभ चन्द्र विराजे।

मधुर मधुर मुरली कल बाजे।।

राजत अति घनश्याम तमाला।

कंचन बेलि बनी ब्रज बाला।।

भूषण बहुत विविध रंग सारी।

अंग सुधंग दिखावत नारी।।

बाजत ताल मृदंग उपंगा।

गान हरत मन कोटि अनंगा।।

बरषत कुसुम मुदित सुर योषा।

सुनियत दिवि दुन्दुभि कल घोषा।।

जै श्री हित हरिवंश मगन मन श्यामा।

राधा रमण सकल सुख धामा।।

- श्रीहित चौरासी

आक्षिप्तिका/सरगम

फिल्म संगीत –

*मुझे गले से लगा लो बहुत उदास हूं मैं।

*चले जाना नहीं नैन मिला के।

राग बिलावल

बिलावल शब्द का शुद्ध रूप वेलावली प्रतीत होता है।

वेलावलीरागध्यानम्—

*विधाय सङ्केतमियं प्रियेण हेम्नोल्लसद्भूषणमुद्वहन्ती। स्मरं स्मरन्ती स्मरकामिनीभा वेलावली श्यामतनुर्विभाति॥ - श्रीकण्ठः

*सङ्केतदीक्षां दयितस्य दत्त्वा वितन्वती भूषणमङ्गयष्टेः। मुहुः स्मरन्ती स्मरमिष्टदैवं वेलावली नीलसरोजकान्तिः॥ - संगीतसरणिः

*पीठस्थिताया निजनायिकायाः समीपदेशे जलपात्रधारिणीम्। चित्राम्बरां निम्नगताङ्गरेखां वेलाहुरीं मे मनसा स्मरामि॥ - रागसागरः

*(आ) स रि ग म प ध स.

(अव) स नि ध प म ग रि स. – मञ्जः

*(मेलरागः, केदारमेलजः) --प्रातर्वेलावली पूर्णा यदांशन्यासधैवता। प्रयुज्यते रसे वीरे रिपाभ्यां वा विवर्जिता॥ - श्रीकण्ठः

*(मेलरागः) -- वेलावल्यां गनी तीव्रौ मूर्छना चाभिरुद्गता। आरोहे मनिहीनायामंशः षड्जो बुधैः स्मृतः। अवरोहे गवर्जायां कचिद्गान्धारमूर्छना॥ - अहोबिलः

*गान्धारावधितारा मन्द्रा पूर्णा समस्वराभोगा। वेलावलिका धैवतसांशन्यासग्रहैर्भवति॥ - नान्यः

*समस्वरा च पूर्णा च ग्रहांशन्यासधैवता। तारमन्द्रा च गान्धारं यावद्वेलावली भवति॥ - मतङ्गः

*धैवतांशग्रहन्यासा समन्द्रा च समस्वरा। शृङ्गारे करुणे चैव गेया वेलावली बुधैः॥ - नारायणः

*धैवतांशग्रहन्यासा पूर्णा वेलावली मता। पौरवी मूर्छना यस्यां रसे वीरे प्रयुज्यते॥ - दामोदरः

*भाषायां ककुभोद्भवा निगदिता प्राग्भोगवर्धन्यहो तस्या अङ्गमिदं समस्वरकृतं वेलावली नामतः। न्यासांशग्रहतारधैवतगता पूर्णा गमन्द्रा बुधैर्गातव्या किल विप्रलम्भविषया षड्जप्रकम्पान्विता॥ - मोक्षः

*ककुभ्या भोगवर्धन्या जाता वेलावली त्रिधा। तारषड्जा कम्पषड्जा पूर्णा शरदि गीयते। वेलावल्या मध्यमः स्यान्मन्द्र इत्यपरे जगुः॥ - भट्टमाधवः

अङ्गं च भोगवर्धन्या वेलावल्यभिधा च सा। विप्रलम्भे धतारा च गमन्द्रा च समस्वरा॥ - हम्मीरः

उदाहरण –

बेगि दरस दो कृष्ण मुरारी। गोवर्धन गिरिधारी। मोर मुकुट छवि वंसी धुन पर महोत व्रज के सब नर नारी।

ध वादी, ग संवादी

सा सा धा पा मा गा मा रे

राग बिहाग

यह रात्रि के द्वितीय प्रहर का राग है। ग वादी और नि संवादी स्वर हैं। राग बिहाग का शुद्ध रूप विहाग/विहग/विहङ्गम प्रतीत होता है। इस राग के आरोह में रि तथा ध वर्जित कहे गए हैं। अधिक सूचना के लिए श्री राजन पी. परिक्कर की वैबसाईट द्रष्टव्य है। उनका कहना है कि पहले इस स्वर में निहित तीव्र मध्यम को प्रकट नहीं किया जाता था, लेकिन आजकल किया जाने लगा है।

रिपोज्झितः सभूयिष्ठो विहङ्गो रागजस्तथा।

ग्रहांशन्यासाः षड्जे – मदनः

विहङ्गडः – मेलरागः

विहङ्गडे गनी तीव्रावरोहे तु रि वर्जिते। गान्धारोद्ग्राहसम्पन्ने न्यासांशो रिस्वरो मतः॥ - अहोबिलः

