मोहन राकेश (८ जनवरी १९२५-३ जनवरी १९७२) नई कहानी आन्दोलन के सशक्त हस्ताक्षर थे। पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम ए किया। जीविकोपार्जन के लिये अध्यापन । कुछ वर्षो तक 'सारिका' के संपादक । 'संगीत नाटक अकादमी' से सम्मानित । वे हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और उपन्यासकार हैं। मोहन राकेश की डायरी हिंदी में इस विधा की सबसे सुंदर कृतियों में एक मानी जाती है। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं; उपन्यास: अंधेरे बंद कमरे, अन्तराल, न आने वाला कल; नाटक: आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे अधूरे, अण्डे के छिलके; कहानी संग्रह: क्वार्टर तथा अन्य कहानियाँ, पहचान तथा अन्य कहानियाँ, वारिस तथा अन्य कहानियाँ; निबंध संग्रह: परिवेश; अनुवाद: मृच्छकटिक, शाकुंतलम; यात्रा वृताँत: आखिरी चट्टान ।
Hindi Stories : Mohan Rakesh
mohan rakesh story writer
कोहरे की वजह से खिड़कियों के शीशे धुँधले पड़ गये थे। गाड़ी चालीस की रफ़्तार से सुनसान अँधेरे को चीरती चली जा रही थी। खिड़की से सिर सटाकर भी बाहर कुछ दिखाई नहीं देता था। फिर भी मैं देखने की कोशिश कर रहा था। कभी किसी पेड़ की हल्की-गहरी रेखा ही गुज़रती नज़र आ जाती तो कुछ देख लेने का सन्तोष होता। मन को उलझाए रखने के लिए इतना ही काफ़ी था। आँखों में ज़रा नींद नहीं थी। गाड़ी को जाने कितनी देर बाद कहीं जाकर रुकना था। जब और कुछ दिखाई न देता, तो अपना प्रतिबिम्ब तो कम से कम देखा ही जा सकता था। अपने प्रतिबिम्ब के अलावा और भी कई प्रतिबिम्ब थे। ऊपर की बर्थ पर सोये व्यक्ति का प्रतिबिम्ब अजब बेबसी के साथ हिल रहा था। सामने की बर्थ पर बैठी स्त्री का प्रतिबिम्ब बहुत उदास था। उसकी भारी पलकें पल-भर के लिए ऊपर उठतीं, फिर झुक जातीं। आकृतियों के अलावा कई बार नयी-नयी आवाज़ें ध्यान बँटा देतीं, जिनसे पता चलता कि गाड़ी पुल पर से जा रही है या मकानों की क़तार के पास से गुज़र रही है। बीच में सहसा इंजन की चीख़ सुनाई दे जाती, जिससे अँधेरा और एकान्त और गहरे महसूस होने लगते।
मैंने घड़ी में वक़्त देखा। सवा ग्यारह बजे थे। सामने बैठी स्त्री की आँखें बहुत सुनसान थीं। बीच-बीच में उनमें एक लहर-सी उठती और विलीन हो जाती। वह जैसे आँखों से देख नहीं रही थी, सोच रही थी। उसकी बच्ची, जिसे फर के कम्बलों में लपेटकर सुलाया गया था, ज़रा-ज़रा कुनमुनाने लगी। उसकी गुलाबी टोपी सिर से उतर गयी थी। उसने दो-एक बार पैर पटके, अपनी बँधी हुई मुट्ठियाँ ऊपर उठाईं और रोने लगी। स्त्री की सुनसान आँखें सहसा उमड़ आयीं। उसने बच्ची के सिर पर टोपी ठीक कर दी और उसे कम्बलों समेत उठाकर छाती से लगा लिया।
मगर इससे बच्ची का रोना बन्द नहीं हुआ। उसने उसे हिलाकर और दुलारकर चुप कराना चाहा, मगर वह फिर भी रोती रही। इस पर उसने कम्बल थोड़ा हटाकर बच्ची के मुँह में दूध दे दिया और उसे अच्छी तरह अपने साथ सटा लिया।
मैं फिर खिड़की से सिर सटाकर बाहर देखने लगा। दूर बत्तियों की एक क़तार नज़र आ रही थी। शायद कोई आबादी थी, या सिर्फ़ सडक़ ही थी। गाड़ी तेज़ रफ़्तार से चल रही थी और इंजन बहुत पास होने से कोहरे के साथ धुआँ भी खिड़की के शीशों पर जमता जा रहा था। आबादी या सडक़, जो भी वह थी, अब धीरे-धीरे पीछे रही जा रही थी। शीशे में दिखाई देते प्रतिबिम्ब पहले से गहरे हो गये थे। स्त्री की आँखें मुँद गयी थीं और ऊपर लेटे व्यक्ति की बाँह ज़ोर-ज़ोर से हिल रही थी। शीशे पर मेरी साँस के फैलने से प्रतिबिम्ब और धुँधले हो गये थे। यहाँ तक कि धीरे-धीरे सब प्रतिबिम्ब अदृश्य हो गये। मैंने तब जेब से रूमाल निकालकर शीशे को अच्छी तरह पोंछ दिया।
स्त्री ने आँखें खोल ली थीं और एकटक सामने देख रही थी। उसके होंठों पर हल्की-सी रेखा फैली थी जो ठीक मुस्कराहट नहीं थी। मुस्कराहट ने बहुत कम व्यक्त उस रेखा में कहीं गम्भीरता भी थी और अवसाद भी—जैसे वह अनायास उभर आयी किसी स्मृति की रेखा थी। उसके माथे पर हल्की-सी सिकुडऩ पड़ गयी थी।
बच्ची जल्दी ही दूध से हट गयी। उसने सिर उठाकर अपना बिना दाँत का मुँह खोल दिया और किलकारी भरती हुई माँ की छाती पर मुट्ठियों से चोट करने लगी। दूसरी तरफ़ से आती एक गाड़ी तेज़ रफ़्तार में पास से गुज़री तो वह ज़रा सहम गयी, मगर गाड़ी के निकलते ही और भी मुँह खोलकर किलकारी भरने लगी। बच्ची का चेहरा गदराया हुआ था और उसकी टोपी के नीचे से भूरे रंग के हल्के-हल्के बाल नज़र आ रहे थे। उसकी नाक ज़रा छोटी थी, पर आँखें माँ की ही तरह गहरी और फैली हुई थीं। माँ के गाल और कपड़े नोचकर उसकी आँखें मेरी तरफ घूम गयीं और वह बाँहें हवा में पटकती हुई मुझे अपनी किलकारियों का निशाना बनाने लगी।
स्त्री की पलकें उठीं और उसकी उदास आँखें क्षण-भर मेरी आँखों से मिली रहीं। मुझे उस क्षण-भर के लिए लगा कि मैं एक ऐसे क्षितिज को देख रहा हूँ जिसमें गहरी साँझ के सभी हल्के-गहरे रंग झिलमिला रहे हैं और जिसका दृश्यपट क्षण के हर सौवें हिस्से में बदलता जा रहा है...।
बच्ची मेरी तरफ़ देखकर बहुत हाथ पटक रही थी, इसलिए मैंने अपने हाथ उसकी तरफ़ बढ़ा दिये और कहा, “आ बेटे, आ...।”
मेरे हाथ पास आ जाने से बच्ची के हाथों का हिलना बन्द हो गया और उसके होंठ रुआँसे हो गये।
स्त्री ने बच्ची को अपने होंठों से छुआ और कहा, “जा बिट्टू, जाएगी उनके पास?”
लेकिन बिट्टू के होंठ और रुआँसे हो गये और वह माँ के साथ सट गयी।
“ग़ैर आदमी से डरती है,” मैंने मुस्कराकर कहा और हाथ हटा लिये।
स्त्री के होंठ भिंच गये और माथे की खाल में थोड़ा खिंचाव आ गया। उसकी आँखें जैसे अतीत में चली गयीं। फिर सहसा वहाँ से लौट आयी और वह बोली, “नहीं, डरती नहीं। इसे दरअसल आदत नहीं है। यह आज तक या तो मेरे हाथों में रही है या नौकरानी के...,” और वह उसके सिर पर झुक गयी। बच्ची उसके साथ सटकर आँखें झपकने लगी। महिला उसे हिलाती हुई थपकियाँ देने लगी। बच्ची ने आँखें मूँद लीं। महिला उसकी तरफ़ देखती हुई जैसे चूमने के लिए होंठ बढ़ाए उसे थपकियाँ देती रही। फिर एकाएक उसने झुककर उसे चूम लिया।
“बहुत अच्छी है हमारी बिट्टू, झट-से सो जाती है,” यह उसने जैसे अपने से कहा और मेरी तरफ़ देखा। उसकी आँखों में एक उदास-सा उत्साह भर रहा था।
“कितनी बड़ी है यह बच्ची?” मैंने पूछा।
“दस दिन बाद पूरे चार महीने की हो जाएगी,” वह बोली, “पर देखने में अभी उससे छोटी लगती है। नहीं?”
मैंने आँखों से उसकी बात का समर्थन किया। उसके चेहरे में एक अपनी ही सहजता थी—विश्वास और सादगी की। मैंने सोई हुई बच्ची के गाल को ज़रा-सा सहला दिया। स्त्री का चेहरा और भावपूर्ण हो गया।
“लगता है आपको बच्चों से बहुत प्यार है,” वह बोली, “आपके कितने बच्चे हैं?”
मेरी आँखें उसके चेहरे से हट गयीं। बिजली की बत्ती के पास एक कीड़ा उड़ रहा था।
“मेरे?” मैंने मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहा, “अभी तो कोई नहीं है, मगर...।”
“मतलब ब्याह हुआ है, अभी बच्चे-अच्चे नहीं हुए,” वह मुस्कराई, “आप मर्द लोग तो बच्चों से बचे ही रहना चाहते हैं न?”
मैंने होंठ सिकोड़ लिये और कहा, “नहीं, यह बात नहीं...।”
“हमारे ये तो बच्ची को छूते भी नहीं,” वह बोली, “कभी दो मिनट के लिए भी उठाना पड़ जाए तो झल्लाने लगते हैं। अब तो ख़ैर वे इस मुसीबत से छूटकर बाहर ही चले गये हैं।” और सहसा उसकी आँखें छलछला आयीं। रुलाई की वजह से उसके होंठ बिलकुल उस बच्ची जैसे हो गये थे। फिर सहसा उसके होंठों पर मुस्कराहट लौट आयी—जैसा अक्सर सोए हुए बच्चों के साथ होता है। उसने आँखें झपककर अपने को सहेज लिया और बोली, “वे डॉक्टरेट के लिए इंग्लैंड गये हैं। मैं उन्हें बम्बई में जहाज़ पर चढ़ाकर आ रही हूँ।...वैसे छ:-आठ महीने की बात है। फिर मैं भी उनके पास चली जाऊँगी।”
फिर उसने ऐसी नज़र से मुझे देखा जैसे उसे शिकायत हो कि मैंने उसकी इतनी व्यक्तिगत बात उससे क्यों जान ली!
“आप बाद में अकेली जाएँगी?” मैंने पूछा, “इससे तो आप अभी साथ चली जातीं...।”
उसके होंठ सिकुड़ गये और आँखें फिर अन्तर्मुख हो गयीं। वह कई पल अपने में डूबी रही और उसी भाव से बोली, “साथ तो नहीं जा सकती थी क्योंकि अकेले उनके जाने की भी सुविधा नहीं थी। लेकिन उनको मैंने किसी तरह भेज दिया है। चाहती थी कि उनकी कोई तो चाह मुझसे पूरी हो जाए।...दीशी की बाहर जाने की बहुत इच्छा थी।...अब छ:-आठ महीने मैं अपनी तनख़ाह में से कुछ पैसा बचाऊँगी और थोड़ा-बहुत कहीं से उधार लेकर अपने जाने का इन्तज़ाम करूँगी।”
उसने सोच में डूबती-उतराती अपनी आँखों को सहसा सचेत कर लिया और फिर कुछ क्षण शिकायत की नज़र मुझे देखती रही। फिर बोली, “अभी बिट्टू भी बहुत छोटी है न? छ:-आठ महीने में यह बड़ी हो जाएगी और मैं भी तब तक थोड़ा और पढ़ लूँगी। दीशी की बहुत इच्छा है कि मैं एम.ए. कर लूँ। मगर मैं ऐसी जड़ और नाकारा हूँ कि उनकी कोई भी चाह पूरी नहीं कर पाती। इसीलिए इस बार उन्हें भेजने के लिए मैंने अपने सब गहने बेच दिए हैं। अब मेरे पास बस मेरी बिट्टू है, और कुछ नहीं।” और वह बच्ची के सिर पर हाथ फेरती हुई, भरी-भरी नज़र से उसे देखती रही।
बाहर वही सुनसान अँधेरा था, वही लगातार सुनाई देती इंजन की फक्-फक्। शीशे से आँख गड़ा लेने पर भी दूर तक वीरानगी ही वीरानगी नज़र आती थी।
मगर उस स्त्री की आँखों में जैसे दुनिया-भर की वत्सलता सिमट आयी थी। वह फिर कई क्षण अपने में डूबी रही। फिर उसने एक उसाँस लीं और बच्ची को अच्छी तरह कम्बलों में लपेटकर सीट पर लिटा दिया।
ऊपर की बर्थ पर लेटा हुआ आदमी खुर्राटे भर रहा था। एक बार करवट बदलते हुए वह नीचे गिरने को हुआ, पर सहसा हड़बड़ाकर सँभल गया। फिर कुछ ही देर में वह और ज़ोर से खुर्राटे भरने लगा।
“लोगों को जाने सफ़र में कैसे इतनी गहरी नींद आ जाती है!” वह स्त्री बोली, “मुझे दो-दो रातें सफ़र करना हो, तो भी मैं एक पल नहीं सो पाती। अपनी-अपनी आदत होती है!”
“हाँ, आदत की ही बात है,” मैंने कहा, “कुछ लोग बहुत निश्चिन्त होकर जीते हैं और कुछ होते हैं कि...।”
“बग़ैर चिन्ता के जी ही नहीं सकते!” और वह हँस दी। उसकी हँसी का स्वर भी बच्चों जैसा ही था। उसके दाँत बहुत छोटे-छोटे और चमकीले थे। मैंने भी उसकी हँसी में साथ दिया।
“मेरी बहुत ख़राब आदत है,” वह बोली, “मैं बात-बेबात के सोचती रहती हूँ। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मैं सोच-सोचकर पागल हो जाऊँगी। ये मुझसे कहते हैं कि मुझे लोगों से मिलना-जुलना चाहिए, खुलकर हँसना, बात करना चाहिए, मगर इनके सामने मैं ऐसे गुमसुम हो जाती हूँ कि क्या कहूँ? वैसे और लोगों से भी मैं ज़्यादा बात नहीं करती लेकिन इनके सामने तो चुप्पी ऐसी छा जाती है जैसे मुँह में ज़बान हो ही नहीं...।...अब देखिए न, इस वक़्त कैसे लतर-लतर बात कर रही हूँ!” और वह मुस्कराई। उसके चेहरे पर हल्की-सी संकोच की रेखा आ गयी।
“रास्ता काटने के लिए बात करना ज़रूरी हो जाता है,” मैंने कहा, “ख़ासतौर से जब नींद न आ रही हो।”
उसकी आँखें पल-भर फैली रहीं। फिर वह गरदन ज़रा झुकाकर बोली, “ये कहते हैं कि जिसके मुँह में ज़बान ही न हो, उसके साथ पूरी ज़िन्दगी कैसे काटी जा सकती है? ऐसे इन्सान में और एक पालतू जानवर में क्या फ़र्क़ है? मैं हज़ार चाहती हूँ कि इन्हें ख़ुश दिखाई दूँ और इनके सामने कोई न कोई बात करती रहूँ, लेकिन मेरी सारी कोशिशें बेकार चली जाती हैं। इन्हें फिर गुस्सा आ जाता है और मैं रो देती हूँ। इन्हें मेरा रोना बहुत बुरा लगता है।” कहते हुए उसकी आँखों में आँसू छलक आये, जिन्हें उसने अपनी साड़ी के पल्ले से पोंछ लिया।
“मैं बहुत पागल हूँ,” वह फिर बोली, “ये जितना मुझे टोकते हैं, मैं उतना ही ज़्यादा रोती हूँ। दरअसल ये मुझे समझ नहीं पाते। मुझे बात करना अच्छा नहीं लगता, फिर जाने क्यों ये मुझे बात करने के लिए मजबूर करते हैं?” और फिर माथे को हाथ से दबाए हुए बोली, “आप भी अपनी पत्नी से ज़बर्दस्ती बात करने के लिए कहते हैं?”
