सगर

सगर कथा के माध्यम से अनासक्त मन की प्राप्ति हेतु आत्मज्ञान की अपरिहार्यता का चित्रण

- राधा गुप्ता

वाल्मीकि रामायण में बालकाण्ड के अन्तर्गत सर्ग 38 से लेकर सर्ग 41 तक राजा सगर की कथा वर्णित है। कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है –

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

अयोध्या के धर्मात्मा राजा सगर की केशिनी तथा सुमति नामक दो पत्नियां थी परन्तु उन्हें कोई पुत्र नहीं था। सगर ने पुत्र हेतु हिमालय के भृगु प्रस्रवण शिखर पर तप किया जिसके फलस्वरूप भृगु ऋषि ने उन्हें केशिनी नामक पत्नी से असमंजस नामक पुत्र तथा सुमति नामक पत्नी से साठ हजार पुत्रों की प्राप्ति का वर दिया। वरदान के अनुसार सगर को पुत्रों की प्राप्ति हुई एवं सभी पुत्र युवावस्था को प्राप्त हुए।

असमंजस नामक पुत्र नगर के बालकों को पकडकर सरयू के जल में फेंक देता था, अतः क्रुद्ध पिता ने उन्हें राज्य से बाहर निकाल दिया। असमंजस के पुत्र अंशुमान् अत्यन्त पराक्रमी एवं सबके प्रिय थे। एक बार सगर के मन में यज्ञ करने की इच्छा हुई। तब यज्ञ के अश्व की रक्षा का भार उन्होंने अंशुमान् को सौंपा। यज्ञ प्रारम्भ हुआ परन्तु इन्द्र ने अश्व को चुरा लिया ाऔर उसे रसातल में ले जाकर कपिल मुनि के आश्रम के समीप खडा कर दिया।

सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को अश्व को ढूंढने और चोर का पता लगाने की आज्ञा दी। आज्ञआ पाकर सगर के वे साठ हजार पुत्र पृथ्वी को खोदते ही गए परन्तु अश्व का तथा उसके चोर का पता न लगा सके। अति खनन से पृथ्वी भी आर्तनाद करने लगी। पुनः खुदाई करते-करते वे राजकुमार रसातल की ओर बढे और उन्होंने पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर, चारों दिशाओं में क्रमशः विरूपाक्ष, महापद्म, सौमनस तथा श्वेतभद्र नामक चार दिग्गजों को देखा। अन्त में पूर्वोत्तर दिशा की ओर बढते हुए उन्हें यज्ञ का वह अश्व दिखाई पडा जो भगवान् कपिल के पास ही खडा था। कपिल को न पहचानने के कारण उन्हों को चोर समझकर सगर-पुत्रों ने जैसे ही उन्हें मारना चाहा, वैसे ही कपिल की रोषपूर्ण हुंकार से वे सगर-पुत्र जलकर राख के ढेर हो गए।

बहुत समय तक प्रतीक्षा करने के बाद भी सगर के वे पुत्र जब नहीं लौटे, तब सगर ने पौत्र अंशुमान् को आज्ञा दी कि वह अश्व तथा उसके चोर को ढूंढे। अंशुमान ने शस्त्रादि से सुसज्जित होकर उसी पथ का अनुसरण किया जिसे उसके चाचाओं ने खनन द्वारा बनाया था। चारों पूर्वोक्त दिग्गजों का दर्शन करके तथा उनका आशीर्वाद लेकर अंशुमान् उस स्थान पर पहुंच गए जहां उनके चाचा भस्म हुए पडे थे। कपिल द्वारा गंगाजल से पितरों के उद्धार का निर्देश पाकर अंशुमान् ने कपिल का स्तवन किया तथा कपिल मुनि की आज्ञा से वे अश्व को लेकर सगर के पास लौट आए। सगर ने यथाविधि यज्ञ को पूर्ण किया।

कथा की प्रतीकात्मकता

कथा पूर्णरूप से प्रतीकात्मक है। अतः प्रतीकों को समझकर ही कथा के अभिप्राय को समझा जा सकता है—