उपरोक्त उल्लेख में अवरोह में रि वर्जित होने का उल्लेख है जबकि वर्तमान राग बिहाग में आरोह में रि वर्जित है।

यद्यस्मिन्पञ्चमोद्गाहः स्याद्वारोहे गवर्जनम्। मूर्छनामध्यमे चापि पराहित्यं सदा भवेत्॥

सायं गेयः

विहङ्गलरागध्यानम्

विधुकरगौरस्सुरभिः सुमनःकृतभूषणाम्बरेषुधनुः। विरहिजनमनोमोही विहङ्गलः कीरवाही सः॥ - सोमनाथः

इस उल्लेख में राग बिहाग को विरहिजन मनोमोही तथा कीरवाही अर्थात् संदेशवाहक कहा गया है। यह परीक्षणीय है कि नीचे जो उदाहरण इस राग के दिए गए हैं, उनमें यह लक्षण कितना प्रकट होता है।

उदाहरण – क्यों तुम रूठ गए मनमोहन(संगीत किशोर पुस्तक से)

फिल्म संगीत(- स्वरगंगा http://www.swarganga.org/hindisongs.php से)

*यह क्या जग है दोस्तो

*पल भर की पहचान आपसे

*जिन्दगी के सफर में

*चलेंगे तीर जब दिल पर

*हमारे दिल से ना जाना

*ए दिल बेकरार झूम

*तुम मुरली मधुर बजाओ

*बोले रे सुरीली बोलियां

*तेरे प्यार में दिलदार

*तेरे सुर और मेरे गीत

*बांकी चकोरी गोरी झूम झूम नाचेगी

राग खमाज

सम्पूर्ण षाडव, वादी गान्धार, संवादी निषाद, आरोह में रि वर्जित, निषाद शुद्ध, अवरोह कोमल, अन्य स्वर शुद्ध। शृङ्गार प्रधान, समय रात्रि द्वितीय प्रहर

आरोह – सा ग म प ध नि सां

अवरोह – सां नि ध प म ग रे सा

उदाहरण – चरण पडत विनती करत मानो अब कन्हाई श्याम(संगीत किशोर पुस्तक से)

खमाज शब्द से संकेत मिलता है कि यह खं से जनित राग है। एक कं होता है जो स्थूलता से, पापों से बद्ध होने का सूचक है। एक खं है जो स्थूलता से रहित है, आकाश की भांति। ऐसा कहा जा सकता है कि जो खं में मज्जन करे, खं में नहाए, वह खमाज है। नीचे जो उदाहरण फिल्मी संगीत के दिए गए हैं, उनमें वैष्णव जन तो तेने कहिए पीर पराई जाने रे महत्त्वपूर्ण है क्योंकि पाप नष्ट होने पर, स्थूलता नष्ट होने पर ही दूसरों की पीडा का अनुभव हो सकता है।

फिल्मी संगीत(स्वरगंगा से)

*बडा नटखट है - - -का करे यशोदा मैया

*आयो कहां से घनश्याम

*अंग अंग डोले मेरा

*शाम ढले जमुना किनारे

*ढल चुकी शामे गम

*ओ सजना बरखा बहार आई

*चुनरिया कटती जाए

*आ दिल से दिल मिला ले

*वो ना आएंगे पलटकर

*अब क्या मिसाल दूं

*आन मिलो सजना

*कुछ तो लोग कहेंगे

*नजर लागी राजा तोरे बंगले पर

*वैष्णव जन तो तेने कहिए

*तेरे बिन सजना लागे ना जीया हमार

*मेरे तो गिरिधर गोपाल

*बता दो सखी कौन गली गयो श्याम

*खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू

राग मांझ खमाज

*कैसे दिन बीते कैसे बीती रतियां

*जाने कैसे सपनों में खो गई

*कान्हा कान्हा आन पडी रे तेरे द्वार

राग भैरवी

*संपूर्णा भैरवी ज्ञेया ग्रहांशन्यासमध्यमा। सौवीरी मूर्च्छना यत्र मध्यमग्रामचारिणी॥ देवी ह्येषा भैरवस्य स्वरैर्गेया विचक्षणैः। म प ध नि स रि ग म - दामोदरः

*निरूप्यतेऽथ रागेषु भैरवी संज्ञितः पुनः। भिन्नषड्जसमुद्भूतो न्यासांशग्रहधैवतः। समशेषस्वरः पूर्णे गान्धारे तारमन्द्रता॥ - हरिपालः

*षड्जत्रयेण संयुक्ता सदा पूर्णा प्रगीयते। भैरवस्वरसंमिश्रा भैरवी रिपमुद्रिता॥(मेलरागः, श्रीराममेलः) – श्रीकण्ठः

*या भैरवीह तु मयूरसुरारिधेनुतच्छागशुद्धतरमध्यमपञ्चमाश्च। हर्यश्वकैशिकनिषादमिदं समानं संपूर्णजातिरिति गायति नारदोऽपि॥ समपाः शुद्धाः। रिधौ चतुःश्रुतिकौ। अन्तरौ गनी।(मेलकर्ता) – परमेश्वरः

