सरमा saramaa

HTML clipboard

सरमा

वाल्मीकि रामायणे ७.१२.२४ सरमाशब्दस्य निरुक्तिः अयमस्ति यत् सरमायाः जन्म मानससरोवरनिकटे भवति। तस्याः जन्मकाले मानससरोवरस्य वर्धनं दृष्ट्वा तस्याः माता क्रन्दति – सरो मा। तैत्तिरीयारण्यके १.१०.१ अस्य मूलं अयमस्ति यत् यदा व्योमस्य भूम्ना सह मिथुनं भवति, तदा बृहस्पती रुद्रस्य पुत्रस्य जन्मः भवति एवं सरमा इति स्त्रीपुमस्य जन्मापि भवति। यदा भूमिव्योम्नोः मिथुनं भविष्यति, तदा भूम्नः श्रेष्ठतमस्य रूपस्य – वाचः स्थापनं व्योमे भविष्यति। वैदिकवाङ्मये अस्य संज्ञा रथन्तरमस्ति। व्योम्नः श्रेष्ठतमस्य रूपस्य स्थापनं भूम्यां भविष्यति। अस्य संज्ञा बृहत् अस्ति। अयं प्रतीयते यत् बृहस्पतीरुद्रः एव बृहत् अस्ति। मैसं ४.६.४ अनुसारेण सरमा वाक् अस्ति। चातुर्मासयागस्य अन्तिमः चतुर्थः कृत्यं शुनासीरयागः भवति। अयं प्रतीयते यत् प्रथमानि त्रीणि कृत्यानि (वैश्वदेव, वरुणप्रघास, साकमेधः ) शुनं रूपं सन्ति। शुनं अर्थात् शून्यं, रसतः हीनं, कठोरसाधना। चतुर्थे शुनासीरयागे रसस्यानुभवं भवति। अस्य संज्ञा सीरः, श्रीः अस्ति। अनेन भूम्याः कर्षणमपि भवति। सरमायाः संदर्भे संकेतमस्ति यत् सीरस्य रोधनस्य आवश्यकता अस्ति। केवलं शुनस्य आवश्यकता अस्ति। अस्य शुनस्य किं लाभं अस्ति। भूम्यां उपरि येषां सूर्यस्य रश्मीनां आपतनं भवति, तेषां अवशोषणान्तरे तेषां गौरूपे रूपान्तरणं अपेक्षितं अस्ति। अयं गौरूपमेव द्युलोकेन सह मिथुनं करिष्यति। यदि गौरूपे रूपान्तरणं न भवति, तदा अयं पणिसंज्ञकेभिः असुरेभिः गवां चौर्यमस्ति।

सरमायाः विशेषणं स्त्रीपुंरूपमस्ति। यद्यपि सरमा वाग्रूपा अस्ति, किन्तु तस्याः अन्यरूपं मनरूपेण मानससरोवरं अपि भवितुं शक्यते। मानससरोवरः सरमायाः पुंरूपः अस्ति। लक्ष्मीनारायण संहिता १.३६५ यां सरमा द्युमेयस्य पत्नी अस्ति। पद्मपुराणे १.३८.९६ कथनमस्ति यत् लंकायां विष्णोः वामनरूपस्य मूर्तिः विद्यते, येन बलेः बन्धनं कृतमासीत्।

