तू आश्ना-ए-जज़्बा-ए-उल्फ़त नहीं रहा
दिल में तिरे वो ज़ौक़-ए-मोहब्बत नहीं रहा
फिर नग़्मा-हा-ए-क़ुम तो फ़ज़ा में हैं गूँजते
तू ही हरीफ़-ए-ज़ौक़-ए-समाअत नहीं रहा
आईं कहाँ से आँख में आतिश-चिकानियाँ
दिल आश्ना-ए-सोज़-ए-मोहब्बत नहीं रहा
गुल-हा-ए-हुस्न-ए-यार में दामन-कश-ए-नज़र
मैं अब हरीस-ए-गुलशन-ए-जन्नत नहीं रहा
शायद जुनूँ है माइल-ए-फ़र्ज़ानगी मिरा
मैं वो नहीं वो आलम-ए-वहशत नहीं रहा
मम्नून हूँ मैं तेरा बहुत मर्ग-ए-ना-गहाँ
मैं अब असीर-ए-गर्दिश-ए-क़िस्मत नहीं रहा
जल्वागह-ए-ख़याल में वो आ गए हैं आज
लो मैं रहीन-ए-ज़हमत-ए-ख़ल्वत नहीं रहा
क्या फ़ाएदा है दावा-ए-इश्क़-ए-हुसैन से
सर में अगर वो शौक़-ए-शहादत नहीं रहा
हसरत-ए-इंतिज़ार-ए-यार न पूछ
हाए वो शिद्दत-ए-इंतिज़ार न पूछ
रंग-ए-गुलशन दम-ए-बहार न पूछ
वहशत-ए-क़ल्ब-ए-बे-क़रार न पूछ
सदमा-ए-अंदलीब-ए-ज़ार न पूछ
तल्ख़ अंजामी-ए-बहार न पूछ
ग़ैर पर लुत्फ़ मैं रहीन-ए-सितम
मुझ से आईना-ए-बज़्म-ए-यार न पूछ
दे दिया दर्द मुझ को दिल के एवज़
हाए लुत्फ़-ए-सितम-शिआर न पूछ
फिर हुई याद-ए-मय-कशी ताज़ा
मस्ती-ए-अब्र-ए-नौ-बहार न पूछ
मुझ को धोका है तार-ए-बिस्तर का
ना-तवानी-ए-जिस्म-ए-यार न पूछ
मैं हूँ ना-आश्ना-ए-वस्ल हुनूज़
मुझ से कैफ़-ए-विसाल-ए-यार न पूछ
जो बे-सबात हो उस सरख़ुशी को क्या कीजे
ये ज़िंदगी है तो फिर ज़िंदगी को क्या कीजे
रुका जो काम तो दीवानगी ही काम आई
न काम आए तो फ़र्ज़ानगी को क्या कीजे
ये क्यूँ कहें कि हमें कोई रहनुमा न मिला
मगर सरिश्त की आवारगी को क्या कीजे
किसी को देख के इक मौज लब पे आ तो गई
उठे न दिल से तो ऐसी हँसी को क्या कीजे
हमें तो आप ने सोज़-ए-अलम ही बख़्शा था
जो नूर बन गई उस तीरगी को क्या कीजे
हमारे हिस्से का इक जुरआ भी नहीं बाक़ी
निगाह-ए-दोस्त की मय-ख़ानगी को क्या कीजे
जहाँ ग़रीब को नान-ए-जवीं नहीं मिलती
वहाँ हकीम के दर्स-ए-ख़ुदी को क्या कीजे
विसाल-ए-दोस्त से भी कम न हो सकी 'राशिद'
अज़ल से पाई हुई तिश्नगी को क्या कीजे
तिरे करम से ख़ुदाई में यूँ तो क्या न मिला
मगर जो तू न मिला ज़ीस्त का मज़ा न मिला
हयात-ए-शौक़ की ये गर्मियाँ कहाँ होतीं
ख़ुदा का शुक्र हमें नाला-ए-रसा न मिला
अज़ल से फ़ितरत-ए-आज़ाद ही थी आवारा
ये क्यूँ कहें कि हमें कोई रहनुमा न मिला
ये काएनात किसी का ग़ुबार-ए-राह सही
दलील-ए-राह जो बनता वो नक़्श-ए-पा न मिला
ये दिल शहीद-ए-फ़रेब-निगाह हो न सका
वो लाख हम से ब-अंदाज़-ए-महरमाना मिला
कनार-ए-मौज में मरना तो हम को आता है
निशान-ए-साहिल-ए-उल्फ़त मिला मिला न मिला
तिरी तलाश ही थी माया-ए-बक़ा-ए-वजूद
बला से हम को सर-ए-मंज़िल-ए-बक़ा न मिला
शब-ए-शफ़ाफ़-ए-अबू-लहब थी मगर ख़ुदा या वो कैसी शब थी
अबू-लहब की दुल्हन जब आई तो सर पे ईंधन गले में
साँपों के हार लाई न उस मो मश्शात्गी से मतलब
न माँग ग़ाज़ा न रंग रोग़न गले में साँपों
के हार उस के तो सर पे ईंधन !
