सावित्री
सावित्री
टिप्पणी
१.वेद में सावित्री सविता की कन्या है जिसका विवाह सोम से किया गया है। ऋग्वेद १०.८५ सूक्त सावित्री के विवाह को समर्पित है। दूसरी ओर, पुराणों में सावित्री का विवाह ब्रह्मा से करने का निर्देश है। कहा गया है कि ब्रह्मा के वीर्य को ही सावित्री शास्त्रों, रागों आदि के रूप में जन्म देती है। सावित्री को ब्रह्मा की पुत्री भी कहा गया है। आख्यान है कि सावित्री जिस दिशा में भी गई, उसी दिशा में ब्रह्मा का एक नया शिर उत्पन्न हो गया। इन्हीं शिरों से ऋग्वेद आदि की उत्पत्ति हुई। वेदों में सविता देवता की प्रतिष्ठा एक ऐसे प्राण के रूप में की गई है जिसको किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पहले सक्रिय बनाना है(सवितुः प्रसविताभ्यां अश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां इति)। हो सकता है कि सविता देवता रूपी प्राण यह निर्देश देता हो कि अमुक कार्य को सर्वश्रेष्ठ रूप में इस प्रकार सम्पन्न किया जा सकता है।
२.ऐसा प्रतीत होता है कि सविता रूपी प्राण सम्पूर्ण प्रकृति का प्रसुवन नहीं कर सकता। प्रसुवन की उसकी शक्ति केवल उसकी कन्या सावित्री तक ही सीमित है। वेद के सूक्त में सावित्री को सूर्या सावित्री नाम दिया गया है। सूर्या शब्द से र अक्षर का लोप कर देने पर यह सूया हो जाता है। अतः कहा जा सकता है कि सावित्री उस प्रकृति का नाम है जो सविता की भांति प्रसुवन करने में समर्थ है। हम सभी प्रकृति के अधिक निकट हैं, पुरुष के निकट कम हैं। लौकिक रूप में, पुरुष की साधना कठिन होती है, फल भी देर से मिलता है। शक्ति की साधना त्वरित है, तुरन्त फल देने वाली है।
३.पुराण कथा में सावित्री को राजा अश्वपति की कन्या का रूप दिया गया है। अश्वमेध याग में यजमान यज्ञस्थल पर प्रतिष्ठित रहता है और अश्व सारे भूमण्डल पर एक वर्ष तक विचरण करता है। लेकिन यह समझा जाता है कि यद्यपि अश्व यजमान से दूर चला गया है, लेकिन यजमान अश्व पर से अपना नियन्त्रण नहीं खोएगा। इसीलिए सावित्री की कथा में उसे अश्वपति कहा गया है। अश्व की विशेषता यह है कि वह श्वः से, भूत – भविष्य से, कार्य- कारण से परे है। शकुन, पक्षी के रूप में कभी – कभी अश्व की स्थिति प्राप्त हो जाए, यह पर्याप्त नहीं है। सर्वत्र, सदैव, संवत्सर पर्यन्त ऐसी स्थिति रहे, उसे अश्व और अश्वपति कह सकते हैं। एक ओर सविता देव की कन्या सावित्री है, दूसरी ओर पृथिवी पर अश्वपति की कन्या सावित्री है। स्पष्ट है कि अश्वपति सविता देव का ही मर्त्य स्तर का रूप है।
५.शतपथ ब्राह्मण ९.५.१.४३ (सावित्राणि प्रायणं वैश्वकर्मणान्युदयनं) व १०.४.१.१६(तस्यार्धमेव सावित्राण्यर्धं वैश्वकर्मणान्यष्टावेवास्य कलाः सावित्राण्यष्टौ वैश्वकर्मणान्यथ यदेतदन्तरेण कर्म क्रियते स एव सप्तदशः प्रजापतिः) से संकेत मिलता है कि सावित्र प्रक्रिया दैव का, भाग्य का रूपान्तरण है। उसके फलस्वरूप जो कार्य होगा वह पुरुषार्थ है। यहां पुरुषार्थ को विश्वकर्मा – कृत कहा गया है, अर्थात् अब पुरुषार्थ मात्र पुरुषार्थ नहीं रह जाएगा, अपितु देवों के शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा किया गया कार्य होगा।
६.वट-सावित्री व्रत में वट वृक्ष की पूजा की जाती है। वैदिक कर्मकाण्ड में वट शब्द प्रकट नहीं हुआ है, अपितु अवट प्रकट हुआ है। सोमयाग आदि में यूप की तथा औदुम्बरी की प्रतिष्ठा अवट नामक एक छिछले गर्त में की जाती है। यूप को ही पुराणों का वट वृक्ष कहा जा सकता है। कहा गया है कि यूप का जो भाग अवट में रहता है, वह पितृदेवत्य होता है, अर्थात् उससे हमारे जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं – क्षुधा आदि का निवारण होता है। स्वयं हमारा यह शरीर भी एक यूप है। इस शरीर में पाद से लेकर शिर तक के अंग क्रमिक रूप से विकसित से विकसिततर होते चले जाते हैं। शिर में जाकर ज्ञानेन्द्रियों का विकास हो जाता है, जो पाद में अविकसित स्थिति में ही रहती हैं।
कुशतर्पणदेशे तु तत्तीर्थं कुशतर्पणम्॥
तत्रैव कल्पितो यूपो मया विन्ध्यस्य चोत्तरे।
विसृष्टो लोकपूज्योऽसौ विष्णोरासीत्समाश्रयः॥
अक्षयश्चाभवच्छ्रीमानक्षयोऽसौ वटोऽभवत्।
नित्यश्च कालरूपोऽसौ स्मरणात्क्रतुपुण्यदः॥ब्रह्म पुराण २.९१.६७॥
ज्योति अप्तोर्याम सोमयाग, गार्गेयपुरम् कर्नूल, आंध्रप्रदेश, (20 जनवरी से 1 फरवरी, 2015) को आरुणकेतुक अग्नि के समीप स्थित यूप का एक चित्र
तीर्थदीपिका में पाँच वटवृक्षों का वर्णन मिलता है-
वृंदावने वटो वंशी प्रयागेय मनोरथा:।
गयायां अक्षयख्यातः कल्पस्तु पुरुषोत्तमे ।।
निष्कुंभ खलु लंकायां मूलैकः पंचधा वटः ।
स्तेषु वटमूलेषु सदा तिष्ठति माधवः ।।