*धैवतादिस्ताडितांशा नित्यपञ्चमकम्पिता। संपूर्णा च स्वरैस्सर्वैर्भैरवी नामतो मता॥ - सोमेश्वरः

*न्यासांशग्रहधैवतयुक्ता गान्धारतारमन्द्रा च। समशेषस्वरभासा संपूर्णा भैरवीयम् ॥ - नान्यः

*गान्धारतारमन्द्रा च न्याशांशग्रहधैवता। समाखिलस्वरा पूर्णा भव्या भवति भैरवी॥ - मतङ्गः

*सस्वरांशग्रहन्यासा भैरवी स्यार्द्धकोमला। रिणारोहे तु पन्यासा पञ्चमेनोभयोरपि। षड्जेनाथावरोहे तु सर्वदा सुखदायिनी॥(मेलरागः) – अहोबिलः

*भैरवी भैरवोपाङ्गं ग्रहांशन्यासधैवता। समैरन्यैस्वरैर्युक्ता गीयते तारमन्द्रगा॥(उपाङ्गरागः)

मन्द्रगा – गान्धारस्तारमन्दः। - भट्टमाधवः

*भिन्नषड्जसमुद्भूता धांशन्यासग्रहान्विता। समशेषस्वरा पूर्णा गाञ्चिता मन्द्रतारयोः। देवादिप्रार्थनायां तु भैरवी विनियुज्यते॥ - जगदेकः

*(आ) स ग रि ग म प ध नि स

(अव) स नि ध म प म ग रि स(मेलरागः, नटभैरवीमेलजन्यः) – मञ्ज

*धैवतांशग्रहन्यासा भिन्नषड्जसमुद्भवा। गतारमन्द्रा तुल्यान्यस्वरा भवति भैरवी॥ - भोगवती

*भैरवी भैरवोपाङ्गं धांशास्यात्तारमन्द्रगा। पूर्णा समस्वरा गेया प्रायेण करुणे रसे॥(प्रथमरागः) – मोक्षः

*धांशा समग्रहा तारा मन्द्रगान्धारशोभिता। भैरवी भैरवोपाङ्गं समशेषस्वरा भवेत्॥ - हम्भीरः

*भैरवीरागध्यानम् :

सरोरुहस्थे स्फटिकस्य मण्डपे सरोरुहैः शङ्करमर्चयन्ती। तालप्रयोगैः प्रतिबद्धगीता गौरीतनुर्नारदभैरवीयम्॥ - संगीतसरणिः

*स्फटिकरचितपीठे रम्यकैलासशृङ्गे विकचकमलपत्रैरर्चयन्ती महेशम्। करधृतघनवाद्या पीतवर्णा वराक्षी सुकविभिरियमुक्ता भैरवी भैरवश्रीः॥ - दामोदरः

*सुवर्णवर्णा घनवाद्यहस्ता विशालनेत्रा द्विजराजवक्त्रा। नित्यं स्थिता स्फाटिकचारुपीठे कैलाशृङ्गे किल भैरवीयम्॥ - श्रीकण्ठः

जैसा कि भैरवीरागध्यानम् में उल्लेख है, भैरवी राग को तालवाद्य के साथ गाने का निर्देश है। श्रीमती विमला मुसलगाँवकर की पुस्तक “भारतीय संगीत शास्त्र का दर्शनपरक अनुशीलन” में उल्लेख है कि ताल या घन वाद्य स्थूल शरीर को, मूलाधार को झंकृत करते हैं। स्कन्द पुराण ७.१.५८ में भैरवी देवी को क्रिया शक्ति का रूप, शरीर से व्याधियों को निकाल कर उन्हें ओषधियों का रूप देने वाली कहा गया है। व्याधियों को अजा और भैरवी को अजापालेश्वरी देवी कहा गया है। रात भर चलने वाली किसी गोष्ठी का अन्त भैरवी राग गाकर किया जाता है। यह प्रातःकाल का राग है। यह अन्वेषणीय है कि वैदिक दृष्टिकोण से प्रातःकाल क्या होता है। पापों से रहित अवस्था प्रातःकाल हो सकती है। सोमयाग कृत्य में प्रातःसवन में आज्य(आ-ज्योति) नामक कृत्य होता है। अजा आज्य का पूर्व रूप हो सकता है। अजा अर्थात् अभी केवल ताप ही है, उस ताप से ज्योति प्रकट नहीं हुई है।

उदाहरण(म वादी, सा संवादी)

अंखियाँ हरि दर्शन की प्यासी। देख्यो चाहत कमलनयन को निसिदिन रहत उदासी।

(हारमोनियम स्वयंशिक्षक(कमल पुस्तकालय, दिल्ली) पुस्तक से)

द्वार चलत छेडे श्याम सखी री। मैं दूंगी गारी। निपट अनारी। पनिया भरत मोरी गागर फोडी।(संगीत किशोर पुस्तक से)

फिल्म संगीत(स्वरगंगा से)