ख़ुदा या कैसी शब-ए-शफ़ाफ़-ए-अबू-लहब थी !
ये देखते ही हुजूम बिफरा भड़क उठे गज़ब
कि शोले के जैसे नंगे बदन ये जाबिर के ताज़ियाने !
जवाल लड़कों की तालियाँ थी न सेहन में शोख़
लड़कियों के थिरकते पाँव थिरक रहे थे
न नग़मा बाक़ी न शादियाने !
अबू-लहब ने ये रंग देखा लगाम थामी लगाई
महमेज़ अबू-लहब की ख़बर न आई !
अबू-लहब की ख़बर जो आई तो सालहा-साल का ज़माना
ग़ुबार बन कर बिखर चुका था !
अबू-लहब अजनबी ज़मीनों के लाल-ओ गौहर समेट कर
फिर वतन को लौट हज़ार तर्रार ओ तेज़ आँखें पुराने
ग़ुर्फों से झाँक उट्ठीं हुजूम पीर ओ जवाँ का
गहरा हुजूम अपने घरों से निकला अबू-लहब के जुलूस
को देखने को लपका !
अबू-लहब ! इक शक-ए-शफ़ाफ़-ए-अबू-लहब का जला
फफूला ख़याल की रेत का बगूला वो इश्क़-ए-बर्बाद
का हेयूला हुजूम में से पुकार उट्ठी अबू-लहब !
तू वही है जिस की दुल्हन जब आई तो सर पे ईंधन
गले में साँपों के हार लाई ?
अबू-लहब इक लम्हा ठिठका लगाम थामी लगी
महमेज़ अबू-लहब की ख़बर न आई
श्रेणी: नज़्म
एशिया के दूर उफ़्तादा शबिस्तानों में भी
मेरे ख़्वाबों में कोई रूमाँ नहीं !
काश इक दीवार-ए-ज़ुल्म
मेरे उन के दरमियाँ हाएल न हो !
ये इमारात-ए-क़दीम
ये ख़याबाँ ये चमन ये लाला-ज़ार
चाँदनी में नौहा-ख़्वान
अजनबी के दस्त-ए-ग़ारत-गर से हैं
ज़िदंगी के इन निहाँ-खानो में भी
मेरे ख़्वाबों का कोई रूमाँ नहीं !
काश इक दीवार-ए-रंग
मेरे उन के दरमियाँ हाएल न हो !
ये सियाह पैकर बरहना राह-रौ
ये घरों में ख़ूब-सूरत औरतों का ज़हर-ए-ख़ंद
ये गुज़र-गाहों पे देव-आसा जवाँ
जिन की आँखों में गरसना आरज़ुओं की लपक
मुश्तइल बे-बाक मज़दूरों का सैलाब-ए-अजी़म !
अर्ज़-ए-मश्रिक एक मुबहम ख़ौफ़ से लर्ज़ां हूँ मैं
आज हम को जिन तमन्नओं की हुर्मत के सबब
दुश्मनों का सामना मग्रिब के मैदानों में है
उन का मश्रिक में निशां तक भी नहीं !
श्रेणी: नज़्म
जाग ऐ शम्मा-ए-शबिस्तान-ए-विसाल
महफिल-ए-ख़्वाब के इस फर्श-ए-तरब-नाक से जाग !