७.पुराणों की कथाओं में वट वृक्ष को गरुड भी कह दिया गया है। इसका अर्थ होगा कि अपने शरीर को गरुड का रूप देना है जिस पर विष्णु विराजमान हो सकें(मार्कण्डेय वट पर बालमुकुन्द के विराजमान होने की कथा सर्वप्रसिद्ध है)। वट धातु का उल्लेख कईं अर्थों में किया गया है – जैसे आवेष्टने, अवयवे(पीसना), परिभाषणे, विभाजने आदि। यदि आवेष्टन अर्थ लिया जाए तो इस अर्थ का उपयोग सोमयाग में श्येन चिति की प्रतिष्ठा के संदर्भ में किया जा सकता है। सोमयाग में एक के ऊपर एक ईंट रखकर श्येन चिति की स्थापना की जाती है। यह यूप स्थापना का ही एक विकसित रूप है। एक इष्टिका (ईंट) के ऊपर जो दूसरी इष्टिका रखी जाएगी, उसकी अव्यवस्था पहले वाली इष्टिका से कम होने चाहिए। सबसे ऊपर की इष्टिका में ब्रह्माण्ड में उडने की सामर्थ्य, विष्णु को धारण करने की सामर्थ्य होनी चाहिए। उपनिषदों में वट वृक्ष को अन्नमय से लेकर आनन्दमय कोशों का, ध्यान, धारणा, समाधि आदि अष्टांग योग का प्रतीक कहा गया है।
ज्योति अप्तोर्याम सोमयाग, गार्गेयपुरम् कर्नूल, आंध्रप्रदेश, (20 जनवरी से 1 फरवरी, 2015) को श्री राजशेखर शर्मा के संग्रह से गृहीत श्येनचिति का एक चित्र
गरुडो वटभाण्डीरः सुदामा नारदो मुनिः॥२४॥
वृन्दा भक्तिः क्रिया बुद्धीः सर्वजन्तुप्रकाशिनी। - कृष्णोपनिषद
८.पौराणिक कर्मकाण्ड में वटवृक्ष को कच्चे सूत्र द्वारा आवेष्टित किया जाता है। वैदिक कर्मकाण्ड में यूप के ऊपर रशना लपेटी जाती है। निहितार्थ अन्वेषणीय है।
९.यह एक विवाद का विषय रहा है कि सावित्री और गायत्री में क्या अन्तर है। गायत्री मन्त्र तत् सवितुर् वरेण्यं में भी सविता देव का ही नाम प्रकट होता है। कहा गया है कि गायत्री दो भुजाओं वाली है, सावित्री चार भुजाओं वाली। दो भुजाएं ऊर्ध्व व अधो दिशाओं का प्रतीक हो सकता है। डा. फतहसिंह इस तथ्य की व्याख्या इस प्रकार किया करते थे कि मनुष्य में दो त्रिलोकी निहित हैं। एक त्रिलोकी अन्नमय कोश, प्राणमय कोश व मनोमय कोश से बनी है। दूसरी त्रिलोकी मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश व आनन्दमय कोश से बनी है। अध्यात्म में यह ऊर्ध्व विकास की स्थिति है जो गायत्री साधना का मार्ग है। मनुष्य का मार्ग यही है। दूसरी ओर पशुओं का मार्ग है जो तिर्यक् विकास ही कर सकते हैं। उनके चार पैर हैं। सावित्री का विकास चारों दिशाओं के अनुदिश है। जब वट वृक्ष का निर्माण किया जाता है तो इसका अर्थ होगा कि चारों दिशाओं को समेट कर ऊर्ध्व – अधो दिशाओं तक सीमित करना है। सावित्री क्रमिक साधना का मार्ग है, गायत्री त्वरित साधना का। स्वयं सविता देव को गायत्री वर्ग में रखा गया है(एष वै गायत्रो देवानां यत्सविता – तै.सं. ६.५.७.१)। जैसे – जैसे सविता प्राण का वास्तविक जीवन में, प्रकृति में अवतरण कराने का प्रयास किया जाएगा, वह सावित्री प्रकार का बनता जाएगा। द्वादशाह आदि कर्मकाण्ड में स्थिति की गंभीरता के साथ, आवश्यकता के साथ गायत्री मन्त्र बदल दिया जाता है। उदाहरण के लिए, ऐतरेय ब्राह्मण में कण्डिका ४.३० (युञ्जते मन उत युञ्जते धिय इति), ४.३२(उदु ष्य देवः सविता हिरण्ययेति), ५.५(आ देवो यातु सविता सुरत्न इति), ५.१३(उदु ष्य देवः सविता सवाय), ५.१७(अभि त्वा देव सवितरिति), ५.१९(हिरण्यपाणिमूतय इति), ५.२१(दोषो आगादिति), ५.२६ में द्वादशाह के १० दिनों में प्रयुक्त होने वाले सावित्री मन्त्रों को दिया गया है।
१०.जो मूलभूत तत्त्व प्रेरणा, सूया प्रक्रिया करते हैं, उनमें प्राण और मन का नाम आया है(शतपथ ब्राह्मण ४.४.१.१, ४.४.१.७)। कहा गया है कि प्रेरणा देते समय वाक् के, कर्म के दोनों ओर दोनों का योगदान होना चाहिए। कभी मन पहले होता है तो कभी प्राण। इस प्रकार मन, वाक्, प्राण मिलकर चन्द्रमा, पृथिवी, सूर्य रूपी संवत्सर का निर्माण करते हैं।
११. शतपथ ब्राह्मण १२.९.१.३ में हृदय को ऐन्द्र पुरोडाश तथा यकृत को सावित्र पुरोडाश कहा जा रहा है(हृदयमेवास्यैन्द्रः पुरोडाशः। यकृत् सावित्रः। क्लोमा वारुणः)। चूंकि परम्परागत रूप से हृदय को प्रेम का स्थान माना जाता है, अतः यह कहा जा सकता है कि यकृत आदि प्रेम से निम्नतर स्थितियां – मैत्री, कृपा, उपेक्षा आदि हैं। इन्हें सावित्र कहा जा रहा है। स्वयं हृदय गायत्री की स्थिति हो सकती है। शतपथ ब्राह्मण १२.९.१.८ के कथन से स्थिति और अधिक स्पष्ट हो जाती है(पूर्ववयसमैन्द्रेण। मध्यमवयसं सावित्रेण। उत्तमवयसं वारुणेन) ।गायत्री गो रूपा है, सावित्री अश्व रूपा। वास्तुसूत्रोपनिषद ६.२१टीका में सावित्री मेधा रूपा, गायत्री ज्ञानरूपा, सरस्वती प्रज्ञारूपा होने का कथन ध्यान देने योग्य है।
१२. यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है कि वट-सावित्री व्रत का विधान ज्येष्ठ कृष्ण अमावास्या को है या ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को।
१३.स्कन्द पुराण ५.१.५६.१४ में सूर्या सावित्री के अतिरिक्त अनुसूर्या सावित्री का भी उल्लेख है जो सूर्य की पत्नी संज्ञा का उपनाम है। अनुसूर्या नाम अत्रि – पत्नी अनसूया की ओर संकेत करता है। देवी सावित्री ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद को प्रकट करने वाली है। अत्रि की स्थिति में लगता है कि यह तीनों मिलकर एक हो जाते हैं।
14.