1—सगर—सगर शब्द स तथा गर नामक दो शब्दों के योग से बना है। स का अर्थ है- सहित और गर का अर्थ है विष। अतः धर्मात्मा राजा सगर ऐसे मनुष्य का प्रतिनिधित्व करता है जो काम-क्रोध-लोभ-मोह-मद-मत्सर से रहित होते हुए भी अहंकार रूपी विष से युक्त है। अहंकार का अर्थ है—अपनी सही पहचान न होने के कारण गलत पहचान को ही सही पहचान मानकर उसमें आसक्त हो जाना, अर्थात् ‘मैं अजर-अमर-अविनाशी चैतन्यशक्ति आत्मा हूं’ – अपनी इस सही पहचान को भूल जाने के कारण विभिन्न भूमिकाओं, पदों तथा सम्पत्ति आदि को ही अपनी सही पहचान मान लेना और उसी में आसक्त हो जाना।

2—सगर की दो पत्नियां – सुमति और केशिनी – सुमति और केशिनी मनुष्य की दो शक्तियों को इंगित करते हैं। सुमति का अर्थ है – श्रेष्ठ बुद्धि। श्रेष्ठ बुद्धि की यह विशेषता है कि इसके सैंकडों प्रकार के व्यापार(वृत्तियां) अनासक्तता जैसि किसी विशिष्ट तथ्य की खोज में उस तथ्य की गहराई तक तो पहुंच जाते हैं जिसे कथा में सुमति-पुत्रों द्वारा पृथ्वी का खनन कहकर इंगित किया गया है, परन्तु आत्मज्ञान से सर्वथा अनभिज्ञ होने के कारण उस अनासक्तता को सैद्धान्तिक रूप से जानकर भी व्यक्तित्व में अथवा जीवन में उतार नहीं पाते, अतः तुच्छ प्राय हो जाते हैं जिसे कथा में सगर के 60 हजार पुत्रों का भस्म हो जाना कहा गया है।

केशिनी का अर्थ है—पराशक्ति अर्थात् बुद्धि से परे की शक्ति। यह पराशक्ति मनुष्य की वह शक्ति है जो प्रारम्भ में तो मनुष्य के भीतर ज्ञान-विषयक असमंजस अर्थात् दुविधा को उत्पन्न करती है परन्तु बाद में उसी असमंजस स्थिति से ज्ञान की एक किरण पैदा हो जाती है जिसे कथा में ्समंजस से अंशुमान् नामक पुत्र का उत्पन्न होना कहा गया है। ज्ञान की यह एक किरण भी आत्मज्ञान से परिचित होने के कारण श्रेष्ठ मन की प्राप्ति में, अर्थात् अनासक्ति को व्यक्तित्व में उतारने में समर्थ है जिसे कथा में अंशुमान् द्वारा यज्ञीय अश्व को यज्ञ हेतु वापस लाना कहकर इंगित किया गया है।

3—यज्ञ का अश्व – यज्ञीय अश्व श्रेष्ठ मन को इंगित करता है। श्रेष्ठ मन का अर्थ है—अनासक्त मन। मनुष्य के चारों ओर विभिन्न नामरूप, पद तथा धन-सम्पत्ति आदि के रूप में अनेकानेक आकर्षण विद्यमान हैं जिनके प्रति मन सतत् आसक्त बना रहता है। जो मन इन सबके बीच में रहकर भी कहीं आसक्त न हो – वही अनासक्त अर्थात् श्रेष्ठ मन है। अपने स्वरूप की सही पहचान(मैं चैतन्यशक्ति आत्मा हूं) होने पर ही मन की उपर्युक्त आसक्ति समाप्त होती है और सभी कर्त्तव्यकर्मों का सम्यक् निर्वाह करते हुए भी मन श्रेष्ठ बना रहता है। इसीलिए श्रेष्ठ मन के लिए स्वस्वरूप की सही पहचान होना अनिवार्य है। कपिल मुनि के पास यज्ञीय अश्व को खडा करके इसी तथ्य को इंगित किया गया है।