सरमा और गौ

ऋग्वेद १०.१०८.१, जैमिनीय ब्राह्मण २.४४०२.४४१ में प्रश्न उठाया गया है कि सरमा ने रसा के जलों को कैसे पार किया ( पणि संज्ञक असुरों तक पहुंचने के लिए ) । इसका उत्तर कहीं नहीं दिया गया है । लगता है कि इसका उत्तर स्वयं सरमा शब्द में निहित है जो रस का उल्टा सर है । गवामयन संज्ञक याग में एक मास में चार अभिप्लव षडह याग और अन्त में एक पृष्ठ्य षडह याग होते हैं । प्रत्येक याग ६ - ६ दिन का होता है और इस प्रकार ५ यागों से मास के ३० दिन पूरे होते हैं । अभिप्लव के बारे में कहा जाता है कि इसके द्वारा देवगण प्लवन करके, छलांग लगाकर, अथवा तैरकर स्वर्ग तक पहुंच गए । लेकिन अङ्गिरस गण पीछे रह गए । उनके लिए धीमी प्रगति करने वाला पृष्ठ्य षडह याग बनाया गया । सरमा द्वारा रसा समुद्र को प्लवन द्वारा पार करना इसका संकेत है कि यह अभिप्लव की ओर निर्देश है । सरमा को शुनी, कुतिया कहा गया है । वैदिक साहित्य में शुनः का प्रयोग ऊर्ध्वमुखी साधना के लिए किया जाता है जहां सब रसों का त्याग किया जाता है । उदाहरण के लिए, शुनासीर यज्ञ की व्याख्या में शुनः व श्री । अभिप्लव षडह के छह दिनों की संज्ञा क्रमशः रथन्तर, बृहत्, रथन्तर, बृहत्, रथन्तर, बृहत् होती है जबकि पृष्ठ्य षडह के ६ दिनों की संज्ञा क्रमशः रथन्तर, बृहत्, वैरूप, वैराज, शक्वरी व रेवती होती है । जैमिनीय ब्राह्मण २.३४ के अनुसार गौ रथन्तर से, अश्व बृहत् से, अजा वैरूप से, अवि वैराज से, व्रीहि शक्वरी से और यव रैवत से सम्बद्ध हैं । रथन्तर और बृहत् के बारे में भ्रम की स्थिति रहती है कि यह क्या हैं । ऐतरेय ब्राह्मण ४.२७ का कथन है कि रथन्तर द्वारा पृथिवी द्युलोक को प्रसन्न करती है, प्रभावित करती है जबकि बृहत् द्वारा द्युलोक पृथिवी को । वाक् रथन्तर है, मन बृहत्।

सरमा द्वारा पणियों व गायों की खोज की कथा के संदर्भ में यह प्रश्न उठता है कि पणि क्या हैं । पणियों द्वारा गायों के हरण के उल्लेख ऋग्वेद में भी आते हैं । संभावना यह है कि पणि पर्णि, पत्तों वाले से सम्बद्ध हैं । वृक्ष के पत्ते सूर्य की किरणों का अवशोषण करके उनसे वृक्ष के लिए भोजन का निर्माण करते हैं । वैदिक साहित्य में वृक्ष को समाधि से व्युत्थान की अवस्था माना जाता है । अथवा यह कहा जा सकता है कि समाधि वृक्ष का मूल है और सम्पूर्ण वृक्ष व्युत्थान की अवस्था । सारी गायों/अपने अन्दर के सूर्य की किरणों का उपयोग पूरे व्यक्तित्व के पालने के लिए हो रहा है । उसमें देवपक्ष और असुरपक्ष दोनों हैं । प्रयास यह है कि गायों द्वारा असुर पक्ष के पोषण को समाप्त कर दिया जाए ।

उपरोक्त टिप्पणी के अतिरिक्त, पणि असुर को पर्णि, पर्ण द्वारा समझा जा सकता है। पर्ण का कार्य सूर्य की किरणों का अवशोषण करके उससे सारे शरीर का पोषण करना होता है। पर्ण का सर्वोत्कृष्ट रूप गोवर्धन पर्वत पर प्राप्त होता है जिसके ऊपर खडे वृक्षों के पत्ते द्रोणाकार कहे गए हैं। उन द्रोणाकार पत्तों के दोने बनाये जाते हैं जिनमें रखकर भोजन किया जाता है। द्रोणकलश की यह विशेषता होती है कि उसका मुख ॐ सदृश होता है और वह उदुम्बर काष्ठ का बना होता है। सारा शोधित सोम उसमें ही चुआया जाता है और फिर उस सोम की आहुति दी जाती है। अतः पणि असुर का असुरत्व यह हो सकता है कि उसका मुख ओंकार सदृश न हो। ओंकार का अर्थ है किसी भी ऊर्जा का क्षय न होना। अ, उ, म। पणि असुर जो कुछ ग्रहण कर रहा है, हम जो कुछ भी खा रहे हैं, उससे ऊर्जा का क्षय हो रहा है, हम गौ की भांति ऊर्जा को संरक्षित करने में समर्थ नहीं हैं। हम तो ऊर्जा के रस में लिप्त हैं। लेकिन सरमा/शर्म/शम की यह विशेषता है कि वह रस त्याग कर अन्दर के पापों को भी जान सकती है। कहा जाता है कि कुत्ते पाप से मुक्त व्यक्ति पर नहीं भौंकते। जैमिनीय ब्राह्मण २.४४० में उल्लेख है कि पहले इन्द्र ने सुपर्ण/सुपर्णा को गायों का पता लगाने के लिए भेजा, लेकिन उसने पणि से रिश्वत में गौ का दुग्ध स्वीकार कर लिया। सरमा ने नहीं किया।