प्रथम लेखन – 22-5-2015ई.( ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी , विक्रम संवत् 2072)
(६.८२.२ ) येन सूर्यां सावित्रीमश्विनोहतुः पथा ।
(६.८२.२ ) तेन मामब्रवीद्भगो जयामा वहतादिति ॥२॥
(१४.२.३० ) रुक्मप्रस्तरणं वह्यं विश्वा रूपाणि बिभ्रतम् ।
(१४.२.३० ) आरोहत्सूर्या सावित्री बृहते सौभगाय कम् ॥३०॥ {९}
1.4.23 अनुवाक 23 सावित्रग्रहः
VERSE: 1
वामम् अद्य सवितर् वामम् उ श्वो दिवेदिवे वामम् अस्मभ्यम्̇ सावीः । वामस्य हि क्षयस्य देव भूरेर् अया धिया वामभाजः स्याम ॥
उपयामगृहीतो ऽसि देवाय त्वा सवित्रे ॥
1.4.24 अनुवाक 24 सावित्रग्रहः
VERSE: 1
अदब्धेभिः सवितः पायुभिष् ट्वम्̇ शिवेभिर् अद्य परि पाहि नो गयम् । हिरण्यजिह्वः सुविताय नव्यसे रक्षा माकिर् नो अघशम्̇स ईशत ॥
उपयामगृहीतो ऽसि देवाय त्वा सवित्रे ॥
1.4.25 अनुवाक 25 सावित्रग्रहः
VERSE: 1
हिरण्यपाणिमूतये सवितारम् उप ह्वये । स चेत्ता देवता पदम् ॥
उपयामगृहीतो ऽसि देवाय त्वा सवित्रे ॥
5.5.18
कृकवाकुः सावित्रः ॥
6.5.7 अनुवाक 7 सावित्रवैश्वदेवग्रहकथनम्
VERSE: 1
अन्तर्यामपात्रेण सावित्रम् आग्रयणाद् गृह्णाति
प्रजापतिर् वा एष यद् आग्रयणः
प्रजानाम् प्रजननाय
न सादयति ।
असन्नाद् धि प्रजाः प्रजायन्ते
नानु वषट् करोति
यद् अनुवषट्कुर्याद् रुद्रम् प्रजा अन्ववसृजेत् ।
एष वै गायत्रो देवानां यत् सविता ।
एष गायत्रियै लोके गृह्यते यद् आग्रयणः ।
6.5.7
यद् अन्तर्यामपात्रेण सावित्रम् आग्रयणाद् गृह्णाति स्वाद् एवैनं योनेर् निर् गृह्णाति
विश्वे
यत् तृतीयसवने सावित्रो गृह्यते तृतीयस्य सवनस्योद्यत्यै
सवितृपात्रेण वैश्वदेवं कलशाद् गृह्णाति
वैश्वदेव्यो वै प्रजा
वैश्वदेवः कलशः
सविता प्रसवानाम् ईशे
यत् सवितृपात्रेण वैश्वदेवं कलशाद् गृह्णाति सवितृप्रसूत एवास्मै प्रजाः प्र
४.४.१.[१]
मनो ह वा अस्य सविता । तस्मात्सावित्रं गृह्णाति प्राणो ह वा अस्य सविता तमेवास्मिन्नेतत्पुरस्तात्प्राणं दधाति यदुपांशु गृह्णाति तमेवास्मिन्नेतत्पश्चात्प्राणं दधाति यत्सावित्रं गृह्णाति ताविमा उभयतः प्राणौ हितौ यश्चायमुपरिष्टाद्यश्चाधस्तात्
अथातो गृह्णात्येव । वाममद्य सवितर्वाममु श्वो दिवेदिवे वाममस्मभ्यं सावीः वामस्य हि क्षयस्य देव भूरेरया धिया वामभाजः स्याम उपयामगृहीतो ऽसि सावित्रोऽसि चनोधाश्चनोधा असि चनो मयि धेहि जिन्व यज्ञं जिन्व यज्ञपतिम् भगायेति
४.४.१.[७]
तं गृहीत्वा न सादयति । मनो ह वा अस्य सविता तस्मादिदमसन्नं मनः प्राणो ह वा अस्य सविता तस्मादयमसन्नः प्राणः संचरत्यथाह देवाय सवित्रे ऽनुब्रूहीत्याश्राव्याह देवाय सवित्रे प्रेष्येति वषट्कृते जुहोति नानुवषट्करोति मनो ह वा अस्य सविता नेन्मनोऽग्नौ प्रवृणजानीति प्राणो ह वा अस्य सविता नेत्प्राणमग्नौ प्रवृणजानीति
९.५.१.[४३]
यद्वेव वैश्वकर्मणानि जुहोति । प्रायणं च हाग्नेरुदयनं च सावित्राणि प्रायणं वैश्वकर्मणान्युदयनं स यत्सावित्राण्येव जुहुयान्न वैश्वकर्मणानि यथा प्रायणमेव कुर्यान्नोदयनं तादृक्तदथ यद्वैश्वकर्मणान्येव जुहुयान्न सावित्राणि यथोदयनमेव कुर्यान्न प्रायणं तादृक्तदुभयानि जुहोति प्रायणं च तदुदयनं च करोति
१०.४.१.[१६]
स एष संवत्सरः प्राजापतिरग्निः तस्यार्धमेव सावित्राण्यर्धं वैश्वकर्मणान्यष्टावेवास्य कलाः सावित्राण्यष्टौ वैश्वकर्मणान्यथ यदेतदन्तरेण कर्म क्रियते स एव सप्तदशः प्रजापतिर्यो वै कला मनुष्याणामक्षरं तद्देवानाम्
ग्रीष्ममेवैन्द्रेण। वर्षाः सावित्रेण। हेमन्तं वारुणेन। - १२.८.२.३३
हृदयमेवास्यैन्द्रः पुरोडाशः। यकृत् सावित्रः। क्लोमा वारुणः। - १२.९.१.३
पूर्ववयसमैन्द्रेण। मध्यमवयसं सावित्रेण। उत्तमवयसं वारुणेन
- १२.९.१.८
१३.४.३.[५]