मैंने पीछे टेक लगाकर कन्धे सिकोड़ लिये और हाथ बगलों में दबाए बत्ती के पास उड़ते कीड़े को देखने लगा। फिर सिर को ज़रा-सा झटककर मैंने उसकी तरफ़ देखा। वह उत्सुक नज़र से मेरी तरफ़ देख रही थी।
“मैं?” मैंने मुस्कराने की चेष्टा करते हुए कहा, “मुझे यह कहने का कभी मौका ही नहीं मिल पाता। मैं बल्कि पाँच साल से यह चाह रहा हूँ कि वह ज़रा कम बात किया करे। मैं समझता हूँ कि कई बार इन्सान चुप रहकर ज़्यादा बात कह सकता है। ज़बान से कही बात में वह रस नहीं होता जो आँख की चमक से या होंठों के कम्पन से या माथे की एक लकीर से कही गयी बात में होता है। मैं जब उसे यह समझाना चाहता हूँ, तो वह मुझे विस्तारपूर्वक बात देती है कि ज़्यादा बात करना इन्सान की निश्छलता का प्रमाण है और मैं इतने सालों में अपने प्रति उसकी भावना को समझ ही नहीं सका! वह दरअसल कॉलेज में लेक्चरर है और अपनी आदत की वजह से घर में भी लेक्चर देती रहती है।”
“ओह!” वह थोड़ी देर दोनों हाथों में अपना मुँह छिपाए रही। फिर बोली, “ऐसा क्यों होता है, यह मेरी समझ में नहीं आता। मुझे दीशी से यही शिकायत है कि वे मेरी बात नहीं समझ पाते। मैं कई बार उनके बालों में अपनी उँगलियाँ उलझाकर उनसे बात करना चाहती हूँ, कई बार उनके घुटनों पर सिर रखकर मुँदी आँखों से उनसे कितना कुछ कहना चाहती हूँ। लेकिन उन्हें यह सब अचछा नहीं लगता। वे कहते हैं कि यह सब गुडिय़ों का खेल है, उनकी पत्नी को जीता-जागता इन्सान होना चाहिए। और मैं इन्सान बनने की बहुत कोशिश करती हूँ, लेकिन नहीं बन पाती, कभी नहीं बन पाती। इन्हें मेरी कोई आदत अच्छी नहीं लगती। मेरा मन होता है कि चाँदनी रात में खेतों में घूमूँ, या नदी में पैर डालकर घंटों बैठी रहूँ, मगर ये कहते हैं कि ये सब आइडल मन की वृत्तियाँ हैं। इन्हें क्लब, संगीत-सभाएँ और डिनर-पार्टियाँ अच्छी लगती हैं। मैं इनके साथ वहाँ जाती हूँ तो मेरा दम घुटने लगता है। मुझे वहाँ ज़रा अपनापन महसूस नहीं होता। ये कहते हैं कि तू पिछले जन्म में मेंढकी थी जो तुझे क्लब में बैठने की बजाय खेतों में मेंढकों की आवाज़ें सुनना ज़्यादा अच्छा लगता है। मैं कहती हूँ कि मैं इस जन्म में भी मेंढकी हूँ। मुझे बरसात में भीगना बहुत अच्छा लगता है। और भीगकर मेरा मन कुछ न कुछ गुनगुनाने को कहने लगता है—हालाँकि मुझे गाना नहीं आता। मुझे क्लब में सिगरेट के धुएँ में घुटकर बैठे रहना नहीं अच्छा लगता। वहाँ मेरे प्राण गले को आने लगते हैं।”
उस थोड़े-से समय में ही मुझे उसके चेहरे का उतार-चढ़ाव काफ़ी परिचित लगने लगा था। उसकी बात सुनते हुए मेरे मन पर हल्की उदासी छाने लगी थी, हालाँकि मैं जानता था कि वह कोई भी बात मुझसे नहीं कह रही—वह अपने से बात करना चाहती है और मेरी मौजूदगी उसके लिए सिर्फ़ एक बहाना है। मेरी उदासी भी उसके लिए न होकर अपने लिए थी, क्योंकि बात उससे करते हुए भी मुख्य रूप से मैं सोच अपने विषय में रहा था। मैं पाँच साल से मंज़िल दर मंज़िल विवाहित जीवन से गुज़रता आ रहा था—रोज़ यही सोचते हुए कि शायद आनेवाला कल ज़िन्दगी के इस ढाँचे को बदल देगा। सतह पर हर चीज़ ठीक थी, कहीं कुछ ग़लत नहीं था, मगर सतह से नीचे जीवन कितनी-कितनी उलझनों और गाँठों से भरा था! मैंने विवाह के पहले दिनों में ही जान लिया था कि नलिनी मुझसे विवाह करके सुखी नहीं हो सकी, क्योंकि मैं उसकी कोई भी महत्त्वाकांक्षा पूरी करने में सहायक नहीं हो सकता। वह एक भरा-पूरा घर चाहती थी, जिसमें उसका शासन हो और ऐसा सामाजिक जीवन जिसमें उसे महत्त्व का दर्जा प्राप्त हो। वह अपने से स्वतन्त्र अपने पति के मानसिक जीवन की कल्पना नहीं करती थी। उसे मेरी भटकने की वृत्ति और साधारण का मोह मानसिक विकृतियाँ लगती थीं जिन्हें वह अपने अधिक स्वस्थ जीवन-दर्शन से दूर करना चाहती थी। उसने इस विश्वास के साथ जीवन आरम्भ किया था कि वह मेरी त्रुटियों की क्षतिपूर्ति करती हुई बहुत शीघ्र मुझे सामाजिक दृष्टि से सफल व्यक्ति बनने की दिशा में ले जाएगी। उसकी दृष्टि में यह मेरे संस्कारों का दोष था जो मैं इतना अन्तर्मुख रहता था और इधर-उधर मिल-जुलकर आगे बढऩे का प्रयत्न नहीं करता था। वह इस परिस्थिति को सुधारना चाहता थी, पर परिस्थिति सुधरने की जगह बिड़ती गयी थी। वह जो कुछ चाहती थी, वह मैं नहीं कर पाता था और जो कुछ मैं चाहता था, वह उससे नहीं होता था। इससे हममें अक्सर चख्ï-चख्ï होने लगती थी और कई बार दीवारों से सिर टकराने की नौबत आ जाती थी। मगर यह सब हो चुकने पर नलिनी बहुत जल्दी स्वस्थ हो जाती थी और उसे फिर मुझसे यह शिकायत होती थी कि मैं दो-दो दिन अपने को उन साधारण घटनाओं के प्रभाव से मुक्त क्यों नहीं कर पाता। मगर मैं दो-दो दिन क्या, कभी उन घटनाओं के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाता था, औरत को जब वह सो जाती थी, तो घंटों तकिये में मुँह छिपाए कराहता रहता था। नलिनी आपसी झगड़े को उतना अस्वाभाविक नहीं समझती थी, जितना मेरे रात-भर जागने को, और उसके लिए मुझे नर्व टॉनिक लेने की सलाह दिया करती थी। विवाह के पहले दो वर्ष इसी तरह बीते थे और उसके बाद हम अलग-अलग जगह काम करने लगे थे। हालाँकि समस्या ज्यों की त्यों बनी थी, और जब भी हम इकट्ठे होते, वही पुरानी ज़िन्दगी लौट आती थी, फिर भी नलिनी का यह विश्वास अभी कम नहीं हुआ था कि कभी न कभी मेरे सामाजिक संस्कारों का उदय अवश्य होगा और तब हम साथ रहकर सुखी विवाहित जीवन व्यतीत कर सकेंगे।
“आप कुछ सोच रहे हैं?” उस स्त्री ने अपनी बच्ची के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा।
मैंने सहसा अपने को सहेजा और कहा, “हाँ, मैं आप ही की बात को लेकर सोच रहा था। कुछ लोग होते हैं, जिनसे दिखावटी शिष्टाचार आसानी से नहीं ओढ़ा जाता। आप भी शायद उन्हीं लोगों में से हैं।”
“मैं नहीं जानती,” वह बोली, “मगर इतना जानती हूँ कि मैं बहुत-से परिचित लोगों के बीच अपने को अपरिचित, बेगाना और अनमेल अनुभव करती हूँ। मुझे लगता है कि मुझमें ही कुछ कमी है। मैं इतनी बड़ी होकर भी वह कुछ नहीं जान-समझ पायी, जो लोग छुटपन में ही सीख जाते हैं। दीशी का कहना है कि मैं सामाजिक दृष्टि से बिलकुल मिसफिट हूँ।”
“आप भी यही समझती हैं?” मैंने पूछा।
“कभी समझती हूँ, कभी नहीं भी समझती,” वह बोली, “एक ख़ास तरह के समाज में मैं ज़रूर अपने को मिसफिट अनुभव करती हूँ। मगर...कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनके बीच जाकर मुझे बहुत अच्छा लगता है। ब्याह से पहले मैं दो-एक बार कॉलेज की पार्टियों के साथ पहाड़ों पर घूमने के लिए गयी थी। वहाँ सब लोगों को मुझसे यही शिकायत होती थी कि मैं जहाँ बैठ जाती हूँ, वहीं की हो सकती हूँ। मुझे पहाड़ी बच्चे बहुत अच्छे लगते थे। मैं उनके घर के लोगों से भी बहुत जल्दी दोस्ती कर लेती थी। एक पहाड़ी परिवार की मुझे आज तक याद है। उस परिवार के बच्चे मुझसे इतना घुल-मिल गये थे कि मैं बड़ी मुश्किल से उन्हें छोडक़र उनके यहाँ से चल पायी थी। मैं कुल दो घंटे उन लोगों के पास रही थी। दो घंटे में मैंने उन्हें नहलाया-धुलाया भी, और उनके साथ खेलती भी रही। बहुत ही अच्छे बच्चे थे वे। हाय, उनके चहरे इतने लाल थे कि क्या कहूँ! मैंने उनकी माँ से कहा कि वह अपने छोटे लडक़े किशनू को मेरे साथ भेज दे। वह हँसकर बोली कि तुम सभी को ले जाओ, यहाँ कौन इनके लिए मोती रखे हैं! यहाँ तो दो साल में इनकी हड्डियाँ निकल आएँगी, वहाँ खा-पीकर अच्छे तो रहेंगे। मुझे उसकी बात सुनकर रुलाई आने को हुई।...मैं अकेली होती, तो शायद कई दिनों के लिए उन लोगों के पास रह जाती। ऐसे लोगों में जाकर मुझे बहुत अच्छा लगता है।...अब तो आपको भी लग रहा होगा कि कितनी अजीब हूँ मैं! ये कहा करते हैं कि मुझे किसी अच्छे मनोविद् से अपना विश्लेषण कराना चाहिए, नहीं तो किसी दिन मैं पागल होकर पहाड़ों पर भटकती फिरूँगी!”
“यह तो अपनी-अपनी बनावट की बात है,” मैंने कहा, “मुझे खुद आदिम संस्कारों के लोगों के बीच रहना बहुत अच्छा लगता है। मैं आज तक एक जगह घर बनाकर नहीं रह सका और न ही आशा है कि कभी रह सकूँगा। मुझे अपनी ज़िन्दगी की जो रात सबसे ज़्यादा याद आती है, वह रात मैंने पहाड़ी गूजरों की एक बस्ती में बिताई थी। उस रात उस बस्ती में एक ब्याह था, इसलिए सारी रात वे लोग शराब पीते और नाचते-गाते रहे। मुझे बहुत हैरानी हुई जब मुझे बताया गया कि वही गूजर दस-दस रुपये के लिए आदमी का ख़ून भी कर देते हैं!”
“आपको सचमुच इस तरह की ज़िन्दगी अच्छी लगती है?” उसने कुछ आश्चर्य और अविश्वास के साथ पूछा।
“आपको शायद ख़ुशी हो रही है कि पागल होने की उम्मीदवार आप अकेली ही नहीं हैं,” मैंने मुस्कराकर कहा। वह भी मुस्कराई। उसकी आँखें सहसा भावनापूर्ण हो उठीं। उस एक क्षण में मुझे उन आँखों में न जाने कितनी-कुछ दिखाई दिया—करुणा, क्षोभ, ममता, आर्द्रता, ग्लानि, भय, असमंजस और स्नेह! उसके होंठ कुछ कहने के लिए काँपे, लेकिन काँपकर ही रह गये। मैं भी चुपचाप उसे देखता रहा। कुछ क्षणों के लिए मुझे महसूस हुआ कि मेरा दिमाग़ बिलकुल ख़ाली है और मुझे पता नहीं कि मैं क्या कर रहा था और आगे क्या कहना चाहता था। सहसा उसकी आँखों में फिर वही सूनापन भरने लगा ओर क्षण-भर में ही वह इतना बढ़ गया कि मैंने उसकी तरफ़ से आँखें हटा लीं।
बत्ती के पास उड़ता कीड़ा उसके साथ सटकर झुलस गया था।
बच्ची नींद में मुस्करा रही थी।
खिड़की के शीशे पर इतनी धुँध जम गयी थी कि उसमें अपना चेहरा भी दिखाई नहीं देता था।
गाड़ी की रफ़्तार धीमी हो रही थी। कोई स्टेशन आ रहा था। दो-एक बत्तियाँ तेज़ी से निकल गयीं। मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया। बाहर से आती ब$र्फानी हवा के स्पर्श ने स्नायुओं को थोड़ा सचेत कर दिया। गाड़ी एक बहुत नीचे प्लेटफार्म के पास आकर खड़ी हो रही थी।
“यहाँ कहीं थोड़ा पानी मिल जाएगा?”
मैंने चौंककर देखा कि वह अपनी टोकरी में से काँच का गिलास निकालकर अनिश्चित भाव से हाथ में लिये हैं। उसके चेहरे की रेखाएँ पहले से गहरी हो गयी थीं।
“पानी आपको पीने के लिए चाहिए?” मैंने पूछा।
“हाँ। कुल्ला करूँगी और पिऊँगी भी। न जाने क्यों होंठ कुछ चिपक-से रहे हैं। बाहर इतनी ठंड है, फिर भी...।”
“देखता हूँ, अगर यहाँ कोई नल-वल हो, तो...।”
मैंने गिलास उसके हाथ से ले लिया और जल्दी से प्लेटफ़ार्म पर उतर गया। न जाने कैसा मनहूस स्टेशन था कि कहीं पर भी कोई इन्सान नज़र नहीं आ रहा था। प्लेटफ़ार्म पर पहुँचते ही हवा के झोंकों से हाथ-पैर सुन्न होने लगे। मैंने कोट के कॉलर ऊँचे कर लिये। प्लेटफ़ार्म के जंगले के बाहर से फैलकर ऊपर आये दो-एक पेड़ हवा में सरसरा रहे थे। इंजन के भाप छोडऩे से लम्बी शूँ-ऊँ की आवाज़ सुनाई दे रही थी। शायद वहाँ गाड़ी सिग्नल न मिलने की वजह से रुक गयी थी।
दूर कई डिब्बे पीछे एक नल दिखाई दिया, तो मैं तेज़ी से उस तरफ़ चल दिया। ईंटों के प्लेटफ़ार्म पर अपने जूते का शब्द मुझे बहुत अजीब-सा लगा। मैंने चलते-चलते गाड़ी की तरफ़ देखा। किसी खिड़की से कोई चेहरा बाहर नहीं झाँक रहा था। मैं नल के पास जाकर गिलास में पानी भरने लगा। तभी हल्की-सी सीटी देकर गाड़ी एक झटके के साथ चल पड़ी। मैं भरा हुआ पानी का गिलास लिये अपने डिब्बे की तरफ़ दौड़ा। दौड़ते हुए मुझे लगा कि मैं उस डिब्बे तक नहीं पहुँच पाऊँगा और सर्दी में उस अँधेरे और सुनसान प्लेटफ़ार्म पर ही मुझे बिना सामान के रात बितानी होगी। यह सोचकर मैं और तेज़ दौडऩे लगा। किसी तरह अपने डिब्बे के बराबर पहुँच गया। दरवाज़ा खुला था और वह दरवाज़े के पास खड़ी थी। उसने हाथ बढ़ाकर गिलास मुझसे ले लिया। फुटबोर्ड पर चढ़ते हुए एक बार मेरा पैर ज़रा-सा फिसला, मगर अगले ही क्षण मैं स्थिर होकर खड़ा हो गया। इंजन तेज़ होने की कोशिश में हल्के-हल्के झटके दे रहा था और ईंटों के प्लेटफ़ार्म की जगह अब नीचे अस्पष्ट गहराई दिखाई देने लगी थी।
“अन्दर आ जाइए,” उसके ये शब्द सुनकर मुझे एहसास हुआ कि मुझे फुटबोर्ड से आगे भी कहीं जाना है। डिब्बे के अन्दर क़दम रखा, तो मेरे घुटने ज़रा-ज़रा काँप रहे थे।
अपनी जगह पर आकर मैंने टाँगें सीधी करके पीछे टेक लगा लीं। कुछ पल बाद आँखें खोलीं तो लगा कि वह इस बीच मुँह धो आयी है। फिर भी उसके चेहरे पर मुर्दनी-सी छा रही थी। मेरे होंठ सूख रहे थे, फिर भी मैं थोड़ा मुस्कराया।
“क्या बात है, आपका चेहरा ऐसा क्यों हो रहा है?” मैंने पूछा।
“मैं कितनी मनहूस हूँ...,” कहकर उसने अपना निचला होंठ ज़रा-सा काट लिया।
“क्यों?”
“अभी मेरी वज़ह से आपको कुछ हो जाता...।”
“यह खूब सोचा आपने!”
“नहीं। मैं हूँ ही ऐसी...,” वह बोली, “ज़िन्दगी में हर एक को दु:ख ही दिया है। अगर कहीं आप न चढ़ पाते...।”
“तो?”
“तो?” उसने होंठ ज़रा सिकोड़े, “तो मुझे पता नहीं...पर...।”
उसने ख़ामोश रहकर आँखें झुका लीं। मैंने देखा कि उसकी साँस जल्दी-जल्दी चल रही है। महसूस किया कि वास्तविक संकट की अपेक्षा कल्पना का संकट कितना बड़ा और ख़तरनाक होता है। शीशा उठा रहने से खिड़की से ठंडी हवा आ रही थी। मैंने खींचकर शीशा नीचे कर दिया।
“आप क्यों गये थे पानी लाने के लिए? आपने मना क्यों नहीं कर दिया?” उसने पूछा।
उसके पूछने के लहज़े से मुझे हँसी आ गयी।
“आप ही ने तो कहा था...।”
“मैं तो मूर्ख हूँ, कुछ भी कह देती हूँ। आपको तो सोचना चाहिए था।”
“अच्छा, मैं अपनी ग़लती मान लेता हूँ।”
इससे उसके मुरझाए होंठों पर भी मुस्कराहट आ गयी।
“आप भी कहेंगे, कैसी लडक़ी है,” उसने आन्तरिक भाव के साथ कहा। “सच कहती हूँ, मुझे ज़रा अक्ल नहीं है। इतनी बड़ी हो गयी हूँ, पर अक्ल रत्ती-भर नहीं है—सच!”
