सुग्रीव

सुग्रीव-बालि कथा के माध्यम से ज्ञान के जागरण एवं अज्ञान के विनाश का चित्रण

- राधा गुप्ता

किष्किन्धा काण्ड के 22 अध्याय सुग्रीव-बालि की कथा से सम्बन्धित हैं।

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

सीता की खोज करते हुए राम और लक्ष्मण को जब दिव्य रूप धारी कबन्ध ने सुग्रीव से मैत्री का परामर्श दिया, तब पम्पा के मार्ग को पार करके वे दोनों भाई राम और लक्ष्मण ऋष्यमूक पर्वत पर विराजमान सुग्रीव के निकट पहुँचे और विचारों का आदान-प्रदान करते हुए उन्होंने परस्पर मैत्री को स्थापित किया। राम ने सूर्य-पुत्र सुग्रीव के समक्ष इन्द्र-पुत्र वालि के वध की प्रतिज्ञा की और सुग्रीव ने भी राम को सीता की प्राप्ति कराने का वचन दिया।

बालि के साथ वैर होने का कारण पूछने पर सुग्रीव ने बताया कि ऋक्षराज के क्षेत्रज पुत्र हम दोनों भाई जब किष्किन्धा पुरी में रह रहे थे, तब एक दिन रात के समय मय दानव का मायावी पुत्र किष्किन्धा पुरी में आया और बालि को युद्ध के लिए ललकारने लगा। मेरे रोकने पर भी जब बालि नहीं रुका और मायावी से युद्ध करने के लिए बाहर निकला, तब मैं भी उसके पीछे-पीछे गया। मुझे देखकर मायावी भागने लगा और भागते-भागतेएक गुफा में घुस गया। बालि ने मुझे गुफा के द्वार पर ही खडे रहने का आदेश दिया और स्वयं मायावी के पीछे-पीछे उस गुफा में घुस गया। एक वर्ष तक मैं गुफा के द्वार पर खडा हुआ बालि के आने की प्रतीक्षा करता रहा परन्तु बालि नहीं आया। उसी समय गुफा के भीतर से फेन सहित खून की धारा बाहर निकली, अतः मैं यह सोचकर कि मेरा भाई उस मायावी दानव द्वारा मार डाला गया, गुफा के द्वार पर एक बडी शिला रखकर वापस किष्किन्धापुरी में लौट आया। मेरे मना करने पर भी सिंहासन के खाली रहने से मन्त्रियों ने मुझे राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। कुछ ही समय बाद बालि वापस आया और क्रोधपूर्वक डाँटते हुए उसने मुझे किष्किन्धा से निकाल दिया। मैं शरण के लिए इधर-उधर भागता रहा परन्तु अन्त में बालि से पूर्णतः सुरक्षित इस मत्तंग वन में स्थित ऋष्यमूक पर्वत पर आकर रहने लगा। मेरी पत्नी रुमा को भी बालि ने मुझसे छीन लिया।

बालि के पराक्रम का वर्णन करते हुए सुग्रीव ने पुनः कहा कि मय का पुत्र दुन्दुभि नाम का दानव युद्ध का बडा प्रेमी था। उसने पहले समुद्र को तथा फिर हिमालय पर्वत को युद्ध के लिए ललकारा परन्तु जब दोनों ही युद्ध के लिए तैयार नहीं हुए, तब उसने बालि को युद्ध के लिए ललाकारा। बालि ने द्वन्द्व युद्ध करते हुए उस पर्वताकार दुन्दुभि को धरती पर पटककर दे मारा और उसकी लाश को एक योजन दूर फेंक दिया। लाश को फेंकने से उससे निकले खून के छींटे मत्तंग मुनि के आश्रम में गिरे जिससे मत्तंग मुनि क्रोधित हो गए। उन्होंने बालि तथा ुसके सचिवों को भी मत्तंग वन में कभी भी प्रविष्ट न होने का शाप दे दिया। उसी शाप के कारण बालि इस मत्तंग वन में कभी नहीं आता और इसीलिए में यहाँ सुखपूर्वक विचरण करता हूँ।

सुग्रीव ने राम को सात साल वृक्षों को दिखाते हुए पुनः कहा कि बालि में इन सात साल के वृक्षों को एक-एक करके बींधने की सामर्थ्य है। अतः जो इन साल के वृक्षों को बींध देगा, वही बालि का वध करने में समर्थ हो सकेगा।

बालि के बल-पराक्रम से भयभीत हुए सुग्रीव को सान्त्वना देते हुए राम ने अपने बल का विश्वास दिलाने के लिए पहले तो पास में ही पडे हुए दुन्दुभि दानव के शरीर की अस्थियों के ढेर को पैर के अंगूठे से दस योजन दूर फेंक दिया और फिर अपने एक ही बाण से साल के सातों वृक्षों को एक साथ ही बींध दिया।

बालि का वध करने के लिए राम ने सुग्रीव को ही बालि से युद्ध करने के लिए भेजा और स्वयं वृक्ष की आड में खडे हो गए। सुग्रीव और बालि का परस्पर युद्ध शुरु हुआ परन्तु दोनों भाईयों के रूप की समानता देखकर राम बालि के ऊपर बाण नहीं चला सके। अतः बालि के बाणों से घायल होकर सुग्रीव जब वापस लौट आए, तब बाण न चलाने के कारण को व्यक्त करते हुए राम ने सुग्रीव के गले में पहचान के लिए गजपुष्पी लता के फूलों की माला डाल दी और सुग्रीव को पुनः बालि से युद्ध के लिए भेजा। सुग्रीव की पुनः ललकार को बलि सहन न कर सका और तारा के समझाने तथा सुग्रीव से मैत्री के परामर्श को न मानकर वह युद्ध में सुग्रीव से जूझने लगा। बालि और सुग्रीव के परस्पर युद्ध में बालि के वध की इच्छा से राम ने अपना तेजस्वी बाण चलाकर बालि को धराशायी कर दिया।