सावित्र्या एवेष्टेः पुरस्तादनुद्रुत्य सकृदेव रूपाण्याहवनीये जुहोत्यथ सायं धृतिषु हूयमानासु राजन्यो वीणागाथी दक्षिणत उत्तरमन्द्रामुदाघ्नंस्तिस्रः स्वयंसम्भृता गाथा गायतीत्ययुध्यतेत्यमुं संग्राममजयदिति तस्योक्तम् ब्राह्मणम्
१३.४.३.[६]
अथ श्वो भूते द्वितीयेऽहन् एवमेवैतासु सावित्रीष्विष्टिषु संस्थितास्वेषैवावृदध्वर्यविति हवै होतरित्येवाध्वर्युर्यमो वैवस्वतो राजेत्याह तस्य पितरो विशस्त इम आसत इति स्थविरा उपसमेता भवन्ति तानुपदिशति यजूंषि वेदः सोऽयमिति यजुषामनुवाकं व्याचक्षाण इवानुद्रवेदेवमेवाध्वर्युः सम्प्रेष्यति न प्रक्रमान्जुहोति
१३.४.३.[७]
अथ तृतीयेऽहन् एवमेवैतास्विष्टिषु संस्थितास्वेषैवावृदध्वर्यविति हवै होतरित्येवाध्वर्युर्वरुण आदित्यो राजेत्याह तस्य गन्धर्वा विशस्त इम आसत इति युवानः शोभना उपसमेता भवन्ति तानुपदिशत्यथर्वाणो वेदः सोऽयमित्यथर्वणामेकं पर्व व्याचक्षाण इवानुद्रवेदेवमेवाध्वर्युः सम्प्रेष्यति न प्रक्रमान्जुहोति
१३.४.३.[८]
अथ चतुर्थेऽहन् एवमेवैतास्विष्टिषु संस्थितास्वेषैवावृदध्वर्यविति हवै होतरित्येवाध्वर्युः सोमो वैष्णवो राजेत्याह तस्याप्सरसो विशस्ता इमा आसत इति युवतयः शोभनाः उपसमेता भवन्ति ता उपदिशत्यङ्गिरसो वेदः सोऽ यमित्यङ्गिरसामेकं पर्व व्याचक्षाण इवानुद्रवेत्। एवमेवाध्वर्युः संप्रेष्यति। न प्रक्रमान् जुहोति।
१३.४.३.[९]
अथ पञ्चमेऽहन् एवमेवैतास्विष्टिषु संस्थितास्वेषैवावृदध्वर्यविति हवै होतरित्येवाध्वर्युरर्बुदः काद्रवेयो राजेत्याह तस्य सर्पा विशस्त इम आसत इति सर्पाश्च सर्पविदश्चोपसमेता भवन्ति तानुपदिशति सर्पविद्या वेदः सोऽयमिति सर्पविद्याया एकं पर्व व्याचक्षाण इवानुद्रवेत्। एवमेवाध्वर्युः संप्रेष्यति। न प्रक्रमान् जुहोति।
१३.४.३.[१०]
अथ षष्ठेऽहन् एवमेवैतास्विष्टिषु संस्थितास्वेषैवावृदध्वर्यविति हवै होतरित्येवाध्वर्युः कुबेरो वैश्रवणो राजेत्याह तस्य रक्षांसि विशस्तानीमान्यासत इति सेलगाः पादकृत उपसमेता भवन्ति तानुपदिशति देवजनविद्या वेदः सोऽयमिति देवजनविद्याया एकं पर्व व्याचक्षाण इवानुद्रवेत्। एवमेवाध्वर्युः संप्रेष्यति। न प्रक्रमान् जुहोति।
१३.४.३.[११]
अथ सप्तमेऽहन् एवमेवैतास्विष्टिषु संस्थितास्वेषैवावृदध्वर्यविति हवै होतरित्येवाध्वर्युरसितो धान्वो राजेत्याह तस्यासुरा विशस्त इम आसत इति कुसीदिन उपसमेता भवन्ति तानुपदिशति माया वेदः सोऽयमिति कांचिन्मायां कुर्यादेवमेवाध्वर्युः सम्प्रेष्यति न प्रक्रमान्जुहोति
१३.४.३.[१२]
अथाष्टमेऽहन् एवमेवैतास्विष्टिषु संस्थितास्वेषैवावृदध्वर्यविति हवै होतरित्येवाध्वर्युर्मत्स्यः साम्मदो राजेत्याह तस्योदकेचरा विशस्त इम आसत इति मत्स्याश्च मत्स्यहनश्चोपसमेता भवन्ति तानुपदिशतीतिहासो वेदः सोऽयमिति कंचिदितिहासमाचक्षीतैवमेवाध्वर्युः सम्प्रेष्यति न प्रक्रमान्जुहोति
१३.४.३.[१३]
अथ नवमेऽहन् एवमेवैतास्विष्टिषु संस्थितास्वेषैवावृदध्वर्यविति हवै होतरित्येवाध्वर्युस्तार्क्ष्यो वैपश्यतो राजेत्याह तस्य वयांसि विशस्तानीमान्यासत इति वयांसि च वायोविद्यिकाश्चोपसमेता भवन्ति तानुपदिशति पुराणं वेदः सोऽयमिति किंचित्पुराणमाचक्षीतैवमेवाध्वर्युः सम्प्रेष्यति न प्रक्रमान्जुहोति
१३.४.३.[१४]
अथ दशमेऽहन् एवमेवैतास्विष्टिषु संस्थितास्वेषैवावृदध्वर्यविति हवै होतरित्येवाध्वर्युर्धर्म इन्द्रो राजेत्याह तस्य देवा विशस्त इम आसत इति श्रोत्रिया अप्रतिग्राहका उपसमेता भवन्ति तानुपदिशति सामानि वेदः सोऽयमिति साम्नां दशतं ब्रूयादेवमेवाध्वर्युः सम्प्रेष्यति न प्रक्रमान्जुहोतीति
१३.६.२.[९]
स वै पशूनुपाकरिष्यन् एतास्तिस्रः सावित्रीराहुतीर्जुहोति देव सवितस्तत्सवितुर्वरेण्यं विश्वानि देव सवितरिति सवितारं प्रीणाति सोऽस्मै प्रीत एतान्पुरुषान्प्रसौति तेन प्रसूतानालभते
तै.ब्रा.