मैं फिर हँस दिया।
“आप हँस क्यों रहे हैं?” उसके स्वर में फिर शिकायत का स्पर्श आ गया।
“मुझे हँसने की आदत है!” मैंने कहा।
“हँसना अच्छी आदत नहीं है।”
मुझे इस पर फिर हँसी आ गयी।
वह शिकायत-भरी नज़र से मुझे देखती रही।
गाड़ी की रफ़्तार फिर तेज़ हो रही थी। ऊपर की बर्थ पर लेटा आदमी सहसा हड़बड़ाकर उठ बैठा और ज़ोर-ज़ोर से खाँसने लगा। खाँसी का दौरा शान्त होने पर उसने कुछ पल छाती को हाथ में दबाये रखा, फिर भारी आवाज़ में पूछा, “क्या बजा है?”
“पौने बारह,” मैंने उसकी तरफ़ देखकर उत्तर दिया।
“कुल पौने बारह?” उसने निराश स्वर में कहा और फिर लेट गया। कुछ ही देर में वह फिर खुर्राटे भरने लगा।
“आप भी थोड़ी देर सो जाइए।” वह पीछे टेक लगाए शायद कुछ सोच रही थी या केवल देख रही थी।
“आपको नींद आ रही है, आप सो जाइए,” मैंने कहा।
“मैंने आपसे कहा था न मुझे गाड़ी में नींद नहीं आती। आप सो जाइए।”
मैंने लेटकर कम्बल ले लिया। मेरी आँखें देर तक ऊपर की बत्ती को देखती रहीं जिसके साथ झुलसा हुआ कीड़ा चिपककर रह गया था।
“रजाई भी ले लीजिए, काफी ठंड है,” उसने कहा।
“नहीं, अभी ज़रूरत नहीं है। मैं बहुत-से गर्म कपड़े पहने हूँ।”
“ले लीजिए, नहीं बाद में ठिठुरते रहिएगा।”
“नहीं, ठिठुरूँगा नहीं,” मैंने कम्बल गले तक लपेटते हुए कहा, “और थोड़ी-थोड़ी ठंड महसूस होती रहे, तो अच्छा लगता है।”
“बत्ती बुझा दूँ?” कुछ देर बाद उसने पूछा।
“नहीं, रहने दीजिए।”
“नहीं, बुझा देती हूँ। ठीक से सो जाइए।” और उसने उठकर बत्ती बुझा दी। मैं काफी देर अँधेरे में छत की तरफ़ देखता रहा। फिर मुझे नींद आने लगी।
शायद रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी, जब इंजन के भोंपू की आवाज़ से मेरी नींद खुली। वह आवाज़ कुछ ऐसी भारी थी कि मेरे सारे शरीर में एक झुरझुरी-सी भर गयी। पिछले किसी स्टेशन पर इंजन बदल गया था।
गाड़ी धीरे-धीरे चलने लगी तो मैंने सिर थोड़ा ऊँचा उठाया। सामने की सीट ख़ाली थी। वह स्त्री न जाने किस स्टेशन पर उतर गयी थी। इसी स्टेशन पर न उतरी हो, यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा। प्लेटफ़ार्म बहुत पीछे रह गया था और बत्तियों की क़तार के सिवा कुछ साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने शीशा फिर नीचे खींच लिया। अन्दर की बत्ती अब भी बुझी हुई थी। बिस्तर में नीचे को सरकते हुए मैंने देखा कि कम्बल के अलावा मैं अपनी रजाई भी लिये हूँ जिसे अच्छी तरह कम्बल के साथ मिला दिया गया है। गरमी की कई एक सिहरनें एक साथ शरीर में भर गयीं।
ऊपर की बर्थ पर लेटा आदमी अब भी उसी तरह ज़ोर-ज़ोर से खुर्राटे भर रहा था।
नदी का पुल पार करने के लिए सड़क ऊँची होनी शुरू हो गई थी। सड़क के दोनों ओर बीहड़ नज़र आने लगे थे। उसकी निगाहें उस टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी को ढूँढ़ रही थीं जो उन दिनों बीहड़ के बीच से ऊपर-नीचे होती हुई घाट तक जाती थी।
तब घाट के ठीक पहले तेज़ ढलान हुआ करती थी जिस पर नदी के किनारे-किनारे दूर तक बालू की चादर बिछी रहती थी। बालू की पर्त इतनी मोटी होती थी कि उसपर चलते हुए पैर धँस-धँस जाते थे। पर नीचे, धारा से लगे हुए किनारे की बालू पसीजकर सख्त हो गई रहती थी। वहीं बैठकर वे नाव का इंतज़ार करते थे जो दूसरे किनारे पर सवारियों को चढ़ाते-उतारते या धारा के बीच आते-जाते दिखाई पड़ती थी। अगर नाव को इधर का किनारा छोड़े देर हो गई होती तो बालू पर कुछ राहगीर गठरी-मोटरी लेकर बैठे नज़र आते। नहीं तो एक-एक कर वे आते रहते और नाव के वापस लौटने तक वहाँ कुछ चहल-पहल-सी हो जाती थी। राहगीरों में कभी कोई नई दुल्हन होती जो चटक पियरी के ऊपर चमकीली चादर डालकर घूँघट काढ़े रहती। पूरी ढकी देह के नीचे से झाँकते काले, मटमैले पैर जिनमें गिलट के झाँझ और लच्छे पड़े होते, अजीब अटपटे-से लगते थे। दुल्हन के साथ गठरी लिए हुए कोई अधेड़ या बूढ़ा आदमी होता जो पुरानी मटमैली धोती के ऊपर नया सिला और गैरधुला, सफेद, चमकदार कुरता पहने होता जिसमें बटन नदारद होते। कभी गोद में बच्चा लिए कोई औरत भी होती। घाट पर बैठते ही बच्चा रोने लगता और वह भीड़ से ज़रा दूसरी ओर मुँह फेरकर कुरती से स्तन निकालती और उसके मुँह में दे देती और बेपरवाही से उसके ऊपर आँचल डाल लेती। वहाँ औरतों में पहला ही बच्चा होने के बाद छाती को लेकर कोई खास शरम न रह जाती और वे उसके प्रति लापरवाह-सी हो जाती थीं।...वह कभी इस छोटी-सी भीड़ को देखता, कभी दूर सरकती नाव को तो कभी कगार के ऊपर फैले बीहड़ के विस्तार को। दोनों ओर लंबाई में दूर तक चमकती नदी की धारा और चारों ओर फैले बीहड़ों के बीच-बीच खड़े बबूल के पेड़ और सरपत के गुच्छे जो हवा में बहुत धीरे-धीरे हिलते, बहुत एकाकी लगते थे। इस सुनसान फैलाव के बीच घाट पर सिमटी छोटी-सी भीड़ निचाट ऊसर के बीच छोटे-से खेत में खड़ी लहराती फसल-सी लगती। दुनिया में ऊँच-नीच, दुख और जलालत से बेख़बर उसे वह सारा मंजर बड़ा सुहावना लगता था।
नाव पास आती तो केवट उतर जाता और खींचकर उसे किनारे लाता, तब सवारियाँ उतरनी शुरू होतीं। फिर भी किसी-किसी का पैर पानी में पड़ जाता। सर-सामान के साथ सारी सवारियाँ उतर जातीं तो इधर के लोग चढ़ना शुरू करते। चढ़ते समय नाव वाला उसका हाथ पकड़कर ऊपर खींचता तो नाव डगमगा जाती। उसे डर लगता और वह जल्दी से सिमटकर बैठ जाता। नाव आगे बढ़ती तो तेज़-तेज़ बहते पानी के चौड़े पाट को देखकर उसका मन उत्साह से भर उठता। धारा के बीच नाव के एक ओर झुककर भँवर मारते साफ चमकते पानी को अंजुरी में उठाने का बहुत मन होता पर डाँट पड़ने के डर से वह जज्ब किए बैठा रहता।
सड़क अब एकाएक ऊँची हो गई थी और दूर पुल की रेलिंग नज़र आने लगी थी। उसके पहले चुंगी का बैरियर था जो ऊपर उठा हुआ था। बगल में एक झोंपड़ी थी जिसके सामने अलाव जल रहा था। तीन लोग उसके इर्द-गिर्द बैठे थे। उनके कपड़े वैसे ही मैले-कुचैले थे जैसे घाट पर केवट और ज्यादातर मुसाफिरों के हुआ करते थे। उनके चेहरे का भाव तो उसे अब याद नहीं लेकिन उनके चेहरे पर गहरी ऊब, उदासी और दयनीयता थी। अभी सुबह का वक्त था और सड़क पर दूर-दूर तक कोई सवारी नहीं थी। चारों ओर पहले के घाट-जैसा ही सुनसान एकांत था और उसकी गिरफ्त में पड़े अलाव तापते चेहरे कुदरती विस्तार का ही निर्जीव हिस्सा लग रहे थे। माहौल में अभाव और गरीबी की वही पुरानी गंध थी जिसके बीच सड़क की काली चमकती कोलतार पैबंद जैसी लग रही थी।
उसकी गाड़ी देखकर एक आदमी अँगड़ाई लेकर उठा और जल्दी-जल्दी रस्सी खींचकर बैरियर नीचा करने लगा। गाड़ी रुक गई तो वह बैरियर के सिरे को खूँटे से बाँधकर ड्राइवर की खिड़की के पास आया। उससे कुछ गुफ्तगू करने के बाद ड्राइवर ने इधर-उधर खोजकर पाँच रुपये का नोट निकाला जिसे उसने लपककर ले लिया और वापस जाकर बैरियर खोलने लगा। बैरियर ऊपर हो गया तो ड्राइवर आगे बढ़ने के बजाए उससे पर्ची की जिद करने लगा। पहले तो उसने ठिठककर ड्राइवर को अजीब निगाह से घूरा, फिर भकुआ-जैसा मुँह बनाकर अलाव तापते दूसरे आदमी की ओर देखने लगा। वह बहुत बेमन से उठकर झोंपड़ी के भीतर गया और काफी देर की खटर-पटर के बाद एक सड़े-से कागज का पुरजा लेकर आया जिस पर गलत-सलत वर्तनी में कुछ छपा हुआ था। उसने ड्राइवर को उसे देकर खुद उसपर गाड़ी का नंबर लिख लेने के लिए कहा क्योंकि ठेकेदार बाबू घर गए हुए थे। ड्राइवर ने पुरजा लेकर खिड़की का शीशा उठाया, गाड़ी स्टार्ट की और रफ्तार बढ़ाते हुए एक भद्दी-सी गाली देकर गेयर बदलने लगा।
शाम तक लौट आने के इरादे से वह मुँह-अँधेरे ही घर से चल पड़ा था। अब सूरज निकल आया था और धूप फैल रही थी लेकिन अभी भी इतनी जल्दी थी कि किसी के यहाँ अचानक पहुँचने पर वह अचकचा जाता। और गंतव्य था कि तेजी से करीब आता जा रहा था। उसके दिमाग में आया ही नहीं था कि गाड़ी से इतनी जल्दी पहुँच जाएगा।
नदी के उस पार के बीहड़ खत्म होने पर सड़क के दोनों ओर कुछ देर तक खेत मिलेंगे और तब बागों का सिलसिला शुरू होगा और उनमें से आखिरी बाग मामा का ही तो है। उसी के बीच से होकर तो सड़क से निकलकर उनके गाँव की बस्ती के लिए रास्ता जाता है। सड़क से देखने पर पेड़ों के बीच से बस्ती झलकती है। दरअसल नदी पार करने पर पहला गाँव उन्हीं का पड़ता है।
तब सड़क कच्ची हुआ करती थी और उस पर इक्के के अलावा और कोई सवारी नहीं चलती थी। इक्का भी नियमित नहीं मिलता था और उसे पहले से तय करना पड़ता था। वह भी नदी के बीहड़ शुरू होने से पहले एक छोटे-से बाजार में उतार देता था। वहाँ से पैदल ही चलना पड़ता था। दूरी तो ज्यादा नहीं थी लेकिन नदी पार करने में जो ताम-झाम था उसको ध्यान में रखकर लोग बहुत भोर में निकल लेते थे ताकि दोपहर का भोजन बनना शुरू होने से पहले ही वहाँ पहुँच जाएँ और मेहमानदारी के लिए मेजबानों को शर्मिंदा न होना पड़े। एक ही दिन में वहाँ जाकर लौट आने का दबाव उसपर इस कदर हावी था कि वह कुछ ज्यादा ही जल्दी चल पड़ा था। उसका मन अतीत से इस कदर रमा हुआ था कि समय और उसके साथ-साथ चीजों में आए बदलाव का उसे ठीक-ठीक भान नहीं हुआ था। पहले के हिसाब से तो यह पाल्हा छूकर लौट आने वाली बात होती जो निश्चय ही लोगों को नागवार गुजरती और, हो सकता है, सब कुछ अनसुनी कर वे उसे रात में रोक ही लेते। इतने दिनों बाद जिसके दौरान इतना सब कुछ बदल चुका था, मामा के यहाँ जाने का मन बना पाने और फिर पहले ही दिन शहर लौटने की मजबूरी से वह इतना संकुचित था कि उसे एहसास ही नहीं हुआ कि चीजों के सारे गणित बदल चुके हैं।
पुल के ऊपर और उसके दोनों ओर नदी के पाट पर अभी भी कुहरा छाया था जिसे काटकर गाड़ी कब आगे बढ़ गई, पता ही नहीं चला। उसे याद आया, उन दिनों घाट पार करने के बाद बीहड़ों के बीच से ऊपर उठती बैलगाड़ी की लीक थी जो काफी दूर चलने के बाद चौरस जमीन आने पर कच्ची सड़क में बदल जाती थी, जिसके दोनों ओर दूर तक खेत दिखते थे। सड़क शुरू होते ही बाईं ओर ऊँची जगत और बारह छुहियों वाला वह मशहूर कुआँ था जिस पर छः-छः पुर एक साथ चलते थे। अगर पुर चल रहे होते तो वहाँ खासी रौनक होती थी जिसे देखकर राहगीर कुछ देर के लिए ठिठक जाते थे। कई बार वहाँ रुककर उसने हाथ-पैर धोया था और पानी पीकर फिर आगे बढ़ा था।
पुल पार करते ही वह खिड़की के शीशे से उस ओर देखने लगा था। कुछ ही लमहों के बाद एक टूटी-फूटी जगत और ढही हुई छूहियाँ सर्राटे से निकल गईं और वह सोचता रह गया कि क्या वह वही कुआँ था। अब उसकी निगाहें उन बागों को ढूँढ़ रही थीं जिनकी सघन अमराई उसके जेहन में अभी तक खुबी हुई थी। लेकिन वे कहाँ थे ? वहाँ तो खेत ही खेत थे जिनमें गेहूँ और गन्ने की फसलें खड़ी थीं जिनके बीच कहीं-कहीं छोटी-छोटी झोंपड़ियाँ थीं जिनमें निजी ट्यूबवेल लगे थे। उनमें से कुछ उस समय भी पानी की मोटी धार फेंकते हुए चल रहे थे जो अपने-आप में बिल्कुल अजनबी दृश्य था। बीच-बीच में कुछ खंखड़, लकड़ाए पेड़ जरूर दिखे। तो क्या वही उन बागों के अवशेष हैं ?...उसके भीतर लगातार कुछ ऐंठता रहा।
आगे पत्थर की छोटी सी पटिया पर शायद उस गाँव का नाम लिखा था जो बीच-बीच में कोलतार निकल जाने से दौड़ती गाड़ी से ठीक से पढ़ने में नहीं आया। उसके बाद दोनों ओर सड़क से लगे हुए ईंटों के कुछ बने-अधबने मकान थे और कच्चे गारे से जुड़ी ऊबड़-खाबड़ दीवारों वाली चीकट-सी दुकानें जिनके शटर अभी बंद थे। उनके बाद फिर वही खेत और बीच-बीच में खंखड़ पेड़। तो क्या वह आगे बढ़ आया ? गाड़ी रोककर एक आदमी से पूछना पड़ा। गाड़ी वापस मोड़ते हुए ड्राइवर के चेहरे पर हल्की-सी खीझ थी।
उसे याद आया, बाग से बस्ती जाने वाली पगडंडी के बगल में एक तालाब था जिसमें नागपंचमी के दिन बच्चे गुड़िया पीटते थे और जिसमें शादी-विवाह के बाद औरतें झुंड बनाकर गीत गाते हुए मौर सिराने जाती थीं। उसके किनारे एक बहुत बड़ा आम का पेड़ था जो खूब जमकर फलता था और बाग के पेड़ों से थोड़ा पहले पकना शुरू हो जाता था। वह और बच्चों के साथ मुँह-अँधेरे ही उठकर उस पेड़ के नीचे सींकरि खोजने जाता था। पास में कहीं सियारों की माँद थी और वे रात में गिरे आमों को काटकर जूठा कर देते थे। इसी से उस पेड़ का नाम सियरखौववा पड़ गया था। बाग में आम पकना शुरू होने के पहले बच्चे दिनभर उसी के नीचे जमे रहते और धमाचौकड़ी मचाया करते। जब हवा चलती या पेड़ पर तोते बैठते तो भद-भद आम गिरने लगते। बाग की तरह वह पेड़ भी साझी था पर उसके आम बँटते नहीं थे। वह बच्चों के लिए छोड़ा हुआ था, जो जितना उठा लेता, उतना उसका हो जाता था। हवा बंद होती और आम न गिर रहे होते तो वे उसकी छाया में साफ जमीन पर खाने खींचकर गंटी या चौवा खेलते। चारों ओर धूप मनमनाती और फसल-कटे खेतों में रह-रहकर बगूले उठते। बार-बार घर से कोई खाने के लिए बुलाने आता पर वे खेल में मगन रहते। इतने सालों बाद क्या वह उस जमीन को पहचान लेगा जिस पर खेल शुरू होने की उमंग में उसने कितनी-कितनी बार खाने खींचे थे ? उसके अंदर एक सिहरन-सी दौड़ गई।
अब वह पगडंडी कहाँ थी ? दो दुकानों के बीच से एक सँकरा गलियारा निकलता था। पहले से मालूम न होने पर सड़क से उसका दिखना नामुमकिन ही था। बड़ी मुश्किल से गाड़ी उस पर मुड़ी थी। कुछ दूर उस पर खड़ंजा बिछा था जिसकी ईंटें बीच-बीच में नीचे धँस गई थीं और कहीं-कहीं इतना ऊपर उठी थीं कि पेट्रोल की टंकी में लगने से बचाने के लिए ड्राइवर को गाड़ी बहुत धीमी चलानी पड़ रही थी। गलियारा आगे एक चकरोड में मिल गया था। उसके बाईं ओर एक गढ्डा-सा था जिसका एक किनारा निचले खेत में बदल गया था और बाकी जलकुंभियों से भरा था। उस पेड़ का तो कहीं नामों-निशान नहीं था।
बस्ती में घुसते ही गाड़ी देखकर कुछ बच्चे सिमट आए थे। गाड़ी रुकते ही वे उसे घेरकर खड़े हो गए थे और बीच-बीच में गाड़ी को छूकर देखने लगे थे। ड्राइवर के झिड़कने पर वे थोड़ा इधर-उधर हुए लेकिन फिर धीरे-धीरे उसके पास सरकने लगे थे। उसे गाड़ी से उतरकर मड़हे में घुसते हुए अजीब-सा संकोच हो रहा था। अंदर मामा एक चारपाई पर लेटे थे। एक गंदा-सा बिस्तर लपेटकर उनके सर के नीचे रखा हुआ था। चारपाई के सिरहाने एक डंडा पड़ा था। उसे देखकर वे डंडा सँभालकर उठने लगे। तब उसे मालूम हुआ, उनकी आँखों में मोतियाबिंद है। उसने अपना परिचय बताया तो वे एकदम-से हड़बड़ा उठे थे। पास में कोई चारपाई नहीं थी। उन्होंने आवाज देकर किसी को बुलाया था पर देर तक कोई घर से बाहर नहीं निकला था। मड़हे के सामने धूप में कुछ चारपाइयाँ पड़ी थीं। मामा उसके साथ बाहर धूप में बैठकर बातें करने के इरादे से डंडे के सहारे चलकर मड़हे से बाहर आ गये थे। उसकी यादों का सारा तिलिस्म टूट चुका था और वह अब तक वहाँ बहुत अटपट-सा महसूस करने लगा था।
मामा उसे बता रहे थे कि कस्बे में आँख के एक डॉक्टर का कैंप लगा था तो वहाँ उन्होंने एक आँख का ऑपरेशन किया था। लेकिन पहले उस आँख से जो थोड़ा-बहुत दिखता था, ऑपरेशन के बाद वह भी बंद हो गया था। फिर वह पट्टीदार के साथ आबादी को लेकर चल रहे किसी मुकदमे की बात करने लगे थे। उन्हें आशा थी कि इस मामले में हाकिम से कह-सुनकर वह उनकी कुछ मदद कर सकेगा। पर वह चुपचाप सुनता रहा था और हाँ-ना कुछ नहीं किया था। मामा निराश होकर चुप हो गए थे।
कुछ देर बाद एक नंग-धड़ंग बच्ची कटोरी में कुछ लेकर खाती हुई घर से बाहर निकली थी। कुछ देर कटोरी लिए-लिए घुमरी-परैया खेलने के बाद वह उसके पास आ गई थी और हाथ-मुँह में जूठन लगाए उसकी चारपाई पर बैठने की कोशिश करने लगी थी। मामा ने उसे डाँटकर भगाना चाहा था पर वह पास ही मँडराती रही थी। बस्ती में कहीं दो औरतें आपस में झगड़ती हुई ज़ोर-ज़ोर से गालियाँ बक रही थीं। उनकी भद्दी गालियों की आवाज़ उसके कान में हथौड़े-सी लग रही थी। मामा उसे अनसुनी कर इधर-उधर की बातें करने लगे थे पर उनका चेहरा शर्म और खीझ से फक पड़ गया था। जब उससे बर्दाश्त नहीं हुआ तो वह उठकर गाड़ी के पास चला गया और उसमें से मिठाई का पैकेट निकालने लगा था।
मामा ने फिर जोर से आवाज लगाई थी। थोड़ी देर बाद एक औरत घर के बाहर निकली थी और उसे देखते ही झट से घूँघट लेकर वापस चली गई थी। फिर एक लड़का लोटे में पानी और कटोरी में कुछ बिस्कुट लेकर बाहर आया था। सुबह-सुबह उसे प्यास नहीं थी पर कटोरी से एक बिस्कुट लेकर वह कुतरने लगा था। लोटे के भार से उसके हाथ की मांस-पेशियाँ तनी हुई थीं और वह टेढ़ा होता जा रहा था। उसने जल्दी से लोटा उसके हाथ से ले लिया था। पानी पीने के बाद उसने ड्राइवर की ओर इशारा कर बच्चे से उसके लिए भी पानी लाने के लिए कहा था। और कटोरी के बाकी बिस्कुट ड्राइवर की ओर बढ़ा दिए थे। लड़का अंदर गया था पर वहाँ से खाली हाथ वापस आ गया था।
‘‘अम्मा पूछ रही हैं कि डरायवर कौन जात है ?’’
