नंददास 16वीं शती के अंतिम चरण के कवि थे। वे 'अष्टछाप' के प्रमुख कवियों में से एक थे, जो सूरदास के बाद सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए। नंददास भक्तिरस के पूर्ण मर्मज्ञ और ज्ञानी थे।
नंददास
आजु हरि खेलत फागु बनी।
इत गोरी रोरी भरि भोरी, उत गोकुल को धनी॥
चोवा कों ढोवा भरि राख्यो केसर-कीच घनी।
अबिर गुलाल उड़ावत गावत, सारी जात सनी॥
हाथन लसत कनक पिचकारी, ग्वालन छूट छनी।
नंददास प्रभु होरी खेलत, मुरि-मुरि जात अनी॥
नंददास
राजै गिरिराज आज, गाय गोप जाके तर,
नैंकुसी बानकि बने धरैं भेख नटवर॥
लयो उठाय ब्रजराज कुंवर बर कर पै,
अरग-थरग राख्यो मुरली की कूक पर॥
बरखै प्रलय कों पानी, न जात काहू पै बखानी,
ब्रज हू तैं भारी टूटत है तर-तर॥
ता पर के खग, मृग, चातक, चकोर, मोर,
बूंद न काहू परी भयो है कौतुक भर॥
प्रभुजी की प्रभुताई, इंद्र हू की जड़ताई,
मुनि हंसैं हेरि हेरि-हरि हंसै हर-हर॥
नंददास प्रभु गिरिधर की हांसी, खेल,
इंद्र को गरब गयो भयो हैं दूरि घर॥
नंददास
गाइ खिलावत सोभा भारी।
गो रज-रंजित बदन-कमल पै, अलक झलक घुंघरारी।
नख-सिख प्रति बहु मोल के भूषन, पहिरत सदा दिवारी।
फैलि रही है खिरक-सभा पै नगन-रंग उजियारी।
सम-कन राजैं भाल-गंड-भ्रू इहि छबि पै बलिहारी।
सवन हेरि नव, अंचल चंचल, चढ़ति सु अटा-अटारी।
भीर बहुत सुभई जात की मड़हन पे ब्रजनारी।
सैननि में समुझावत सगरी धनि-धनि निरखनहारी।
रहे खिलाइ धूमरी धौरी, गाय गुनन कजरारी।
नंददास प्रभु चले सदन जब एक बार हुंकारी॥
नंददास
खेलत रास रसिक रस नागर।
मंडित नव नागरी निकर बर परम रूप को आगर॥
बिकच बदन बनिता वृंद अतिसै अमल सरद सी राजत।
राका सुभग सरोवर में जस फूले कमल बिराजत॥
नवकिसोर सुंदर सांवर अंग बलित ललित ब्रज बाला।
मानो कंचन खचित नील मनि मंजुल पहिरी माला॥
या छबि की उपमा कहिबै को ऐसो कौन पढयौ है।
नंददास प्रभु को कौतुक लखि कामहि काम बढयो है॥
नंददास
केलि करि प्यारी-पिय, पौढ़े चारु-चांदनी में,
नेह सौं लिपट गए जोबन के जोस में।
अंगिया दरक गई मानों प्रात देखिबे कों,
चोंच काढ़ि चक्रवाक काम-तर रोस मैं॥
आरस सों मोर बांह दोऊ कुच गहे पिय,
रति के खिलौना मनों ढांप दिए ओस में।
रूप के सरोवर में नंददास देखे आली,
चकई के छौना बंधे कंचन के कोस मैं॥
नंददास
कान्ह कुंवर के कर पल्लव पैं मनो गोबरधन नृत्य करै।
ज्यों-ज्यों तान उठति मुरली की, त्यों-त्यों लालन अधर धरै॥
मेघ भृदंगी मृदंग बजावत दामिनि दमकि मनौ दीप जरै।
ग्वाल ताल दै नीकै गावत गायने के संग सुर जो भरै॥
देति असीस सकल गोपी जन बरखा को जल अमित झरै।
अति अद्भुत अवसरि गिरिधर कौ नंददास के दु:ख हरै॥
नंददास
ब्रज की नारी डोल झुलावैं।
सुख निरखत मन मैं सचु पावें मधुर-मधुर कल गावैं॥
रतन खचित सिंघासन सोभित मनों काम की डोरी।
बैठे स्यामा स्याम झुलत हैं नीलकमल पिय राधा गोरी॥
सूरत मूरत दोउ रसीली उपमा नहिं सम तोल।
नंददास प्रभु को सुख निरखत दंपति झूलत डोल॥
नंददास
छोटौ सो कन्हैया, मुख मुरली मधुर छोटी,
छोटे-छोटे ग्वाल-बाल, छोटी पाग सिर (न) की।
छोटे छोटे कुंडल कान, मुनिन हू के छूटे ध्यान,
छोटे पट छोटी लट छुटी अलकन की॥
छोटे-सी लकुट हाथ, छोटे-छोटे बछवा साथ,
छोटे-से कान्हैं देखनि गोपी आई घरन की।
नंददास प्रभु छोटे, भेद-भाव मोटे-मोटे,
खायो है, माखन सो सोभा देखि बदन को॥
नंददास
कृष्ण नाम जब तैं प्रवन सुन्यौ री आली,
भूली री भवन हौं तो बावरी भई री।
भरि-भरि आवैं नैन, चितहूं न परै चैन,
मुखहू न आवैं बैन, तन की दसा कछु और भई री॥
जेतक नेम धरम किए री मैं बहु बिधि,
अंग अंग भई हौं तौ स्रवन मई री।
नंददास जाके नाम सुनत ऐसी गति,
माधुरी मूरति है धौं कैसी दई री॥
नंददास
करुनामयी रसिकता है तुम्हरी सब झूठी।
तब ही लौं कहौ लाख जबहिं लौं बांधी मूठी॥
मैं जान्यौं ब्रज जायकै निरदय तुम्हरौ रूप।
जे तुमको अवलंबई तिनकौं मेलौ कूप॥
कौन यह धर्म है!॥
पुनि-पुनि कहे हे स्याम जाय वृंदावन रहिये।
परम प्रेम को पुंज जहां गोपी संग लहियै॥
और संग सब छांडिक उन लोगन सुख देहु।
नातरु टूट्यौ जात है अबहीं नेह सनेहु॥
करोगे तो कहा?॥
सुनत सखा के बैन नैन आए भरि दोऊ।
बिबस प्रेम आवेस रही नाहिंन सुधि कोऊ॥
रोम-रोम प्रति गोपिका है गई सांवरे गात।
काम तरोवर सांवरो ब्रजबनिता ही पात॥
उलहि अंग-अंग तें॥