VERSE: 1 { 1.3.5.1}
सावित्रं जुहोति कर्मणः कर्मणः पुरस्तात् ।
कस् तद् वेद_इत्य् आहुः ।
यद् वाजपेयस्य पूर्वं यद् अपरम् इति ।
सवितृप्रसूत एव यथापूर्वं कर्माणि करोति ।
सवने_सवने जुहोति ।
आक्रमणम् एव तत् सेतुं यजमानः कुरुते ।
VERSE: 1 { 2.3.10.1}
प्रजापतिः सोमम्̐ राजानम् असृजत ।
तं त्रयो वेदा अन्वसृज्यन्त ।
तान् हस्ते ऽकुरुत ।
अथ ह सीता सावित्री ।
सोमम्̐ राजानं चकमे ।
श्रद्धाम् उ स चकमे ।
सा ह पितरं प्रजापतिम् उपससार ।
तम्̐ ह_उवाच ।
नमस् ते अस्तु भगवः ।
उप त्वा_अयानि ।
VERSE: 2 { 2.3.10.2}
प्र त्वा पद्ये ।
सोमं वै राजानं कामये ।
3.3.7.6
जुह्व् एह्य् अग्निस् त्वा ह्वयति देवयज्याया उपभृद् एहि देवस् त्वा सविता ह्वयति देवयज्याया इत्य् आह ।
आग्नेयी वै जुहूः ।
सावित्र्य् उपभृत् ।
VERSE: 3 { 3.8.8.3}
यस्यानायतने ऽन्यत्राग्नेर् आहुतीर् जुहोति ।
सावित्रिया इष्ट्याः पुरस्तात् स्विष्टकृतः ।
VERSE: 1 { 3.8.12.1}
सावित्रम् अष्टाकपालं प्रातर् निर्वपति ।
अष्टाक्षरा गायत्री ।
गायत्रं प्रातःसवनम् ।
प्रातःसवनाद् एवैनं गायत्रियाश् छन्दसो ऽधि निर्मिमीते ।
अथो प्रातःसवनम् एव तेन_आप्नोति ।
गायत्रीं छन्दः ।
सवित्रे प्रसवित्र एकादशकपालं मध्यंदिने ।
एकादशाक्षरा त्रिष्टुप् ।
त्रैष्टुभं माध्यंदिनम्̐ सवनम् ।
माध्यंदिनाद् एवैनम्̐ सवनात् त्रिष्टुभश् छन्दसो ऽधि निर्मिमीते ।
VERSE: 2 { 3.8.12.2}
अथो माध्यंदिनम् एव सवनं तेन_आप्नोति ।
त्रिष्टुभं छन्दः ।
सवित्र आसवित्रे द्वादशकपालम् अपराह्णे ।
द्वादशाक्षरा जगती ।
जागतं तृतीयसवनम् ।
3.9.13.1
यत् संवत्सरम् इष्टिभिर् यजते ।
अश्वम् एव तद् अन्विच्छति ।
सावित्रियो भवन्ति ।
VERSE: 2 { 3.9.13.2}
इयं वै सविता ।
यो वा अस्यां नश्यति यो निलयते ।
अस्यां वाव तं विन्दन्ति ।
न वा इमाम् कश् चन_इत्य् आहुः ।
तिर्यङ् न_ऊर्ध्वो ऽत्येतुम् अर्हतीति ।
यत् सावित्रियो भवन्ति ।
सवितृप्रसूत एव_एनम् इच्छति ।
अनुवाक 1 सावित्रचयनम्
VERSE: 1 { 3.10.1.1}
संज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं जानद् अभिजानत् ।
संकल्पमानं प्रकल्पमानम् उपकल्पमानम् उपक्लृप्तं क्लृप्तम् ।
श्रेयो वसीय आयत् सम्भूतं भूतम् ।
चित्रः केतुः प्रभान् आभान्त् संभान् ।
ज्योतिष्माम्̐स् तेजस्वान् आतपम्̐स् तपन्न् अभितपन् ।
रोचनो रोचमानः शोभनः शोभमानः कल्याणः ।
दर्शा दृष्टा दर्शता विश्वरूपा सुदर्शना ।
आप्यायमाना प्यायमाना प्याया सूनृतेरा ।
आपूर्यमाणा पूर्यमाणा पूरयन्ती पूर्णा पौर्णमासी ।
दाता प्रदाता_आनन्दो मोदः प्रमोदः ।
अनुवाक 2 सावित्रचयनम्
VERSE: 1 { 3.10.2.1}
भूर् अग्निं च पृथिवीं च मां च ।
त्रीम्̐श् च लोकान्त् संवत्सरं च ।
प्रजापतिस् त्वा सादयतु ।
तया देवतया_अङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद ।
भुवो वायुं चान्तरिक्षं च मां च ।
त्रीम्̐श्च लोकान्त् संवत्सरं च ।
प्रजापतिस् त्वा सादयतु ।
तया देवतया_अङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद ।
स्वर् आदित्यं च दिवं च मां च ।
त्रीम्̐श् च लोकान्त् संवत्सरं च ।
प्रजापतिस् त्वा सादयतु ।
तया देवतया_अङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद ।
भूर् भुवः स्वश् चन्द्रमसं च दिशश् च मां च ।
त्रीम्̐श् च लोकान्त् संवत्सरं च ।
प्रजापतिस् त्वा सादयतु ।
तया देवतया_अङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद ।
अनुवाक 3 सावित्रचयनम्
VERSE: 1 { 3.10.3.1}
त्वम् एव त्वां वेत्थ यो ऽसि सो ऽसि ।
त्वम् एव त्वाम् अचैषीः ।
चितश् चासि संचितश् चास्य् अग्ने ।