लज़्जत-ए-शब से तेरा जिस्म अभी चूर सही
आ मेरी जान मेरे पास दरीचे के क़रीब
देख किस प्यार से अनवार-ए-सहर चूमते हैं
मस्जिद-ए-शहर के मीनारों को
जिन की रिफ़अत से मुझे
अपनी बरसों की तमन्ना का ख़याल आता है।
सीम-गूँ हाथों से ऐ जान ज़रा
खोल मय-रंग-जुनूँ-खेज़ आँखें !
उसी मीनार को देख
सुब्ह के नूर से शादाब सही
उसी मीनार के साए तले कुछ याद भी है
अपने बे-कार ख़ुदा की मानिंद
ऊँघता है किसी तारीक निहाँ-खाने में
एक अफ़्लास का मारा हुआ मुल्ला-ए-हज़ीं
एक इफ्रीत उदास
तीन सौ साल की ज़िल्लत का निशां
ऐसी ज़िल्लत के नहीं जिस का मदावा कोई !
देख बाज़ार में लोगों का हुजूम
बे-पनाह सैल के मानिंद रवाँ
जैसे जिन्नात बयाबानों में
मिशअलें ले के सर-ए-शाम निकल आते हैं
उन में हर शख़्स के सीने में किसी गोशे में
एक दुल्हन सी बनी बैठी है
टिमटिमाती हुई नन्हीं सी ख़ुदल की किंदील
लेकिन इतनी भी तवानाई नहीं
बढ़ के उन में से कोई शोला-ए-जवाला बने !
इन में मुफ़लिस भी हैं बीमार भी हैं
ज़ेर-ए-अफ़्लाक मगर जु़ल्म सहे जाते हैं !
एक बूढ़ा सा थका माँदा सा रह-वार हूँ मैं !
भूक का शाह-सवार
सख़़्त-गीर और तन-ओ-मंद भी है
मैं भी शहर के लोगों की तरह
हर शब-ए-ऐश-गुज़र जाने पर
ब-हर-जमा-ए-ख़स-ओ-ख़शाक निकल जाता हूँ
चर्ख़ गर्दां है जहाँ
शाम को फिर उसी काशाने में लौट आता हूँ
बे-बसी मेरी ज़रा देख के मैं
मस्जिद-ए-शहर के मीनारों को
इस दरीचे में से फिर झाँकता हूँ
जब उन्हें आलम-ए-रूख़्सत में शफ़क चूमती हैं !
श्रेणी: नज़्म
मुझे मौत आएगी मर जाऊँगा मैं
तुझे मौत आएगी मर जाएगी तू
वो पहली शब-ए-मह शब-ए-माह-ए-दो-नीम बन जाएगी
जिस तरह साज़-कोहना के तार-ए-शिकस्ता के दोनों सिरे
दू उफ़ुक़ के किनारों के मानिंद
बस दूर ही दूर से थरथराते हैं और पास आते नहीं है
न वो राज़ की बात होंटों पे लाते हैं
जिस ने मुग़नी को दौर-ए-ज़माँ-ओ-मकाँ से निकाला था
बख़्शी थी ख़्वाम-ए-अबद से रिहाई !
ये सोचा था शायद
के ख़ुद पहले इस बोद के आफ़रीनदा बन जाएँगे
अब जो इक बहर-ए-ख़ामियाज़ा-कश बन गया है !
तो फिर अज़-सर-ए-नौ मसर्रत से नौ-सर नई फ़ातेहाना मसर्रत से
पाएँगे भूली हुई ज़िंदगी को
वही ख़ुद-फरेबी वो ही अश्क-शोई का अदना बहाना !
मगर अब वही बोद सर-गोशियाँ कर रहा है
के तू अपनी मंज़िल को वापस नहीं जा सकेगा
नहीं जा सकेगा
मुझे मौत आएगी मर जाऊँगा मैं
तुझे मौत आएगी मर जाऊँगा मैं
तुझे मौत आएगी मर जाएगी तू
ये इफ्रीत पहले हज़ीमत उठाएगा मिट जाएगा !
