सङ्गीत१

 

भारतीय संगीत शास्त्र का दर्शनपरक अनुशीलन

-विमला मुसलगाँवकर

(सङ्गीत रिसर्च अकादमी, कलकत्ता, १९९५), कुल पृष्ठ संख्या ३२+४००

वैकल्पिक संदर्भ स्थान

इस पुस्तक की विषयवस्तु को समझने के लिए संगीत से अनभिज्ञ जनों के लिए कुछेक बिन्दुओं को स्पष्ट कर देना उपयोगी होगा। वाद्य यन्त्रों को इस प्रकार रचा गया है कि उनमें प्रायः तीन सप्तकों में स्वरों की ध्वनियों को उत्पन्न किया जा सकता है मन्द्र, मध्य और तार। यह विचित्र है कि यद्यपि स्वर सात ही हैं, लेकिन जब साधक अभ्यास करता है तो वह अन्त में एक अन्य स्वर का भी उच्चारण करता है सारेगामापाधानीसां। इन स्वरों में अन्तिम स्वर सा के ऊपर अनुस्वार यह संकेत करता है कि यह स्वर तार सप्तक का है। श्रुतियों का मह्त्त्व इसलिए हो सकता है कि स्वरों की प्रकृति का संकेत उसमें निहित श्रुतियों की प्रकृति से मिल सकता है और तदनुसार साधक स्वरों की साधना कर सकता है।

स्वर और उनसे सम्बद्ध श्रुतियां

सारसंक्षेप

*नाभि से हृदय तक के प्रदेश में होने वाले नाद को मन्द्र कहते हैं। हृदय से कण्ठ तक के प्रदेश में होने वाले नाद को मध्य और कण्ठ से मस्तक तक के प्रदेश में होने वाले नाद को तार संज्ञा दी गई है। मन्द्र की अपेक्षा मध्य द्विगुणित  और मध्य की अपेक्षा तार द्विगुणित ऊँचा रहता है। इन तीन स्थानों के भेद से स्वरों के तीन सप्तक बन जाते हैं। -पृष्ठ १८

टिप्पणी : अन्यत्र मन्द्र सप्तक को कफ का स्थान, मध्यम को वायु का स्थान तथा तार सप्तक को पित्त का स्थान कहा गया है। पुराणों(जैसे नारद पुराण ५०.२०) में उर, कण्ठ व शिर को तीन स्थान कहा गया है तथा इनकी तुलना सोमयाग के तीन सवनों से की गई है।

*नादों को सुनने में सृष्टि का विलोम अथवा आरोही क्रम ही है. सृष्ठि का अनुलोम क्रम अवरोही है, अर्थात् सूक्ष्म का क्रमशः स्थूल में अवतरण है। किन्तु उनके दर्शन के समय स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने से आरोही क्रम रहता है। -- - - - इन नादों के अनन्तर आसन पर बैठे हुए योगी अभ्यास के मध्य में मर्दल(अवनद्ध) की ध्वनि, उसके बाद घण्टे की टन-टन ध्वनि और तब काहल(सुषिर) की ध्वनि सुनते हैं। इन ध्वनियों के श्रवण में भी स्वर-व्यञ्जना की दृष्टि से वही स्थूल से सूक्ष्म नादों की ओर जाने वाला क्रम है। अभ्यास के अन्त में योगी जिन नादों को सुनते हैं, वे नाद क्रमशः किंकिणी(घनवाद्य), वंशी(सुषिर), वीणा(तत) तथा भ्रमर की गुंजार है। -पृ.२१

*अवनद्ध वाद्य व्यञ्जन ध्वनि प्रधान होते हैं। स्वरोन्मेष की व्यञ्जना का श्रेष्ठतम प्रकाशक तन्त्रीवाद्य या वीणा ही है। वीणा और अवनद्ध के मध्य में सुषिर आते हैं। सुषिर वाद्यों का प्राणवायु से सीधा सम्बन्ध रहने पर भी सुषिर वाद्य वंशी आदि शरीर के हाथों की अंगुलियों की सहायता से बजता है, इसीलिए उसे मध्य में रखा गया है। - पृ. २२

*गात्रवीणा में अवरोही और दारवीवीणा में आरोही क्रम क्यों है, इस प्रश्न का समाधान योग ही करता है। - - - गात्रवीणा के झङ्कृत अवयव यानी उच्चारण यन्त्र की स्थिति शरीर में ऊपर की ओर है। यह गात्रवीणा ऊपर की ओर ही बजाई जाती है, जबकि दारवीवीणा नीचे की ओर छेडी जाती है। इसीलिए दारवीवीणा में स्वरों का आरोही क्र्म है। - पृ.२४

*तालों में जो चतुरस्र तथा त्र्यस्र की धारणा है, उस पर भी योग दर्शन का प्रभाव लक्षित होता है। मूलाधार चक्र कमलाकार और चार दल वाला है तथा उसमें स्थित यन्त्र भी चार कोण वाला(चतुष्कोण) है। स्वाधिष्ठान से आगे नाभि के समीप मणिपूर नाम का जो चक्र है, वह है तो दश दल वाला, किन्तु प्राण वायु की गति वहां त्रिकोणरूप में भ्रमण करती है। तालों के मूल में दूसरी त्र्यस्र की धारणा भी इसी से प्रभावित प्रतीत होती है। - पृ. २५

*अवनद्ध और घनवाद्यों की प्रेरणा तो मणिपूरचक्र तक ही मिली। यहां तक ही पृथ्वी और जलतत्त्व की प्रधानता है। उसके ऊपर वायु तत्त्व की प्रधानता होने से सुषिर और तत वाद्यों की उपज संभव है। - पृ. २६