एतावाम्̐श् चासि भूयाम्̐श् चास्य् अग्ने ।
यत् ते अग्ने न्यूनं यद् उ ते ऽतिरिक्तम् ।
आदित्यास् तद् अङ्गिरसश् चिन्वन्तु ।
विश्वे ते देवाश् चितिम् आपूरयन्तु ।
चितश् चासि संचितश् चास्य् अग्ने ।
एतावाम्̐श् चासि भूयाम्̐श् चास्य् अग्ने ।
मा ते अग्ने ऽचयेन मा_अतिचयेन_आयुर् आवृक्षि ।
सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिर् यद् अदाव् उदेति ।
तपसो जातम् अनिभृष्टम् ओजः ।
तत् ते ज्योतिर् इष्टके ।
तेन मे तप ।
तेन मे ज्वल ।
तेन मे दीदिहि ।
यावद् देवाः ।
यावद् असाति सूर्यः ।
यावद् उतापि ब्रह्म ।
अनुवाक 4 सावित्रचयनम्
VERSE: 1 { 3.10.4.1}
संवत्सरो ऽसि परिवत्सरो ऽसि ।
इदावत्सरो ऽसीदुवत्सरो ऽसि ।
इद्वत्सरो ऽसि वत्सरो ऽसि ।
तस्य ते वसन्तः सिरः ।
ग्रीष्मो दक्षिणः पक्षः ।
वर्षाः पुच्छम् ।
शरद् उत्तरः पक्षः ।
हेमन्तो मध्यम् ।
पूर्वपक्षाश् चितयः ।
अपरपक्षाः पुरीषम् ।
अनुवाक 5 सावित्रचयनम्
VERSE: 1 { 3.10.5.1}
भूर् भुवः स्वः ।
ओजो बलम् ।
ब्रह्म क्षत्रम् ।
यशो महत् ।
सत्यं तपो नाम ।
रूपम् अमृतम् ।
चक्षुः स्रोत्रम् ।
मन आयुः ।
विश्वं यशो महः ।
समं तपो हरो भाः ।
जातवेदा यदि वा पावको ऽसि ।
वैश्वानरो यदि वा वैद्युतो ऽसि ।
शं प्रजाभ्यो यजमानाय लोकम् ।
ऊर्जं पुष्टिं ददद् अभ्याववृत्स्व {आनंदा. अभ्यावभृत्स्व) ।
अनुवाक 6 सावित्रचयनम्
VERSE: 1 { 3.10.6.1}
राज्ञी विराज्ञी ।
सम्राज्ञी स्वराज्ञी ।
अर्चिः शोचिः ।
तपो हरो भाः ।
अग्निर् इन्द्रो बृहस्पतिः ।
विश्वे देवा भुवनस्य गोपाः ।
ते मा सर्वे यशसा सम्̐सृजन्तु ।
अनुवाक 7 सावित्रचयनम्
VERSE: 1 { 3.10.7.1}
असवे स्वाहा ।
वसवे स्वाहा ।
विभुवे स्वाहा ।
विवस्वते स्वाहा ।
अभिभुवे स्वाहा_अधिपतये स्वाहा ।
दिवां पतये स्वाहा_अम्̐हस्पत्याय स्वाहा ।
चाक्षुष्मत्याय स्वाहा ज्योतिष्मत्याय स्वाहा ।
राज्ञे स्वाहा विराज्ञे स्वाहा ।
संराज्ञे स्वाहा ।
स्वराज्ञे स्वाहा ।
शूषाय स्वाहा सूर्याय स्वाहा ।
चन्द्रमसे स्वाहा ज्योतिषे स्वाहा ।
सम्̐सर्पाय स्वाहा ।
कल्याणाय स्वाहा ।
अर्जुनाय स्वाहा ।
अनुवाक 8 सावित्रचयनम्
VERSE: 1 { 3.10.8.1}
विपश्चिते पवमानाय गायत ।
मही न धारा_अत्य् अन्धो अर्षति ।
अहिर् ह जीर्णाम् अतिसर्पति त्वचम् ।
अत्यो न क्रीडन्न् असरद् वृषा हरिः ।
उपयामगृहीतो ऽसि मृत्यवे त्वा जुष्टं गृह्णामि ।
एष ते योनिर् मृत्यवे त्वा ।
अप मृत्युम् अप क्षुधम् ।
अप_इतः शपथं जहि ।
अधा { अथा} नो अग्न आवह ।
रायस्पोषम्̐ सहस्रिणम् ।
अनुवाक 8 सावित्रचयनम्
VERSE: 1 { 3.10.8.1}
विपश्चिते पवमानाय गायत ।
मही न धारा_अत्य् अन्धो अर्षति ।
अहिर् ह जीर्णाम् अतिसर्पति त्वचम् ।
अत्यो न क्रीडन्न् असरद् वृषा हरिः ।
उपयामगृहीतो ऽसि मृत्यवे त्वा जुष्टं गृह्णामि ।
VERSE: 3 { 3.10.9.3}
वृश्चतश् च ।
अत्यम्̐हो ह_आरुणिः ।
ब्रह्मचारिणे प्रश्नान् प्रोच्य प्रजिघाय ।
परेहि ।
प्लक्षं दैयाम्पातिं पृच्छ ।
वेत्थ सावित्रा3न् न वेत्था3 इति ।
तम् आगत्य पप्रच्छ ।
आचार्यो मा प्रा हैषीत् ।
वेत्थ सावित्रा3न् न वेत्था3 इति ।
स ह_उवाच वेद_इति ।
VERSE: 4 { 3.10.9.4}
स कस्मिन् प्रतिष्ठित इति ।
परोरजसीति ।
कस् तद् यत् परोरजा इति ।
एष वाव स परोरजा इति ह_उवाच ।
य एष तपति ।
एषो ऽर्वाग्रजा इति ।
स कस्मिन् त्व् एष इति ।
सत्य इति ।
किं तत् सत्यम् इति ।
तप इति ।
VERSE: 5 { 3.10.9.5}
कस्मिन् नु तप इति ।
बल इति ।
किं तद् बलम् इति ।
प्राण इति ।
मा स्म प्राणम् अतिपृच्छ इति मा_आचार्यो ऽब्रवीद् इति ह_उवाच ब्रह्मचारी ।
स ह_उवाच प्लक्षो दैयाम्पातिः ।
यद् वै ब्रह्मचारिन् प्राणम् अत्यप्रक्ष्यः ।