4—कपिल मुनि- कपिल शब्द कम्प् धातु में ल एकाक्षर के योग से बना है। कम्प का अर्थ है—कम्पन और ल का अर्थ है – लाना। अतः कपिल का अर्थ हा—जडता में कम्पन लाना। देह को ही अपना सही स्वरूप समझ लेना पूर्ण जडता अर्थात् अज्ञान की स्थिति है। जो ज्ञान मनुष्य की इस जडता अथवा अज्ञानता को हिलाकर उसे उसके सही स्वरूप—आत्मस्वरूप- को पहचानने की ओर अग्रसर कर दे—वही कपिल मुनि है। जिस दिन मनुष्य इस ज्ञान रूपी कपिल मुनि को पहचान लेता है, उसी दिन मन के श्रेष्ठत्व-अनासक्तता को लाने में भी वह समर्थ हो जाता है। अंशुमान द्वारा कपिल मुनि की स्तुति और अश्व को वापस लाना इसी तथ्य को इंगित करता है।

5—असमंज अथवा असमञ्जस—असमंजस नामक पात्र दुविधा की स्थिति को इंगित करता है । पूर्ण एवं सही ज्ञान न होने के कारण इस स्थिति में मनुष्य छोटी-छोटी बातों के लिए भी परमात्मा को उत्तरदायी ठहराता है जिसे कथा में असमंजस द्वारा बालकों को सरयू नदी में डुबोना कहकर इंगित किया गया है। परन्तु दुविधा की स्थिति अधिक समय तक नहीं टिकती क्योंकि जल्दी ही मनुष्य में ज्ञान की किरण जन्म ले लेती है जिसे कथा में असमंजस का राज्य से बाहर होना तथा अंशुमान नामक पुत्र का उत्पन्न होना कहा गया है।

6—सरयू नदी—सरयू शब्द सृ(सरति) धातु में ॐ शब्द के योग से बना प्रतीत होता है। सरति का अर्थ है – वहन और ॐ का अर्थ है – परमात्मा। अतः ॐ अर्थात् परमात्मा विषयक जो चेतना-धारा मनुष्य के भीतर बह रही है, वह सरयू नदी है। असमंजस द्वारा सरयू नदी में बालकों को डुबोना यह इंगित करता है कि सही ज्ञान अर्थात् ब्रह्माण्ड में क्रियाशील नियमों का ज्ञान न होने के कारण जब मनुष्य असमंजस अथवा दुविधा की स्थिति में रहता है, तब जीवन में घटित छोटी-छोटी बातों को भी परमात्मा से सम्बद्ध करता रहता है। तात्पर्य यह है कि अच्छी अथवा बुरी हर परिस्थिति में वह किसी नियम को उत्तरदायी न ठहराकर परमात्मा को ही उत्तरदायी मानता रहता है।

7—सगर द्वारा भृगु प्रस्रवण शिखर पर तप तथा भृगु ऋषि के वरदान से केशिनी एवं सुमति को पुत्रों की प्राप्ति—भृगु ऋषि कर्मफलों को भूनने वाली चेतना के प्रतीक हैं तथा वरदान एवं अभिशाप शब्द अवश्य भवितव्यता(अवश्य होने) को इंगित करते हैं। उपर्युक्त कथन द्वारा यह संकेतित करने का प्रयास किया गया है कि यद्यपि प्रत्येक मनुष्य के पास केशिनी रूपी पराशक्ति तथा सुमति रूपी श्रेष्ठ बुद्धि विद्यमान है, परन्तु दोनों ही शक्तियां क्रियाशील न होने के कारण श्रेष्ठ गुण-सम्पत्ति रूप पुत्रों को उत्पन्न नहीं कर पाती, अर्थात् न तो पराशक्ति के फलस्वरूप मनुष्य के भीतर कोई ज्ञान-किरण उदित हो पाती है और न ही श्रेष्ठ बुद्धि के फलस्वरूप तथ्य की गहराई तक पहुंचने वाली बुद्धि-वृत्तियां क्रियाशील हो पाती हैं। मनुष्य के पास विद्यमान उसी की ये दोनों शक्तियां निश्चित रूप से तभी क्रियाशील हो पाती हैं जब उसके कर्मफल भुनते अर्थात् समाप्त होते हैं और पुण्य का उदय होता है। कर्मफलों के भुनने पर निश्चित रूप से मनुष्य में अभ्युदय हेतु आवश्यक पात्रता विकसित होती है जिसे कथा में भृगु ऋषि का वरदान कहकर इंगित किया गया है।