*मेरी तनहाइयों तुम ही लगालो मुझको

*सांवरे सांवरे

*हमें तुमसे प्यार कितना

*मेरे ऐ दिल बता

*मिले जो - - -

*खामोश है

*मुकुन्द माधव हरि बोल

*सुनो छोटी सी गुडिया की

*कभी नेकी भी उसके जी में

*रमैया वस्ता वैया

*फूल गेंदवा ना मारो

*मेरा जूता है जापानी

*बाकी कुछ बचा तो

*बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं

*जिया जले जान जले

*दोस्त दोस्त ना रहा

*सुनाई देती है जिसकी धडकन

*बरसात में हमसे मिले तुम

*दो हंसों का जोडा बिछड

*हटो काहे को झूठी बनाओ बतियां

*आई दिवाली आई दिवाली

*(इस)भरी दुनियां में

*जब दिल ही टूट गया

*तू गंगा की मौज

*येह दिल येह पागल दिल मेरा

*मेरी तनहाईयों तुम ही लगालो मुझको

*ज्योत से ज्योत जगाते चलो

*फिर किसी राह गुजर पर शायद

*लागा चुनरी में दाग

*डोली चढके हीर

*कैसे जाऊं जमुना के तीर

*इन्साफ का मन्दिर है

*बाबुल मोरा नैहर छूटो

*मितवा रे मितवा पूरब ना जैयो

*मीठे बोल बोले

*जय बोलो बेईमान की

*जा रे जा रे उड जा रे पंछी

*भोर भये पनघट पे

*कैसे समझाऊं बडे

*इन्साफ का मन्दिर है ये भगवान का घर है

*ऐ मेरे दिल कहीं और चल

राग भैरव

चूंकि राग भैरव का वादी स्वर धैवत कहा गया है और राग भैरव का गायन प्रातःकाल किया जाता है, अतः भैरव राग के विषय में अनुमान है कि कष्टों से भरी साधना का अन्त भैरव राग से होता है। धैवत स्वर बीभत्स व भयानक रस हेतु प्रयुक्त होता है। करुण रस हेतु भी धैवत स्वर का प्रयोग किया जाता है। कष्टों से भरी साधना रात्रि हो सकती है और कष्टों का अन्त प्रातःकाल।

*अथ स्याद्भैरवो रागः षड्जांशन्यासमध्यमः। समस्वरो धैवतांशः पञ्चमर्षभवर्जितः॥ - हरिः

*यदीयांशग्रहन्यासाष्षड्ज एव निगद्यते। रिपास्तो भैरवो रागः प्रभाते स प्रगीयते॥(मालवगौलमेलजः) – श्रीकण्ठः

*धैवतांशग्रहन्यासा संपूर्णोऽथ समस्वराः। आन्दोलितस्तु स्वस्थाने स्वाश्रितः पञ्चमेन तु॥ गान्धारः कम्पितो मन्द्रे रिषभे चापि कम्पितः। निषादषड्जबहुलो भैरवः परिकीर्तितः॥ - सोमेश्वरः

*न्यासग्रहांशस्थितधैवताख्यो गान्धारषड्जावधितारयुक्तः। मन्द्रश्च पूर्णध्वनिधैवतीयः शेषास्समा भैरव एष उक्तः॥ - नान्यः

*धैवतांशग्रहन्यासस्संपूर्णोऽथ समस्वरः। आगान्धारमथो षड्जं तारो मन्द्रश्च धैवतः॥ - नान्यः

*धैवतांशग्रहन्यासयुक्तः स्याच्छुद्धभैरवः। सकम्पमन्द्रगान्धारो गेयो मध्याह्नतः परम्॥ - नारायणः

*भिन्नषड्जसमुत्पन्नो भैरवोऽपि रिपोज्झितः। धग्रहांशो मध्यमान्तो गेयो मङ्गलकर्मणि॥ (औडुव रागः । इयमेव भैरवी। भैरवी कैशिकी चैव भैरवस्यैव वल्लभा) – नारायणः

*भैरवे तु रिपौ न स्तो धादिमे न्यासमध्यमे। तत्रोक्तौ तु गनी तीव्रौ कोमलो धैवतः स्मृतः॥ अयं मेलाधिकारी। प्रातर्गेयः। - अहोबिलः

*धैवतांशो मध्यमान्तो विमुक्तर्षभपञ्चमः। शीते च भैरवो भिन्नषड्जजातः समस्वरः। हेमन्तप्रथमे यामे करुणे विप्रलंभजे॥(रागाङ्गरागः) - भट्टमाधवः

*एकास्याष्ट भुजः श्वेतवर्णो वृषभवाहनः। कृत्तिवासाः सर्पशूलः खट्वाङ्गजपमालिका॥ वीणापाशफलाब्जानि बिभ्राणो भैरवप्रभः। कैश्चिद्रागविदां वर्यैः स्मर्यते शूलरूपभृत्॥ - कुम्भः

*भिन्नषड्जसमुद्भूतो मन्यासो धांशभूषितः। स्वरास्समपरिस्यक्तः प्रार्थने भैरवस्स्मृतः॥ - जगदेकः

*(आ) सरिगमपधनिस

(अव) सधपमगरिगस(मेलरागः, सूर्यकान्तमेलजन्यः) – मञ्ज

*धैवतांशग्रहन्यासो रिपहीनो धसान्तकः। भैरवस्स तु विज्ञेयो धैवतादिकमूर्छनः। विकृतो धैवतो यत्र औडुवः परिकीर्तितः॥(पुंरागः) ध नि स ग म ध – दामोदरः