संदर्भ

स्वाध्यो दिव आ सप्त यह्वी रायो दुरो व्यृतज्ञा अजानन् ।

विदद्गव्यं सरमा दृळ्हमूर्वं येना नु कं मानुषी भोजते विट् ॥ १,०७२.०८

विदद्यदी सरमा रुग्णमद्रेर्महि पाथः पूर्व्यं सध्र्यक्कः ।

अग्रं नयत्सुपद्यक्षराणामच्छा रवं प्रथमा जानती गात् ॥ ३,०३१.०६

अनूनोदत्र हस्तयतो अद्रिरार्चन्येन दश मासो नवग्वाः ।

ऋतं यती सरमा गा अविन्दद्विश्वानि सत्याङ्गिराश्चकार ॥ ५,०४५.०७

विश्वे अस्या व्युषि माहिनायाः सं यद्गोभिरङ्गिरसो नवन्त ।

उत्स आसां परमे सधस्थ ऋतस्य पथा सरमा विदद्गाः ॥ ५,०४५.०८

किमिच्छन्ती सरमा प्रेदमानड्दूरे ह्यध्वा जगुरिः पराचैः ।

कास्मेहितिः का परितक्म्यासीत्कथं रसाया अतरः पयांसि ॥

इन्द्रस्य दूतीरिषिता चरामि मह इच्छन्ती पणयो निधीन्वः ।

अतिष्कदो भियसा तन्न आवत्तथा रसाया अतरं पयांसि ॥

कीदृङ्ङिन्द्रः सरमे का दृशीका यस्येदं दूतीरसरः पराकात् ।

आ च गच्छान्मित्रमेना दधामाथा गवां गोपतिर्नो भवाति ॥

नाहं तं वेद दभ्यं दभत्स यस्येदं दूतीरसरं पराकात् ।

न तं गूहन्ति स्रवतो गभीरा हता इन्द्रेण पणयः शयध्वे ॥

इमा गावः सरमे या ऐच्छः परि दिवो अन्तान्सुभगे पतन्ती ।

कस्त एना अव सृजादयुध्व्युतास्माकमायुधा सन्ति तिग्मा ॥

असेन्या वः पणयो वचांस्यनिषव्यास्तन्वः सन्तु पापीः ।

अधृष्टो व एतवा अस्तु पन्था बृहस्पतिर्व उभया न मृळात् ॥

अयं निधिः सरमे अद्रिबुध्नो गोभिरश्वेभिर्वसुभिर्न्यृष्टः ।

रक्षन्ति तं पणयो ये सुगोपा रेकु पदमलकमा जगन्थ ॥

एह गमन्नृषयः सोमशिता अयास्यो अङ्गिरसो नवग्वाः ।

त एतमूर्वं वि भजन्त गोनामथैतद्वचः पणयो वमन्नित् ॥

एवा च त्वं सरम आजगन्थ प्रबाधिता सहसा दैव्येन ।

स्वसारं त्वा कृणवै मा पुनर्गा अप ते गवां सुभगे भजाम ॥

नाहं वेद भ्रातृत्वं नो स्वसृत्वमिन्द्रो विदुरङ्गिरसश्च घोराः ।

गोकामा मे अच्छदयन्यदायमपात इत पणयो वरीयः ॥

दूरमित पणयो वरीय उद्गावो यन्तु मिनतीर्ऋतेन ।

बृहस्पतिर्या अविन्दन्निगूळ्हाः सोमो ग्रावाण ऋषयश्च विप्राः ॥ १०,१०८.११

जाया भूमिः पतिर्व्योम । मिथुनं ता अतुर्यथुः । पुत्रो बृहस्पती रुद्रः । सरमा इति स्त्रीपुमम्, इति । - तैआ १.१०.१

विदद्यदि सरमा रुग्णमद्रेर्महि पाथः पूर्व्यं सध्र्यक् कः ।

अग्रं नयत् सुपद्यक्षराणामछा रवं प्रथमा जानती गात् ॥

इति पुरोरुचं कुर्यात् , रुजति हैव , अथो वाग् वै सरमा, वाचं एवैषां वृङ्क्ते, त्सरा वा एषा यज्ञस्य – मैसं ४.६.४