8—पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर दिशाओं में चार दिग्गजों का दर्शन—सुमति के पुत्रों द्वारा चार दिशाओं में चार दिग्गजों का दर्शन कहकर मनुष्य की बौद्धिक क्षमता की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है। मनुष्य की बौद्धिक क्षमता अद्भुत है। उसे जिस दिशा में भी लगाया जाएगा, वह उसी दिशा से अद्भुत परिणाम लाएगी। पूर्व दिशा ज्ञान के उदय की दिशा कही गई है। इस दिशा में बुद्धि-वृत्तियों के उन्मुख हो जाने पर इन्द्रियों अथवा इनद्रिय-विषयों में गुणात्मक परिवर्तन अवश्य घटित होगा जिसे कथा में विरूपाक्ष नामक दिग्गज के दर्शन होना कहा गया है। विरूपाक्ष शब्द विरूप और अक्ष नामक शब्दों से बना है। अक्ष का अर्थ है—इन्द्रिय अथवा अन्द्रिय-विषय और विरूप का अर्थ है – रूप परिवर्तन । अतः विरूपाक्ष का अर्थ हुआ – इन्द्रिय अथवा अन्द्रिय – विषय का रूप(गुणात्मक) परिवर्तन। सरल शब्दों में ऐसा कह सकते हैं कि ज्ञानोदय की ओर बुद्धि वृत्तियों के उन्मुख होने पर इन्द्रियों में गुणवत्ता अवश्य घटित होती है।

दक्षिण दिशा दक्षता प्राप्ति की दिशा कही गई है। इस दिशा में बुद्धि-वृत्तियों के उन्मुख हो जाने पर धनात्मक दृष्टिकोण की प्राप्ति अवश्य होगी जिसे कथा में महापद्म नामक दिग्गज के दर्शन होना कहा गया है। कुबेर की नौ निधियों में सबसे पहली निधि है- महापद्म। चूंकि कुबेर देवता धनात्मक शक्ति के प्रतीक हैं, अतः धनात्मक दृष्टिकोण को महापद्म नामक पहली निधि कहा जा सकता है।

पश्चिम दिशा कर्मफलों के अस्त होने की दिशा है। इस दिशा में बुद्धि-वृत्तियों के उन्मुख होने पर मनुष्य को सौमनस्यता रूप श्रेष्ठ गुण की प्राप्ति अवश्य होगी जिसे कथा में सौमनस नामक दिग्गज के दर्शन होना कहा गया है। कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य का कर्म केवल वाचिक अथवा कायिक नहीं होता। मनुष्य का प्राथमिक कर्म मानसिक होता है। मानसिक कर्म(सोच) यदि अच्छा है, तब वाचिक तथा कायिक तो ्च्छा होगा ही। इस समझ की ओर बुद्धि के उन्मुख हो जाने पर मनुष्य का मन सु मन(सौमनस) अवश्य बनता है और कर्मफल के अस्त होने का सर्वाधिक सम्बन्ध इस सु मन से ही है।

उत्तर दिशा ऊपर की ओर बढने की दशा है। इस दिशा में बुद्धिवृत्तियों के उन्मुख होने पर मनुष्य को श्रेष्ठ कल्याण के दर्शन होते हैंे जिसे कथा में श्वेतभद्र नामक दिग्गज के दर्शन होना कहा गया है।