*भिन्नषड्जभवो धांशः ग्रहन्याससमस्वरः। रिवर्जितो भैरवस्स्यात् देवताप्रार्थनादिषु॥ - सोमराजः

*भिन्नषड्जसमुद्भूतो मन्यासो धांशभूषितः। समस्वरः परित्यक्तः प्रार्थने भैरवस्स्मृतः॥ - हम्भीरः

*धग्रहांशो रिपत्यक्तो भैरवो मांशयुक् चरः। - मदनः

*सचन्द्रहासं फलकं दधानो निबद्धकोपो दृतबद्धचूडः। चारीर्वितन्वन्बहुधा पदातिप्रचण्डरूक्षः किल भैरवोऽयम्॥ - संङ्गीतसरणिः

*श्रुतिस्वरमहोदधिं सकलतालमानामृतं शिवार्चितमनोहरं भसितलेपिताङ्गं सदा। जटामुकुटभासुरं शिशुशशिप्रभामौलिकम्। कपालभरणं भजे नटनकौशलं भैरवं॥ - रागसागरः

*गान्धारकः शशिकला फलितस्त्रिणेत्रः सर्पैः विभूषिततनुर्गजकृत्तिवासाः। भास्वत् त्रिशूलकर एष नृमुण्डधारी शुभ्राम्बरो जयति भैरव आदिरागः॥ - संगीतदर्पणे दामोदरः

*गङ्गाधरश्चन्द्रकलोत्तमाङ्गो भुजङ्गमव्यूहविभूषिताङ्गः। शुद्धाम्बरः शूलविभूतिधारी स भैरवाख्यो जयति प्रकामम्॥ - श्रीकण्ठः

उदाहरण:

प्रात भयो जागो यदुराई।

मुनिजन ध्यान करत तुम्हरोही प्यारे कृष्ण कन्हाई।

चिडिया चहक चहक गुण गावैं।

पत्ते हिल हिल शीश झुकावैं।

चलती त्रिविध समीर सुहावन अनुपम शोभा छाई॥ (पुस्तक ‘संगीत किशोर’ से)

आक्षिप्तिका

पुष्टिमार्ग में राग भैरव के पद

*जागिए ब्रजराज कुंवर कमल कोश फूले(सूरदास)

*श्री वल्लभ कृपा निधान अति उदार करुनामय दीन द्वार आयो(हरिदास)

*छगन मगन प्यारे लाल कीजिए कलेवा(सूरदास)

*जागो मेरे लाल जगत उजियारे(परमानन्ददास)

*जागिए गोपाल लाल जननी बलि जाई(मानदास)

*सांवरो मंगल रूप निधान(ट)

फिल्मी संगीत:

*जागो मोहन प्यारे

*सुन री पवन पवन पुरवैया

*मोहे भूल गए साँवरिया

अहीर भैरव:

*पूछो ना कैसे मैंने रैन बिताई

*राम तेरी गंगा मैली हो गई

*वक्त करता जो वफा आप हमारे होते

*अपने जीवन की उलझन को

*सोलह बरस की बाली उमर को सलाम

*जिंदगी को संवरना होगा

*मेरे बिना? तुम बिन रोए

बैरागी भैरव:

*मैं एक राजा हूं

*किसी नजर को तेरा इन्तजार आज भी है

राग यमन (अथवा कल्याण)

सम्पूर्ण जाति का राग, म तीव्र। समय रात्रि का दूसरा प्रहर।

उदाहरणः-

धन्य धन्य ब्रजगाम सखी री। रास रचत जहां कृष्णमुरारी। धन्य वें पक्षी धन्य वे गउएं धन्य धन्य नर नार सखी री। परम मनोहर लीला निरखत राधे कृष्ण की नई नई री। (संगीत किशोर पुस्तक से)

उपरोक्त उदाहरण में धन्य शब्द महत्त्वपूर्ण है। धन्य का अर्थ है – जीवन अब धनात्मकता की ओर जाने लगा है, ऋणात्मकता समाप्त हुई। पुराणों में कथा आती है कि नारद जी ने सबसे पहले कूर्म को देखकर आश्चर्य प्रकट किया और कहा कि वह धन्य है। कूर्म ने कहा कि धन्य तो समुद्र है जहां मेरे जैसे अनेक जीव जन्तु हैं। नारद ने समुद्र को देखकर आश्चर्य प्रकट किया और कहा कि वह धन्य है। समुद्र ने कहा कि धन्य तो पृथिवी है जहां मेरे जैसे ७ समुद्र हैं। इस प्रकार करते करते नारद जी पृथिवी पर स्थिति ब्रजमण्डल में विराजमान विष्णु के पास पहुंच गए। विष्णु ने कहा कि वह दक्षिणा के साथ धन्य हैं। दक्षिणा पर आकर आश्चर्य समाप्त हो जाता है।

फिल्मी संगीत(स्वरगंगा वैबसाईट तथा हिन्दुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक वैबसाईट से)