*शिव ताल(काल) रूप(तालप्रधान) और पार्वती नादरूप(नादप्रधान) हैं। शिव का नाद पार्वती के नाद से भिन्न है। सृष्टि का प्रादुर्भाव एक ही ताल और एक ही नाद से हुआ है. अतः सृष्टि में एक ही ताल और एक ही नाद (एक ही श्रुति) है। ईश्वर ने वायु का आश्रय लिया, तब उन दोनों के संयोग से हरि संज्ञक ताल पैदा हुआ। अग्नि के आश्रय लिए हुए रुद्र के संग से पावकेश्वर संज्ञक ताल पैदा हुआ जिसे ज्योति भी कहते हैं। अम्भस् का आश्रय लेकर नारायण के संसर्ग से महोद्भव संज्ञक ताल पैदा हुआ। धात्री(पृथ्वी) ने जब धाता का आश्रय लिया, उससे कमलोदर संज्ञक ताल पैदा हुआ। -पृ. ३२

*संगीत के स्वरों में प मृत्यु रूप प्रजापति है, उसके सक्रिय होने पर ही भाणवत् ध, नि स्वर उत्पन्न हुए। इसीलिए ताल के बोलों में स, रि, ग, म, प ये पांच अक्षर प्रयोग में अल्प आते हैं, क्योंकि ये पांचों नाद प्रधान हैं, और ध नि अक्षर अधिक आते हैं क्योंकि वे वाक्प्रधान हैं। पृ.३३

*- -हृदयस्थ पद्म के १२ दलों पर अर्थात् तुरीय अवस्था पर ध्वनि पल्लवित हुई। तदनन्तर उन १२ पद्मदलों में से निकलने वाले एक घनस्वर का उदय हुआ। उसी घनस्वर ने सरस्वती नाडी को प्राप्त कर शब्द संज्ञा प्राप्त की। ह्रास और वृद्धि का स्पर्श करते हुए उसने उदात्तादि दशाओं के भेद से ग्राम संज्ञा को प्राप्त किया। ग्राम से जाति, उससे स्वर, उससे श्रुतियां, उनसे मूर्च्छना, उससे तान और राग हुए। निष्कर्ष यह है कि शब्द और काल के आश्रित ताल है और स्वर तथा ताल के आश्रित श्रुति है। - पृ. ३४

*ह्रास स्वर के उदात्तादि तीन अवस्थाओं के कारण तीन भेद हुए, पुनः दीर्घ स्वर के भी उदात्तादि के संयोग से तीन भेद हुए। जो १२ ध्वनियां हृदय पद्म पर विकसित हो उठी थीं, उन्हीं से ये ६ जुडकर १८ भेद सम्पन्न होते हैं, १८ ग्राम की उपलब्धि का यही रहस्य प्रतीत हो रहा है। - पृ. ३५

*अतः पहले जो रूप के १८ खण्ड हुए, वे ही ग्राम के स्वरूप हैं, उनसे १८ जातियाँ, तब जाति से स्वर और स्वर से श्रुति, तब मूर्च्छना, उससे तान, तदनन्तर राग होता है। - पृ. ३६

*वृन्दावन में कण्ठ को प्रधानता दी गई है। जहां वाद्य वृन्द की चर्चा है, उसमें कण्ठ की अपेक्षा श्रेष्ठतर भाव ही स्वीकार किया है। - पृ. ३७

*पुरुष सूक्त के परिशीलन से प्रतीत होता है कि स्वरों को ऋचः, ऊष्माणों को साम, अन्तस्थों को यजुस् तथा स्पर्शों को अथर्व या छन्दस् कहकर उन समस्त ध्वनियों को ब्रहम या वेद अथवा श्रुति संज्ञा प्रदान की। - पृ. ५१

*श्रुति तथा स्वर का मृत्पिण्ड और घट के समान कार्य-कारण सम्बन्ध है। श्रुति कारण है और स्वर कार्य है। यह मत नैयायिकों के अनुसार है। - पृ.६५

*औमापतम् में स्वर को शंभुरूप और श्रुति को पार्वतीरूप बताया है। अग्नि और धूम की तरह, तिल में तेल की तरह, दही में दूध की तरह या पुष्प में गन्ध की तरह स्वर और श्रुति एक दूसरे से संलग्नि हैं। स्वर धूम है तो श्रुति अग्नि है, स्वर तेल है तो श्रुति तिल है, स्वर दही है तो श्रुति दूध है तथा स्वर गन्ध है तो श्रुति पुष्प है। - पृ. ६८

*साम का १-प्रथम स्वर गान्धर्व का मध्यम है, २-द्वितीय-गान्धार, ३-ऋषभ, ४- षड्ज, ५-मन्द्र या धैवत, ६- अतिस्वार ही निषाद है तथा ७-क्रुष्ट पंचम है।

  प्रयोगकाल में किसी भी स्वर की आयता श्रुति तब होगी जब उसके बाद उससे निचले स्वर का प्रयोग किया जाएगा।यदि उससे ऊपर का स्वर प्रयोग किया जाएगा तो उस स्वर की मृदु श्रुति कही जाएगी। एवं उस स्वर के बाद पुनः उसी स्वर का प्रयोग होने पर उस की मध्या श्रुति होगी। दीप्ता श्रुति मन्द्र, द्वितीय, चतुर्थ और प्रथम इन चार स्वरों में है। तथा तृतीय, क्रुष्ट और अतिस्वार इन तीन स्वरों में करुणा श्रुति जाति होती है। अर्थात् चार स्वरों में दीप्ता है और तीन स्वरों में करुणा है। अतः स्पष्ट है कि सातों स्वरों की प्रकृति मूलतः दो प्रकार ही चार की दीप्त और अन्य तीन की करुण। अन्य तीन(आयता, मृदु और मध्या) श्रुति जातियाँ प्रयोग के आधार पर प्रत्येक स्वर में हो सकती हैं। - पृ. ७५

*दीप्ता तथा करुण श्रुतिजातियां चेतन तत्त्व और काल तत्त्व की क्रमशः द्योतक हो सकती हैं। इन भिन्न दो तत्त्वों की संयोजिका माया है। वही आयता, मृदु तथा मध्या इन तीन श्रुति जातियों से अभिव्यक्त होती है। पृ. ७६