प्राणत्याग से पूर्व बालि ने राम के ऊपर अधर्माचरण का आरोप लगाया परन्तु राम ने बालि को रुमा से समागम रूप अपराध का दोषी बताते हुए तथा राजर्षि द्वारा की गई मृगया को आवश्यक बताकर बालि को दण्ड का औचित्य समझाया। बालि ने अपने अपराध के लिए क्षमा माँगते हुए प्राणों को त्याग दिया।

कथा की प्रतीकात्मकता

कथा के एक-एक प्रतीक को समझकर ही कथा को समझना सरल होगा।

(1) – सुग्रीव शब्द सु उपसर्ग के साथ ज्ञान अर्थ वाली गॄ धातु के योग से बना है। अतः सुग्रीव का अर्थ है – श्रेष्ठ अथवा सद् ज्ञान।

(2) बालि शब्द वाल से बना प्रतीत होता है, जिसका अर्थ है – बाल अवस्था, अबोध अवस्था, बिखरी हुई ऊर्जा अथवा अज्ञान।

(3) सुग्रीव को सूर्य का औरस पुत्र कहा गया है। पौराणिक साहित्य में सूर्य आत्मा का और पुत्र गुण का प्रतीक है। अतः सुग्रीव को सूर्य का औरस पुत्र कहकर यह संकेत किया गया है कि श्रेष्ठ ज्ञान आत्मा का ही गुण है।

(4) – बालि को इन्द्र का औरस पुत्र कहा गया है। इन्द्र का अर्थ है – इन्द्रियों का स्वामी मन। अतः बालि को इन्द्र का औरस पुत्र कहकर यह संकेत किया गया है कि अज्ञान अथवा अबोधता इन्द्रियों के स्वामी मन का गुण है।

(5) सुग्रीव और बालि दोनों को ऋक्षराज का क्षेत्रज पुत्र भी कहा गया है। ऋक्ष का अर्थ है – नक्षत्र और नक्षत्रों का राजा है – चन्द्रमा। चन्द्रमा सर्वत्र मन का प्रतीक है। अतः सुग्रीव और बालि को ऋक्षराज का क्षेत्रज पुत्र कहकर यह इंगित किया गया है कि ज्ञान और अज्ञान दोनों ही मन के क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं।

(6) चूंकि ज्ञान और अज्ञान (सुग्रीव और बालि) दोनों ही मन के क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं, इसीलिए कथा में इन दोनों को भाई-भाई कहा गया है।

(7) मय दानव अहंकार (मैं मैं) का प्रतीक है, अतः मय दानव से उत्पन्न हुआ मायावी अहंकार से उत्पन्न हुए भ्रमात्मक (भ्रमपूर्ण) विचार अर्थात् विचारों के मायाजाल को इंगित करता है। विचारों का यह मायाजाल अर्थात् भ्रमपूर्ण विचार अनेक प्रकार के होते हैं। उदाहरण के लिए, मनुष्य क्रोध करता जाता है क्योंकि वह सोचता है कि क्रोध करना कोई असामान्य बात नहीं और क्रोध से ही काम होता है। वह दूसरों का दमन करता है क्योंकि सोचता है कि छूट देने से लोग सिर पर चढेंगे। मनुष्य दूसरों से स्पर्धा और प्रतियोगिता में स्वयं को झोंकता है क्योंकि वह सोचता है कि सफलता के लिए यह आवश्यक है। चिन्ता को वह दूसरों का ध्यान रखना अथवा देखभाल समझता है और बदले की भावना को बहादुरी। अपनों के अधिकार भाव को वह जिम्मेदारी समझता है और आसक्ति को प्रेम। तनाव और दबाव को जीवन में आवश्यक समझकर उसे एक गुण मान लेता है और क्षमा करने को कमजोरी।

(8) गुफा मन की गहराई(चित्त) को इंगित करती है।

(9) एक वर्ष तक गुफा के भीतर बालि और मायावी का युद्ध इस तथ्य का संकेत है कि मन की अज्ञान वृत्ति(बालि) बहुत लम्बे समय तक विचारों के मायाजाल में उलझी रहती है, उससे निवृत्त नहीं हो पाती।

(10) गुफा के भीतर से रक्त की धारा का बाहर निकलना इस बात का संकेत है कि बहुत समय तक मन की गहराई में पडे रहने वाले भ्रमात्मक विचार अब रक्त में अर्थात् व्यक्तित्व में आत्मसात् होकर जीवन के बाह्य धरातल पर प्रकट होने लगे हैं।

(11) सुग्रीव का गुफा के द्वार पर एक बडी शिला रखकर किष्किन्धा में लौट जाना इस बात का प्रतीक है कि ज्ञान(सुग्रीव) भी जडता को अपनाकर समस्याओं का समाधान नहीं करता।

(12) ऋष्यमूक (ऋषि+मूक) पर्वत ऋषियों अर्थात् श्रेष्ठ विचारों के मूक अथवा शान्त होकर स्थित हो जाने को इंगित करता है।

(13) सुग्रीव का ऋष्यमूक पर्वत पर निवास करना यह संकेतित करता है कि अज्ञान (बालि) के प्रबल हो जाने पर ज्ञान (सुग्रीव) भी शान्त हो जाता है।