*सुनी जो उनके आने कि आहट

*दिल जो ना कह सका

*आपके अनुरोध पे मैं ये गीत

*जीवन डोर तुम्हीं संग बांधी

*चन्दन सा बदन चंचल चितवन

*वोह शाम कुछ अजीब थी

*जब दीप जले आना

*इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा

*मौसम है आशिकाना

*भूली हुई यादों

*छोडो छोडोछोडो मोरी बईंयां

*जा रे बदरा बैरी जा

*जिया ले गयो जी मोरा सांवरिया

*ये चमन हमारा अपना है

*आंसूं भरी हैं ये जीवन की राहें

*जाने वाले से मुलाकात ना होने पायी

*दो नैना मतवाले तिहारे

*सीने में सुलगते हैं अरमाँ

*मेरि दुनिया में तुम आए

*याद रहेगा प्यार का येह रंगीन जमाना

*बडा दुख दीना तेरे लखन ने

*वोह हंसके मिले हम से

*अभी ना जाओ छोड के

*अहसान तेरा होगा मुझपे

*वोह शाम कुछ अजीब थी

*लगता नहीं है दिल मेरा

*मन रे तू काहे न धीर धरे

*दो नैना मतवाले तिहारे

*इस मोड पे जाते हैं

*सारंगा तेरी याद में

*आप के अनुरोध पे

*मुझको यारो माफ करना, मैं नशे में हूं

*वो जब याद आए बहुत याद आए

*मेरे सुन्दर सपने बीत गए

*यूं हसरतों के दाग

*जा रे बदरा बैरी जा रे जा रे

*ये मेरा दीवानापन है

*मिले ना फूल, कांटों से दोस्ती कर ली

*झुमका गिरा रे, बरेली के बाजार में

*दिल जो ना कह सका

*जिया ले गयो जि मोरा सांवरिया

*मौसम है आशिकाना

*इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा

*छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा

*पान खाए सैंयां हमारो

*हर एक बात पे

*बीती ना बिताए रैना

*जिंदगी भर नहीं भूलेंगे वो बरसात की रात

*निगाहें मिलाने को जी चाहता है

*धडकते दिल का पयाम ले लो

*प्रीतम आन मिलो

*तुम मुझे भूल भी जाओ

*संसार से भागे फिरते हो

*तुम बिन जीवन कैसे बीता

*इन्तजार और अभी

*तुम गगन के चन्द्रमा

*जरा सी आहट होती है - - कहीं ये वो तो नहीं

*दिले बेताब को सीने से लगाना

*दिल दिया दर्द लिया

*तेरे हुस्न की क्या तारीफ करूं

*सवेरे का सूरज तुम्हारे लिए

*श्रीरामचन्द्र कृपालु भज मन

*आए हो मेरि जिंदगी में

राग गौड मल्हार मल्हार मल्लार

धैवतांशश्च तन्न्यासः षड्जपञ्चमवर्जितः। ताडितोऽयं निजस्थाने मल्लारश्चौडवस्स्मृतः।। - सोमेश्वरः

मेलरागः –

षड्जादिमूर्छनोपेतः षड्जत्रयसमन्वितः। गनिहीनोऽ मल्लारो वर्षासु सुखदायकः।। यतो वर्षासु गेयोऽयं मेघ इत्यपि कीर्तितः। अकालरागगानेन जातदोषं हरत्ययम्।। षड्जत्रय इति। ग्रहांशन्यासाः षड्ज एव। सर्वदा गेयः – अहोबिलः

-रागः

लक्षणं विनियोगं च भवेन्मल्लारिकासमम्। मल्लारस्य गनित्यागः पञ्चमस्फुरणं भवेत्।। - जगदेकः

धैवतांशग्रहन्यासः षड्जगान्धारवर्जितः। ममन्द्रः पञ्चमाकम्पी मल्लारीति च कथ्यते।। - सोमरागः

- वंशे वादनक्रमः

धैवतं तु ग्रहं कृत्वा सकृदाहृत्य च ग्रहम्। तस्मात्परं समुच्चार्य पुनः स्थायिस्वरं व्रजेत्।। तस्मात्परौ द्विरुच्चार्य समाहत्य ग्रहस्वरम्। ग्रहात्पूर्वं द्वितीयं च क्रमेणोक्त्वा ग्रहे यदा।। न्यासो मल्हाररागस्य स्वस्थानं प्रथमं भवेत्। तस्य स्वरो द्वितीयस्तु वंशेषु स्थायितां गतः।। - वेमः

मल्लाररागध्यानम्-

शङ्खावदाताङ्गुलिकं दधानाः प्रलम्बकर्णः कुमुदेन्दुवर्णः। कौपीनवासा शुचिहारधारी मल्लाररागः कथितस्तपस्वी।। - संगीतसरणिः

मल्लारकः रागः –

यस्मिन्पञ्चमषड्जनिस्वनकथा नास्त्येव मन्द्रधवनिर्गान्धारस्स च सप्तमस्तु परितो यत्रास्ति तारध्वनिः। न्यासांशग्रहधैवतध्वनिधरं तं धैवतीसम्भवं मल्लारं नृपमल्लमोहनमुरारातिर्वदत्सुयुत्सुकः।। - नान्यः