9—पूर्वोत्तर दिशा में अश्व और कपिल मुनि का दर्शन परन्तु अश्व को लौटाने में बुद्धि-वृत्तियों की असमर्थता—जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, पूर्व दिशा ज्ञान के उदय की तथा उत्तर दिशा ऊपर की ओर बढने की दिशा है। मनुष्य जब अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग इन दोनों दिशाओं में समवेत रूप से करता है, तब उसे श्रेष्ठ मन और ज्ञान के दर्शन भी अवश्य होते हैं जिसे कथा में यज्ञीय अश्व और कपिल मुनि के दर्शन कहकर इंगित किया गया है। परन्तु यह दर्शन सैद्धान्तिक होता है और केवल सिद्धान्त से मन की श्रेष्ठता अर्थात् अनासक्तता का अवतरण जीवन में कभी होता नहीं।

10—अति खनन से पृथ्वी का आर्त्तनाद—प्रस्तु कथन द्वारा अज्ञानी अर्थात् आत्म-ज्ञान से रहित बुद्धि के दुष्परिणाम की ओर संकेत किया गया है। अनुभवात्मक ज्ञान को साथ लिए बिना केवल बुद्धि-वृत्तियों के सहारे मनुष्य क्या-क्यों-कैसे आदि के रूप में इतने प्रश्न और इतना संशय उपस्थित करता है कि व्यक्तित्व का शम ही नष्ट हो जाता है जिसे कथा में पृथ्वी का आर्त्तनाद कहकर इंगित किया गया है।

प्रथम लेखन- 3-3-2012ई.(फाल्गुन शुक्ल दशमी, विक्रम संवत् 2068)

Necessity of Self Knowledge for Detachment through Story of Sagara

- Radha Gupta

The story is related with detachment and describes the need of self knowledge for it’s attainment.

Living in body-consciousness a person thinks himself a body. He attaches so much with his roles and possessions that a slightest hit to the role makes him uncomfortable and any loss of possession brings him sorrow.

But in soul-consciousness, a person thinks himself a loveful, peaceful, happy soul. He never attaches with his roles and possessions. He plays all his roles perfectly like an actor and uses all his possessions in an appropriate manner but remains detached. This detachment happens automatically. No special effort is need as the as the detachment is closely connected with the above knowledge of Self symbolized as the standing of horse near Kapila.

The story informs that a person has two powers. First power is his intellectual power named as Sumati and second power is his supernatural power named as Kshini. When a person wishes to get detached, he uses his first power of intellect. It is true that this power of intellect is amazing. Therefore, this power makes him able to go deeper and deeper in search of detachment. With the help of this power, he collects all possible information and gets so many virtues but fails in cultivating detachment symbolized as the failure of Sagar’s sons in bringing back the horse.

The second power-supernatural power is able in producing detachment. Although this power in the beginning creates dilemma symbolized as Asamanjasa but soon this dilemma finishes and a ray of knowledge emerges symbolized as the birth of Anshuman after driving out of Asamanjasa. This ray of knowledge develops, proceeds, uses all previous information searched by intellelct, identifies with Self(the soul) and brings back detachment symbolized as the bringing back of the horse by Anshuman.