श्रेणी: नज़्म
आज फिर आ ही गया
आज फिर रूह पे वो छा ही गया
दी मेरे घर पे शिकस्त आ के मुझे
होश आया तो मैं दहलीज पे उफ़्तादा था
ख़ाक-आलूदा ओ अफ़्सुर्दा ओ ग़म-गीं ओ नेज़ार
पारा थे मेरी रूह के तारे आज वो आ ही गया
रोज़न-ए-दर से लरज़ते हुए देखा मैंने
ख़ुर्म ओ शाद सर-ए-राह से जाते हुए
सालहा-साल से मसदूद था याराना मेरा
अपने ही बादा से लब-रेज़ था पैमाना मेरा
उस के लौट आने का इम्कान न था
उसे के मिलने का भी अरमान न था
फिर भी वो आ ही गया
कौन जाने के वो शैतान न था
बे-बसी मेरे ख़ुदा-वंद की थी !
श्रेणी: नज़्म
कर चुका हूँ आज अज़्म-ए-आखिरी
शाम से पहले ही कर देता था मै।
चाट कर दीवार को नोक-ए-ज़बाँ से ना-तवाँ
सुब्ह होने तक वो हो जाती थी दोबारा बुलंद
रात को जब घर का रूख़ करता था मैं
तीरगी को देखता था सिर-निगूँ
मुँह बसोरे रह-गुज़ारों से लिपटते सोग-वार
घर पहुँचता था मैं इंसानों से उकताया हुआ
मेरा अज़्म-ए-आख़िरी ये है के मैं
कूद जाऊँ सातवी मंज़िल से आज !
आज मैंने पा लिया ज़िंदगी को बे-नक़ाब
आता जाता था बड़ी मुद्दत से मैं
एक इश्वा-साज़ ओ हर्ज़ा-कार महबूबा के पास
उस के तख़्त-ए-ख़्वाब के नीचे मगर
आज मैंने देख पाया है लहू
ताज़ा ओ रख़्शां लहू
बू-ए-मय में बू-ए-खूँ उलझी हुई !
वो अभी तक ख़्वाब-गह में लौट कर आई नहीं
और मैं कर भी चुका हूँ अपना अज़्म-ए-आख़िरी !
जी में आई है लगा दूँ एक बे-बाकाना जस्त
उस दरीचे में से जो
झाँकता है सातवीं मंज़िल से कु-ए-बाम को !
शाम से पहले ही कर देता था मैं
चाट कर दीवार को नोक-ए-ज़बाँ से ना-तावाँ
सुब्ह होने तक वो हो जाती थी दोबरा बुलंद
आज तो आखिर हम-आगोश-ए-ज़मीं हो जाएगी !
श्रेणी: नज़्म
ऐ मेरी हम-रक़्स मुझ को थाम ले
ज़िंदगी से भाग कर आया हूँ मैं
डर से लरज़ा हूँ कहीं ऐसा न हो
रक़्स-गह के चोर दरवाज़े से आ कर ज़िंदगी
ढूँडले मुझ को निशां पा ले मेरा
और जुर्म-ए-ऐश करते देख ले !
ऐ मेरी हम-रक़्स मुझ को थाम ले
रक़्स की ये गर्दिशें
एक मुबहम आसिया के दौर हैं
कैसी सर-गर्मी से गम को रौंदता जाता हूँ मैं !
जी मैं कहता हूँ के हाँ
रक़्स-गह में ज़िंदगी के झाँकने से पेश्तर
कुल्फ़तों का संग-रेज़ा एक भी रहने न पाए !
ऐ मेरी हम-रक़्स मुझ को थाम ले
ज़िंदगी मेरी लिए
एक ख़ूनीं भेड़िए से कम नहीं
ऐ हसीन ओ अजनबी औरत उसी के डर से मैं
हो रहा हूँ लम्हा लम्हा और भी तेरे क़रीब
जानता हूँ तू मेरी जाँ भी नहीं
तुझे से मिलने का फिर इम्काँ भी नहीं
तू मेरी इन आरज़ुओं की मगर तमसील है
जो रहीं मुझ से गुरेज़ाँ आज तक !
ऐ मेरी हम-रक़्स मुझ को थाम ले
अहद-ए-पारीना का मैं इंसान नहीं
बंदगी से इस दर ओ दीवार की
हो चुकी हैं ख़्वाहीशें बे-सोज़-ओ-रंग-ओ ना-तावाँ
जिस्म से तेरे लिपट सकता तो हूँ
ज़िंदगी पर मैं झपट सकता नहीं !
इसलिए अब थाम ले
ऐ हसीन ओ अजनबी औरत मुझे अब थाम ले !