वह सकपका गया था। इस सवाल के लिए वह तैयार नहीं था। दरअसल ड्राइवर की जाति तो उसे भी नहीं मालूम थी। बच्चे ने निधड़क होकर इतने ढीठ स्वर में पूछा था कि ड्राइवर ने जरूर सुन लिया होगा। कटोरी से बिस्कुट उठाते हुए उसके हाथ रुक गए थे। वह सिटपिटाकर रह गया था। फिर धीरे से बोला था कि उसे प्यास नहीं है और अनायास गाड़ी का दरवाजा खोलने-बंद करने लगा था।
उसने सुना था, मामी के मरने के बाद से ही मामा के दोनों बेटों में अनबन रहने लगी थी। छोटा मुंबई में टैक्सी चलाता था। बड़ा सड़क पर सरिया और रेती की दुकान करता था। उधार बिक्री की वसूली और पूँजी की किल्लत के कारण दुकान कभी पनप नहीं पाई थी। खेती कुछ खास थी नहीं। दूकान से जो निकलता वह खाद-पानी के जुगाड़ में सर्फ हो जाता था। फिर दुकान बंद कर वह भी मुंबई चला गया था। वहाँ रुककर उसने भी टैक्सी चलानी सीखी थी लेकिन बैज बनवाने के लिए रिश्वत का इंतजाम नहीं कर पाया था। खान-खोराकी के अलावा भाई से भी कुछ सहायता नहीं मिली थी। चार महीने इधर-उधर भटकने के बाद वह वापस आ गया था और आते ही अलगौझी के लिए झगड़ा करने लगा था। उसके छोटे-बड़े कई बच्चे थे, सबसे बड़ी लड़की शादी लायक हो गई थी। वह चाहता था, छोटा भाई कुछ मदद करे तो किसी तरह शादी का इंतजाम हो जाए। लेकिन वह निजी टैक्सी खरीदने और बीवी-बच्चों को मुबंई ले जाने की फिक्र में पैसे जोड़ रहा था। अंततः दोनों में अलगौझी हो गई थी। दोनों की रसोई अलग बनने लगी थी। कुछ दिन खलिहान में फसल निपटने के बाद अनाज और भूसा बँटता रहा था। फिर खेत भी बँट गए थे। छोटे भाई की बहू लाज-शरम छोड़कर अपने हिस्से की खेती सँभालने लगी थी। बड़े का कभी खेती में मन लगा ही नहीं था। वह बीच-बीच में कहीं गायब हो जाता था। एक-एक कर उसकी बहू के गहने-गुरिया सब बिक गए थे। अब खेत बिकने की बात चल रही थी। यह तो कहो, अभी वे मामा के नाम थे नहीं तो अब तक बिक भी चुके होते। लड़की की शादी अभी भी जहाँ की तहाँ थी। अब मामा पारी-पारी से एक-एक महीने के लिए दोनों के साथ रहने लगे थे। घर में कोई मेहमान या अतिथि-अभ्यागत आता तो उसकी बड़ी बेकदरी होती थी क्योंकि दोनों के परिवार उसे एक-दूसरे पर डाल देते थे। अंत में यह तय हुआ था कि मामा उस समय जिसके पास रह रहे होंगे उसी पर उसकी खातिरदारी का जिम्मा होगा। पट्टीदार के साथ चल रहे मुकदमे का खर्च देने में भी दोनों आना-कानी करते थे। मामा को ही उसकी चिंता रहती थी।
मामा कितने टूटे हुए, उदास और निरीह लग रहे थे। माहौल में विपन्नता और बिखराव की कैसी गहरी साया थी। उसके मुँह का स्वाद कसैला हो आया था और अतीत की सारी नरमाहट सूखकर उड़ गई थी। उन दिनों मामा का परिवार कैसा भरा-पूरा और संपन्न लगता था। नाना बाहर कोई नौकरी करते थे और मामा ने जो भी खेती थी, ठीक से सँभाल रखी थी। दरवाजे पर कोई न कोई दुधारु गाय या भैंस हमेशा बँधी रहती थी।, आम महुआ और कटहल के बाग थे, चारों ओर सायर-मायर था। उसके अपने गाँव की मिट्टी में कटहल नहीं होते थे, उनके पकना शुरू होने पर हर साल मामा के यहाँ से एक आदमी बँहगी में दोनों ओर बड़े-बड़े कटहल लटकाए, उनके भार से झुका, तेज़-तेज़ चलता उसके घर आता था। जिस कमरे में कटहल रखे जाते थे वह एक नशीली गंध से गमक उठता था। वह बड़ी बेसब्री से उनके फोड़े जाने का इंतजार करता था। फिर तो हफ्ते भर कटहल फोड़ने, उसके कोए निकालकर खाने और उन्हें थाली में सजाकर पास-पड़ोस में बाँटने का सिलसिला चलता रहता था।
नाना का हाथ खुला हुआ था और उन्हें भविष्य के लिए कुछ जोड़ने की फिक्र कभी नहीं रही। बस रिटायर होने के बाद फंड वगैरह से जो पैसा मिला था उससे उन्होंने नई बखरी और दालान बनवा लिया था। लेकिन उसमें रहने का सुख बहुत दिन तक नहीं देख पाए थे। उनकी नियमित आमदनी बंद होते ही अभाव की खरोंचें लगनी शुरू हो गई थीं। मरने के पहले उन्होंने परिवार के बढ़ते हुए आकार के साथ-साथ धीरे-धीरे पैर जमाती गरीबी की दस्तक जरूर सुन ली होगी।
पानी पीने के बाद उसे ऐसी ऊभ-चूभ होने लगी थी कि वहाँ बैठा नहीं रहा गया था। उसने घर के कुछ बच्चों को साथ लिया था और बस्ती की ओर निकल गया था। उसे याद आया था, तब मामा के घर के पिछवाड़े एक बनिए का घर हुआ करता था जिसके सामने एक ऊँट बैठा पगुराया करता था। बगल में एक पुराना पछरिया कोल्हू था जो उस घर की पुराने दिनों से चली आ रही संपन्नता की याद दिलाता था। पास में कटहल के कुछ पेड़ थे जो गरमी के दिनों में जड़ों तक बड़े-बड़े फूलों से लदे रहते थे और चोरों से बचाने के लिए उन्हें चारों ओर से बबूल की सूखी टहनियों से रुँध दिया जाता था। अब वहाँ एक पक्का मकान खड़ा था। पर न ऊँट दिखा, न पथरिया कोल्हू, न कटहल के पेड़। घर एकदम सुनसान था। मालूम हुआ, बनिए का परिवार कस्बे में जाकर के बस गया था जहाँ उसकी सीमेंट की एजेंसी और कई और दुकानें खुल गई थीं। सड़क पर भी उसका एक मकान था। गाँव के इस मकान में वह कभी-कभी ही आता था और उसमें कुछ नौकर-चाकर ही रहते थे।
आगे नूर मुहम्मद दर्जी का घर था जिसके बरामदे में तब एक सिलाई मशीन रखी रहती थी। उसकी रह-रहकर गूँजती आवाज गाँव में एक शहरी फिजा पैदा करती थी जो उसे बहुत अच्छी लगती थी। उसके अपने गाँव में कोई दर्जी का घर नहीं था। नूर मुहम्मद के यहाँ वह कई बार कपड़े की नाप देने गया था। शादी-विवाह के मौके पर तो सभी की एक साथ नाप लेने नूर मुहम्मद खुद ही घर आ जाया करता था। उसके यहाँ से कपड़े सिलकर आते तो अक्सर बटन गायब रहते थे और जल्दी में भाग-दौड़कर बटन टँकवाने पड़ते थे। कभी-कभी तो वह काज बनाना ही भूल जाता था और दौड़कर उसके यहाँ कपड़ा वापस देना पड़ता था। नूर मुहम्मद का घर जहाँ-का-तहाँ खड़ा था लेकिन पहले से काफी टूट-फूट गया था। बरामदे में मशीन नहीं थी। वहाँ एक झिंलगा चारपाई पड़ी थी जिस पर एक बूढ़ा आदमी खाँसता हुआ लेटा था। क्या वह नूर मुहम्मद था ?
नूर मुहम्मद का बेटा अल्ताफ उसका हमउम्र था और उन दिनों वह उसके साथ बागों में घूमा करता था। उसका निशाना बड़ा अचूक था और वह लबेदा फेंककर ऊँची-ऊँची टहनियों का आम गिरा दिया करता था। पेड़ पर चढ़कर खेले जाने वाले चील्हर के खेल में भी वह बड़ा उस्ताद था। बस सिलाई सीखने में उसका मन नहीं लगता था। इसके लिए घर में सभी उसे उललाते रहते थे। दर्जी का बेटा होने पर भी कभी उसके बदन पर साबुत कपड़े नहीं दिखे।...कहाँ होगा वह इस समय ?