सगर की कथा का रहस्य

-विपिन कुमार

सगर के पिता बाहु के विषय में कहा जाता है कि बाहु की अपनी प्रजा में असूया वृत्ति थी जिसके कारण प्रजा ने उन्हें राज्य से च्युत कर दिया। वैदिक वाङ्मय में बाहु का महत्त्व उसके सूयन गुण के कारण है – सवितुः प्रसवितृभ्यां अश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णोः हस्ताभ्यां इति। इस मन्त्र में सविता देव प्रसवन करने वाला है। मन्त्र का अर्थ है कि हम जो भी कार्य हाथ से करें, उसके पीछे कोई प्रेरणा शक्ति विद्यमान होनी चाहिए और प्रेरणा शक्ति को सविता देव नाम दिया गया है। जहां यह प्रेरणा शक्ति उपलब्ध नहीं है, उसे असूया वृत्ति कहा जाना चाहिए। बाहुओं में सूया वृत्ति का स्रोत हृदय हो सकता है। यदि हृदय से यह प्रसवन नहीं हो रहा है तो फिर प्रसवन के दूसरे स्रोत को खोजना चाहिए। प्रसवन का दूसरा कोई स्रोत ऊरुओं का प्रसवन कर रहा है। ऊरुओं में इस प्रसवन शक्ति का संग्रहण/संचय करना होता है, ऐसा प्रतीत होता है। जब किसी कारण से शक्ति की आवश्यकता पडती है तो उसके लिए ऊरुओं का भेदन करने की कथा आती है जिससे और्व ऋषि का प्राकट्य होता है। पुरुष सूक्त के अनुसार बाहु क्षत्रिय को जन्म देने का स्थान है जबकि ऊरु वैश्य को(ऊरू यदस्य तद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत)। ऊरु का दूसरा अर्थ पूरु चेतना की विपरीत स्थिति, विस्तीर्ण चेतना की स्थिति होता है। पुराणों में और्व भार्गव ऋषि सगर शिशु/बालक के शिक्षक हैं। वैदिक निघण्टु में सग॑र शब्द का वर्गीकरण अन्तरिक्ष नामों के अन्तर्गत किया गया है। लेकिन वैदिक संदर्भों में तो सगर शब्द की व्याप्ति, अग्नि, वायु और सूर्य तीनों स्तरों पर मिल रही है। आदित्य के स्तर पर सगर के साथ केतु का उल्लेख भी है। यह उल्लेख पुराणों(हरिवंश पुराण 1.14.26 इत्यादि) में सगर के चार पुत्रों बर्हिकेतु, सुकेतु, धर्मरथ तथा पञ्चजन/असमंजस के रूप में केतु की पुष्टि करता है। सगर शब्द में गर का मूल स्रोत गॄ – विज्ञाने है, अर्थात् गर या विष की स्थिति होते हुए भी यह संभावना है कि चेतना विज्ञानमय कोश से जुडी रहेगी और केतुओं के रूप में अतीन्द्रिय दर्शन होते रहेंगे। लेकिन अतीन्द्रिय दर्शन की स्थिति सतत् नहीं होगी, रुक-रुक कर हो सकती है।

पुराणों में सार्वत्रिक रूप से सगर के साठ हजार पुत्रों के कपिल की नेत्राग्नि से भस्म हो जाने का उल्लेख आता है। ताण्ड्य ब्राह्मण में सगरा स्थिति का तादात्म्य दक्षिणाग्नि से स्थापित किया गया है और दक्षिणाग्नि की यह विशेषता है कि यह बहिर्मुखी भी हो सकती है, अन्तर्मुखी भी। यह अक्ष प्रकार की भी हो सकती है, अश्व प्रकार की भी(द्र. पुराणों में नलोपाख्यान)। कपिल सांख्य योग के, संख्याओं के योग के प्रतिपादक हैं। यह अक्ष स्थिति की पराकाष्ठा है। अतः पुराणों में कपिल द्वारा सगर के 60 हजार पुत्रों को भस्म करने का उल्लेख बहुत सार्थक है। इतना ही नहीं, पुराणों ने कपिल के साथ एक अश्व भी खडा कर दिया है। पहले अक्ष स्थिति समाप्त हो तो अश्व मिलेगा।

पुराणों में सगर द्वारा हैहय, पह्लव इत्यादि जातियों के पराभव का सार्वत्रिक वर्णन आता है। इस कथन द्वारा वैदिक साहित्य के किस रहस्य का उद्घाटन किया गया है, यह अन्वेषणीय है।