*षड्ज स्वर में श्रुति-जातियों का जो क्रम है, वही ज्यों का त्यों मध्यम स्वर में भी प्राप्त होता है। केवल चार स्वर प्रथम श्रुतिजाति दीप्ता से आरम्भ होते हैं। ऋषभ और धैवत का स्वरूप तीसरी श्रुतिजाति करुणा से बनता है तथा पंचम का चौथी श्रुति जाति मृदु से सवरूप बनता है। प्रयोगकाल में तीन शक्तियां (१चैतन्य, २काल और ३ माया की) कार्यरत होती हैं. इन पांच श्रुतिजातियों में दीप्ता श्रुति-जाति चैतन्य शक्ति की बोधक है। करुणा जाति काल शक्ति की द्योतक है और तीसरी मृदु आयता और मध्या तीनों मिल कर माया शक्ति की प्रतीक हैं। अतः तीसरी माया शक्ति कहीं अपने पूर्ण तीन स्वरूपों में है, जैसे स, म, प स्वरों में और कहीं केवल दो स्वरूपों में है, जैसे ऋषभ और धैवत स्वरों में, कहीं केवल उसका एक ही स्वरूप प्राप्त है, जैसे निषाद और गान्धार में। यह माया  शक्ति कहीं जल की भांति जीवनदायी चंचल, तरल और प्रवाहमयी है, कहीं वही हिम की भांति घन, कठोर और शीतल है तो कहीं वाष्प की भांति ऊर्ध्वगामी, सूक्ष्म और ऊष्म है।  - पृ. ७७

*दीप्ता श्रुति-जाति स्वयं चेतना का स्वरूप है। दूसरी श्ति जो इस जगत् में सदा कार्यरत है वह कालशक्ति है। - - - ऋषभ-धैवत और पंचम चेतना शक्ति के विरोधी प्रवाहक(nonconductor) का काम करते हैं। उनसे प्रकाश और दुगुनी शक्ति से सम्पन्न होकर प्रतिबिम्बित होता है। तात्पर्य यह है कि उग्रता या कौंध या ऊष्म और अधिक आती है। इसीलिए इनमें से षड्ज और ऋषभ में वीर, अद्भुत और रौद्र रस और धैवत में बीभत्स और भयानक रस कहे गए हैं। पंचम स्वर की अन्तिम श्रुतिजाति करुणा होने का भी यही रहस्य है। सप्त स्वरों में पंचम स्वर काल का प्रतीक है। वह आधार या प्रतिष्ठा प्रदान करता है। इसीलिए ऋषभ, धैवत और पंचम स्वरों में दीप्ता नहीं है।  - - -ऋषभ और धैवत छाया मात्र ही हैं, पंचम स्वर की छाया कुछ भिन्न है। - - केवल चार स्वर ( षड्ज, गान्धार, मध्यम और निषाद) प्रथम श्रुतिजाति दीप्ता से आरम्भ होते हैंष तीसरी श्रुति-जाति करुणा से ऋषभ और धैवत का स्वरूप बनता है तथा चतुर्थ मृदु जाति से पंचम की काया बनती है।

  मध्यम स्वर और षड्ज स्वर में श्रुति-जातियों का क्रम और स्वरूप एक होने पर भी उनमें सूक्ष्म भेद है। यथा- षड्ज की प्रथम श्रुति दीप्ता जाति की है, पर वह तीव्रा संज्ञा वाली है। मध्यम स्वर में दीप्ता श्रुति की संज्ञा वज्रिका है। - पृ. ७८

*- - - - - - - ग्यारह स्वरों में सबसे उत्कृष्ट स्वर नाद है, और अन्य दश स्वर उसी के विवर्तरूप हैं। दश स्वरों में से सात स्वर ही मोक्षोपयोगी कहे जाते हैं। कारण यह है कि मूर्द्धा पर जो स्वर है, वह अपने से नीचे की सृष्टि के लिए गुप्त अर्थात् निःशब्द हौगा, और अन्य जो दो स्वर स्वाधिष्ठान तथा मूलाधार पर हैं, वे स्थूलता और बहिर्मुखता के कारण उपयोगी नहीं हैं। अतः ये दो स्वर भी गुप्त माने जाएंगे, क्योंकि इन दो चक्रों से सम्बन्धित जो इन्द्रियां हैं, वे भी शरीर के नव द्वारों में से गुप्त ही कही जाती हैं। - पृ. ९७

*साम के स्वरों का क्रम म-ग-रि-स-ध-नि-प है। इन स्वरों के क्रम को देखने से विदित होता है कि अवतरण के क्रम में सृष्टि म तथा प के मध्य में ही है, और चैतन्य शक्ति केन्द्रस्थ है। अतः इस में दूसरे सं की बात ही नहीं है। इसे ऐसा कह सकते हैं कि सं का प्रतिबिम्ब स पर ही है। सप्तक से ऐसा बोध होता है कि स से शक्ति पाकर म और प ने मिलकर मानो सृष्टि कर ली हो। गान्धर्व संगीत के स्वरों के क्रम में स-रि-ग-म-प-ध-नि में भी म तथा प एक दूसरे के समीप ही रहते हैं। स म तथा प ये ही चार श्रुति के(चतुःश्रुतिक) स्वर हैं। स-रि-ग की सूचना की प-ध-नि के रूप में प्रतिसूचना दी जाती है। सृष्टि के समय चैतन्य के प्रत्येक प्राकट्य की चार अवस्थाओं साक्षी, कारण, स्थूल और सूक्ष्म के तुल्य संगीत में भी स-रि-ग-(म) ये नाद की चार अवस्थाओं के प्रतीक हैं, और वे ही साधना के क्रम में प-ध-नि-(सं) हैं। ये अवस्थाएं बिम्ब-प्रतिबिम्ब रूप में हैं। सं और म तुरीय अवस्था में होने के कारण वे एक दूसरे के तद्रूप हैं। यही कारण है कि प्राचीन विद्वानों ने आट स्वर न मानकर मूलतः सात ही स्वर माने हैं। - पृ.१०१