मूर्धा ते व्यपतिष्यत् ।
अहम् उ त आचार्यात्_श्रेयान् भविष्यामि ।
यो मा सावित्रे समवादिष्ट_इति ।
VERSE: 6 { 3.10.9.6}
तस्मात् सावित्रे न संवदेत ।
स यो ह वै सावित्रं विदुषा सावित्रे संवदते ।
सहास्मिन्_श्रियं दधाति ।
अहीना ह_आश्वत्थ्यः ।
सावित्रं विदांचकार ।
VERSE: 11 { 3.10.9.11}
स ह हम्̐सो हिरण्मयो भूत्वा ।
स्वर्गं लोकम् इयाय ।
आदित्यस्य सायुज्यम् ।
हम्̐सो ह वै हिरण्मयो भूत्वा ।
स्वर्गं लोकम् एति ।
आदित्यस्य सायुज्यम् ।
य एवं वेद ।
देवभागो ह श्रौतर्षः ।
सावित्रं विदांचकार ।
तम्̐ ह वाग् अदृश्यमानाऽभ्युवाच ।
VERSE: 12 { 3.10.9.12}
सर्वं बत गौतमो वेद ।
यः सावित्रं वेद_इति ।
स ह_उवाच ।
का_एषा वाग् असीति ।
अयम् अहम्̐ सावित्रः ।
VERSE: 14 { 3.10.9.14}
एतद् वै सावित्रस्याष्टाक्षरं पदम्̐ श्रिया_अभिषिक्तम् ।
य एवं वेद ।
श्रिया हैवा_अभिषिच्यते ।
तद् एतद् ऋचा_अभ्युक्तम् ।
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् ।
यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः ।
यस् तन् न वेद किम् ऋचा करिष्यति ।
य इत् तद् विदुस् त इमे समासत इति ।
न ह वा एतस्य_ऋचा न यजुषा न साम्ना_अर्थो ऽस्ति ।
यः सावित्रं वेद ।
VERSE: 15 { 3.10.9.15}
तद् एतत् परि यद् देवचक्रम् ।
आर्द्रं पिन्वमानम्̐ स्वर्गे लोक एति ।
विजहद् विश्वा भूतानि संपश्यत् ।
आर्द्रो ह वै पिन्वमानः स्वर्गे लोक एति ।
विजहन् विश्वा भूतानि संपश्यन् ।
य एवं वेद ।
शूषो ह वै वार्ष्णेयः ।
आदित्येन समाजगाम ।
तम्̐ ह_उवाच ।
एहि सावित्रं विद्धि ।
अयं वै स्वर्ग्यो ऽग्निः पारयिष्णुर् अमृतात् संभूत इति ।
एष वाव स सावित्रः ।
य एष तपति ।
एहि मां विद्धि ।
इति हैवैनं तद् उवाच ।
अनुवाक 10 सावित्रचयनम्
VERSE: 1 { 3.10.10.1}
इयं वाव सरघा ।
तस्या अग्निर् एव सारघं मधु ।
या एताः पूर्वपक्षापरपक्षयो रात्रयः ।
ता मधुकृतः ।
यान्य् अहानि ।
ते मधुवृषाः ।
स यो ह वा एता मधुकृतश् च मधुवृषाम्̐श् च वेद ।
क्रुवन्ति हास्यैता अग्नौ मधु ।
नास्य_इष्टापूर्तं धयन्ति ।
अथ यो न वेद ।
अनुवाक 11 सावित्रचयनम्
VERSE: 1 { 3.10.11.1}
कश् चिद् ध वा अस्माल् लोकात् प्रेत्य ।
आत्मानं वेद ।
आयम् अहम् अस्मीति ।
कश् चित् स्वं लोकं न प्रतिप्रजानाति ।
अग्निमुग्धो हैव धुमतान्तः ।
स्वं लोकं न प्रतिप्रजानाति ।
अथ यो हैवैतम् अग्निम्̐ सावित्रं वेद ।
स एवास्माल् लोकात् प्रेत्य ।
आत्मानं वेद ।
अयम् अहम् अस्मीति ।
VERSE: 2 { 3.10.11.2}
स स्वं लोकं प्रतिप्रजानाति ।
एष उ चैवैनं { उवेवैनं} तत् सावित्रः ।
स्वर्गं लोकम् अभिवहति ।
किम् एनेन कुर्या इति ।
ब्रह्मचर्यम् एव_एनेन चरेयम् इति ह_उवाच ।
VERSE: 4 { 3.10.11.4}
तम्̐ ह त्रीन् गिरिरूपान् अविज्ञातान् इव दर्शयां चकार ।
तेषाम्̐ ह_एकैकस्मान् मुष्टिन् आददे ।
स ह_उवाच ।
भरद्वाज_इत्य् आमन्त्र्य ।
वेदा वा एते ।
अनन्ता वै वेदाः ।
एतद् वा एतैस् त्रिभिर् आयुर्भिर् अन्ववोचथाः ।
अथ त इतरद् अननूक्तम् एव ।
एहीमं विद्धि ।
अयं वै सर्वविद्या_इति ।
VERSE: 5 { 3.10.11.5}
तस्मै हैतम् अग्निम्̐ सावित्रम् उवाच ।
तम्̐ स विदित्वा ।
अमृतो भूत्वा ।
स्वर्गं लोकम् इयाय ।
आदित्यस्य सायुज्यम् ।
3.10.11.7
स वा एषो ऽग्निर् अपक्षपुच्छो वायुर् एव ।
तस्याग्निर् मुखम् ।
असाव् आदित्यः सिरः ।
स यद् एते देवते अन्तरेण ।
तत् सर्वम्̐ सीव्यति ।
तस्मात् सावित्रः ।
अथ सावित्रीप्रसवाः। यद् इह विषुरूपम् इमा नानारूपाः प्रतिपद् उपागाम तन् नस् सवितृप्रसूतम् असद् इति। अथाग्निपावमान्यः। पथम् इव वा एते यन्ति ये पावमानीभिः प्रतिपद्यन्त इति। अग्निर् वै पथिकृद् देवतानाम्। - जै.ब्रा. 2.186