संदर्भ

*इन्द्रा॑य॒ गिरो॒ अनि॑शितसर्गा अ॒पः प्रेर॑यं॒ सग॑रस्य बु॒ध्नात्। यो अक्षे॑णेव च॒क्रिया॒ शची॑भि॒र्विष्व॑क् त॒स्तम्भ॑ पृथि॒वीमु॒त द्याम्॥ - ऋ. 10.89.4, तैत्तिरीय ब्राह्मण 2.4.5.2

*मि॒त्रस्य॑ मा॒ चक्षु॑षेक्षध्व॒मग्न॑यः सगराः॒ सग॑रा स्थ सग॑रेण॒ नाम्ना॒ रौद्रे॒णानी॑केन पा॒त मा॑ग्नयः पिपृ॒त मा॑ग्नयो गोपा॒यत॑ मा॒ नमो॑ वोऽस्तु॒ मा मा॑ हिँसिष्ट॥ - माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेद 5.34

*अश्वमेधे याज्यानुवाक्याः। ग्रीष्म ऋतुः – बृ॒हत् साम॑ क्षत्र॒भृद्वृ॑ष्णियं त्रि॒ष्टुभौजः॑ शुभि॒तमु॒ग्रवी॑रम्। इन्द्र॒ स्तोमे॑न पञ्चद॒शेन॒ मध्य॑मि॒दं वाते॑न॒ सग॑रेण रक्ष॥ - तै.सं. 4.4.12.2

*यावा॒ अया॑वा॒ एवा॒ ऊमाः॒ सब्दः॒ सग॑रः सु॒मेकः॑(इति सप्तर्तव्याः इष्टकाः) – तै.सं. 4.4.7.2, तु. काठक सं. 22.5

सुमेकः – संवत्सरः(सायण भाष्य)

*दर्शपूर्णमासनिर्वचनम् – स यो देवानामासीत् स यवा। अयुवत हि तेन देवाः। योऽसुराणां सोऽयवा। न हि तेनासुरा अयुवत। - - - - सब्दमहः। सगरा रात्रिः। यव्या मासाः। सुमेकः संवत्सरः। - शतपथ ब्राह्मण 1.7.2.26

*सगराय शत्रुहणे स्वाहा। - - - - - पैप्पलाद संहिता 7.20.1

*बृहद् राष्ट्रं क्षत्रभृद् वृद्धवृष्ण्यं त्रिष्टुभौजस् सुकृतम् उग्रवीरम्। इन्द्रस् स्तोमैः पञ्चदशेन वर्च इदं वातेन सगरेण रक्षतु॥ - पैप्पलाद संहिता 15.1.4, तु. मैत्रायणी संहिता 3.16.4

*केतस्सुकेतस्सकेतस्ते न आदित्या जुषाणा अस्य हविषो व्यन्तु स्वाहा सलिलस्सलिगस्सगरस्ते न आदित्या जुषाणा अस्य हविषो व्यन्तु स्वाहा – काठक संहिता 8.14, 9.3, तु. मैत्रायणी सं. 1.7.1, 1.7.5

*यवा आयवा ऊमा एवा अब्दस्सगरस्सुमेकः - - - काठक सं. 22.5, तु. मैत्रायणी सं. 2.13.12

*- - - परमेष्ठिना मृत्युर्मृत्युना प्रजाः प्रजाभिस्सगरस्तनूभि प्रजापतिः(अन्वाभवत्) तैर्देवैरन्वाभूतिरनु च भूयासम् – काठक सं. 35.15

*द्विनामा धिष्णय? अग्नियों के नाम-- - - -मृष्टोऽसि हव्यसूदनः, सगरोऽसि विश्ववेदा, ऋतधामासि स्वर्ज्योतिः, समुद्रोऽसि विश्वव्यचा - - - - मैत्रायणी संहिता 1,2,12

*द्विनामा धिष्ण्य अग्नियों के नाम -- - - -सगरा असि बुध्न्यः(इति दक्षिणाग्नेरायतनम् उपतिष्ठेरन्) – ताण्ड्य ब्राह्मण 1.4.13

‘सगरा’ गरसा गरणेन हविर्भक्षणेन सहितः – सायण