(14) बालि और सुग्रीव को वानर कहा गया है। वानर शब्द वा अव्यय के साथ नर शब्द के योग से निर्मित हुआ है। वा एक विकल्पबोधक अव्यय है और नर शब्द विज्ञानमय तथा मनोमय कोश की चेतना अर्थात् सात्विक मनश्चेतना का वाचक है। शास्त्रों के आधार पर मनुष्य के आनन्दमय तथा हिरण्मय कोशों में जो चेतना काम कर रही है – वह नार कहलाती है, जिससे नारायण शब्द निर्मित हुआ है। वही नार चेतना जब विज्ञानमय तथा मनोमय कोशों में अवतरित होती है – तब नर कही जाती है। नर चेतना यद्यपि सात्त्विक चेतना है, परन्तु इस नर चेतना में यह सामर्थ्य भी है कि यह अपने से निम्नतर कोश – अन्नमय कोश से भी जुड सकती है और उच्चतर कोशों – हिरण्मयादि से भी जुड सकती है। वानर अर्थात् नर शब्द में वा अव्यय को जोडकर नर चेतना की इसी सामर्थ्य को इंगित किया गया है। निम्नतर कोश – अन्नमय कोश से जुडने पर अज्ञान की ओर उन्मुख होने के कारण बालि को भी वानर कहा गया है तथा उच्चतर कोशों से जुडने पर ज्ञान की ओर उन्मुख रहने के कारण सुग्रीव को भी वानर कहा गया है। अत्यन्त सरल शब्दों में वानर को मन का व्यापार अथवा वृत्ति कहा जा सकता है।

(15) दुन्दुभि शब्द ध्वनि करने वाले एक विशेष वाद्य का वाचक है। अज्ञानी मनुष्य का यह स्वभाव बन जाता है कि व्यवहार क्षेत्र में रहते हुए वह हर बात को अथवा किसी की कही हुई किसी भी बात को अपने चित्त या मन पर रख लेता है, उन्हें जाने नहीं देता। वे बातें दुन्दुभि वाद्य की तरह हर समय उसके मन के भीतर बजती रहती हैं और मन को शान्त एवं स्थिर नहीं रहने देती। मन के भीतर दुन्दुभि वाद्य की तरह बजने के कारण उन बातों के बजने को ही दुन्दुभि दानव कहा गया है। यह मय दानव का पुत्र है अर्थात् अहंकार की स्थिति में ही मनुष्य के भीतर उपर्युक्त वर्णित दुन्दुभि स्थिति का जन्म होता है।

(16) मत्तंग (मत्तं गच्छति इति) वन प्रसन्न मन के क्षेत्र को इंगित करता है।

(17) बालि द्वारा दुन्दुभि की लाश को मत्तंग वन में फेंकने का अर्थ है – अज्ञानी द्वारा बहुत पुरानी बातों को भी लाश की भांति ढोते रहकर अपने ही मन की प्रसन्नता को कम करना अर्थात् जो बातें बहुत पुरानी हो चुकी हैं, यहां तक कि उन बातों को कहने वाले लोग भी अब जीवित नहीं हैं – उन बातों को चित्त या मन पर रखने का अब कोई लाभ भी नहीं है, परन्तु अज्ञानी मनुष्य उन पुरानी बातों को लाश की भाँति ढोता रहता है और अपने ही मन की प्रसन्नता को गँवाता है।

(18) राम के द्वारा पैर के अंगूठे से दुन्दुभि की अस्थियों को दस योजन दूर फेंक देने का अर्थ है – आत्मस्वरूप में स्थित अर्थात् आत्मज्ञानी मनुष्य (राम) द्वारा अहंकार के कारण उपजी हुई किसी भी बात को अत्यन्त सहज रूप से दूर फेंक देना। अस्थि शब्द अस्ति (अस्तित्व) को इंगित करता है। अतः यहां यह संकेत किया गया है कि आत्म स्वरूप में स्थित मनुष्य अहंकार से उत्पन्न हुई किसी भी बात के अस्तित्व तक को अपने चित्त या मन पर नहीं रखता, दूर फेंक देता है।

(19) कथा में कहा गया है कि राम ने सात साल के वृक्षों को एक ही बाण से बींध दिया। सात साल वृक्ष मनुष्य की पाँच ज्ञानेन्द्रियों – आँख, नाक, कान, मुख तथा मन-बुद्धि को संकेतित करते हैं। साल शब्द का अर्थ है – भित्ति या दीवार। आत्मस्वरूप को पहचानने में उपर्युक्त वर्णित पांचों ज्ञानेन्द्रियों तथा मन-बुद्धि ही दीवार की भाँति बाधक बन जाते हैं और अज्ञान में स्थित मनुष्य अर्थात् बालि इन सातों बाधक तत्त्वों में से एक बार में केवल एक बाधा को हटाने में समर्थ हो पाता है परन्तु आत्मस्वरूप में अवस्थित मनुष्य शरीर के उपकरण स्वरूप हो जाने से इन सभी सातों बाधक तत्त्वों को एक ही संकल्प रूपी बाण से बींधता अर्थात् रूपान्तरित कर लेता है। तब ये सातों बाधक न रहकर साधक बन जाते हैं।

(20) तारा शब्द तार में टाप् प्रत्यय के योग से बना है, जिसका अर्थ है – ऊँचा स्वर। तारा बालि की पत्नी है। पौराणिक साहित्य में पत्नी सदैव शक्ति को इंगित करती है। अतः बालि की पत्नी तारा के माध्यम से यह संकेत किया गया है कि अज्ञान की शक्ति है – जीव-जगत के सम्बन्ध में प्रश्न रखना, समस्या रखना ताकि समाधान प्राप्त करके एक न एक दिन अज्ञान से बाहर निकला जा सके।