*ब्रह्म के अंशों के रूप में अस्ति, भाति, प्रिय, नाम-रूप सूचना आई। यह सूचना प्राणस्वरूप ही है। अर्थात् चैतन्य की भांति काल की भी चार(साक्षी, कारण, सूक्षम और स्थूल) अवस्थाएं होती हैं। कालपुरुष के मस्तक से निम्नस्थित चरण को स-रि-ग-(म) के रूप में सूचना पहुंचने पर उसने भी सक्रिय होकर प, ध, नि (सं) के रूप में प्रतिसूचना अपने मस्तक को दी। सूचना का यह आवागमन ही क्रिया है और वह प्राण स्वरूपा है। अतः प्राण ही स्वर है। - - - अतः दोनों (काल और माया) के बहिर्मुख होने के कारण सूचना का आवागमन स-रि-ग-म-प-ध-नि एक सीधी रेखा पर हो जाता है। संगीत में म स्वर और प स्वर नाम और रूप के द्योतक हैं। - पृ. १०२

*ओंकार की तीन मात्राएं अ, उ, म हैं और अर्धमात्रा तुरीय अवस्था है। अ आदि है, उ सन्धि है और म मण्डल के साथ है। इन्हीं चारों के प्रतीक संगीत में स आदि, रि सन्धि, ग काल और म मण्डल है। ग अर्धमात्रा के साथ रहता है, क्योंकि यह ब्रह्माण्ड का तत्त्व है। - पृ.१०४

*चार अन्न साधन हैं और तीन अन्न साध्य हैं। चार साधनभूत अन्न इस प्रकार हैं १.सामान्य अन्न, जो सब में है , वह अग्निरूप(संगीत में म स्वर) ही है। २-दो अन्न देवताओं के नाम और रूप(संगीत में ध और नि) ये दो हैं। ३-एक अन्न पशुओं का , जो इस लोक के लिए अमृतस्वरूप दूध(संगीत में प स्वर) ही है। तीन अन्न साध्य हैं, ये प्रजापति के तीन अन्न अस्ति, भाति, प्रिय के ही प्रतिबिम्ब रूप हैं। और ये ही संगीत के स-रि-ग तीन स्वर प्रतीत हो रहे हैं। - पृ. ११२

*वस्तुतः मध्यम(म) तो सूत्रात्म है। तारषड्ज में सभी स्वर निहित हैं। मूल रूप में स-रि-ग ये ही तीन स्वर हैं, और उनके प्रतिबिम्ब प-ध-नि हैं। वास्तव में मूल स्वर तीन ही हैं उदात्त, अनुदात्त और स्वरित, जिनसे अन्य स्वरों का विकास हुआ होगा। निषाद और गान्धार का अन्तर्भाव उदात्तस्वर में, ऋषभ और धैवत का अन्तर्भाव अनुदात्तस्वर में और षड्ज, मध्यम, पञ्चम का अन्तर्भाव स्वरित स्वर में होना बताया गया है।

अवतरण क्रम में गुदाचक्र पर स है । - पृ.११३

*संगीत के सातों स्वर स-रि-ग-म-प-ध-नि गुदाचक्र, इन्द्रियचक्र और हृदयचक्र तक ही दृष्टिगत होते हैं। ये स्वर चार चक्रों में ही सीमित हैं। कारण यह है कि हृदयचक्र अपने से नीचे के तीन चक्रों के लिए चौथा(तुरीय ) है। इससे ऊपर इनका रूप भाषा के १६ स्वरों में बदला हुआ है। चक्रों के आधार पर आरम्भ में म-रि-ग-स ही था और उसका उत्तर प-ध-नि-सं ही था, परन्तु उपसनाक्रम के लिए हमें म-ग-रि-स और प-ध-नि-सं न लेकर स-रि-ग-म-प-ध-नि-सं ही लेना होगा पृ. ११३

*गुदाचक्र पर जो स है, वह इस सृष्टि का तत्त्व है, और वह उस सहस्रार पद्म पर स्थित सं का प्रतिबिम्ब है। उपासना क्रम में निधन अर्थात् निषाद के ऊपर जो सहस्रार का सं है, वहीं गायक पहुंचते हैं। - पृ. ११४

*द्वितीय स्वर को ऋषभ संज्ञा प्रदान की गई है। इस स्वर में यह विशेषता है कि यह अन्य स्वरों की अपेक्षा हृदय को स्पर्श कर लेता है। - पृ. ११५

*ताल कालस्वरूप है। अतः स्वर और ताल सांख्यदर्शन के प्रकृति और पुरुष के तुल्य हैं। पुरुष को पङ्गु और प्रकृति को अंध बताते हुए उन दोनों के संयोग से सृष्टि का आरम्भ सांख्यदर्शन में कहा गया है। - पृ. ११६

*शारीरीवीणा में मन्द्रस्वर नीचे से उठते हैं और दारवी में मन्द्रस्वर ऊपर की ओर होते हैं। शारीरीवीणा सृष्टि के विस्तारक्रम का प्रतिबिम्ब है और दारवीवीणा शारीरीवीणा का प्रतिबिम्ब है। शारीरीवीणा में स्वरोत्पत्तिक्रम नीचे से ऊपर की ओर है, जबकि सृष्टि के अवतरण में क्रम ऊपर से नीचे की ओर है। उसी प्रकार दारवीवीणा में भी स्वरोत्पत्तिक्रम ऊपर से नीचे की ओर है। - पृ. १२०

*विशुद्धि चक्र इस चक्र की स्थिति कण्ठ में है। यह सोलह दल वाला होता है। यह भारती देवी(सरस्वती) का स्थान है। इसके पूर्वादि दिशाओं वाले दलों पर ध्यान का फल क्रमशः १-प्रणव, २-उद्गीथ, ३-हुंफट्, ४- वषट्, ५-स्वधा(पितरों के हेतु), ६-स्वाहा(देवताओं के हेतु), ७-नमः, ८-अमृत, ९-षड्ज, १०-ऋषभ, ११-गान्धार, १२-मध्यम, १३-पञ्चम, १४- धैवत, १५-निषाद, १६-विष ये सोलह फल होते हैं। इस चक्र में षड्जादि सात स्वर के ठीक पूर्व और पश्चात् क्रमशः अमृत तथा विष हैं। अर्थात् ये षड्जादि सात स्वर अमृत और विष के मध्य में हैं। - पृ. १३९

