रवीन्द्रनाथ ठाकुर /रवीन्द्रनाथ टैगोर कविता - कविताएँ /कविता संग्रह

रवीन्द्रनाथ ठाकुर

निरुपमा, करना मुझको क्षमा‍ / रवीन्द्रनाथ ठाकुर कविता संग्रह

शेष लेखा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर कविता संग्रह

आरोग्य / रवीन्द्रनाथ ठाकुर कविता संग्रह

प्रथम शिथिल छन्दोमाला / रवीन्द्रनाथ ठाकुर कविता संग्रह

बलाका / रवीन्द्रनाथ ठाकुर कविता संग्रह

सोनार तरी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर कविता संग्रह

मानसी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर कविता संग्रह

रवीन्द्र संगीत / रवीन्द्रनाथ ठाकुर कविता संग्रह

रवीन्द्रनाथ ठाकुर प्रसिद्ध रचनाएँ

जन गण मन / रवीन्द्रनाथ ठाकुर कविता संग्रह

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा 1911 में रचित इस रचना के पहले पद को भारत का राष्ट्रगान होने का गौरव प्राप्त है। रचना में कुल पाँच पद हैं। राष्ट्रगान के गायन की अवधि लगभग 52 सेकेण्ड है । कुछ अवसरों पर राष्ट्रगान संक्षिप्त रूप में भी गाया जाता है, इसमें प्रथम तथा अन्तिम पंक्तियाँ ही बोलते हैं जिसमें लगभग 20 सेकेण्ड का समय लगता है। संविधान सभा ने जन-गण-मन को भारत के राष्ट्रगान के रुप में 24 जनवरी 1950 को अपनाया था। इसे सर्वप्रथम 27 दिसम्बर 1911 को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया था। इस रचना की भाषा संस्कृत-मिश्र बांग्ला है। जन गण मन रचना को गुरुदेव ने मार्ग्रेट कज़िन्स के साथ मिलकर आन्ध्र प्रदेश के मदनापल्ले में संगीतबद्ध किया था। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय रचित वन्दे मातरम्‌ भारत का आधिकारिक राष्ट्रगीत है। इसके अलावा अल्लामा इक़बाल द्वारा रचित सारे जहाँ से अच्छा भी भारत में अति-लोकप्रिय है।

जन गण मन अधिनायक जय हे

भारत भाग्य विधाता

पंजाब, सिन्ध, गुजरात, मराठा

द्राविड़, उत्कल, बंग

विन्ध्य, हिमाचल, यमुना, गंगा

उच्छल जलधि तरंग

तव शुभ नामे जागे

तव शुभ आशिष मागे

गाहे तव जय गाथा

जन गण मंगल दायक जय हे

भारत भाग्य विधाता

जय हे, जय हे, जय हे

जय जय जय जय हे

(7 मई, 1861 – 7 अगस्त, 1941) को गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता हैं। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बाँग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।

जीवन

रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म देवेन्द्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के सन्तान के रूप में 7 मई, 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उन्होंने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लन्दन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही स्वदेश वापस आ गए। सन् 1883 में मृणालिनी देवी के साथ उनकाअ विवाह हुआ।

रचना

बचपन से ही उनकी कविता, छन्द और भाषा में अद्भुत प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूँकने वाले युगदृष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं। देश और विदेश के सारे साहित्य, दर्शन, संस्कृति आदि उन्होंने आहरण करके अपने अन्दर समेट लिए थे। पिता के ब्रह्म-समाजी के होने के कारण वे भी ब्रह्म-समाजी थे। पर अपनी रचनाओं व कर्म के द्वारा उन्होंने सनातन धर्म को भी आगे बढ़ाया। टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। लगभग एक शताब्दी पूर्व सन् 1919 में कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के द्वारा अपनी जापान यात्रा से लौटने के पश्चात उनके ‘जापान यात्री’ में प्रसिद्ध जापानी हाइकू कवि बाशो की हाइकू कविताओं के बंगला कविताओं के अनुवाद के रूप में सर्वप्रथम हिन्दुस्तानी धरती पर हाइकु विधा अवतरित हुयी परन्तु इतने पहले आने के बावजूद लंबे समय तक यह साहित्यिक विधा हिन्दुस्तानी साहित्यिक जगत में अपनी कोई विशेष पहचान नहीं बना सकी। हिन्दी साहित्य की अनेकानेक विधाओं में से एक नवीनतम विधा है हाइकु वर्तमान में संसार भर में फैले हिंदुस्तानियों की इन्टरनेट पर फैली रचनाओं के माध्यम से यह विधा हाइकु हिन्दुस्तानी कविता जगत में प्रमुखता से अपना स्थान बना रही है।

अनुवाद

मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं के अन्दर वह अलग-अलग रूपों में उभर आता है। साहित्य की शायद ही ऐसी कोई शाखा हो, जिनमें उनकी रचना न हो - कविता, गान, कथा, उपन्यास, नाटक, प्रबन्ध, शिल्पकला - सभी विधाओं में उन्होंने रचना की। उनकी प्रकाशित कृतियों में - गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अँग्रेज़ी अनुवाद के बाद उनकी प्रतिभा पूरे विश्व में फैली।

प्रकृति का सान्निध्य

टैगोर को बचपन से ही प्रकृति का सान्निध्य बहुत भाता था। प्रकृति के प्रति गहरा लगाव रखने वाला यह प्रकृति प्रेमी ऐसा एकमात्र व्यक्ति है जिसने दो देशों के लिए राष्ट्रगान लिखा। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में सियालदह छोड़कर आश्रम की स्थापना करने के लिए शान्तिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की।