(21) रुमा शब्द रु में मा के योग से बना है। रु का अर्थ है – शब्द या ध्वनि(बोलचाल की भाषा में रुक्का) और मा का अर्थ है – नहीं। अतः रुमा शब्द निःशब्दता को इंगित करता है। रुमा सुग्रीव की पत्नी अर्थात् शक्ति है। अतः सुग्रीव की पत्नी रुमा से यह संकेत किया गया है कि ज्ञान की शक्ति है – निःशब्द होना क्योंकि ज्ञान की स्थिति में कोई प्रश्न नहीं रहता। सभी प्रश्न अज्ञान की स्थिति में हैं।

(22) किष्किन्धा शब्द किं किं के साथ धा (दधाति) धातु के योग से बना है, जिसका अर्थ है – बहुत कुछ धारण करने वाला अर्थात् मन। चूंकि यह मन अपने भीतर ज्ञान तथा अज्ञान (सुग्रीव तथा बालि) रूप दोनों वृत्तियों को धारण करता है, अतः किष्किन्धा कहलाता है।

(23) राम के द्वारा बालि का विनाश इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को संकेतित करता है कि ज्ञान (सुग्रीव) और अज्ञान (बालि) दोनों ही मन के तल पर विद्यमान हैं। अतः मन के तल पर विद्यमान प्रबल अज्ञान को उसी तल पर विद्यमान ज्ञान से विनष्ट नहीं किया जा सकता। मन से ऊपर उठकर अर्थात् आत्मस्थ होकर (राम होकर) अथवा कहें मन का स्वामी बनकर ही प्रबल अज्ञान का विनाश किया जा सकता है।

(24) कथा में कहा गया है कि बालि और सुग्रीव जब द्वन्द्व युद्ध कर रहे थे, तब दोनों के रूप-रंग की समानता के कारण राम सुग्रीव को पहचान न सके, अतः बालि पर बाण नहीं चला सके। परन्तु बाद में पास ही उगी हुई गजपुष्पी लता को सुग्रीव के गले में पहनाकर उसे बालि के साथ युद्ध हेतु भेजा गया, तब राम ने सुग्रीव को पहचानकर एक ही बाण से बालि का वध कर दिया। गज शब्द पौराणिक साहित्य में सूक्ष्म अथवा विवेकी बुद्धि को इंगित करता है। पुष्पी का अर्थ है – पुष्पित अर्थात् फैली हुई। आचरण में फैली हुई (पुष्पित) विवेकी बुद्धि को ही गजपुष्पी लता कहा जा सकता है। तात्पर्य यह है कि आचरण में लाए बिना ज्ञान और अज्ञान को पृथक्-पृथक् करके पहचानना कठिन है। ज्ञान को उसके विवेक युक्त आचरण से ही पहचाना जाता है अर्थात् ज्ञानी की पहचान यही है कि वह उचित समय पर उचित कार्य को उचित रीति से सम्पन्न करता है। आत्मस्थ मनुष्य इसी आधार का आश्रय लेकर एक ही संकल्प से अर्थात् सहज ही अज्ञान का विनाश कर देता है।

(25) कथा में सुग्रीव-पत्नी रुमा के समागम को बालि-वध का कारण निरूपित किया गया है। जैसा कि पूर्व मे स्पष्ट किया जा चुका है – ज्ञान (सुग्रीव) की शक्ति (पत्नी) है – निःशब्दता (रुमा) और अज्ञान (बालि) की शक्ति (पत्नी) है – ऊँचा स्वर (तारा)। यहाँ यह संकेतित किया गया है कि चूंकि ज्ञान स्वयं में पूर्ण होता है, इसलिए उसका निःशब्दता के साथ रहना ही श्रेष्ठ स्थिति है परन्तु अज्ञान यदि निःशब्द (चुप) रह जाए, अर्थात् अज्ञान में स्थित मनुष्य न कोई प्रश्न उठाए, न किसी समस्या को प्रस्तुत करे, न उसका समाधान चाहे – तब यह निःशब्दता की स्थिति जिसे कथा में बालि का रुमा के साथ समागम कहकर इंगित किया गया है – श्रेष्ठ नहीं कही जा सकती क्योंकि निःशब्द होकर अज्ञान कभी भी अज्ञान की स्थिति से बाहर नहीं हो सकता। कथा संकेत करती है कि आत्मज्ञान में स्थित मनुष्य निःशब्दता (रुमा) के साथ रहने वाले अज्ञान (बालि) का वध कर देता है। अब वह हर प्रकार की समस्या को देखने समझने और उसका समाधान प्राप्त करने की दिशा में प्रवृत्त हो जाता है। यह आश्चर्य का ही विषय है कि मनुष्य अज्ञान में होता है परन्तु फिर भी उसके पास, न स्वयं के विषय में, न जगत के विषय में ही कोई प्रश्न होता है क्योंकि उसका वह अज्ञान निःशब्दता के साथ समागम कर लेता है।

(26) राम ने बालि को कहा है कि मृगया करना राजर्षियों का स्वभाव है। अतः तुझ वानर को मारने में मुझे कोई दोष नहीं प्राप्त होगा। पौराणिक कथाओं में आया हुआ मृगया शब्द वास्तव में शिकार का वाचक न होकर अन्वेषण को इंगित करता है। यह (मृगया) शब्द अन्वेषण अर्थ वाली मृग् धातु से बना है। राजर्षि (राज+ऋषि) शब्द आत्मस्थ मनुष्य को इंगित करता है। आत्मस्थ मनुष्य ही अपने मन-बुद्धि-इन्द्रियादि का राजा होता है और ऋषि अर्थात् श्रेष्ठ विचारों से युक्त भी। आत्मस्थ मनुष्य का यह स्वभाव ही होता है कि वह अन्वेषण – प्रिय होने के कारण अपने ही भीतर विद्यमान अज्ञान अथवा तत्सम्बन्धित विकारों को विनष्ट करके स्वचेतना को सुदृढता प्रदान करता है।