*वैदिक पाठ्यस्वरों का स्वरूप कम्पनों की प्रधान रूप से तीन स्थितियां होती हैं, जिन्हें प्रातिशाख्य और शिक्षाग्रन्थों में आयाम, विश्रम्भ, आक्षेप नामों से क्रमशः बताया गया है। आयाम में कण्ठबिल का मुखद्वार संवृत(बन्द) रहता है, किन्तु जब कण्ठनली से प्राणवायु बाहर निकलने का प्रयत्न करता है, तब वह गैस के गुब्बारे या आतिशबाजी की तरह एकदम सीधे ऊपर जाता है , यही वह उदात्तध्वनि है। ऊपर जाकर वह ध्वनि बिखरकर शान्त हो जाता है। इस ध्वनि में एक प्रकार का तीखापन, कठोरता, अत्यन्त पतलापन रहता है। किन्तु जब कण्ठबिल का मुख विवृत(खुला) हो जाता है, तब ध्वनि नीचे की ओर लुढकता सा चला जाता है। जैसे ढालु प्रदेश से कन्दुक लुढकता चला आ रहा हो, यही वह अनुदात्त ध्वनि है। इस स्थिति को विश्रम्भ कहा गया है, जिसका अर्थ गिरता हुआ प्रयत्न है। दोनों के सम्मिश्रण को स्वरित नाम दिया गया है। इस प्रयत्न में जो स्थिति है, उसे आक्षेप कहा गया है, जिसका अर्थ होता है आ-समन्तात् क्षेपः। आक्षेप की स्थिति का ठीक ज्ञान गेन्द के दृष्टान्त से ही समझ में आ सकता है। गेन्द को यदि हथेली की चोट से नीचे फेंकें, तो वह अधिक ऊपर जाती है, दूसरी बार वैसी ही क्रिया न करने पर वह अपनी जगह आ जाती है। इसी प्रयत्न का नाम आक्षेप है। वैदिक पाठ्य में स्वरों के उच्चारण के साथ ही साथ उनके उच्चारणानुकूल गति को चाक्षुष प्रत्यक्ष का विषय बना दिया है। जैसे उदात्त स्वर के उच्चारण में हाथ को सीधे ऊपर ले जाने का, अनुदात्त के उच्चारण में हाथ को ऊपर से सीधे नीचे गिराने का तथा स्वरित के उच्चारण में हाथ को मध्य में रखने का विधान किया गया है। - पृ. १४४

*पारीशिक्षा में उदात्त को उच्च स्वर कहा है और गान्धार तथा मध्यम का उद्भव इसी उदात्तस्वर से कहा है। इतना ही नहीं, साम के तीन सवनों का उद्भव भी स्वर की मन्द्रता, मध्यता और तारता के अनुरूप ही हुआ है। - - - पृ. १४५

*आठ भेद केवल स्वरित के ही प्राप्त होते हैं, उदात्त, अनुदात्त के नहीं, क्योंकि ये तो गतिशील नादतत्त्व के दो छोर हैं। स्वरित के आठ भेदों का विस्तृत वर्णन शिक्षादि ग्रन्थों में किया गया है। - - अभिनवगुप्तपाद ने इन तीन स्वरों का उपपादन इस प्रकार किया है कि चतुःश्रुतिकस्वर ऊँचा होने से उदात्त और द्विश्रुतिक स्वर नीचा होने से अनुदात्त तथा त्रिश्रुतिक स्वर में उदात्त और अनुदात्त दोनों का समाहार(सम्मिश्रण) रहने से स्वरित कहते हैं। - पृ. १४६

*प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब उदात्तादि तीन वैदिक स्वरों से ही गान्धर्व के षड्जादि सातों स्वरों की उत्पत्ति है, तो क्रुष्टादि सात स्वरों की आवश्यकता क्यों पडी। दूसरा प्रश्न यह गै कि साम के क्रुष्ट, प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, और अतिस्वार आदि सप्त स्वरों की संज्ञाओं से वैदिक विद्वान पूर्व से परिचित ही थे, तब गान्धर्वगान या लौकिकगान के लिए ये षड्जादि नवीन संज्ञाएं क्यों ली गई।साम और गान्धर्व के स्वरों में कुछ मौलिक भेद हैं। नारदीय शिक्षा में साम के सात स्वरों का क्रम प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, मन्द्र(पंचम), क्रुष्ट और अतिस्वार है, जो गान्धर्व की अपेक्षा अवरोहात्मक है, जबकि गान्धर्व के स्वर आरोहात्मक हैं। स्वरों का विकास एक दो और तीन स्वरों से क्रमशः होता गया है। एक स्वर से गाने को आर्चिक, दो स्वर से युक्त गान को गाथिक और तीन स्वरों में गाये जाने वाले गान को सामिक कहते हैं। यज्ञ में ऋक्पाठ प्रसंगविशेष पर एक ही स्वर में होता है, और ब्राह्मण(गाथा) का पाठ दो स्वरों में होता है, तथा साम का तीन स्वरों में होता है। प्रसंगवश चार, पांच, छह तथा सात स्वरों में भी साम गाया जाता है। - पृ. १४७  

*प्रातिशाख्यों में स्वरों को यम संज्ञा दी गई है। साम और गान्धर्व दोनों को ही यम कहा है और उनकी संख्या भी ७ ही बताई गई है।