आगे बढ़ते ही एक आदमी सर पर गन्ने की सूखी पत्तियों का बोझ लेकर आता दिखा। वह चारखाने का गंदा-सा तहमद और उसके ऊपर कई जगहों से फटा पुराना स्वेटर पहने था। बोझ से ढका होने के कारण उसका चेहरा नहीं दिखा। उसने जरा ठिठककर उसे देखा और आगे बढ़ गया। नूर मुहम्मद के घर के सामने जाकर उसने बोझ गिराया और मुड़कर फिर उसकी ओर देखने लगा। वह भी उधर ही देख रहा था। उसके चेहरे पर पहचान की चमक-सी उभरी और वह जल्दी से उसकी ओर लपका। पास आने पर मालूम हुआ वही अल्ताफ था। वह बड़े उत्साह से उससे बातें करने लगा। वह सुबह-सुबह किसी के खेत में गन्ना छीलने गया था और दस्तूर के मुताबिक गन्ना काट-छीलकर खेत से कोल्हुआर तक पहुँचाने के बाद पत्तियाँ लेकर वापस लौटा था।
अल्ताफ के सर और दाढ़ी के बाल खिचड़ी हो गए थे। गाल पिचक गए थे। आँखों में बर्बाद जिंदगी और टूटे भविष्य की निराशा थी। कुछ सालों पहले मामा के छोटे लड़के के साथ वह मुंबई भाग गया था। कुछ दिन इधर-उधर भटकने के बाद उसे एक गार्मेंट फैक्टरी में सिलाई का काम मिल गया था। पर उन्हीं दिनों वहाँ दंगे भड़क उठे थे। उस दिन वह अपने एक मुसलमान दोस्त की टैक्सी में उसके साथ कहीं जा रहा था कि अचानक दंगे के चपेट में आ गया था। उसी की आँखों के सामने उसके दोस्त को चाकू घोंप दिया गया था। टैक्सी जला दी गई थी। वह किसी तरह भाग निकला था और छिपते-छिपाते अपने इलाके के हिंदुओं की झुग्गी में पहुँच गया था। एक हफ्ते वहीं छिपा रहा था। इधर के सारे मजदूर, कारीगर और टैक्सीवाले टाइगर के डर से सँसे हुए थे और एक-एक कर मुंबई छोड़ रहे थे। उसके पास किराए की कौन कहे, खाने तक को पैसे नहीं थे। इलाके के हिंदू मजदूरों और टैक्सीवालों का ही उसे सहारा मिला था। उन्हीं के यहाँ जगह बदल-बदलकर वह किसी तरह एक-एक रात काट रहा था। तमाम डर और दहशत के बावजूद वे अपने गाँव-देश का नाता नहीं भूले थे। उन्होंने ही कड़की में उसे खिलाया-पिलाया था और उसके लिए मुलुक का टिकट निकलवाकर दिया था। कुछ लोग उसे स्टेशन तक छोड़ने भी आए थे। कैसी काली-डरावनी रात थी वह ! हर पल मौत सामने नाच रही थी। हर आदमी दूसरे पर शक कर रहा था। जब तक गाड़ी शहर से बाहर नहीं आ गई, अपने बच निकलने का भरोसा नहीं हुआ था।
लौटकर फिर वही ढाक के तीन पात। गाँव के पुश्तौनी पेशे में अब क्या रखा है ? अब तो अब्बा को भी काम नहीं मिलता। यह तो रेडीमेड का ज़माना है। जिसे सिलाना भी होता है वह कस्बे में जाकर सिलवाता है। अब्बा को नए फैशन की चीज़ें सिलनी कहाँ आती हैं ! इधर तो बहुत दिनों से बीमार ही चल रहे हैं। खाट पकड़ ली है। खाँसी बंद होने का नाम नहीं लेती। धीमा-धीमा बुखार भी रहता है। अब किसको दिखाएँ ? दो-एक बार कस्बे में जाकर सुई लगवाई थी लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।....उमर भी तो हो गई है।...एक ही बार में इतना कर्जा-कुआम हो गया और जान के ऐसे लाले पड़े कि अब दुबारा मुंबई जाने की हिम्मत नहीं होती। अब वह कारीगर से खेतिहार मजदूर बन गया है और अपनी और अपने कुनबे की गाड़ी जैसे-तैसे खींच रहा है। उसने पड़ोस के गाँव के एक आदमी से बात की है जो सऊदी में रहता है। लेकिन वीसा वगैरह में बड़ा खर्च है। अल्लाह को जैसा मंजूर होगा।
Uski Roti (Hindi Story) : Mohan Rakesh
बालो को पता था कि अभी बस के आने में बहुत देर है, फिर भी पल्ले से पसीना पोंछते हुए उसकी आँखें बार-बार सडक़ की तरफ़ उठ जाती थीं। नकोदर रोड के उस हिस्से में आसपास कोई छायादार पेड़ भी नहीं था। वहाँ की ज़मीन भी बंजर और ऊबड़-खाबड़ थी—खेत वहाँ से तीस-चालीस गज़ के फ़ासले से शुरू होते थे। और खेतों में भी उन दिनों कुछ नहीं था। फ़सल कटने के बाद सिर्फ़ ज़मीन की गोड़ाई ही की गयी थी, इसलिए चारों तरफ़ बस मटियालापन ही नज़र आता था। गरमी से पिघली हुई नकोदर रोड का हल्का सुरमई रंग ही उस मटियालेपन से ज़रा अलग था। जहाँ बालो खड़ी थी वहाँ से थोड़े फासले पर एक लकड़ी का खोखा था। उसमें पानी के दो बड़े-बड़े मटकों के पास बैठा एक अधेड़-सा व्यक्ति ऊँघ रहा था। ऊँघ में वह आगे को गिरने को होता तो सहसा झटका खाकर सँभल जाता। फिर आसपास के वातावरण पर एक उदासी-सी नज़र डालकर, और अंगोछे से गले का पसीना पोंछकर, वैसे ही ऊँघने लगता। एक तरफ़ अढ़ाई-तीन फुट में खोखे की छाया फैली थी और एक भिखमंगा, जिसकी दाढ़ी काफ़ी बढ़ी हुई थी, खोखे से टेक लगाये ललचाई आँखों से बालो के हाथों की तरफ़ देख रहा था। उसके पास ही एक कुत्ता दुबककर बैठा था, और उसकी नज़र भी बालो के हाथों की तरफ़ थी।
बालो ने हाथ की रोटी को मैले आँचल में लपेट रखा था। वह उसे बद नज़र से बचाये रखना चाहती थी। रोटी वह अपने पति सुच्चासिंह ड्राइवर के लिए लायी थी, मगर देर हो जाने से सुच्चासिंह की बस निकल गयी थी और वह अब इस इन्तज़ार में खड़ी थी कि बस नकोदर से होकर लौट आये, तो वह उसे रोटी दे दे। वह जानती थी कि उसके वक़्त पर न पहुँचने से सुच्चासिंह को बहुत गुस्सा आया होगा। वैसे ही उसकी बस जालन्धर से चलकर दो बजे वहाँ आती थी, और उसे नकोदर पहुँचकर रोटी खाने में तीन-साढ़े तीन बज जाते थे। वह उसकी रात की रोटी भी उसे साथ ही देती थी जो वह आख़िरी फेरे में नकोदर पहुँचकर खाता था। सात दिन में छ: दिन सुच्चासिंह की ड्ïयूटी रहती थी, और छहों दिन वही सिलसिला चलता था। बालो एक-सवा एक बजे रोटी लेकर गाँव से चलती थी, और धूप में आधा कोस तय करके दो बजे से पहले सडक़ के किनारे पहुँच जाती थी। अगर कभी उसे दो-चार मिनट की देर हो जाती तो सुच्चासिंह किसी न किसी बहाने बस को वहाँ रोके रखता, मगर, उसके आते ही उसे डाँटने लगता कि वह सरकारी नौकर है, उसके बाप का नौकर नहीं कि उसके इन्तज़ार में बस खड़ी रखा करे। वह चुपचाप उसकी डाँट सुन लेती और उसे रोटी दे देती।
मगर आज वह दो-चार मिनट की नहीं, दो-अढ़ाई घंटे की देर से आयी थी। यह जानते हुए भी कि उस समय वहाँ पहुँचने का कोई मतलब नहीं, वह अपनी बेचैनी में घर से चल दी थी—उसे जैसे लग रहा था कि वह जितना वक़्त सडक़ के किनारे इन्तज़ार करने में बिताएगी, सुच्चासिंह की नाराज़गी उतनी ही कम हो जाएगी। यह तो निश्चित ही था कि सुच्चासिंह ने दिन की रोटी नकोदर के किसी तन्दूर में खा ली होगी। मगर उसे रात की रोटी देना ज़रूरी था और साथ ही वह सारी बात बताना भी जिसकी वजह से उसे देर हुई थी। वह पूरी घटना को मन ही मन दोहरा रही थी, और सोच रही थी कि सुच्चासिंह से बात किस तरह कही जाए कि उसे सब कुछ पता भी चल जाए और वह ख़ामख़ाह तैश में भी न आये। वह जानती थी कि सुच्चासिंह का गुस्सा बहुत ख़राब है और साथ ही यह भी कि जंगी से उलटा-सीधा कुछ कहा जाए तो वह बग़ैर गंड़ासे के बात नहीं करता।
जंगी के बारे में बहुत-सी बातें सुनी जाती थीं। पिछले साल वह साथ के गाँव की एक मेहरी को भगाकर ले गया था और न जाने कहाँ ले जाकर बेच आया था। फिर नकोदर के पंडित जीवाराम के साथ उसका झगड़ा हुआ, तो उसे उसने कत्ल करवा दिया। गाँव के लोग उससे दूर-दूर रहते थे, मगर उससे बिगाड़ नहीं रखते थे। मगर उस आदमी की लाख बुराइयाँ सुनकर भी उसने यह कभी नहीं सोचा था कि वह इतनी गिरी हुई हरकत भी कर सकता है कि चौदह साल की जिन्दां को अकेली देखकर उसे छेडऩे की कोशिश करे। वह यूँ भी ज़िन्दां से तिगुनी उम्र का था और अभी साल-भर पहले तक उसे बेटी-बेटी कहकर बुलाया करता था। मगर आज उसकी इतनी हिम्मत पड़ गयी कि उसने खेत में से आती जिन्दां का हाथ पकड़ लिया?
उसने जिन्दां को नन्ती के यहाँ से उपले माँग लाने को भेजा था। इनका घर खेतों के एक सिरे पर था और गाँव के बाकी घर दूसरे सिरे पर थे। वह आटा गूँधकर इन्तज़ार कर रही थी कि जिन्दां उपले लेकर आये, तो वह जल्दी से रोटियाँ सेंक ले जिससे बस के वक़्त से पहले सडक़ पर पहुँच जाए। मगर जिन्दां आयी, तो उसके हाथ ख़ाली थे और उसका चेहरा हल्दी की तरह पीला हो रहा था। जब तक जिन्दां नहीं आयी थी, उसे उस पर गुस्सा आ रहा था। मगर उसे देखते ही उसका दिल एक अज्ञात आशंका से काँप गया।
“क्या हुआ है जिन्दो, ऐसे क्यों हो रही है?” उसने ध्यान से उसे देखते हुए पूछा।
जिन्दां चुपचाप उसके पास आकर बैठ गयी और बाँहों में सिर डालकर रोने लगी।
“ख़सम खानी, कुछ बताएगी भी, क्या बात हुई है?”
जिन्दां कुछ नहीं बोली। सिर्फ़ उसके रोने की आवाज़ तेज़ हो गयी।
“किसी ने कुछ कहा है तुझसे?” उसने अब उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा।
“तू मुझे उपले-वुपले लेने मत भेजा कर,” जिन्दां रोने के बीच उखड़ी-उखड़ी आवाज़ में बोली, “मैं आज से घर से बाहर नहीं जाऊँगी। मुआ जंगी आज मुझसे कहता था...” और गला रुँध जाने से वह आगे कुछ नहीं कह सकी।
“क्या कहता था जंगी तुझसे...बता...बाल...” वह जैसे एक बोझ के नीचे दबकर बोलीं, “ख़सम खानी, अब बोलती क्यों नहीं?”
“वह कहता था,” जिन्दां सिसकती रही, “चल जिन्दां, अन्दर चलकर शरबत पी ले। आज तू बहुत सोहणी लग रही है...।”
“मुआ कमज़ात!” वह सहसा उबल पड़ी, “मुए को अपनी माँ रंडी नहीं सोहणी लगती? मुए की नज़र में कीड़े पड़ें। निपूते, तेरे घर में लडक़ी होती, तो इससे बड़ी होती, तेरे दीदे फटें!...फिर तूने क्या कहा?”
“मैंने कहा चाचा, मुझे प्यास नहीं है,” जिन्दां कुछ सँभलने लगी।
“फिर?”
“कहने लगा प्यास नहीं है, तो भी एक घूँट पी लेना। चाचा का शरबत पिएगी तो याद करेगी।...और मेरी बाँह पकडक़र खींचने लगा।”
“हाय रे मौत-मरे, तेरा कुछ न रहे, तेरे घर में आग लगे। आने दे सुच्चासिंह को। मैं तेरी बोटी-बोटी न नुचवाऊँ तो कहना, जल-मरे! तू सोया सो ही जाए।...हाँ, फिर?”
“मैं बाँह छुड़ाने लगी, तो मुझे मिठाई का लालच देने लगा। मेरे हाथ से उपले वहीं गिर गये। मैंने उन्हें वैसे ही पड़े रहने दिया और बाँह छुड़ाकर भाग आयी।”
उसने ध्यान से जिन्दां को सिर से पैर तक देखा और फिर अपने साथ सटा लिया।
“और तो नहीं कुछ कहा उसने?”
“जब मैं थोड़ी दूर निकल आयी, तो पीछे से ही-ही करके बोला, ‘बेटी, तू बुरा तो नहीं मान गयी? अपने उपले तो उठाकर ले जा। मैं तो तेरे साथ हँसी कर रहा था। तू इतना भी नहीं समझती? चल, आ इधर, नहीं आती, तो मैं आज तेरे घर आकर तेरी बहन से शिकायत करूँगा कि जिन्दां बहुत गुस्ताख़ हो गयी है, कहा नहीं मानती।’...मगर मैंने उसे न जवाब दिया, न मुडक़र उसकी तरफ़ देखा। सीधी घर चली आयी।”
“अच्छा किया। मैं मुए की हड्डी-पसली एक कराकर छोड़ूँगी। तू आने दे सुच्चासिंह को। मैं अभी जाकर उससे बात करूँगी। इसे यह नहीं पता कि जिन्दां सुच्चा सिंह ड्राइवर की साली है, ज़रा सोच-समझकर हाथ लगाऊँ।” फिर कुछ सोचकर उसने पूछा, “वहाँ तुझे और किसी ने तो नहीं देखा?”
“नहीं। खेतों के इस तरफ़ आम के पेड़ के नीचे राधू चाचा बैठा था। उसने देखकर पूछा कि बेटी, इस वक़्त धूप में कहाँ से आ रही है, तो मैंने कहा कि बहन के पेट में दर्द था, हकीमजी से चूरन लाने गयी थी।”
“अच्छा किया। मुआ जंगी तो शोहदा है। उसके साथ अपना नाम जुड़ जाए, तो अपनी ही इज़्ज़त जाएगी। उस सिर-जले का क्या जाना है? लोगों को तो करने के लिए बात चाहिए।”
उसके बाद उपले लाकर खाना बनाने में उसे काफ़ी देर हो गयी। जिस वक़्त उसने कटोरे में आलू की तरकारी और आम का अचार रखकर उसे रोटियों के साथ खद्दर के टुकड़े में लपेटा, उसे पता था कि दो कब के बज चुके हैं और वह दोपहर की रोटी सुच्चासिंह को नहीं पहुँचा सकती। इसलिए वह रोटी रखकर इधर-उधर के काम करने लगी। मगर जब बिलकुल ख़ाली हो गयी, तो उससे यह नहीं हुआ कि बस के अन्दाज़े से घर से चले। मुश्किल से साढ़े तीन-चार ही बजे थे कि वह चलने के लिए तैयार हो गयी।
“बहन, तू कब तक आएगी?” जिन्दां ने पूछा।
“दिन ढलने से पहले ही आ जाऊँगी।”
“जल्दी आ जाना। मुझे अकेले डर लगेगा।”
“डरने की क्या बात है?” वह दिखावटी साहस के साथ बोली, “किसकी हिम्मत है जो तेरी तरफ़ आँख उठाकर भी देख सके? सुच्चासिंह को पता लगेगा, तो वह उसे कच्चा ही नहीं चबा जाएगा? वैसे मुझे ज़्यादा देर नहीं लगेगी। साँझ से पहले ही घर पहुँच जाऊँगी। तू ऐसा करना कि अन्दर से साँकल लगा लेना। समझी? कोई दरवाज़ा खटखटाए तो पहले नाम पूछ लेना।” फिर उसने ज़रा धीमे स्वर में कहा, “और अगर जंगी आ जाए, और मेरे लिए पूछे कि कहाँ गयी है, तो कहना कि सुच्चासिंह को बुलाने गयी है। समझी?...पर नहीं। तू उससे कुछ नहीं कहना। अन्दर से जवाब ही नहीं देना समझी?”
वह दहलीज़ के पास पहुँची तो जिन्दां ने पीछे से कहा, “बहन, मेरा दिल धडक़ रहा है।”
“तू पागल हुई है?” उसने उसे प्यार के साथ झिडक़ दिया, “साथ गाँव है, फिर डर किस बात का है? और तू आप भी मुटियार है, इस तरह घबराती क्यों है?”
मगर जिन्दां को दिलासा देकर भी उसकी अपनी तसल्ली नहीं हुई। सडक़ के किनारे पहुँचने के वक़्त से ही वह चाह रही थी कि किसी तरह बस जल्दी से आ जाए जिससे वह रोटी देकर झटपट जिन्दां के पास वापस पहुँच जाए।
“वीरा, दो बजे वाली बस को गये कितनी देर हुई है?” उसने भिखमंगे से पूछा जिसकी आँखें अब भी उसके हाथ की रोटी पर लगी थीं। धूप की चुभन अभी कम नहीं हुई थी, हालाँकि खोखे की छाया अब पहले से काफ़ी लम्बी हो गयी थी। कुत्ता प्याऊ के त$ख्ते के नीचे पानी को मुँह लगाकर अब आसपास चक्कर काट रहा था।
“पता नहीं भैणा,” भिखमंगे ने कहा, “कई बसें आती हैं। कई जाती हैं। यहाँ कौन घड़ी का हिसाब है!”
बालो चुप हो रही। एक बस अभी थोड़ी ही देर पहले नकोदर की तरफ़ गयी थी। उसे लग रहा था धूल के फैलाव के दोनों तरफ़ दो अलग-अलग दुनियाएँ हैं। बसें एक दुनिया से आती हैं और दूसरी दुनिया की तरफ़ चली जाती हैं। कैसी होंगी वे दुनियाएँ जहाँ बड़े-बड़े बाज़ार हैं, दुकानें हैं, और जहाँ एक ड्राइवर की आमदनी का तीन-चौथाई हिस्सा हर महीने ख़र्च हो जाता है? देवी अक्सर कहा करता था कि सुच्चासिंह ने नकोदर में एक रखैल रख रखी है। उसका कितना मन होता था कि वह एक बार उस औरत को देखे। उसने एक बार सुच्चासिंह से कहा भी था कि उसे वह नकोदर दिखा दे, पर सुच्चासिंह ने डाँटकर जवाब दिया था, “क्यों, तेरे पर निकल रहे हैं? घर में चैन नहीं पड़ता? सुच्चासिंह वह मरद नहीं है कि औरत की बाँह पकडक़र उसे सडक़ों पर घुमाता फिरे। घूमने का ऐसा ही शौक है, तो दूसरा ख़सम कर ले। मेरी तरफ़ से मुझे खुली छुट्टी है।”
उस दिन के बाद वह यह बात ज़बान पर भी नहीं लायी थी। सुच्चासिंह कैसा भी हो, उसके लिए सब कुछ वही था। वह उसे गालियाँ दे लेता था, मार-पीट लेता था, फिर भी उससे इतना प्यार तो करता था कि हर महीने तनख़ाह मिलने पर उसे बीस रुपये दे जाता था। लाख बुरी कहकर भी वह उसे अपनी घरवाली तो समझता था! ज़बान का कड़वा भले ही हो, पर सुच्चासिंह दिल का बुरा हरगिज़ नहीं था। वह उसके जिन्दां को घर में रख लेने पर अक्सर कुढ़ा करता था, मगर पिछले महीने खुद ही जिन्दां के लिए काँच की चूडिय़ाँ और अढ़ाई गज़ मलमल लाकर दे गया था।
एक बस धूल उड़ाती आकाश के उस छोर से इस तरफ़ को आ रही थी। बालो ने दूर से ही पहचान लिया कि वह सुच्चासिंह की बस नहीं है। फिर भी बस जब तक पास नहीं आ गयी, वह उत्सुक आँखों से उस तरफ़ देखती रही। बस प्याऊ के सामने आकर रुकी। एक आदमी प्याज़ और शलगम का गट्ठर लिये बस से उतरा। फिर कंडक्टर ने ज़ोर से दरवाज़ा बन्द किया और बस आगे चल दी। जो आदमी बस से उतरा था, उसने प्याऊ के पास जाकर प्याऊ वाले को जगाया और चुल्लू से दो लोटे पानी पीकर मूँछें साफ़ करता हुआ अपने गट्ठर के पास लौट आया।
“वीरा, नकोदर से अगली बस कितनी देर में आएगी?” बालो ने दो क़दम आगे जाकर उस आदमी से पूछ लिया।
“घंटे-घंटे के बाद बस चलती है, माई।” वह बोला, “तुझे कहाँ जाना है?”
“जाना नहीं है वीरा, बस का इन्तज़ार करना है। सुच्चासिंह ड्राइवर मेरा घरवाला है। उसे रोटी देनी है।”
“ओ सुच्चा स्यों!” और उस आदमी के होंठों पर ख़ास तरह की मुस्कराहट आ गयी।
“तू उसे जानता है?”
“उसे नकोदर में कौन नहीं जानता?”