कथा का तात्पर्य

कथा प्रतीकात्मक है और आध्यात्मिक दृष्टि से अध्ययन करने पर अनेकानेक सत्यों अथवा रहस्यों को उद्घाटित करती है।

मानव मन के दो व्यापार या वृत्तियाँ हैं। एक है – ज्ञान जिसे सुग्रीव कहा गया है तथा दूसरा है – अज्ञान जिसे बालि नाम दिया गया है। चूंकि ज्ञान आत्मा से जुडा रहता है, इसलिए सुग्रीव को सूर्य का औरस पुत्र कहा गया है और अज्ञान शरीर से जुडा रहता है, इसलिए बालि को इन्द्रियों के अधिपति मन अर्थात् इन्द्र का औरस पुत्र कहा गया है।

मन रूपी किष्किन्धा पुरी के सिंहासन पर ये ज्ञान तथा अज्ञान रूप दोनों ही व्यापार विद्यमान होकर अपने – अपने कार्य को सम्पन्न करते रहते हैं, इसलिए दोनों को भाई-भाई कहकर संकेतित किया गया है। मन में विद्यमान ज्ञान तथा अज्ञान रूप दोनों व्यापारों में से जब ज्ञान क्रियाशील होता है, तब अज्ञान कोई व्यवधान उपस्थित नहीं करता और जब अज्ञान क्रियाशील रहता है, तब ज्ञान कोई बाधा नहीं लाता। तात्पर्य यह है कि मानव मन 24 घंटे के भीतक कभी ज्ञान में रहता है तो कभी अज्ञान में।

समस्या तब उपस्थित होती है जब जीवात्मा की लम्बी यात्रा में देहाभिमान प्रबल होकर संस्कार रूप धारण कर लेता है और मन के सिंहासन पर विराजित हुआ अज्ञान अभिमान से उत्पन्न हुए भ्रमपूर्ण विचारों में उलझ जाता है और तब तक उन भ्रमपूर्ण विचारों से उलझता रहता है जब तक वे भ्रमपूर्ण विचार मनुष्य के रक्त में अर्थात् व्यक्तित्व में आत्मसात् नहीं हो जाते( भ्रमपूर्ण विचार के लिए देखना चाहिए – कथा का प्रतीकात्मक स्वरूप, नं. 7)। इसी तथ्य को व्यक्त करने के लिए मूल कथा में मायावी दानव के प्रसंग का समावेश किया गया है।

व्यक्तित्व में आत्मसात् हो चुके विचारों के भ्रमजाल के कारण अज्ञान (बालि) इतना प्रबल हो जाता है कि अब ज्ञान (सुग्रीव) भी उपस्थित विषयों को सुलझा नहीं पाता। यहाँ तक कि अज्ञान से प्रताडित हुआ वह ज्ञान मन रूपी किष्किन्धा से पलायन करके अक्रिय अथवा सुषुप्त सी स्थिति में चला जाता है, जिसे कथा में सुग्रीव का ऋष्यमूक पर्वत पर निवास करना कहकर संकेतित किया गया है। सुषुप्त सी स्थिति में विद्यमान यह ज्ञान केवल तभी सक्रिय हो पाता है जब मनुष्य आत्मस्वरूप में अवस्थित होता है। इसे ही कथा में राम की सुग्रीव से मैत्री कहकर संकेतित किया गया है।

आत्मस्वरूप/आत्मज्ञान अथवा आत्मस्मृति में स्थित मनुष्य (राम) ही श्रेष्ठ ज्ञान को आचरण में लाकर अज्ञान का विनाश करता है और फिर यह आचरित अथवा सक्रिय अथवा जाग्रत ज्ञान (सुग्रीव) ही सहस्रों शाखाओं में फैलकर देहाभिमान रूपी रावण के विनाश तथा उसकी कैद में पडी हुई पवित्रता (सीता) को वापस लाने में आत्मस्थ मनुष्य (अर्थात् राम ) का सहायक होता है।

यहाँ इस विशेष तथ्य को संकेतित किया गया है कि प्रबल अज्ञान (बालि) का विनाश न तो केवल ज्ञान (सुग्रीव) से किया जा सकता है और न केवल आत्मस्थ होकर (राम द्वारा) किया जा सकता है। प्रबल अज्ञान का विनाश दोनों अर्थात् आत्मस्थता तथा ज्ञान के परस्पर सहयोग से ही सम्भव हो पाता है। उदाहरण के लिए – अज्ञानवश अर्थात् देहभाव के कारण मनुष्य किसी से घृणा करता है। इस घृणा को समाप्त करने के लिए प्रेम की स्थापना आवश्यक है। परन्तु पहली बात तो यह है कि प्रेम की स्थापना घृणा को समाप्त नहीं कर सकती क्योंकि घृणा का भाव पुराना होने के कारण सुदृढ हो चुका है, जबकि प्रेम का भाव नया होने के कारण अभी कमजोर है। दूसरी बात यह है कि प्रेम की स्थापना के लिए आत्मस्थ होना आवश्यक है। आत्मस्थ होने का अर्थ है – अपने समान दूसरे को भी आत्मस्वरूप देखना। अतः आत्मरूप होकर इस ज्ञान में निरन्तर स्थित रहते हुए कि घृणा मुझ आत्मा का स्वभाव नहीं है। मुझ आत्मा का स्वभाव तो सबके प्रति प्रेमपूर्ण होना है और इस संकल्प में रहते हुए कि मुझे घृणा के भाव को समाप्त करके प्रेम की स्थापना करनी है – घृणा को समाप्त किया जा सकता है।