प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ स्वर के बाद के स्वर को मन्द्र कहते हैं। यह अवरोह की ओर अगले स्वर को ही बताता है। यह क्र्म में पांचवा था। यही तुम्बुरु का धैवत है। निषाद का ज्ञान भी तुम्बुरु को अवश्य था। यही छठा स्वर है, इसी का एक अन्य नाम अतिस्वार भी था। इसके बाद एक स्वर और है, जिसका नाम क्रुष्ट है। - - -क्रुष्ट स्वर का स्थान मूर्द्धा है, जहां तार स्वरों की निष्पत्ति होती है। वैदिक विद्वान गात्रवीणा पर भी इस क्रुष्ट स्वर को प्रथम स्वर से उच्च दिखाते हैं। नारदीय शिक्षा के अनुसार इसी सातवें स्वर को गान्धर्व में पंचम कहा है।

तैत्तिरीय प्रातिशाख्य के भाष्य में मन्द्र का उर से, मध्य का कण्ठ से तथा उत्तम(तार) का शिर से उत्पन्न होना बताया है। - पृ. १४८

*अतिस्वार या अतिस्वार्य अथवा परिस्वार साम के स्वरों में संख्या क्रम से षष्ठ स्वर है। इसे अन्त्य या नीच संज्ञा भी दी गई है। गात्रवीणा पर इसका स्थान मन्द्रस्वर के नीचे कनिष्ठिका के मूल में है। कात्यायन ने कहा है कि सामगान का आरम्भ क्रुष्ट या अतिस्वार स्वर से कदापि नहीं करना चाहिए। नारदीय शिक्षा के अनुसार यह गान्धर्व का सप्तम निषाद स्वर है। - पृ. १४९

*संगीत में तार सं का प्रतिबिम्ब मध्य स ही है जो गुदाचक्र पर है। इस मध्य स की चार श्रुतियां प्रकट हैं, जबकि तार सं की सूक्ष्मरूप से चार श्रुतियां हैं। - पृ. १५०

स्वर

प्रकट श्रुतियां

गुप्त श्रुतियां

कुल श्रुतियां

रि

नि

७ स्वर

२२

२८

सं

निःशब्द

 

२२ प्रकट

११ गुप्त

३३ कुल

 

- पृ. १५२

*त्रिश्रुतिक स्वर मायास्वरूप हैं। उनका एक छोर ऊपर से जुडा है और एक नीचे से है. उनमें ऊपर जाने की भी पूर्ण सामर्थ्य है और नीचे उतर आने की भी क्षमता है, किन्तु द्विश्रुतिक स्वर केवल ऊपर जा सकते हैं, और चतुःश्रुतिक स्वर में तो नीचे ऊपर का विकास भी अवरुद्ध है। - पृ. १६५

*चतुःश्रुतिक और द्विश्रुतिक इस प्रकार विभिन्न श्रुतियों वाला होता हुआ भी षड्ज अपने षड्ज स्वरूप की ही प्रत्यभिज्ञा कराता है। पंचम भी चतुःश्रुतिक और त्रिश्रुतिक दो प्रकार का होता है। कुल मिलाकर पंचम और षड्ज दोनों में चतुःश्रुतिक, त्रिश्रुतिक और द्विश्रुतिक ये तीनों संघात मिल जाते हैं। मध्यम में भी षड्ज की ही भांति चतुःश्रुतिक और द्विश्रुतिक ये दो ही संघात संभव हैं। अतः मध्यम तो षड्ज का ही प्रतिबिम्ब है, किन्तु पंचम से नवीन सृष्टि का प्रारम्भ होता है, क्योंकि उसमें त्रिश्रुतिक अवस्था भी प्राप्त है।

*मन्द्र, मध्य और तार ये कफ(श्लेष्मा), वात और पित्त से सम्बन्धित हैं। मन्द्र कफ प्रधान है। मध्य वातप्रधान है और तार पित्त प्रधान है। - पृ. १६७

सप्तक में म और प दोनों ही चार-चार श्रुतियों के साथ स्थापित किए गए हैं। खं ब्रह्म का म और कं ब्रह्म का प प्रतीक है। - पृ. १७०

*स का उच्चारण करने से यह अवगत हो जाता है कि आकर्षण शक्ति अपने भीतर की ओर खींचती है। रि या ऋषभ प्राणस्वरूप है। ऋषभ से हिलने डुलने का बोध होता है। ग या गान्धार ब्रह्माण्ड का तत्त्व है जिसका प्रतिबिम्ब मूलाधारचक्र पर पडता है.जहां गणेश जी का निवास है। म के उच्चारण के समय ओष्ठ बन्द हो जाते हैं, इससे विदित होता है कि सब इसके मण्डल या घेरे में हैं। प या पंचम पांचवां है। अस्ति, भाति, प्रिय , नाम और रूप में भी रूप पांचवाँ ही है. रूप का ही प्रतीक यह प है। ध, ऋ का प्रतिबिम्ब है। नि ग का प्रतिबिम्ब है। नि तो अन्तिम तथा निधन है।

षट्स्वरों(रि, ग, म, प, ध, नि) का जनक होने से उसे षड्ज कहा जाता है। - पृ. १७१

*ऋषभ के तीन हाथ कहे हैं। षड्ज से जो धारा प्रवाहित हुई, वही सरस्वती नाडी के रूप में प्रसिद्ध हुई, वही यह ऋषभ है। षड्ज पुरुष के तीन अंगों(उत्तमांग, मध्यमांग, अधमांग) अर्थात् सत्त्व, रज और तमोगुण को यह अपने में सहेजे हुए है। - - - -ऋषभ का दूसरा कर सोम बताया है। यह शक्तिरूप है, अतएव अग्नीषोमात्मकं जगत् कहा जाता है। यह सोम इन्द्रियचक्र पर स्थित है। वह इन्द्रियचक्र सन्धि का स्थान है। इसका तृतीय कर सुगत्राण है, अर्थात् अच्छे गायकों को आह्लादित करने के कारण वह उनका रक्षण है। यह सुगत्राण कर नाभिप्रदेश में स्थित मणिपूर चक्र पर ब्रह्मा की छायास्वरूप विष्णु के रूप में स्थित है। ऋषभ के तीन कर बताने का गूढ अभिप्राय यह है कि प्रत्येक प्राणी का जीवन तीन चक्रों(गुदा, इन्द्रिय और नाभि) की क्रिया पर ही निर्भर करता है। दो या चार चक्रों पर नहीं। क्योंकि दो चक्र तो अपूर्ण होतें हैं और चौथा तुरीय होता है। उस पर तो षड्जभाव आ जाएगा। - पृ. १७४