चित्रकार रवीन्द्र

गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। टैगोर और महात्मा गान्धी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहां गान्धी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। टैगोर ने गान्धीजी को महात्मा का विशेषण दिया था। एक समय था जब शान्तिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस वक्त गान्धी जी ने टैगोर को 60 हजार रुपये के अनुदान का चेक दिया था।

जीवन के अन्तिम समय 7 अगस्त 1941 के कुछ समय पहले इलाज के लिए जब उन्हें शान्तिनिकेतन से कोलकाता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने कहा कि आपको मालूम है हमारे यहाँ नया पावर हाउस बन रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हाँ पुराना आलोक चला जाएगा नए का आगमन होगा।

सम्मान

उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये उन्हे सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।

इस रचना के यहाँ तक के पदों को भारत के राष्ट्रगान होने का सम्मान प्राप्त है। यहाँ से नीचे दिये गये पद भारतीय राष्ट्रगान का अंग नहीं हैं

अहरह तव आह्वान प्रचारित,

शुनि तव उदार वाणी

हिन्दु बौद्ध शिख जैन पारसिक

मुसलमान क्रिस्टानी

पूरब पश्चिम आसे

तव सिंहासन-पाशे

प्रेमहार हय गाथा।

जनगण-ऐक्य-विधायक जय हे

भारत भाग्य विधाता!

जय हे, जय हे, जय हे

जय जय जय जय हे

पतन-अभ्युदय-वन्धुर-पंथा,

युगयुग धावित यात्री,

हे चिर-सारथी,

तव रथ चक्रेमुखरित पथ दिन-रात्रि

दारुण विप्लव-माझे

तव शंखध्वनि बाजे,

संकट-दुख-श्राता,

जन-गण-पथ-परिचायक जय हे

भारत-भाग्य-विधाता,

जय हे, जय हे, जय हे,

जय जय जय जय हे

घोर-तिमिर-घन-निविङ-निशीथ

पीङित मुर्च्छित-देशे

जाग्रत दिल तव अविचल मंगल

नत नत-नयने अनिमेष

दुस्वप्ने आतंके

रक्षा करिजे अंके

स्नेहमयी तुमि माता,

जन-गण-दुखत्रायक जय हे

भारत-भाग्य-विधाता,

जय हे, जय हे, जय हे,

जय जय जय जय हे

रात्रि प्रभातिल उदिल रविच्छवि

पूरब-उदय-गिरि-भाले,

साहे विहन्गम, पून्नो समीरण

नव-जीवन-रस ढाले,

तव करुणारुण-रागे

निद्रित भारत जागे

तव चरणे नत माथा,

जय जय जय हे, जय राजेश्वर,

भारत-भाग्य-विधाता,

जय हे, जय हे, जय हे,

जय जय जय जय हे

आमार शोनार बांग्ला / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

आमार शोनार बांग्ला

आमार शोनार बांग्ला,

आमि तोमाए भालोबाशी.

चिरोदिन तोमार आकाश,

तोमार बताश,

अमार प्राने बजाए बाशी.

ओ माँ,

फागुने तोर अमेर बोने

घ्राने पागल कोरे,

मोरी हए, हए रे,

ओ माँ,

ओघ्राने तोर भोरा खेते

अमी कि देखेछी मोधुर हाशी.

की शोभा, की छाया गो,

की स्नेहो, की माया गो,

की अचोल बिछाइछो,

बोतेर मूले,

नोदिर कूले कूले!

माँ, तोर मुखेर बानी

आमार काने लागे,

शुधार मोतो,

मोरी हए, हए रे,

माँ, तोर बोदोनखानी मोलीन होले,

आमि नोयन जोले भाशी.

(हिन्दी अनुवाद):

मेरा प्रिय बंगाल

मेरा सोने जैसा बंगाल,

मैं तुमसे प्यार करता हूँ.

सदैव तुम्हारा आकाश,

तुम्हारी वायु

मेरे प्राणों में बाँसुरी सी बजाती है.

ओ माँ,

वसंत में आम्रकुंज से आती सुगंध

मुझे खुशी से पागल करती है,

वाह, क्या आनंद!

ओ माँ,

आषाढ़ में पूरी तरह से फूले धान के खेत,

मैने मधुर मुस्कान को फैलते देखा है.

क्या शोभा, क्या छाया,

क्या स्नेह, क्या माया!

क्या आँचल बिछाया है

बरगद तले

नदी किनारे किनारे!

माँ, तेरे मुख की वाणी,

मेरे कानो को,

अमृत लगती है,

वाह, क्या आनंद!

मेरी माँ, यदि उदासी तुम्हारे चेहरे पर आती है,

मेरे नयन भी आँसुओं से भर आते हैं.

हो चित्त जहाँ भय-शून्य, माथ हो उन्नत / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

हो चित्त जहाँ भय-शून्य, माथ हो उन्नत

हो ज्ञान जहाँ पर मुक्त, खुला यह जग हो

घर की दीवारें बने न कोई कारा

हो जहाँ सत्य ही स्रोत सभी शब्दों का

हो लगन ठीक से ही सब कुछ करने की

हों नहीं रूढ़ियाँ रचती कोई मरुथल

पाये न सूखने इस विवेक की धारा

हो सदा विचारों ,कर्मों की गतो फलती

बातें हों सारी सोची और विचारी

हे पिता मुक्त वह स्वर्ग रचाओ हममें

बस उसी स्वर्ग में जागे देश हमारा.

प्रयाग शुक्ल द्वारा बाँग्ला से अनूदित गीतांजलि में से