अज्ञान के स्वभाव को बतलाते के लिए दुन्दुभि दानव की कथा का समावेश करके यह स्पष्ट किया गया है कि अज्ञानी व्यक्ति अहंकार से उत्पन्न हुई छोटी-छोटी बातों को भी अपने चित्त या मन के ऊपर रख लेता है – उन्हें छोडता नहीं, जिसका परिणाम यह होता है कि वे सब बातें हर समय दुन्दुभि वाद्य की भाँति उसके मन में बजती रहती हैं और मन को कभी भी स्थिर तथा शान्त नहीं रहने देती।

सुग्रीव और बालि के माध्यम से ज्ञान और अज्ञान का वर्णन करते हुए दो अन्य संकेत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। पहला है – सुग्रीव के गले में गजपुष्पी लता को पहनाकर यह इंगित करना कि बाह्य रूप से देखने में तो ज्ञानी और अज्ञानी दोनों बिल्कुल समान ही दीखते हैं, परन्तु ज्ञानी मनुष्य का विवेक युक्त आचरण उसे अज्ञानी से सर्वथा पृथक् कर देता है।

दूसरा संकेत है – रुमा के साथ समागम को बालि का अपराध बतलाते हुए अज्ञान (बालि) के विनाश को आवश्यक बतलाना। वह अज्ञान वास्तव में सर्वथा विनाश के योग्य है जिसमें स्थित हुआ मनुष्य निःशब्द (शब्द रहित) है अर्थात् उसमें कभी यह प्रश्न ही नहीं उठता कि जीव और जगत क्या है। निःशब्दता (रुमा) ज्ञानी को सुशोभित होती है, अज्ञानी को कभी नहीं। अज्ञान की यह अत्यन्त जड स्थिति है और इस जडता को विनष्ट करना आवश्यक है। अज्ञान शब्द अपने भीतर ज्ञान-रहितता के अत्यन्त विस्तार को समेटे हुए है, परन्तु निःशब्दता (रुमा से समागम) कहकर यहाँ अज्ञान (बालि) को बहुत स्पष्ट कर दिया गया है।

प्रथम लेखन – 4-3-2014ई.(फाल्गुन शुक्ल चतुर्थी, विक्रम संवत् 2070)

ESOTERIC ASPECT OF THE STORY OF SUGREEVA - BAALI

In Ramayana ( Kishkindha Kanda, chapters 1 to 22) there is a famous story of Sugreeva and Bali. When Rama and Lakshman were wandering in search of Sita, they were instructed by divine Kabandha to make friendship with Sugreeva. Accordingly, they approached Sugreeva and established a mutual friendship – Sugreeva told Rama the whole incidence happened with Baali.

Rama promised to kill Baali and received assurance also from him in bringing back Sita. Sugreeva told Rama that he was living in Kishkindha with his brother Baali but once upon a time when his brother was engaged with demon Maayaavi and Dundubhi, he (Baali) became powerful and expelled him (Sugreeva) from that kingdom. Baali also took possession of his wife – Rumaa.

As Sugreeva was very afraid by the power of Baali, but doubtful about the power of Rama, Rama convinced him by throwing the bones of demon Dundubhi from his toe and piercing seven Sala trees by one arrow all at one time.

Now having full faith about the power of Rama and following all his instructions, Sugreeva fought a battle with Baali in which Baali was killed by an arrow of Rama. Baali complained Rama considering his murder illegal but as soon as he knew his fault, he requested Rama to forgive him.

The story opens many secrets about knowledge and ignorance symbolized as Sugreeva and Baali. Knowledge (Sugreeva) and ignorance (Baali) are two aspects of human mind. It is more appropriate to say that mind rotates between the two simultaneously. There is no conflict between them but the problem arises when one between the two named ignorance becomes more powerful and overpowers the other named knowledge. Knowledge has no such power to fact that powerful ignorance, therefore it itself becomes dormant.

Story describes the main cause which makes ignorance powerful. Living in body-consciousness, a person creates illusory thoughts because he starts living with vices. All vices like lust, anger, greed, attachment, ego and jealousy etc. become importand and useful for him to have success in life and there is no need and importance of virtues. This illusion helps in making ignorance powerful and slowly it turns into habit.

The story also indicates a particular nature of ignorance. Living in it, a person hurts easily and fills his mind with waste negative thoughts which makes his baggage of mind heavy and consequently steals his happiness.

The story describes that only an aware an d awakened person, having control over his mind and senses, letting all waste thoughts go and focusing only on good conduct changes this condition. Now ignorance vanishes and knowledge becomes powerful. This knowledge is the main source in bringing back peace and purity of mind and intellect which was stolen by body-consciousness.

वालि – सुग्रीव आख्यान का वैदिक पक्ष

- विपिन कुमार

वालि, सुग्रीव, हनुमान तथा अन्य वानरों के निवास स्थान के रूप में वाल्मीकि ने किष्किन्धा पुरी का चुनाव किया है। किष्किन्धा से क्या तात्पर्य है, इस विषय में डा. फतहसिंह का कहना है कि किं – किं दधाति, न जाने इसमें क्या – क्या भरा पडा है, हमारा यह व्यक्तित्व। किष्किन्धा शब्द पर और गहराई से विचार करना होगा। भगवद्गीता अध्याय 2.54 में अर्जुन कृष्ण से पूछता है –