*गान्धार इस गान्धार में दीप्ता जाति की रौद्री(अग्नि से सम्बद्ध) श्रुति और आयता(आकाश से सम्बद्ध) जाति की क्रोधा श्रुति है। यह गान्धार स्वर अनुनासिक है। यदि इसमें जल तत्त्व होता तो रौद्री शीतल हो जाती। सम्यक् प्रकार से इसमें कार्यक्षमता न होती। पार्थिवतत्त्व यदि इसके भीतर होता तो यह स्थूल हो जाता। गान्धार को ऋषभ का विवादी कहते हैं, वह (ऋषभ) तो मृदु जाति पर है, जल रूप है। ऋषभ के योग से गान्धार शान्त हो जाएगा. इसीलिए गान्धार-ऋषभ में विवाद सम्बन्ध कहा गया है। - पृ. १७५

मध्यम स्वर का बीजाक्षर क्षं है। इसके जप करने से यह स्वर पूर्णचारुता के साथ अभिव्यक्त होता है। यह साधक को दीर्घायु बनाता है और उसे आनन्दित करता है। - पृ. १७६

धैवत को भ संज्ञा दे कर यह ध्वनित किया है कि यह ध स्वर म और प की सन्धिस्थली है। - - इस स्वर का उत्पत्ति स्थान तालु देश है, प का उत्पत्तिस्थान ओष्ठ है, वहीं से ध की ध्वनि आ रही है। मूर्द्धादेश में रि की उत्पत्ति होती है। उस मूर्द्धास्थान का प्रतिबिम्ब तालु प्रदेश में सङ्क्रान्त होता है। यही कारण है कि रि और ध की तीन तीन श्रुतियां बताई गई हैं, क्योंकि दोनों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव हो रहा है। इन्हीं कारणों से रि और ध को संवादी बताया जाता है।

निषाद स्वर सभी सन्धियों से उत्पन्न होता है, इस मतंगोक्ति से यह संकेत मिलता है कि काल की सृष्टि खण्ड-खण्ड जुड कर हुई है। समस्त सृष्टि में ९ खण्ड हैं। निषाद स्वर २२वीं श्रुति पर है, जो उस सप्तक की अन्तिम श्रुति है। नि से निधनता(अन्तिम ) को बताया गया है। सामगान के क्रम में षड्ज २२वीं श्रुति पर होता है जहाँ से सृष्टि का प्रादुर्भाव होता है। षड्ज सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है, विस्तृत भी है, किन्तु वह खण्ड-खण्ड में है। यही कारण है कि उसका समस्त सन्धिस्थलों से निकलना बताया है। - पृ. १७८

*मतङ्ग मुनि की बृहद्देशी के अनुसार स्वरों के कुल, वर्ण आदि

 

षड्ज

ऋषभ

गान्धार

मध्यम

पञ्चम

धैवत

निषाद

कुल

देव

ऋषि

देव

देव

पितृ

ऋषि

असुर

वर्ण

पद्मपत्राभ

क्षत्रिय

वैश्य

ब्राह्मण

ब्राह्मण

क्षत्रिय

वैश्य

रंग

 

शुक

कनकाभ

कुन्द

कृष्ण

पीत

सर्ववर्ण, स्वर्णवर्ण

देवता

ब्रह्मा

वह्नि

भारती

हर

शतयज्ञ

गणनायक

भानु

गायक

अग्नि

ब्रह्मा

सोम

विष्णु

नारद

तुम्बुरु

तुम्बुरु

रस

वीर, रौद्र, अद्भुत

वीर, रौद्र, अद्भुत

करुण

हास्य, शृङार

हास्य, शृङार

बीभत्स. भयानक

करुण

स्थान

कण्ठ

शिरस्

नासा

उरस्

उरस्, शिरस्, कण्ठ

तालु

सर्वसन्धि

- पृ. १८०

*देवनागरी के अंकों का विज्ञान

तन्त्रशास्त्र में बिन्दु को शिव और रेखा को शक्ति का प्रतीक माना जाता है। उसके कथनानुसार अकेला बिन्दु शान्त और स्थिर रहता है, रेखा ही उसको चञ्चल बनाती है। इन दोनों के संयोग से ही कला और गणित की अभिव्यक्ति होती है। - पृ.३१८

*अंक १ की आकृति : १ इस एक की आकृति को देखने से विदित होता है कि आरम्भ के ऊर्ध्व भाग में शून्य की आकृति है। तदनन्तर नीचे की ओर जो सीधी रेखा शून्य से जुडी हुई है, उसमें धार का भाव निहित है। उससे क्रिया का बोध होता है। - - - १ एक से लेकर ९ तक के अङ्कों की बनावट(आकृति) पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है कि उनमें अधिक से अधिक शून्य की आकृतियां तीन ही विद्यमान रहती दृष्टिगोचर होती हैं। वास्तव में उतनी ही शक्तियां उसमें विद्यमान हैं तथा कार्य करती हैं। उन्हीं की द्योतक यह शून्य है। एक अन्य तथ्य भी निश्चित रूप से स्पष्ट हो जाता है, कि किसी भी अङ्क की आकृति में शून्य से जुडी हुई रेखा अवश्य ही रहती है। शून्य के साथ नियत रूप से रहने वाली रेखा चेष्टा या स्पन्द की द्योतक हुआ करती है। यही रेखा निरन्तरता का भी द्योतक है। खण्ड-खण्ड होती हुई भी यह किसी एक ही सूत्र से ग्रथित है यह भाव भी इसमें निहित है। - पृ. ३१९