अथ ब्राह्मणस्पत्या, ब्रह्मण्य क्षत्रं सूयाता इति। अथ सावित्री, सवितृप्रसूत सूयाता इति। अथैते उभे प्रतिपदौ भवतः। - 2.198
सविता यन्त्रैः पृथिवीम् अरम्णाद् इति सावित्रं वैश्वदेवे होतारम् अनुशंस्तवै ब्रूयात्। - जै.ब्रा. 2.349
सावित्रं पूर्वेद्युः पशुम् आलभन्ते। सविता वै देवानां प्रसविता। सवितृप्रसूता एवैतत् संवत्सरम् आरभन्ते। - 2.371
असावि सोम इन्द्र त इत्य् असावीति सिमानां रूपम्॥3.133॥
असावि सोमो अरुषो वृषा हरिर् इति वृषण्वतीर् भवन्ति बृहतो रूपम्। बार्हतम् एतद् अहः। - 3.259
अग्नये मथ्यमानायानुब्रूहीत्याहाध्वर्युरभि त्वा देवा सवितरिति सावित्रीमन्वाह तदाहुर्यदग्नये मथ्यमानायानु वाचाहाथ कस्मात्सावित्रीमन्वाहेति सविता वै प्रसवानामीशे सवितृप्रसूता एवैनं तन्मन्थन्ति तस्मात्सावित्रीमन्वाह मही द्यौः – ऐ.ब्रा. 1.16
अभि त्यं देवं सवितारमोण्योरिति सावित्री प्राणो वै सविता प्राणमेवास्मिंस्तद्दधाति। 1.19
प्रजापतिर्वै सोमाय राज्ञे दुहितरं प्रायच्छत्सूर्यां सावित्रीं तस्यै सर्वे देवा वरा आगच्छंस्तस्या एतत्सहस्रं वहतुमन्वाकरोद्यदेतदाश्विनमित्याचक्षतेऽनाश्विनं हैव तद्यदर्वाक्सहस्रं तस्मात्तत्सहस्रं वैव शंसेद्भूयो वा। प्राश्य घृतं शंसेद्यथा ह वा इदमनो वा रथो वाऽक्तो वर्तत एवं हैवाक्तो वर्तते। शकुनिरिवोत्पतिष्यन्नाह्वयीत। तस्मिन्देवा न समजानत ममेदमस्तु ममेदमस्त्विति ते संजानाना अब्रुन्नाजिमस्याऽऽयामहै स यो न उज्जेष्यति तस्येदं भविष्यतीति ते ऽग्नेरेवाधि गृहपतेरादित्यं काष्ठामकुर्वत तस्मादाग्नेयी प्रतिपद्भवत्याश्विनस्याग्निहोता गृहपतिः स राजेति। तद्धैक आहुरग्निं मन्ये – ऐ.ब्रा. 4.7
तत्सवितुर्वृणीमहेऽद्या नो देव सवितरिति वैश्वदेवस्य प्रतिपदनुचरौ राथंतरेऽहनि प्रथमेऽहनि प्रथमस्याह्नो रूपं युञ्जते मन उत युञ्जते धिय इति सावित्रं युक्तवत्प्रथमेऽहनि प्रथमस्याह्नो रूपम्प्र द्यावा यज्ञैः पृथिवी – ऐ.ब्रा. 4.30
उदु ष्य देवः सविता हिरण्ययेति सावित्रमूर्ध्ववद्द्वितीयेऽहनि द्वितीयस्याह्नो रूपम्। - 4.32
आ देवो यातु सविता सुरत्न इति सावित्रमेति चतुर्थेऽहनि चतुर्थस्याह्नो रूपम्प्र – 5.5
उदु ष्य देवः सविता दमूना इति सावित्रमा दाशुषे सुवति भूरि वाममिति वाम-म्पशुरूपम्पञ्चमेऽहनि पञ्चमस्याह्नो रूपम्मही द्यावापृथिवी इह ज्ये – 5.8
उदु ष्य देवः सविता सवायेति सावित्रं शश्वत्तमं तदपा वह्निरस्थादित्यन्तो वै स्थितमन्तः षष्ठमहः- 5.13
तत्सवितुर्वृणीमहेऽद्या नो देव सवितरिति वैश्वदेवस्य प्रतिपदनुचरौ राथंतरेऽहनि सप्तमेऽहनि सप्तमस्याह्नो रूपमभि त्वा देव सवितरिति सावित्रं यद्वाव – 5.17
हिरण्यपाणिमूतय इति सावित्रमूर्ध्ववदष्टमेऽहन्यष्टमस्याह्नो रूपम्मही द्यौः पृथिवी च न इति द्यावापृथिवीयम्महद्वदष्टमेऽहनि – 5.19
तत्सवितुर्वृणीमहेऽद्या नो देव सवितरिति वैश्वदेवस्य प्रतिपदनुचरौ राथंतरेऽहनि नवमेऽहनि नवमस्याह्नो रूपं दोषो आगादिति सावित्रं अन्तो वै गतमन्तो नवममहर्नवमेऽहनि नवमस्याह्नो रूपम्प्र – 5.21
द्यावापृथिवीयमुद्वासितं सावित्रम्प्रक्रान्तं वैष्णवं ह्रियमाणम्बा – 5.26
अथ प्राङेत्य ध्रुवामाप्याययत्याप्यायतां ध्रुवा घृतेन यज्ञंयज्ञं प्रति देवयद्भ्यः । सूर्याया ऊधोऽदित्या उपस्थ उरुधारा पृथिवी यज्ञे अस्मिन्नित्यथाज्यस्थाल्याः स्रुवेणोपघातं प्रायश्चित्तानि जुहोत्या – बौ.श्रौ.सू. 1.21.
ध्रुवामाप्याय्यमानामनुमन्त्रयत आप्यायतां ध्रुवा घृतेन यज्ञंयज्ञं प्रति देवयद्भ्यः । सूर्याया ऊधोऽदित्या उपस्थ उरुधारा पृथिवी यज्ञे अस्मिन्नित्यथ यजमानभागं प्राश्नाति – बौ.श्रौ.सू. 3.20