श्रेणी: नज़्म
अदम वजूद के मा-बैन फ़ासला है बहुत
ये फ़ासला हमें इक रोज़ तय तो करना है
वो किश्त-ए-गुल हो के हम बोएँ राह में काँटे
कोई भी फ़ेल हो पर एक दिन तो मरना है
हमारे पीछे हैं वो भी हमें अज़ीज़ हैं जो
इसी तरफ़ से उन्हें एक दिन गुज़रना है
सबा-बुरीदा भी गुल है वफ़ा गुज़ीदा भी दिल
ये बात जे़हन में रखनी है और डरना है
किसी ने पहले लगाए थे साया-दार षजर
इन्हीं की छाँव में बैठे हैं आज हम आ कर
श्रेणी: नज़्म
सुलेमाँ सर-ब-ज़ानो और सबा वीराँ
सबा वीराँ सबा आसेब का मस्कन
सबा आलाम का अम्बार-ए-बे-पायाँ !
गया ओ सब्ज़ा ओ गुल से जहाँ ख़ाली
हवाएँ तिश्ना-ए-बाराँ
तुयूर इस दश्त के मिनक़ार-ए-जे़र-ए-पर
तू सुरमा वर गुलों इंसाँ
सुलेमाँ सर-ब-ज़ान तुर्श-रू ग़म-गीं परेशां-मू
जहाँ-गिरी जहाँ-बानी फ़कत तर्रार-ए-आहू
मोहब्बत शोला-ए-पर्रां हवस बू-ए-गुल-ए-बे-बू
ज़-राज़-ए-दहर कम-तर गो !
सबा वीरान के अब तक इस ज़मीन पर हैं
किसी अय्यार के ग़ारत-गरों के नक़्-ए-पा बाक़ी
सबा बाक़ी न महरू-ए-सबा बाक़ी !
सुलेमाँ सर ब-ज़ानू
अब कहाँ से क़ासिद-ए-फ़र्खंदा-पय आए ?
कहाँ से किस सुबू से कास-ए-पीरी में मय आए ?
श्रेणी: नज़्म
हम तसव्वुफ़ ले ख़राबों के मकीं
वक़्त के तूल-ए-आलम-नाक के परवर्दा हैं
एक तारीक अज़ल नूर-ए-अबद से ख़ाली !
हम जो सदियों से चले हैं
तो समझते हैं कि साहिल पाया
अपनी दिन रात की पा-कूबी का हासिल पाया
हम तसव्वुफ़ के निहाँ-ख़ानों में बसने वाले
अपनी पामाली के अफ़्सानों पे हँसने वाले
हम समझते हैं निशान-ए-सर-ए-मंज़िल पाया
श्रेणी: नज़्म
ज़माना ख़ुदा है उसे तुम बुरा मत कहो
मगर तुम नहीं देखते ज़माना फ़क़त रेस्मान-ए-ख़याल
सुबुक-माया नाज़ुक तवील
जुदाई की अर्ज़ां सबील !
वो सुब्हें जो लाखों बरस पेश्तर थीं
वो शामें जो लाखों बरस बाद होंगी
उन्हें तुम नहीं देखते देख सकते नहीं
के मौजूद हैं अब भी मौजूद हैं वो कहीं
मगर ये निगाहों के आगे जो रस्सी तनी है
उसे देख सकते हो और देखते हो
के ये वो अदम है
जिसे हस्त होने में मुद्दत लगेगी
सितारों के लम्हे सितारों के साल !
मेरे सहन में एक कम-सिन बनफ़्शे का पौदा है
तय्यारा कोई कभी उस के सर पर से गुज़रे
तो वो मुस्कुराता है और लहलहाता है
गोया वो तय्यारा उस की मोहब्बत में
अहद-ए-वफ़ा के किसी जब्र-ए-ताक़त-रूबा से ही गुज़रा !
वो ख़ुश-एतिमादी से कहता है
लो देखो कैसे इसी एक रस्सी के दोनों किनारों
से हम तुम बँधें हो !
ये रस्सी न हो तो कहाँ हम में तुम में
हो पैदा ये राह-ए-विसाल ?
मगर हिज्र के इन वसीलों को वो देख सकता नहीं
जो सरासर अज़ल से आबाद तक तने हैं !
जहाँ ये ज़माना हनूज़-ए-ज़माना
फ़क़त इक गिरह है !
श्रेणी: नज़्म