बालो को उसका कहने का ढंग अच्छा नहीं लगा, इसलिए वह चुप हो रही। सुच्चासिंह के बारे में जो बातें वह खुद जानती थी, उन्हें दूसरों के मुँह से सुनना उसे पसन्द नहीं था। उसे समझ नहीं आता था कि दूसरों को क्या हक है कि वे उसके आदमी के बारे में इस तरह बात करें?
“सुच्चासिंह शायद अगली बस लेकर आएगा,” वह आदमी बोला।
“हाँ! इसके बाद अब उसी की बस आएगी।”
“बड़ा ज़ालिम है जो तुझसे इस तरह इन्तज़ार कराता है।”
“चल वीरा, अपने रास्ते चल!” बालो चिढक़र बोली, “वह क्यों इन्तज़ार कराएगा?” मुझे ही रोटी लाने में देर हो गयी थी जिससे बस निकल गयी। वह बेचारा सवेरे से भूखा बैठा होगा।”
“भूखा? कौन सुच्चा स्यों?” और वह व्यक्ति दाँत निकालकर हँस दिया। बालो ने मुँह दूसरी तरफ़ कर लिया। “या साईं सच्चे!” कहकर उस आदमी ने अपना गट्ठर सिर पर उठा लिया और खेतों की पगडंडी पर चल दिया। बालो की दाईं टाँग सो गयी थी। उसने भार दूसरी टाँग पर बदलते हुए एक लम्बी साँस ली और दूर तक के वीराने को देखने लगी।
न जाने कितनी देर बाद आकाश के उसी कोने से उसे दूसरी बस अपनी तरफ़ आती नज़र आयी। तब तक खड़े-खड़े उसके पैरों की एडिय़ाँ दुखने लगी थीं। बस को देखकर वह पोटली का कपड़ा ठीक करने लगी। उसे अफ़सोस हो रहा था कि वह रोटियाँ कुछ और देर से बनाकर क्यों नहीं लायी, जिससे वे रात तक कुछ और ताज़ा रहतीं। सुच्चासिंह को कड़ाह परसाद का इतना शौक है—उसे क्यों यह ध्यान नहीं आया कि आज थोड़ा कड़ाह परसाद ही बनाकर ले आये?...ख़ैर, कल गुर परब है, कल ज़रूर कड़ाह परसाद बनाकर लाएगी।...
पीछे गर्द की लम्बी लकीर छोड़ती हुई बस पास आती जा रही थी। बालो ने बीस गज़ दूर से ही सुच्चासिंह का चेहरा देखकर समझ लिया कि वह उससे बहुत नाराज़ है। उसे देखकर सुच्चासिंह की भवें तन गयी थीं और निचले होंठ का कोना दाँतों में चला गया था। बालो ने धडक़ते दिल से रोटी वाला हाथ ऊपर उठा दिया। मगर बस उसके पास न रुककर प्याऊ से ज़रा आगे जाकर रुकी।
दो-एक लोग वहाँ बस से उतरने वाले थे। कंडक्टर बस की छत पर जाकर एक आदमी की साइकिल नीचे उतारने लगा। बालो तेज़ी से चलकर ड्राइवर की सीट के बराबर पहुँच गयी।
“सुच्चा स्यां!” उसने हाथ ऊँचा उठाकर रोटी अन्दर पहुँचाने की चेष्टा करते हुए कहा, “रोटी ले ले।”
“हट जा,” सुच्चासिंह ने उसका हाथ झटककर पीछे हटा दिया।
“सुच्चा स्यां, एक मिनट नीचे उतरकर मेरी बात सुन ले। आज एक ख़ास वज़ह हो गयी थी, नहीं तो मैं...।”
“बक नहीं, हट जा यहाँ से,” कहकर सुच्चासिंह ने कंडक्टर से पूछा कि वहाँ का सारा सामन उतर गया है या नहीं।
“बस एक पेटी बाकी है, उतार रहा हूँ,” कंडक्टर ने छत से आवाज़ दी।
“सुच्चा स्यां, मैं दो घंटे से यहाँ खड़ी हूँ,” बालो ने मिन्नत के लहज़े में कहा, “तू नीचे उतरकर मेरी बात तो सुन ले।”
“उतर गयी पेटी?” सुच्चासिंह ने फिर कंडक्टर से पूछा।
“हाँ, चलो,” पीछे से कंडक्टर की आवाज़ आयी।
“सुच्चा स्यां! तू मुझ पर नाराज़ हो ले, पर रोटी तो रख ले। तू मंगलवार को घर आएगा तो मैं तुझे सारी बात बताऊँगी।” बालो ने हाथ और ऊँचा उठा दिया।
“मंगलवार को घर आएगा तेरा...,” और एक मोटी-सी गाली देकर सुच्चासिंह ने बस स्टार्ट कर दी।
दिन ढलने के साथ-साथ आकाश का रंग बदलने लगा था। बीच-बीच में कोई एकाध पक्षी उड़ता हुआ आकाश को पार कर जाता था। खेतों में कहीं-कहीं रंगीन पगडिय़ाँ दिखाई देने लगी थीं। बालो ने प्याऊ से पानी पिया और आँखों पर छींटे मारकर आँचल से मुँह पोंछ लिया। फिर प्याऊ से कुछ फासले पर जाकर खड़ी हो गयी। वह जानती थी, अब सुच्चासिंह की बस जालन्धर से आठ-नौ बजे तक वापस आएगी। क्या तब तक उसे इन्तज़ार करना चाहिए? सुच्चासिंह को इतना तो करना चाहिए था कि उतरकर उसकी बात सुन लेता। उधर घर में जिन्दां अकेली डर रही होगी। मुआ जंगी पीछे किसी बहाने से आ गया तो? सुच्चासिंह रोटी ले लेता, तो वह आधे घंटे में घर पहुँच जाती। अब रोटी तो वह बाहर कहीं न कहीं खा ही लेगा, मगर उसके गुस्से का क्या होगा? सुच्चासिंह का गुस्सा बेजा भी तो नहीं है। उसका मेहनती शरीर है और उसे कसकर भूख लगती है। वह थोड़ी और मिन्नत करती, तो वह ज़रूर मान जाता। पर अब?
प्याऊ वाला प्याऊ बन्द कर रहा था। भिखमंगा भी न जाने कब का उठकर चला गया था। हाँ, कुत्ता अब भी वहाँ आसपास घूम रहा था। धूप ढल रही थी और आकाश में उड़ते चिडिय़ों के झुंड सुनहरे लग रहे थे। बालो को सडक़ के पार तक फैली अपनी छाया बहुत अजीब लग रही थी। पास के किसी खेत में कोई गभरू जवान खुले गले से माहिया गा रहा था :
“बोलण दी थां कोई नां
जिहड़ा सानूँ ला दे दित्ता
उस रोग दा नां कोई नां।”
माहिया की वह लय बालो की रग-रग में बसी हुई थी। बचपन में गरमियों की शाम को वह और बच्चों के साथ मिलकर रहट के पानी की धार के नीचे नाच-नाचकर नहाया करती थी, तब भी माहिया की लय इसी तरह हवा में समाई रहती थी। साँझ के झुटपुटे के साथ उस लय का एक ख़ास ही सम्बन्ध था। फिर ज्यों-ज्यों वह बड़ी होती गयी, ज़िन्दगी के साथ उस लय का सम्बन्ध और गहरा होता गया। उसके गाँव का युवक लाली था जो बड़ी लोच के साथ माहिया गाया करता था। उसने कितनी बार उसे गाँव के बाहर पीपल के नीचे कान पर हाथ रखकर गाते सुना था। पुष्पा और पारो के साथ वह देर-देर तक उस पीपल के पास खड़ी रहती थी। फिर एक दिन आया जब उसकी माँ कहने लगी कि वह अब बड़ी हो गयी है, उसे इस तरह देर-देर तक पीपल के पास नहीं खड़ी रहना चाहिए। उन्हीं दिनों उसकी सगाई की भी चर्चा होने लगी। जिस दिन सुच्चासिंह के साथ उसकी सगाई हुई, उस दिन पारो आधी रात तक ढोलक पर गीत गाती रही थी। गाते-गाते पारो का गला रह गया था फिर भी वह ढोलक छोडऩे के बाद उसे बाँहों में लिये हुए गाती रही थी—
“बीबी, चन्नण दे ओहले ओहले किऊँ खड़ी,
नीं लाडो किऊँ खड़ी?
मैं तां खड़ी सां बाबल जी दे बार,
मैं कनिआ कँवार,
बाबल वर लोडि़ए।
नीं जाइए, किहो जिहा वह लीजिए?
जिऊँ तारिआँ विचों चन्द,
चन्दा विचों नन्द,
नन्दां विचों कान्ह-कन्हैया वर लीडि़ए...!”
वह नहीं जानती थी कि उसका वर कौन है, कैसा है, फिर भी उसका मन कहता था कि उसके वर की सूरत-शक्ल ठीक वैसी ही होगी जैसी कि गीत की कडिय़ाँ सुनकर सामने आती हैं। सुहागरात को जब सुच्चासिंह ने उसके चेहरे से घूँघट हटाया, तो उसे देखकर लगा कि वह सचमुच बिलकुल वैसा ही कान्ह-कन्हैया वर पा गयी है। सुच्चासिंह ने उसकी ठोड़ी ऊँची की, तो न जाने कितनी लहरें उसके सिर से उठकर पैरों के नाख़ूनों में जा समाईं। उसे लगा कि ज़िन्दगी न जाने ऐसी कितनी सिहरनों से भरी होगी जिन्हें वह रोज़-रोज़ महसूस करेगी और अपनी याद में सँजोकर रखती जाएगी।
“तू हीरे की कणी है, हीरे की कणी,” सुच्चासिंह ने उसे बाँहों में भरकर कहा था।
उसका मन हुआ था कि कहे, यह हीरे की कणी तेरे पैर की धूल के बराबर भी नहीं है, मगर वह शरमाकर चुप रह गयी थी।
“माई, अँधेरा हो रहा है, अब घर जा। यहाँ खड़ी क्या कर रही है?” प्याऊ वाले ने चलते हुए उसके पास रुककर कहा।
“वीरा, यह बस आठ-नौ बजे तक जालन्धर से लौटकर आ जाएगी न?” बालो ने दयनीय भाव से उससे पूछ लिया।
“क्या पता कब तक आए? तू उतनी देर यहाँ खड़ी रहेगी?”
“वीरा, उसकी रोटी जो देनी है।”
“उसे रोटी लेनी होती, तो ले न लेता? उसका तो दिमाग़ ही आसमान पर चढ़ा रहता है।”
“वीरा, मर्द कभी नाराज़ हो ही जाता है। इसमें ऐसी क्या बात है?”
“अच्छा खड़ी रह, तेरी मर्ज़ी। बस नौ से पहले क्या आएगी!”
“चल, जब भी आए।”
प्याऊ वाले से बात करके वह निश्चय खुद-ब-खुद हो गया जो वह अब तक नहीं कर पायी थी—कि उसे बस के जालन्धर से लौटने तक वहाँ रुकी रहना है। जिन्दां थोड़ा डरेगी—इतना ही तो न? जंगी की अब दोबारा उससे कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ सकती। आख़िर गाँव की पंचायत भी तो कोई चीज़ है। दूसरे की बहन-बेटी पर बुरी नज़र रखना मामूली बात है? सुच्चासिंह को पता चल जाए, तो वह उसे केशों से पकडक़र सारे गाँव में नहीं घसीट देगा? मगर सुच्चासिंह को यह बात न बताना ही शायद बेहतर होगा। क्या पता इतनी-सी बात से दोनों में सिर-फुटव्वल हो जाए? सुच्चासिंह पहले ही घर के झंझटों से घबराता है, उसे और झंझट में डालना ठीक नहीं। अच्छा हुआ जो उस वक़्त सुच्चासिंह ने बात नहीं सुनी। वह तो अभी कह रहा था कि मंगलवार को घर नहीं आएगा। अगर वह सचमुच न आया, तो? और अगर उसने गुस्से होकर घर आना बिलकुल छोड़ दिया, तो? नहीं, वह उसे कभी कोई परेशान करनेवाली बात नहीं बताएगी। सुच्चासिंह ख़ुश रहे, घर की परेशानियाँ वह ख़ुद सँभाल सकती है।
वह ज़रा-सा सिहर गयी। गाँव का लोटूसिंह अपनी बीबी को छोडक़र भाग गया था। उसके पीछे वह टुकड़े-टुकड़े को तरस गयी थी। अन्त में उसने कुएँ में छलाँग लगाकर आत्महत्या कर ली थी। पानी से फूलकर उसकी देह कितनी भयानक हो गयी थी?
उसे थकान महसूस हो रही थी, इसलिए वह जाकर प्याऊ के त$ख्ते पर बैठ गयी। अँधेरा होने के साथ-साथ खेतों की हलचल फिर शान्त होती जा रही थी। माहिया के गीत का स्थान अब झींगुरों के संगीत ने ले लिया था। एक बस जालन्धर की तरफ़ से और एक नकोदर की तरफ़ से आकर निकल गयी। सुच्चासिंह जालन्धर से आख़िरी बस लेकर आता था। उसने पिछली बस के ड्राइवर से पता कर लिया था कि अब जालन्धर से एक ही बस आनी रहती है। अब जिस बस की बत्तियाँ दिखाई देंगी, वह सुच्चासिंह की ही बस होगी। थकान के मारे उसकी आँखें मुँदी जा रही थीं। वह बार-बार कोशिश से आँखें खोलकर उन्हें दूर तक के अँधेरे और उन काली छायाओं पर केन्द्रित करती जो धीरे-धीरे गहरी होती जा रही थीं। ज़रा-सी भी आवाज़ होती, तो उसे लगता कि बस आ रही है और वह सतर्क हो जाती। मगर बत्तियों की रोशनी न दिखाई देने से एक ठंडी साँस भर फिर से निढाल हो रहती। दो-एक बार मुँदी हुई आँखों से जैसे बस की बत्तियाँ अपनी ओर आती देखकर वह चौंक गयी—मगर बस नहीं आ रही थी। फिर उसे लगने लगा कि वह घर में है और कोई ज़ोर-ज़ोर से घर के किवाड़ खटखटा रहा है। जिन्दां अन्दर सहमकर बैठी है। उसका चेहरा हल्दी की तरह पीला हो रहा है।...रहट के बैल लगातार घूम रहे हैं। उनकी घंटियों की ताल के साथ पीपल के नीचे बैठा एक युवक कान पर हाथ रखे माहिया गा रहा है।...ज़ोर की धूल उड़ रही है जो धरती और आकाश की हर चीज़ को ढके ले रही है। वह अपनी रोटीवाली पोटली को सँभालने की कोशिश कर रही है, मगर वह उसके हाथ से निकलती जा रही है।...प्याऊ पर सूखे मटके रखे हैं जिनमें एक बूँद भी पानी नहीं है। वह बार-बार लोटा मटके में डालती है, पर उसे ख़ाली पाकर निराश हो जाती है।...उसके पैरों में बिवाइयाँ फूट रही हैं। वह हाथ की उँगली से उन पर तेल लगा रही है, मगर लगाते-लगाते ही तेल सूखता जाता है।...जिन्दां अपने खुले बाल घुटनों पर डाले रो रही है। कह रही है, “तू मुझे छोडक़र क्यों गयी थी? क्यों गयी थी मुझे छोडक़र? हाय, मेरा परांदा कहाँ गया? मेरा परांदा किसने ले लिया?”
सहसा कन्धे पर हाथ के छूने से वह चौंक गयी।
“सुच्चा स्यां!” उसने जल्दी से आँखों को मल लिया।
“तू अब तक घर नहीं गयी?” सुच्चासिंह त$ख्ते पर उसके पास ही बैठ गया। बस ठीक प्याऊ के सामने खड़ी थी। उस वक़्त उसमें एक सवारी नहीं थी। कंडक्टर पीछे की सीट पर ऊँघ रहा था।
“मैंने सोचा रोटी देकर ही जाऊँगी। बैठे-बैठे झपकी आ गयी। तुझे आये बहुत देर तो नहीं हुई?”
“नहीं, अभी बस खड़ी की है। मैंने तुझे दूर से ही देख लिया था। तू इतनी पागल है कि तब से अब तक रोटी देने के लिए यहीं बैठी है?”
“क्या करती? तू जो कह गया था कि मैं घर नहीं आऊँगा!” और उसने पलकें झपककर अपने उमड़ते आँसुओं को सुखा देने की चेष्टा की।
“अच्छा ला, दे रोटी, और घर जा! जिन्दां वहाँ अकेली डर रही होगी।” सुच्चासिंह ने उसकी बाँह थपथपा दी और उठ खड़ा हुआ।
रोटीवाला कटोरा उससे लेकर सुच्चासिंह उसकी पीठ पर हाथ रखे हुए उसे बस के पास तक ले आया। फिर वह उचककर अपनी सीट पर बैठ गया। बस स्टार्ट करने लगा, तो वह जैसे डरते-डरते बोली, “सुच्चा स्यां, तू मंगल को घर आएगा न?”
“हाँ, आऊँगा। तुझे शहर से कुछ मँगवाना हो, तो बता दे।”
“नहीं, मुझे मँगवाना कुछ नहीं है।”
बस घरघराने लगी, तो वह दो क़दम पीछे हट गयी। सुच्चासिंह ने अपनी दाढ़ी-मूँछ पर हाथ फेरा, एक डकार लिया और उसकी तरफ़ देखकर पूछ लिया, “तू उस वक़्त क्या बात बताना चाहती थी?”
“नहीं, ऐसी कोई ख़ास बात नहीं थी। मंगल को घर आएगा ही...”
“अच्छा, अब जल्दी से चली जा, देर न कर। एक मील बाट है...!”
“...सुच्चा स्यां, कल गुर परब है। कल मैं तेरे लिए कड़ाह परसाद बनाकर लाऊँगी...।”
“अच्छा, अच्छा...”