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥

इस प्रकार एक ओर जहां किष्किन्धा को सामान्य व्यक्तित्व के निवास योग्य पुरी के रूप में समझा जा सकता है, वहीं दूसरी ओर स्थितप्रज्ञ व्यक्ति अपने लिए जिस पुरी की खोज करता है, उस पुरी के रूप में भी। किष्किन्धा को एक अन्य प्रकार से भी समझाया गया है। हनुमान आदि वानरों का निवास किम्पुरुष वर्ष में कहा गया है। वानर स्वयं भी किम्पुरुष ही हैं। किम्पुरुष घृणा के योग्य नीच पुरुष को कहते हैं। भागवत पुराण के अनुसार किम्पुरुषों में हनुमान सर्वश्रेष्ठ हैं। किम्पुरुष शब्द में भी किं - प्रत्यय ध्यान देने योग्य है। शतपथ ब्राह्मण 7.5.2.32, ऐतरेय ब्राह्मण 2.8 आदि में उल्लेख आता है कि पुरुष का मेध पुरुष से अपक्रान्त होकर अश्व में प्रवेश कर गया। मेध अपक्रान्त हो जाने पर पुरुष किम्पुरुष बन गया। अतः किम्पुरुष अमेध्य है, यज्ञ के माध्यम से उसको मेध्य नहीं बनाया जा सकता। इसके अतिरिक्त कहा गया है कि यह मयु है, मायावी है, यहां माया का प्राबल्य रहता है। वालि – सुग्रीव की कथा में मय के पुत्र मायावी का प्रसंग आता है जो वालि से एक वर्ष तक लडता है। अतः यह कहा जा सकता है कि किम्पुरुष वर्ष और किष्किन्धा पुरी दोनों में समानता है। पुरुष राम है तो किम्पुरुष हनुमान, सुग्रीव आदि। किम्पुरुष हनुमान शील आदि गुणों का अर्जन करने के लिए राम की उपासना करता है।

सुग्रीव के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण 3.4.4.1, ऐतरेय ब्राह्मण 1.25 आदि का यह सार्वत्रिक कथन महत्त्वपूर्ण है कि जैसे एक श्रेष्ठ शिर के लिए ग्रीवा का श्रेष्ठ होना आवश्यक है, वैसे ही श्रेष्ठ प्रवर्ग्य के लिए उपसद का श्रेष्ठ होना आवश्यक है। सारे शरीर का सारभाग निकल कर शिर का निर्माण करता है। यज्ञ की भाषा में, सोमयाग में यज्ञ के शिर का निर्माण प्रवर्ग्य इष्टि द्वारा किया जाता है। इस इष्टि में कच्ची मिट्टी के एक पात्र में घी भरकर उसे यज्ञाग्नि पर पकाया जाता है और फिर उबलते घृत में गौ व अज के पयः का प्रक्षेप किया जाता है। पयः का प्रक्षेप होने पर बहुत ऊंची ज्वालाएं निकलती हैं जिसे प्रवर्ग्य कहा जाता है। कच्ची मिट्टी से बने पात्र को महावीर कहा जाता है। प्रवर्ग्य इष्टि सम्पन्न होने के पश्चात् उपसद इष्टि होती है जिसमें यजमान? मूक बैठकर मन्त्रजप आदि करता है। उपसद इष्टि व्यावहारिक जीवन से आसुरी पक्ष को निकाल बाहर करने के लिए है(उप-सद, असुरों को निकालने के लिए धरने पर बैठ जाना)। उपसद एक वज्र है। व्यावहारिक जीवन में जिस किसी कर्म को भी वज्र बनाया जा सके – तप, संकल्प आदि, वह सब उपसद के अन्तर्गत आएगा। ग्रीवा में सु प्रत्यय लगाकर सुग्रीव शब्द की रचना करने और किष्किन्धा पुरी में उसे स्थान देने से रामायणकार का क्या तात्पर्य हो सकता है। ग्रीवा विशुद्धि चक्र का स्थान भी है। विशुद्धि चक्र की विशेषता यह है कि इसमें स्थूलता का नाश हो चुका होता है। आचार्य रजनीश का कहना है कि यदि किसी व्यक्ति की ग्रीवा पर ध्यान केन्द्रित किया जाए तो उस मनुष्य के विचारों में प्रवेश करके उसके विचारों को जाना जा सकता है। यही सब गुण सुग्रीव में भी होने चाहिएं। वालि के संदर्भ में तो कहा गया है कि वह जिस व्यक्ति को भी देख लेता था, उसका आधा बल उसमें प्रवेश कर जाता था। सुग्रीव के बारे में कोई तथ्य स्पष्ट नहीं है।

सुग्रीव को आदित्य का पुत्र या अंश कहा गया है जबकि वालि को इन्द्र का। वालि वाल शब्द से बना है। वाल कहते हैं फैली हुई ऊर्जा को, जो केन्द्रस्थ ऊर्जा का अंश नहीं रह गई है। हमारी इन्द्रियों को जो शक्ति मिल रही है, वह उसी ऊर्जा से मिल रही है जो केन्द्रस्थ नहीं रह गई है। इस ऊर्जा को वापस नहीं खींचा जा सकता, अर्थात् ऐसा नहीं हो सकता कि हम अपने चक्षुओं को अन्तर्मुखी कर लें। इस वाल शक्ति का उपयोग बाह्य संसार में रहने के लिए, मायावी असुर से लडने के लिए किया जाता है। सुग्रीव को आदित्य का अंश कहा गया है। आदित्य का कार्य भी आदान करना होता है। आदित्य अपनी किरणों के माध्यम से आदान करता है, विभिन्न प्रकार के रसों का अवशोषण करता है, ऐसा कहा गया है। इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि सुग्रीव में बाहर की ओर बह रही ऊर्जा को अन्तर्मुखी करने की क्षमता विद्यमान है। यही दोनों द्वापर आने पर क्रमशः कर्ण व अर्जुन बनते हैं। त्रेता युग में सुग्रीव या कर्ण जीतता है जबकि द्वापर में वालि या अर्जुन।