*अंक चार ४ की आकृति :- इस चार के अङ्क की आकृति की बनावट से केन्द्रस्थ जो शून्य है, वह नीचे की ओर है, वही चैतन्य का प्रतीक है। यहाँ पर प्रत्यभिमुख की बात स्पष्ट हो रही है, क्योंकि वह ऊपर से नीचे की ओर आ गया है। ऊपर का भाग खुला हुआ है। उससे व्यापक काल की ओर संकेत किया गया है। इस अङ्क की बनावट से स्पष्ट है कि चार(४) में ही सब कुछ है। इस अङ्क में तीन शून्य(घुण्डियाँ) हैं। अतः तीन शक्तियों से मिलकर ही यह आकृति बनी है। - पृ. ३२१

*अंक संख्या पाँच(५) की आकृति :-  पाँच के अङ्क में जो ऊपर की ओर खुला भाग है, वह व्यापक काल का संकेतार्थक है। नीचे स्थित शून्य चैतन्य की स्थिति की ओर संकेत कर रहा है। शून्य से संयुक्त जो रेखी छुटी हुई है, वह क्रमता की ओर संकेत करती है। तीन शक्तियों का बोध इसमें भी हो रहा है। रेखा के साथ (घुण्डी) ० शून्य का प्रत्येक अङ्क में होना इस बात का द्योतक है कि चैतन्य विद्यमान है। - पृ. ३२२

*अंक संख्या सात(७) की आकृति  :- इस सात के अङ्क की आकृति से स्पष्ट है कि यह एक अङ्क की आकृति का प्रतिबिम्बरूप है। केवल अन्तर यह है कि रेखा ऊर्ध्वमुख है। यही इस अङ्क की विशेषता है। इस अङ्क का सम्बन्ध संगीत में समस्त स्वर-व्यवस्था से जुडा है। - पृ. ३२३

*अंक संख्या नौ(९) की आकृति :- नौ के अंक की बनावट से समझ में आता है कि इसमें प्रत्यभिमुख होना आरम्भ हो गया है। अर्थात् दूसरे चक्र में जाने की बात है। एक के अङ्क में रेखा बिल्कुल नीचे की ओर है किन्तु इसमें प्रत्यभिमुख उलटने के साथ ही साथ ऊपर यानी दूसरे चक्र में जाने का या नीचे जाने का संकेत है। - पृ. ३२४

*१,१०, १००, १००० इत्यादि अंकों से यह बोध होता है कि जितने अधिक शून्य(०) अंक की दाहिनी ओर होंगे, उतना ही उस अङ्क का मान अधिक-अधिकतर तथा अधिकतम होता चला जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जितना ऊपर जाएंगे, उतनी अधिक सूक्ष्मता आती जाएगी। शून्य की संख्या बढने से ही ऐसा होता है। अवतरण में शून्य की संख्या बढने से स्थूलता अधिक, अधिकतर और अधिकतम होती चली जाती है। वास्तव में शून्य(०) से ही अधिकता होती जाती है, चाहे वह सूक्ष्मता की ओर हो या स्थूलता की ओर। यही शून्य दशमलव के रूप में मान कम करता जाता है। - पृ. ३२६

*बिम्बप्रतिबिम्ब भाव की दृष्टि से एक(१) का प्रतिबिम्ब आठ(८), दो(२) का प्रतिबिम्ब सात(७) और ३ का प्रतिबिम्ब ६ है। ४ और ५ क्रमशः रूप और नाद ये दोनों क्रमशः काल तथा माया के प्रतीकात्मक स्वरूप हैं, यह बोध होता है। - पृ. ३२८

*चतुर्विध वाद्यों में आकाशतत्त्व प्रधान तत वाद्य है, वायुतत्त्व प्रधान सुषिर वाद्य है, जलतत्त्व प्रधान अवनद्ध वाद्य है और पृथ्वीतत्त्व प्रधान घन वाद्य है। चारों प्रकार के वाद्यों में अग्नि तत्त्व तो अनुस्यूत है ही, क्योंकि चारों में वाक् प्रकट होती है और वाक् तेजोमयी है। - पृ. ३५२

*ततवाद्य जरायुज--देहज योनियों के अधिक निकट है। उद्भिज्ज-देहज योनि के तुल्य सुषिर वाद्य, अण्डज-देहज योनि के सदृश अवनद्ध वाद्य, स्वेदज-देहयोनि के प्रतीक घनवाद्य हैं। - पृ. ३५३

सुषिर वाद्य वायुतत्त्व प्रधान होते हैं। प्राणवायु से आध्मान किए(फूंके) जाने पर अग्नि और वायु के संयोग से ये निनादित हो उठते हैं। निष्कर्ष यह है कि पांचभौतिक(काल के) आवरण में चेतन तत्त्व का जब प्रवेश होता है, तब ये बज उठते हैं। - पृ. ३६३

*ततवाद्य से सुषिरवाद्य भिन्न है। ततवाद्य(वीणा) को बजाने वाला किसी अन्य के संकेतों पर नाच रहा है। गात्रवीणा किसी परमशक्ति के द्वारा निरन्तर बजाई जा रही है, पुनश्च इस गात्रवीणा के हाथ में दारवी वीणा है जिसे मन और प्राण बजा रहे हैं। आत्मा की प्रेरणा से मन, प्राण को संचालित करता है, किन्तु वंश में तो प्राण ही वाक् के रूप में निःसृत होता है। हाथों के अतिरिक्त वंश का प्राण से सीधा सम्बन्ध है, जबकि दारवी वीणा में वही प्राणशक्ति हाथों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। वस्तुतः वाद्यों में वंश माया स्वरूप है। इसका सीधा सम्बन्ध चेतन तत्त्व से है, किन्तु वीणा का परोक्ष सम्बन्ध है। - पृ. ३६५                                                                

प्रथम लेखन- १९-४-२०११ ई.(वैशाख कृष्ण द्वितीया, विक्रम संवत् २०६८)