धैवतांशग्रहन्यासः षड्जपञ्चमवर्जितः। निषादतारो गान्धारमन्द्रो मल्लारकस्स्मृतः।। - मतङ्गः

मल्लारिका रागः –

अन्धाल्याया विभाषाया अङ्गं मल्लारिका स्मृता। पञ्चम्यंशग्रहन्यासा ग्रहान्ता मन्द्रमध्यमा।। - हम्मीरः

मल्लारी रागः –

न्यासांशग्रहपञ्चमका च पसारा च तारहीना च। गनिहीनापि समन्द्रा समशेषा भवति मल्लारी।। - नान्यः

तारहीना षड्जमन्द्रा पव्याप्तिर्गनिवर्जिता। पञ्चमांशग्रहन्यासा मल्लारी सदृशस्वरा।। - मतङ्गः

अस्याश्चापि विशेषेण यथोकेतेनोपलक्षितौ। पञ्चमोद्भूतसैन्धव्याविवालापकरूपकौ।। - नान्यः

अन्धालिका समुद्भूता मल्लार्यथ निग्द्यते। पञ्चमांशग्रहा षड्जमन्द्रा गान्धारवर्जिता।। - हरिः

एवंविधैव मल्लारी षड्जपञ्चमदुर्बला। संपूर्णा कम्पितस्थाना गीयते लक्षणान्विता।। - सोमेश्वरः

-मेलरागः

गौरीमेलसमुद्भूता मल्लारी निस्वरोज्झिता। आरोहणे गहीना स्यात् षड्जादिस्वरसंभवा।। - अहोबिलः

-रागः –

अन्धालिकाङ्गं मल्हारी मध्यमांशग्रहान्विता। रिमन्द्रा च गशून्याच शृङ्गारे ताडितस्वरा।। - जगदेकः

-(षाडवः)

पञ्चमांशग्रहन्यासा पहीना मन्द्रमध्यमा। शृङ्गारे दुर्दिने गेया मल्लारी परिकीर्तिता।। - नारायणः

अयमेव माधवादिरुच्यत इति गोपगोविन्दटीकाकारः

मूर्तिवर्णने माधवादिरित्यपि।

मल्लारी सपहीना स्याद्ग्रहांशन्यासधैवता। औडुवा पौरवीत्युक्ता वर्षासु सुखदा सदा।। - दामोदरः

मल्लारीरागध्यानम्

गौरीकृशा कोकिलकण्ठनादा गीतच्छलेनात्मपतिं स्मरन्ती। आदाय वीणां मलिना रुदन्ती मल्लारिका यौवनदूनचित्ता।। मेघरागभार्या। - दामोदरः

मल्हारः – मेलकर्ता

शुद्धौ सगौ मपौ शुद्धौ पतादिगौ मसौ पुनः। त्रिश्रुतिस्स्यान्निषादोऽपि मल्हारस्यापि मेलनम्।। धैवतांशग्रहन्यासः षड्जपञ्चमवर्जितः। मल्हारो गीयते प्रातर्गानविद्याविशारदैः।। - श्रीकण्ठः

-रागः

मल्हारोऽप्यथ गान्धारवर्जितष्षाडवः पुनः। निषादस्फुरितश्शेषे मल्हारीवद्भवेदिह।। - हरिः

-उपाङ्गरागः(वीणायां वादनक्रमः)

धैवतं ग्रहमास्थाय तत्परं तु विलम्बयेत्। पुनः स्थायिस्वरं स्पृष्टा द्वितीयं च स्वरं स्पृशेत्।। स्थायिनं प्राक् तृतीयं च स्वरमीषद्विलम्बयेत्। आरुह्य च ग्रहादियं द्वौ तृतीयं विलम्बयेत्। तदधस्त्यं स्पर्शमात्रादवरुह्य ततः क्रमात्।। स्पृष्ट्वा स्वरान् ग्रहांश्च त्रीन् पुनश्च स्थायिनं स्पृशेत्। उक्तं स्वरं तत्परं च स्थायिनि न्यस्यते यदा।। तदा सञ्जायते रागो मल्हाराख्यो मनोहरः। रागस्यैतस्य लक्ष्ये तु लक्ष्यते पञ्चमो ग्रहः।। - वेमः

-रागः

अन्धाल्युपाङ्गं मल्हारष्षड्जपञ्चमवर्जितः। धन्यासांशग्रहो मन्द्रगान्धारस्तारसप्तमः।। - हम्मीरः

-उपाङ्गरागः

गमन्द्रः सपनिर्मुक्तो ग्रहांशन्यासधैवतः। अन्धाल्युपाङ्गमल्हारो नितारः प्रावृषि स्मृतः।। - भट्टमाधवः

मल्हाररागध्यानम्

वीणातिवादः कलकण्ठनादः सुवर्णवर्णः स्फुरदब्जकर्णः। काश्मीरचित्रश्शरदिन्दुवक्त्रो मल्हारनामा नितरां विभाति।। - श्रीकण्ठः