बस चल दी। बालो पहियों की धूल में घिर गयी। धूल साफ़ होने पर उसने पल्ले से आँखें पोंछ लीं और तब तक बस के पीछे की लाल बत्ती को देखती रही जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गयी।
जीनियस कॉफ़ी की प्याली आगे रखे मेरे सामने बैठा था।
मैं उस आदमी को ध्यान से देख रहा था। मेरे साथी ने बताया था कि यह जीनियस है और मैंने सहज ही इस बात पर विश्वास कर लिया था। उससे पहले मेरा जीनियस से प्रत्यक्ष परिचय कभी नहीं हुआ था। इतना मैं जानता था कि अब वह पहला ज़माना नहीं है जब एक सदी में कोई एकाध ही जीनियस हुआ करता था। आज के ज़माने को जीनियस पैदा करने की नज़र से कमाल हासिल है। रोज़ कहीं न कहीं किसी न किसी जीनियस की चर्चा सुनने को मिल जाती है। मगर जीनियस की चर्चा सुनना और बात है, और एक जीनियस को अपने सामने देखना बिलकुल दूसरी बात। तो मैं उसे ग़ौर से देख रहा था। उसके भूरे बाल उलझकर माथे पर आ गये थे। चेहरे पर हल्की-हल्की झुर्रियाँ थीं, हालाँकि उम्र सत्ताईस-अट्ठाईस साल से ज़्यादा नहीं थी। होंठों पर एक स्थायी मुस्कराहट दिखाई देती थी, फिर भी चेहरे का भाव गम्भीर था। वह सिगरेट का कश खींचकर नीचे का होंठ ज़रा आगे को फैला देता था जिससे धुआँ बजाय सीधा जाने के ऊपर की तरफ़ उठ जाता था। उसकी आँखें निर्विकार भाव से सामने देख रही थी। हाथ मशीनी ढंग से कॉफ़ी की प्याली को होंठों तक ले जाते थे, हल्का-सा घूँट अन्दर जाता था और प्याली वापस सॉसर में पहुँच जाती थी।
“हूँ!” कई क्षणों के बाद उसके मुँह से यह स्वर निकला। मुझे लगा कि उसकी ‘हूँ’ साधारण आदमी की ‘हूँ’ से बहुत भिन्न है।
“मेरे मित्र आपकी बहुत प्रशंसा कर रहे थे,” मैंने वक़्त की ज़रूरत समझते हुए बात आरम्भ की। जीनियस के माथे के बल गहरे हो गये और उसके होंठों पर मुस्कराहट ज़रा और फैल गयी।
“मैंने इनसे कहा था कि चलिए आपका परिचय करा दूँ,” मेरे साथी ने कहा। साथ ही उसकी आँखें झपकीं और उसके दो-एक दाँत बाहर दिखाई दे गये। मुझे एक क्षण के लिए सन्देह हुआ कि कहीं यह संकेत स्वयं उसी के जीनियस होने का परिचायक तो नहीं? परन्तु दूसरे ही क्षण उसकी सधी हुई मुद्रा देखकर मेरा सन्देह जाता रहा। जीनियस एक पल आँखें मूँदे रहा। फिर उसने इस तरह विस्मय के साथ आँखें खोलीं जैसे वह यह निश्चय न कर पा रहा हो कि अपने आसपास बैठे हुए लोगों के साथ उसका क्या सम्बन्ध हो सकता है। उसके फैले हुए होंठ ज़रा सिकुड़ गये। उसने सिगरेट का एक कश खींचा और तम्बाकू का धुआँ सरसराता हुआ ऊपर को उठने लगा, तो उसने कहा, “देखिए, ये सिर्फ़ आपको बना रहे हैं। मैं जीनियस-वीनियस कुछ नहीं, साधारण आदमी हूँ।”
मैंने अपने साथी की तरफ़ देखा कि शायद उसके किसी संकेत से पता चले कि मुझे क्या कहना चाहिए। मगर वह दम साधे पत्थर के बुत की तरह गम्भीर बैठा था। मैंने फिर जीनियस की तरफ़ देखा। वह भी अपनी जगह निश्चल था। बुश्शर्ट के खुले होने से उसकी बालों से भरी छाती का काफ़ी भाग बाहर दिखाई दे रहा था।
वह कहवाख़ाने का काफ़ी अँधेरा कोना था। आसपास धुआँ जमा हो रहा था। दूर ज़ोर-ज़ोर के कहकहे लग रहे थे और हाथों में थालियाँ लिये छायाएँ इधर-उधर घूम रही थीं।
“मैं आज तक नहीं समझ सका कि कुछ लोग जीनियस क्यों माने जाते हैं?” जीनियस ने फिर कहना आरम्भ किया, “मैंने बड़े-बड़े जीनियसों के विषय में पढ़ा है और जिन्हें लोग जीनियस समझते हैं, उनकी रचनाएँ भी पढ़ी हैं। उनमें कुछ नाम हैं—शेक्सपियर, टॉल्स्टाय, गोर्की और टैगोर। मैं इन सबको हेच समझता हूँ।”
मैं अब और भी ध्यान से उसे देखने लगा। उसके माथे के ठीक बीच में एक फूली हुई नाड़ी थी जिसकी धडक़न दूर से ही नज़र आती थी। उसकी गलौठी बाहर की निकली हुई थी। बायीं आँख के नीचे हल्का-सा फफोला था। मैं उसके नक़्श अच्छी तरह ज़हन में बिठा लेना चाहता था। डर था कि हो सकता है फिर ज़िन्दगी-भर किसी जीनियस से मिलने का सौभाग्य प्राप्त न हो।
“शेक्सपियर सिर्फ़ एक वार्ड था,” दो कश खींचकर उसने फिर कहना आरम्भ किया, “और अगर मर्लोवाली कहानी सच है, तो इस बात में ही सन्देह है कि शेक्सपियर शेक्सपियर था। टॉल्स्टाय, गोर्की और चेख़व जैसे लेखकों को मैं अच्छे कॉपीइस्ट समझता हूँ—केवल कॉपीइस्ट, और कुछ नहीं। जो जैसा अपने आसपास देखा उसका हूबहू चित्रण करते गये। इसके लिए विशेष प्रतिभा की आवश्यकता नहीं। टैगोर में हाँ, थोड़ी कविता ज़रूर थी।”
वह खुलकर मुस्कराया। मेरे लिए उस मुस्कराहट का थाह पाना बहुत कठिन था। पास ही कहीं दो-एक प्यालियाँ गिरकर टूट गयीं। एक कबूतर पंख फडफ़ड़ाता हुआ कहवाख़ाने के अन्दर आया और कुछ लोग मिलकर उसे बाहर निकालने की कोशिश करने लगे। जीनियस की आँखें भी कबूतर की तरफ़ मुड़ गयीं और वह कुछ देर के लिए हमारे अस्तित्व को बिलकुल भूल गया। जब उसने कबूतर की तरफ़ से आँखें हटाईं तो उसे जैसे नये सिरे से हमारी मौजूदगी का एहसास हुआ।
“मैं एक निहायत ही अदना इन्सान हूँ,” उसने हमारे कन्धों से ऊपर दीवार की तरफ देखते हुए कहा, “लेकिन यह मैं ज़रूर जानता हूँ कि जीनियस कहते किसे हैं—माफ़ कीजिए, कहते नहीं, जीनियस कहना किसे चाहिए।” उसने प्याली रख दी और शब्दों के साथ-साथ उसकी उँगलियाँ हवा में खाके बनाने लगीं। “आप जानते हैं—या शायद नहीं जानते—कि जीनियस एक व्यक्ति नहीं होता। वह एक फिनोमेना होता है, एक परिस्थिति जिसे केवल महसूस किया जा सकता है। उसका अपना एक रेडिएशन, एक प्रकाश होता है। उस रेडिएशन का अनुमान उसके चेहरे की लकीरों से, उसके हाव-भाव से, या उसकी आँखों से नहीं होता। वह एक फिनोमेना है जिसके अन्दर एक अपनी हलचल होती है परन्तु जो हलचल उसकी आँखों में देखने से नहीं होती। वह स्वयं भी अपने सम्बन्ध में नहीं जानता, परन्तु जिस व्यक्ति का उसके साथ सम्पर्क हो, उस व्यक्ति को उसे पहचानने में कठिनाई नहीं होती। जीनियस को जीनियस के रूप में जानने के लिए उसकी लिखी हुई पुस्तकों या उसके बनाए हुए चित्रों को सामने रखने की आवश्यकता नहीं होती। जीनियस एक फिनोमेना है, जो अपना प्रमाण स्वयं होता है। उसके अस्तित्व में एक चीज़ होती है, जो अपने-आप बाहर महसूस हो जाती है। मैं यह इसलिए कह सकता हूँ कि मैं एक ऐसे फिनोमेना से परिचित हूँ। मेरा उसका हर रोज़ का साथ है, और मैं अपने को उसके सामने बहुत तुच्छ, बहुत हीन अनुभव करता हूँ।”
उसकी मुस्कराहट फिर लम्बी हो गयी थी। उसने नया सिगरेट सुलगाकर एक और बड़ा-सा कश खींच लिया। कॉफ़ी की प्याली उठाकर उसने एक घूँट में ही समाप्त कर दी। मैं अवाक् भाव से उसके माथे की उभरी हुई नाड़ी को देखता रहा।
“मुझे उसके साथ के कारण एक आत्मिक प्रसन्नता प्राप्त होती है,” वह फिर बोला, “मुझे उसके सम्पर्क से अपना-आप भी जीवन की साधारण सतह से उठता हुआ महसूस होता है। उसमें सचमुच वह चीज़ है जो दूसरे को ऊँचा उठा सकती है। मैं तब उसका रेडिएशन देख सकता हूँ। उसके अन्दर की हलचल महसूस कर सकता हूँ। जिस तरह अभी-अभी वह कबूतर पंख फडफ़ड़ा रहा था, उसी तरह उसकी आत्मा में हर समय एक फडफ़ड़ाहट, एक छटपटाहट भरी रहती है। उस छटपटाहट में ऐसा कुछ है जो यदि बाहर आ जाए, तो चाहे ज़िन्दगी का नक़्शा बदल दे। मगर उसे उस चीज़ को बाहर लाने का मोह नहीं है। उसकी दृष्टि में अपने को बाहर व्यक्त करने की चेष्टा करना व्यवसाय-बुद्धि है, बनियापन है। और इसलिए मैं उसका इतना सम्मान करता हूँ। मैं उससे बहुत छोटा हूँ, बहुत-बहुत छोटा हूँ, परन्तु मुझे गर्व है कि मुझे उससे स्नेह मिलता है। मैं भी उसके लिए अपने प्राणों का बलिदान दे सकता हूँ। मैंने जीवन में बहुत भूख देखी है—हर वक़्त की भूख—और अपनी भूख से प्राय: मैं व्याकुल हो जाता रहा हूँ। परन्तु जब उसे देखता हूँ तो मैं शर्मिन्दा हो जाता हूँ, भूख उसने भी देखी है, और मुझसे कहीं ज़्यादा भूख देखी है—परन्तु मैंने कभी उसे ज़रा भी विचलित या व्याकुल होते नहीं देखा। वह कठिन से कठिन अवसर पर भी मुस्कराता रहता है। मेरा सिर उसके सामने झुक जाता है। मैं जीवन के हरएक मामले में उससे राय लेता हूँ, और हमेशा उसकी बताई हुई राह पर चलने की चेष्टा करता हूँ। कई बार तो उसके सामने मुझे महसूस होता है कि मैं तो हूँ ही नहीं, बस वही वह है, क्योंकि उसके रेडिएशन के सामने मेरा व्यक्तित्व बहुत फीका पड़ जाता है। परन्तु मैं अपनी सीमाएँ जानता हूँ। मैं लाख चेष्टा करूँ फिर भी उसकी बराबरी तक नहीं उठ सकता।
उसके दाँत आपस में मिल गये और चेहरा काफी सख़्त हो गया। चेहरे की लकीरें पहले से भी गहरी हो गयीं। फिर उसने दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में उलझाईं और एक बार उन्हें चटका दिया। धीरे-धीरे उसके चेहरे का तनाव फिर मुस्कराहट में बदलने लगा।
“ख़ैर!” उसने उठने की तैयारी में अपना हाथ आगे बढ़ा दिया, मैं अब आपसे इजाज़त लूँगा। मैं भूल गया था कि मुझे एक जगह जाना है...।”
“मगर...” मैं इतना ही कह पाया। मैं तब तक उसी अवाक् भाव से उसे देख रहा था। उसका इस तरह एकदम उठकर चल देना मुझे ठीक नहीं लग रहा था। अभी तो उसने बात आरम्भ ही की थी।
“आप शायद सोच रहे हैं कि वह व्यक्ति कौन है जिसकी मैं बात कर रहा था...” वह उसी तरह हाथ बढ़ाए हुए बोला, “मुझे खेद है कि मैं आपका या किसी का भी उससे परिचय नहीं करा सकता। मैंने आपसे कहा था न कि वह एक व्यक्ति नहीं, एक फिनोमेना है। अपने से बाहर वह मुझे भी दिखाई नहीं देता। मैं केवल अपने अन्दर उसका रेडिएशन ही महसूस कर सकता हूँ।”
और वह हाथ मिलाकर उठ खड़ा हुआ। चलने से पहले उसकी आँखों में क्षण भर के लिए एक चमक आ गयी और उसने कहा, “वह मेरा इनरसेल्फ है।”
और क्षण भर स्थिर दृष्टि से हमें देखकर वह दरवाज़े की तरफ़ चल दिया।
Parmatma Ka Kutta (Hindi Story) : Mohan Rakesh
बहुत-से लोग यहाँ-वहाँ सिर लटकाए बैठे थे जैसे किसी का मातम करने आए हों। कुछ लोग अपनी पोटलियाँ खोलकर खाना खा रहे थे। दो-एक व्यक्ति पगडिय़ाँ सिर के नीचे रखकर कम्पाउंड के बाहर सडक़ के किनारे बिखर गये थे। छोले-कुलचे वाले का रोज़गार गरम था, और कमेटी के नल के पास एक छोटा-मोटा क्यू लगा था। नल के पास कुर्सी डालकर बैठा अर्ज़ीनवीस धड़ाधड़ अर्ज़ियाँ टाइप कर रहा था। उसके माथे से बहकर पसीना उसके होंठों पर आ रहा था, लेकिन उसे पोंछने की फुरसत नहीं थी। सफ़ेद दाढिय़ों वाले दो-तीन लम्बे-ऊँचे जाट, अपनी लाठियों पर झुके हुए, उसके खाली होने का इन्तज़ार कर रहे थे। धूप से बचने के लिए अर्ज़ीनवीस ने जो टाट का परदा लगा रखा था, वह हवा से उड़ा जा रहा था। थोड़ी दूर मोढ़े पर बैठा उसका लडक़ा अँग्रेज़ी प्राइमर को रट्टा लगा रहा था-सी ए टी कैट-कैट माने बिल्ली; बी ए टी बैट-बैट माने बल्ला; एफ ए टी फैट-फैट माने मोटा...। कमीज़ों के आधे बटन खोले और बगल में फ़ाइलें दबाए कुछ बाबू एक-दूसरे से छेडख़ानी करते, रजिस्ट्रेशन ब्रांच से रिकार्ड ब्रांच की तरफ जा रहे थे। लाल बेल्ट वाला चपरासी, आस-पास की भीड़ से उदासीन, अपने स्टूल पर बैठा मन ही मन कुछ हिसाब कर रहा था। कभी उसके होंठ हिलते थे, और कभी सिर हिल जाता था। सारे कम्पाउंड में सितम्बर की खुली धूप फैली थी। चिडिय़ों के कुछ बच्चे डालों से कूदने और फिर ऊपर को उडऩे का अभ्यास कर रहे थे और कई बड़े-बड़े कौए पोर्च के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चहलक़दमी कर रहे थे। एक सत्तर-पचहत्तर की बुढिय़ा, जिसका सिर काँप रहा था और चेहरा झुर्रियों के गुंझल के सिवा कुछ नहीं था, लोगों से पूछ रही थी कि वह अपने लडक़े के मरने के बाद उसके नाम एलाट हुई ज़मीन की हकदार हो जाती है या नहीं...?