वालि – सुग्रीव कथा को समझने के लिए उपसद इष्टि को और अधिक विस्तार से समझना होगा। विष्णुधर्मोत्तर पुराण 1.136.31 में कथन है कि जब पुरूरवा से उर्वशी अदृश्य हो गई तो पुरूरवा को गन्धर्वों ने निर्देश दिया कि तुम शमी और अश्वत्थ की अरणियों से तीन अग्नियों रूपी तीन उपसदों का यजन करो। यहां यह भी कहा गया है कि यह तीन अग्नियां वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध आदि चतुर्व्यूह का रूप हैं। वासुदेव आहवनीय अग्नि है, संकर्षण दक्षिणाग्नि, प्रद्युम्न गार्हपत्य अग्नि और अनिरुद्ध उपसद है। यहां यह स्पष्ट नहीं है कि तीन अग्नियां भी उपसद का रूप हैं या वे उपसद से अलग प्रवर्ग्य का रूप हैं? व्यवहार में उपसद में तीन अग्नियों का उल्लेख आता है जिनका क्रमिक रूप से तीन उपसदों में यजन किया जाता है –

या ते ऽ अग्ने ऽयःशया तनूर् वर्षिष्ठा गह्वरेष्ठा । उग्रं वचोऽअपावधीत् त्वेषं वचो ऽ अपावधीत् स्वाहा ।

या ते ऽ अग्ने रजःशया तनूर् वर्षिष्ठा गह्वरेष्ठा । उग्रं वचो ऽ अपावधीत् त्वेषं वचो ऽ अपावधीत् स्वाहा ।

या ते अग्ने हरिशया तनूर् वर्षिष्ठा गह्वरेष्ठा । उग्रं वचो ऽ अपावधीत् त्वेषं वचो ऽ अपावधीत् स्वाहा ॥ - वा.मा.सं. 5.8, तै.सं. 1.2.11.2

इस प्रकार अग्नि के तीन पुर हैं, वैसे ही जैसे असुरों के तीन पुरों का वर्णन आता है। इन तीनों पुरों से असुरों को निकाल बाहर करना है। सुग्रीव की किष्किन्धा पुरी के संदर्भ में यह विचार करने की आवश्यकता है कि आहवनीय आदि तीन अग्नियां कौन सी हैं तथा तीन प्रकार के उपसद कौन से हैं।

पुराणों में शिव द्वारा त्रिपुर वध की कथा का विस्तार से वर्णन आता है। कहा गया है कि तीन पुरों का भेदन एक ही इषु से हो सकता है। इस इषु का विशेष रूप से निर्माण किया जाता है। राम द्वारा वालि वध के संदर्भ में तो केवल इतना ही उल्लेख आता है कि जो व्यक्ति एक ही बाण से सात साल वृक्षों का वेधन कर सके, वह वालि का वध कर सकता है।

प्रवर्ग्य - उपसद इष्टि में एक अह में दो या तीन उपसदों का यजन होता है और कहा गया है कि दो उपसदों के बीच में जो समय मिलता है, उसमें अग्निचयन नामक कृत्य सम्पन्न किया जाता है। अग्नि चयन से तात्पर्य है कि जिस ऊर्जा/चेतना की एण्ट्रांपी में वृद्धि हो गई है, उसे फिर से कम करना। वालि – सुग्रीव कथा में अग्निचयन किस प्रकार से होता है, यह विचारणीय है।

वालि – सुग्रीव की कथा पर भागवत पुराण के एक अन्य श्लोक के माध्यम से भी विचार किया जा सकता है –

ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च। प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः॥

अर्थात् मध्यम प्रकार का भक्त वह है जो ईश्वर में प्रेम, उसके आधीन भक्तों में मैत्री, बालिशों पर कृपा और द्वेषियों की उपेक्षा करता है। मध्यम से तात्पर्य है जिसके पापों का नाश तो हो गया है, लेकिन इससे आगे उसका विस्तार नहीं हुआ है। राम सुग्रीव से मैत्री स्थापित करते हैं, अतः सुग्रीव को उनके आधीन भक्त माना जा सकता है। बालिश प्रकार के व्यक्तित्व में वालि का स्थान होगा। वालिश पर कृपा की आवश्यकता है। रुग्ण व्यक्ति से यह नहीं पूछा जाता कि वह ओषध लेना चाहता है या नहीं। उस पर तो बलपूर्वक काम करना पडता है। यह कृपा कहलाती है। ऊर्जा (चेतना) की एक बिगडी हुई स्थिति ऐसी भी होती है जिसमें कोई सुधार नहीं किया जा सकता। यह द्वेषियों की स्थिति हो सकती है जिसकी उपेक्षा का निर्देश है। बालि – सुग्रीव की कथा में यह स्थिति है या नहीं, यह अन्वेषणीय है।

बालि – सुग्रीव कथा में यह विचित्र है कि तारा बालि की पत्नी बनकर अंगद को जन्म देती है और बालि की मृत्यु के पश्चात् वह सुग्रीव की पत्नी भी बन जाती है। पुराणों में उल्लेख आता है कि बृहस्पति – पत्नी तारा का चन्द्रमा ने हरण कर लिया और तारा व चन्द्रमा के मिथुन से बुध पुत्र का जन्म हुआ। उसके पश्चात् तारा बृहस्पति को वापस मिल गई। इस संदर्भ में एक स्थान पर कहा गया है कि चन्द्रमा को जो तारा प्राप्त हुई थी, वह केवल छाया मात्र थी, वास्तविक तारा नहीं।

प्रथम लेखन – 10-5-2014ई. ( वैशाख शुक्ल एकादशी, विक्रम संवत् 2071)