मल्हारी – प्रथमरागः

विभाषान्धालिका तज्जा मल्हारी मन्द्रमध्यमा। पांशा स्याद्धीनगान्धारा शृङ्गारे ताडितस्वरा।। - मोक्षः

-रागः

मल्हारी सपहीना स्यात् धत्रया चोपुजामता। धत्रयेति ग्रहांशन्यासेषु धैवतः। उपजेति उपरागजानां सूचनम्। - मदः

-मेलरागः(मालवगौलमेलः)

पत्रयेण युता प्रातर्मल्हारी रिविवर्जिता। वर्षास्वपि विशेषेण प्रगेया सुखदायिनी।।- श्रीकण्ठः

-उपाङ्गरागः

पांशन्यासग्रहा मुक्तमध्यमा गविवर्जिता। शृङ्गारे सा प्रयोक्तव्या मल्हार्यन्धाल्युपाङ्गका।। - भट्टमाधवः

मल्हारिदेशी – रागः

मल्हाराद्द्गता देशी त्रिधा साधवियुक् सपा। - मदनः

मल्हारीरागध्यानम्

मृणालतन्वी पिककण्ठनादिनी गानच्छलेन स्मरति प्रियं स्वकम्। विपञ्चिकामञ्जुलपाणिरुत्तमा मल्हारिका यौवनभारसन्नता।। - श्रीकण्ठः

राग मालकौंस

राग मालकौंस के वादी व संवादी स्वर क्रमशः म तथा सा हैं। ऋषभ व पंचम स्वर वर्जित हैं। इस प्रकार यह औडव-औडव जाति का राग है। इंटरनेट से प्राप्त सूचना के अनुसार इस राग द्वारा शिवजी सर्पों को गले में धारण करते हैं। मालकौंस का शुद्ध रूप मलकंस हो सकता है। कंस पात्र को कहते हैं जिसमें सुरा धारण की जाती है। शिव इस राग द्वारा अपने गले में सर्पों को धारण कर रहे हैं। इंटरनेट पर ही इस राग का प्रयोग शरीर की पीडा हरने के लिए बताया गया है। संगीत रत्नाकर १.४.८४ में षड्ज ग्राम में सौभाग्यकृत्, कारीरी इष्टि, शांतिकृत्, पुष्टिकृत्, वैनतेय, उच्चाटन और वशीकरण उद्देश्यों के हेतु ऋषभ-पंचम स्वरों से वर्जित तानों के प्रयोग का निर्देश है। इस अपेक्षा को पूरा करने वाले औडव-औडव जाति के राग चन्द्रकौंस(वादी-संवादी म-सा), मालकौंस(वादी-संवादी म-सा), भिन्न षड्ज(वादी-संवादी म-सा), दुर्गा(खमाज) (वादी-संवादी ग-नि), तथा हिंडोल(वादी-संवादी ध-ग) हैं। ऋषभ स्वर का उद्देश्य दक्षता की प्राप्ति करना होता है। यदि दक्षता प्राप्त करनी है तो मल को हटाना होगा। यदि मल को धारण करना है तो फिर दक्षता का निषेध है। पंचम स्वर भी ऋषभ स्वर का विकसित रूप है। अतः उसका भी निषेध है। अध्यात्म में वशीकरण अपनी ही वृत्तियों का किया जाता है। तथा उच्चाटन जिन शत्रुओं का किया जाना है, वह भी अपने अन्दर के ही कोई शत्रु काम, क्रोधादि हो सकते हैं।

राग श्रीकल्याण

इस राग के वादी-संवादी स्वर प-सा हैं तथा वर्जित स्वर ग-नि हैं। अतः यह औडव-औडव जाति का राग है। संगीत रत्नाकर १.४.८४ के अनुसार ज्योतिष्टोम, दर्श, नान्दी, पौर्णमासक, अश्वप्रतिग्रह, रात्रि तथा सौभर इन उद्देश्यों के लिए षड्ज ग्राम में ग-नि रहित तानों का प्रयोग करना चाहिए। मध्यम ग्राम में ग-नि रहित तानों का प्रयोग भैरव, कामद, अवभृथ, अष्टकपाल, स्विष्टकृत्, वषट्कार, मोक्षद उद्देश्यों के लिए करने का निर्देश है। गान्धार स्वर का प्रयोग दर्श और पूर्णमास के अवसर पर निषिद्ध क्यों है, इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि गान्धार स्वर की प्रकृति आरोहण-अवरोहण की है जबकि इन पर्वों पर चन्द्रमा आरोहण-अवरोहण से मुक्त होता है। निषाद स्वर के वर्जन का क्या अभिप्राय है, यह अन्वेषणीय है।

अन्य राग जिनमें ग-नि का निषेध है, वह हैं – गुणकरी(वादी-संवादी ध-रे), जलधर केदार(वादी-संवादी म-सा), दुर्गा(बिलावल) (वादी-संवादी म-सा) तथा यशरंजनी(वादी-संवादी सा-प)।

प्रथम लेखन – २२-४-२०११ई.( वैशाख कृष्ण पञ्चमी, विक्रम संवत् २०६८),

अन्तिम संशोधन—८-३-२०१२ई.(फाल्गुन पूर्णिमा विक्रम संवत् २०६८)