अन्दर हॉल कमरे में फ़ाइलें धीरे-धीरे चल रही थीं। दो-चार बाबू बीच की मेज़ के पास जमा होकर चाय पी रहे थे। उनमें से एक दफ़्तरी कागज़ पर लिखी अपनी ताज़ा ग़ज़ल दोस्तों को सुना रहा था और दोस्त इस विश्वास के साथ सुन रहे थे कि वह ग़ज़ल उसने 'शमा' या 'बीसवीं सदी' के किसी पुराने अंक में से उड़ाई है।
"अज़ीज़ साहब, ये शेअर आपने आज ही कहे हैं, या पहले के कहे हुए शेअर आज अचानक याद हो आए हैं?" साँवले चेहरे और घनी मूँछों वाले एक बाबू ने बायीं आँख को ज़रा-सा दबाकर पूछा। आस-पास खड़े सब लोगों के चेहरे खिल गये।
"यह बिल्कुल ताज़ा ग़ज़ल है," अज़ीज़ साहब ने अदालत में खड़े होकर हलफिया बयान देने के लहज़े में कहा, "इससे पहले भी इसी वज़न पर कोई और चीज़ कही हो तो याद नहीं।" और फिर आँखों से सबके चेहरों को टटोलते हुए वे हल्की हँसी के साथ बोले, "अपना दीवान तो कोई रिसर्चदां ही मुरत्तब करेगा...।"
एक फरमायशी कहकहा लगा जिसे 'शी-शी' की आवाज़ों ने बीच में ही दबा दिया। कहकहे पर लगायी गयी इस ब्रेक का मतलब था कि कमिश्नर साहब अपने कमरे में तशरीफ़ ले आये हैं। कुछ देर का वक्फा रहा, जिसमें सुरजीत सिंह वल्द गुरमीत सिंह की फ़ाइल एक मेज़ से एक्शन के लिए दूसरी मेज़ पर पहुँच गयी, सुरजीत सिंह वल्द गुरमीत सिंह मुसकराता हुआ हॉल से बाहर चला गया, और जिस बाबू की मेज़ से फ़ाइल गयी थी, वह पाँच रुपये के नोट को सहलाता हुआ चाय पीने वालों के जमघट में आ शामिल हुआ। अज़ीज़ साहब अब आवाज़ ज़रा धीमी करके ग़ज़ल का अगला शेअर सुनाने लगे।
साहब के कमरे से घंटी हुई। चपरासी मुस्तैदी से उठकर अन्दर गया, और उसी मुस्तैदी से वापस आकर फिर अपने स्टूल पर बैठ गया।
चपरासी से खिड़की का पर्दा ठीक कराकर कमिश्नर साहब ने मेज़ पर रखे ढेर-से काग़ज़ों पर एक साथ दस्तख़त किए और पाइप सुलगाकर 'रीडर्ज़ डाइजेस्ट' का ताज़ा अंक बैग से निकाल लिया। लेटीशिया बाल्ड्रिज का लेख कि उसे इतालवी मर्दों से क्यों प्यार है, वे पढ़ चुके थे। और लेखों में हृदय की शल्य चिकित्सा के सम्बन्ध में जे.डी. रैटक्लिफ का लेख उन्होंने सबसे पहले पढऩे के लिए चुन रखा था। पृष्ठ एक सौ ग्यारह खोलकर वे हृदय के नए ऑपरेशन का ब्यौरा पढऩे लगे।
तभी बाहर से कुछ शोर सुनाई देने लगा। कम्पाउंड में पेड़ के नीचे बिखरकर बैठे लोगों में चार नए चेहरे आ शामिल हुए थे। एक अधेड़ आदमी था जिसने अपनी पगड़ी ज़मीन पर बिछा ली थी और हाथ पीछे करके तथा टाँगें फैलाकर उस पर बैठ गया था। पगड़ी के सिरे की तरफ़ उससे ज़रा बड़ी उम्र की एक स्त्री और एक जवान लडक़ी बैठी थीं; और उनके पास खड़ा एक दुबला-सा लडक़ा आस-पास की हर चीज़ को घूरती नज़र से देख रहा था, अधेड़ मरद की फैली हुई टाँगें धीरे-धीरे पूरी खुल गयी थीं और आवाज़ इतनी ऊँची हो गयी थी कि कम्पाउंड के बाहर से भी बहुत-से लोगों का ध्यान उसकी तरफ़ खिंच गया था। वह बोलता हुआ साथ अपने घुटने पर हाथ मार रहा था। "सरकार वक़्त ले रही है! दस-पाँच साल में सरकार फ़ैसला करेगी कि अर्ज़ी मंजूर होनी चाहिए या नहीं। सालो, यमराज भी तो हमारा वक़्त गिन रहा है। उधर वह वक़्त पूरा होगा और इधर तुमसे पता चलेगा कि हमारी अर्ज़ी मं$जूर हो गयी है।"
चपरासी की टाँगें ज़मीन पर पुख़्ता हो गयीं, और वह सीधा खड़ा हो गया। कम्पाउंड में बिखरकर बैठे और लेटे हुए लोग अपनी-अपनी जगह पर कस गये। कई लोग उस पेड़ के पास आ जमा हुए।
"दो साल से अर्ज़ी दे रखी है कि सालो, ज़मीन के नाम पर तुमने मुझे जो गड्ïढा एलाट कर दिया है, उसकी जगह कोई दूसरी ज़मीन दो। मगर दो साल से अर्ज़ी यहाँ के दो कमरे ही पार नहीं कर पायी!" वह आदमी अब जैसे एक मजमे में बैठकर तकरीर करने लगा, "इस कमरे से उस कमरे में अर्ज़ी के जाने में वक़्त लगता है! इस मेज़ से उस मेज़ तक जाने में भी वक़्त लगता है! सरकार वक़्त ले रही है! लो, मैं आ गया हूँ आज यहीं पर अपना सारा घर-बार लेकर। ले लो जितना वक़्त तुम्हें लेना है!...सात साल की भुखमरी के बाद सालों ने ज़मीन दी है मुझे-सौ मरले का गड्ïढा! उसमें क्या मैं बाप-दादों की अस्थियाँ गाड़ूँगा? अर्ज़ी दी थी कि मुझे सौ मरले की जगह पचास मरले दे दी-लेकिन ज़मीन तो दो! मगर अर्ज़ी दो साल से वक़्त ले रही है! मैं भूखा मर रहा हूँ, और अर्ज़ी वक़्त ले रही है!"
चपरासी अपने हथियार लिये हुए आगे आया-माथे पर त्योरियाँ और आँखों में क्रोध। आस-पास की भीड़ को हटाता हुआ वह उसके पास आ गया।
"ए मिस्टर, चल हियां से बाहर!" उसने हथियारों की पूरी चोट के साथ कहा, "चल...उठ...!"
"मिस्टर आज यहाँ से नहीं उठ सकता" वह आदमी अपनी टाँगें थोड़ी और चौड़ी करके बोला, "मिस्टर आज यहाँ का बादशाह है। पहले मिस्टर देश के बेताज बादशाहों की जय बुलाता था। अब वह किसी की जय नहीं बुलाता। अब वह खुद यहाँ का बादशाह है...बेलाज बादशाह7 उसे कोई लाज-शरम नहीं है। उस पर किसी का हुक्म नहीं चलता। समझे, चपरासी बादशाह!"
"अभी तुझे पता चल जाएगा कि तुझ पर किसी का हुक्म चलता है या नहीं," चपरासी बादशाह और गरम हुआ, "अभी पुलिस के सुपुर्द कर दिया जाएगा तो तेरी सारी बादशाही निकल जाएगी...।"
"हा-हा!" बेलाज बादशाह हँसा। "तेरी पुलिस मेरी बादशाही निकालेगी? तू बुला पुलिस को। मैं पुलिस के सामने नंगा हो जाऊँगा और कहूँगा कि निकालो मेरी बादशाही! हममें से किस-किसकी बादशाही निकालेगी पुलिस? ये मेरे साथ तीन बादशाह और हैं। यह मेरे भाई की बेवा है-उस भाई की जिसे पाकिस्तान में टाँगों से पकडक़र चीर दिया गया था। यह मेरे भाई का लडक़ा है जो अभी से तपेदिक का मरीज़ है। और यह मेरे भाई की लडक़ी है जो अब ब्याहने लायक हो गयी है। इसकी बड़ी कुँवारी बहन आज भी पाकिस्तान में है। आज मैंने इन सबको बादशाही दे दी है। तू ले आ जाकर अपनी पुलिस, कि आकर इन सबकी बादशाही निकाल दे। कुत्ता साला...!"
अन्दर से कई-एक बाबू निकलकर बाहर आ गये थे। 'कुत्ता साला' सुनकर चपरासी आपे से बाहर हो गया। वह तैश में उसे बाँह से पकडक़र घसीटने लगा, "तुझे अभी पता चल जाता है कि कौन साला कुत्ता है! मैं तुझे मार-मारकर..." और उसने उसे अपने टूटे हुए बूट की एक ठोकर दी। स्त्री और लडक़ी सहमकर वहाँ से हट गयीं। लडक़ा एक तरफ़ खड़ा होकर रोने लगा।
बाबू लोग भीड़ को हटाते हुए आगे बढ़ आये और उन्होंने चपरासी को उस आदमी के पास से हटा लिया। चपरासी फिर भी बड़बड़ाता रहा, "कमीना आदमी, दफ़्तर में आकर गाली देता है। मैं अभी तुझे दिखा देता कि..."
"एक तुम्हीं नहीं, यहाँ तुम सबके-सब कुत्ते हो," वह आदमी कहता रहा, "तुम सब भी कुत्ते हो, और मैं भी कुत्ता हूँ। फर्क़ सिर्फ़ इतना है कि तुम लोग सरकार के कुत्ते हो-हम लोगों की हड्डियाँ चूसते हो और सरकार की तरफ़ से भौंकते हो। मैं परमात्मा का कुत्ता हूँ। उसकी दी हुई हवा खाकर जीता हूँ, और उसकी तरफ़ से भौंकता हूँ। उसका घर इन्साफ़ का घर है। मैं उसके घर की रखवाली करता हूँ। तुम सब उसके इन्साफ़ की दौलत के लुटेरे हो। तुम पर भौंकना मेरा फर्ज़ है, मेरे मालिक का फरमान है। मेरा तुमसे अज़ली बैर है। कुत्ते का बैरी कुत्ता होता है। तुम मेरे दुश्मन हो, मैं तुम्हारा दुश्मन हूँ। मैं अकेला हूँ, इसलिए तुम सब मिलकर मुझे मारो। मुझे यहाँ से निकाल दो। लेकिन मैं फिर भी भौंकता रहूँगा। तुम मेरा भौंकना बन्द नहीं कर सकते। मेरे अन्दर मेरे मालिक का नर है, मेरे वाहगुरु का तेज़ है। मुझे जहाँ बन्द कर दोगे, मैं वहाँ भौंकूँगा, और भौंक-भौंककर तुम सबके कान फाड़ दूँगा। साले,आदमी के कुत्ते, जूठी हड्डी पर मरनेवाले कुत्ते दुम हिला-हिलाकर जीनेवाले कुत्ते...!"
"बाबा जी, बस करो," एक बाबू हाथ जोडक़र बोला, "हम लोगों पर रहम खाओ, और अपनी यह सन्तबानी बन्द करो। बताओ तुम्हारा नाम क्या है, तुम्हारा केस क्या है...?"
"मेरा नाम है बारह सौ छब्बीस बटा सात! मेरे माँ-बाप का दिया हुआ नाम खा लिया कुत्तों ने। अब यही नाम है जो तुम्हारे दफ़्तर का दिया हुआ है। मैं बारह सौ छब्बीस बटा सात हूँ। मेरा और कोई नाम नहीं है। मेरा यह नाम याद कर लो। अपनी डायरी में लिख लो। वाहगुरु का कुत्ता-बारह सौ छब्बीस बटा सात।"
"बाबा जी, आज जाओ, कल या परसों आ जाना। तुम्हारी अर्ज़ी की कार्रवाई तकरीबन-तकरीबन पूरी हो चुकी है...।"
"तकरीबन-तकरीबन पूरी हो चुकी है! और मैं खुद ही तकरीबन-तकरीबन पूरा हो चुका हूँ! अब देखना यह है कि पहले कार्रवाई पूरी होती है, कि पहले मैं पूरा होता हूँ! एक तरफ़ सरकार का हुनर है और दूसरी तरफ़ परमात्मा का हुनर है! तुम्हारा तकरीबन-तकरीबन अभी दफ़्तर में ही रहेगा और मेरा तकरीबन-तकरीबन कफ़न में पहुँच जाएगा। सालों ने सारी पढ़ाई ख़र्च करके दो लफ़्ज ईज़ाद किये हैं-शायद और तकरीबन। 'शायद आपके काग़ज़ ऊपर चले गये हैं-तकरीबन-तकरीबन कार्रवाई पूरी हो चुकी है!' शायद से निकालो और तकरीबन में डाल दो! तकरीबन से निकालो और शायद में गर्क़ कर दो। तकरीबन तीन-चार महीने में तहक़ीक़ात होगी।...शायद महीने-दो महीने में रिपोर्ट आएगी।' मैं आज शायद और तकरीबन दोनों घर पर छोड़ आया हूँ। मैं यहाँ बैठा हूँ और यहीं बैठा रहूँगा। मेरा काम होना है, तो आज ही होगा और अभी होगा। तुम्हारे शायद और तकरीबन के गाहक ये सब खड़े हैं। यह ठगी इनसे करो...।"
बाबू लोग अपनी सद्भावना के प्रभाव से निराश होकर एक-एक करके अन्दर लौटने लगे।
"बैठा है, बैठा रहने दो।"
"बकता है, बकने दो।"
"साला बदमाशी से काम निकालना चाहता है।"
"लेट हिम बार्क हिमसेल्फ टु डेथ।"
बाबुओं के साथ चपरासी भी बड़बड़ाता हुआ अपने स्टूल पर लौट गया। "मैं साले के दाँत तोड़ देता। अब बाबू लोग हाक़िम हैं और हाक़िमों का कहा मानना पड़ता है, वरना..."
"अरे बाबा, शान्ति से काम ले। यहाँ मिन्नत चलती है, पैसा चलता है, धौंस नहीं चलती," भीड़ में से कोई उसे समझाने लगा।
वह आदमी उठकर खड़ा हो गया।
"मगर परमात्मा का हुक्म हर जगह चलता है," वह अपनी कमीज़ उतारता हुआ बोला, "और परमात्मा के हुक़्म से आज बेलाज बादशाह नंगा होकर कमिश्नर साहब के कमरे में जाएगा। आज वह नंगी पीठ पर साहब के डंडे खाएगा। आज वह बूटों की ठोकरें खाकर प्रान देगा। लेकिन वह किसी की मिन्नत नहीं करेगा। किसी को पैसा नहीं चढ़ाएगा। किसी की पूजा नहीं करेगा। जो वाहगुरु की पूजा करता है, वह और किसी की पूजा नहीं कर सकता। तो वाहगुरु का नाम लेकर..."
और इससे पहले कि वह अपने कहे को किये में परिणत करता, दो-एक आदमियों ने बढक़र तहमद की गाँठ पर रखे उसके हाथ को पकड़ लिया। बेलाज बादशाह अपना हाथ छुड़ाने के लिए संघर्ष करने लगा।
"मुझे जाकर पूछने दो कि क्या महात्मा गाँधी ने इसीलिए इन्हें आज़ादी दिलाई थी कि ये आज़ादी के साथ इस तरह सम्भोग करें? उसकी मिट्टी ख़राब करें? उसके नाम पर कलंक लगाएँ? उसे टके-टके की फ़ाइलों में बाँधकर ज़लील करें? लोगों के दिलों में उसके लिए नफ़रत पैदा करें? इन्सान के तन पर कपड़े देखकर बात इन लोगों की समझ में नहीं आती। शरम तो उसे होती है जो इन्सान हो। मैं तो आप कहता हूँ कि मैं इन्सान नहीं, कुत्ता हूँ...!"
सहसा भीड़ में एक दहशत-सी फैल गयी। कमिश्नर साहब अपने कमरे से बाहर निकल आये थे। वे माथे की त्योरियों और चेहरे की झुर्रियों को गहरा किये भीड़ के बीच में आ गये।
"क्या बात है? क्या चाहते हो तुम?"
"आपसे मिलना चाहता हूँ, साहब," वह आदमी साहब को घूरता हुआ बोला, "सौ मरले का एक गड्ढा मेरे नाम एलाट हुआ है। वह गड्ढा आपको वापस करना चाहता हूँ ताकि सरकार उसमें एक तालाब बनवा दे, और अफ़सर लोग शाम को वहाँ जाकर मछलियाँ मारा करें। या उस गड्ढे में सरकार एक तहख़ाना बनवा दे और मेरे जैसे कुत्तों को उसमें बन्द कर दे...।"
"ज़्यादा बक-बक मत करो, और अपना केस लेकर मेरे पास आओ।"
"मेरा केस मेरे पास नहीं है, साहब! दो साल से सरकार के पास है-आपके पास है। मेरे पास अपना शरीर और दो कपड़े हैं। चार दिन बाद ये भी नहीं रहेंगे, इसलिए इन्हें भी आज ही उतारे दे रहा हूँ। इसके बाद बाकी सिर्फ़ बारह सौ छब्बीस बटा सात रह जाएगा। बारह सौ छब्बीस बटा सात को मार-मारकर परमात्मा के हुजूर में भेज दिया जाएगा...।"
"यह बकवास बन्द करो ओर मेरे साथ अन्दर आओ।"
और कमिश्नर साहब अपने कमरे में वापस चले गये। वह आदमी भी कमीज़ कन्धे पर रखे उस कमरे की तरफ़ चल दिया।
"दो साल चक्कर लगाता रहा, किसी ने बात नहीं सुनी। ख़ुशामदें करता रहा, किसी ने बात नहीं सुनी। वास्ते देता रहा,किसी ने बात नहीं सुनी...।"
चपरासी ने उसके लिए चिक उठा दी और वह कमिश्नर साहब के कमरे में दाख़िल हो गया। घंटी बजी, फ़ाइलें हिलीं,बाबुओं की बुलाहट हुई, और आधे घंटे के बाद बेलाज बादशाह मुस्कराता हुआ बाहर निकल आया। उत्सुक आँखों की भीड़ ने उसे आते देखा, तो वह फिर बोलने लगा, "चूहों की तरह बिटर-बिटर देखने में कुछ नहीं होता। भौंको, भौंको,सबके-सब भौंको। अपने-आप सालों के कान फट जाएँगे। भौंको कुत्तो, भौंको..."
उसकी भौजाई दोनों बच्चों के साथ गेट के पास खड़ी इन्तज़ार कर रही थी। लडक़े और लडक़ी के कन्धों पर हाथ रखते हुए वह सचमुच बादशाह की तरह सडक़ पर चलने लगा।
"हयादार हो, तो सालहा-साल मुँह लटकाए खड़े रहो। अर्ज़ियाँ टाइप कराओ और नल का पानी पियो। सरकार वक़्त ले रही है! नहीं तो बेहया बनो। बेहयाई हज़ार बरकत है।"
वह सहसा रुका और ज़ोर से हँसा।
"यारो, बेहयाई हज़ार बरकत है।"
उसके चले जाने के बाद कम्पाउंड में और आस-पास मातमी वातावरण पहले से और गहरा हो गया। भीड़ धीरे-धीरे बिखरकर अपनी जगहों पर चली गयी। चपरासी की टाँगें फिर स्टूल पर झूलने लगीं।
सामने के कैंटीन का लडक़ा बाबुओं के कमरे में एक सेट चाय ले गया। अर्ज़ीनवीस की मशीन चलने लगी और टिक-टिक की आवाज़ के साथ उसका लडक़ा फिर अपना सबक दोहराने लगा। "पी ई एन पेन-पेन माने कलम; एच ई एन हेन-हेन माने मुर्गी; डी ई ऐन डेन-डेन माने अँधेरी गुफा...!"