रवीन्द्रनाथ ठाकुर
ओगो काङाल, आमारे काङाल करेछ, आरो की तोमार चाइ ।
ओगो भिखारि, आमार भिखारि, चलेछ की कातर गान गाई ।।
ओरे, ओरे भिखारी, मुझे किया है भिखारी,
और चाहो भला क्या तुम !
ओरे ओरे भिखारी, ओरे मेरे भिखारी,
गान कातर सुनाते हो क्यों ।।
रोज़ दूँगी तुम्हें धन नया ही अरे,
साध पाली थी मन में यही,
सौंप सब कुछ दिया, एक पल में ही तो
पास मेरे बचा कुछ नहीं ।।
तुमको पहनाया मैंने वसन ।
घेर आँचल से तुमको लिया ।।
आस पूरी की मैंने तुम्हारी,
अपने संसार से सब दिया ।।
मेरा मन प्राण यौवन सभी,
देखो मुट्ठी, उसी में तो है ।।
ओरे मेरे भिखारी, ओरे, ओरे भिखारी
हाय चाहो अगर और भी,
कुछ तो दो फिर मुझे और तुम ।।
लौटा जिससे सकूँ उसको
तुमको ही मैं,
ओ भिखारी ।।
(7 मई, 1861 – 7 अगस्त, 1941) को गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता हैं। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बाँग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।
जीवन
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म देवेन्द्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के सन्तान के रूप में 7 मई, 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उन्होंने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लन्दन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही स्वदेश वापस आ गए। सन् 1883 में मृणालिनी देवी के साथ उनकाअ विवाह हुआ।
रचना
बचपन से ही उनकी कविता, छन्द और भाषा में अद्भुत प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूँकने वाले युगदृष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं। देश और विदेश के सारे साहित्य, दर्शन, संस्कृति आदि उन्होंने आहरण करके अपने अन्दर समेट लिए थे। पिता के ब्रह्म-समाजी के होने के कारण वे भी ब्रह्म-समाजी थे। पर अपनी रचनाओं व कर्म के द्वारा उन्होंने सनातन धर्म को भी आगे बढ़ाया। टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। लगभग एक शताब्दी पूर्व सन् 1919 में कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के द्वारा अपनी जापान यात्रा से लौटने के पश्चात उनके ‘जापान यात्री’ में प्रसिद्ध जापानी हाइकू कवि बाशो की हाइकू कविताओं के बंगला कविताओं के अनुवाद के रूप में सर्वप्रथम हिन्दुस्तानी धरती पर हाइकु विधा अवतरित हुयी परन्तु इतने पहले आने के बावजूद लंबे समय तक यह साहित्यिक विधा हिन्दुस्तानी साहित्यिक जगत में अपनी कोई विशेष पहचान नहीं बना सकी। हिन्दी साहित्य की अनेकानेक विधाओं में से एक नवीनतम विधा है हाइकु वर्तमान में संसार भर में फैले हिंदुस्तानियों की इन्टरनेट पर फैली रचनाओं के माध्यम से यह विधा हाइकु हिन्दुस्तानी कविता जगत में प्रमुखता से अपना स्थान बना रही है।
अनुवाद
मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं के अन्दर वह अलग-अलग रूपों में उभर आता है। साहित्य की शायद ही ऐसी कोई शाखा हो, जिनमें उनकी रचना न हो - कविता, गान, कथा, उपन्यास, नाटक, प्रबन्ध, शिल्पकला - सभी विधाओं में उन्होंने रचना की। उनकी प्रकाशित कृतियों में - गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अँग्रेज़ी अनुवाद के बाद उनकी प्रतिभा पूरे विश्व में फैली।
प्रकृति का सान्निध्य
टैगोर को बचपन से ही प्रकृति का सान्निध्य बहुत भाता था। प्रकृति के प्रति गहरा लगाव रखने वाला यह प्रकृति प्रेमी ऐसा एकमात्र व्यक्ति है जिसने दो देशों के लिए राष्ट्रगान लिखा। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में सियालदह छोड़कर आश्रम की स्थापना करने के लिए शान्तिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की।
चित्रकार रवीन्द्र
गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। टैगोर और महात्मा गान्धी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहां गान्धी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। टैगोर ने गान्धीजी को महात्मा का विशेषण दिया था। एक समय था जब शान्तिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस वक्त गान्धी जी ने टैगोर को 60 हजार रुपये के अनुदान का चेक दिया था।
जीवन के अन्तिम समय 7 अगस्त 1941 के कुछ समय पहले इलाज के लिए जब उन्हें शान्तिनिकेतन से कोलकाता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने कहा कि आपको मालूम है हमारे यहाँ नया पावर हाउस बन रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हाँ पुराना आलोक चला जाएगा नए का आगमन होगा।
सम्मान
उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये उन्हे सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
('गीत पंचशती' में 'प्रकृति' के अन्तर्गत 33 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)
सहसा डालपाला तोर उतला जे ओ चांपा, ओ करबी
ओ करबी, ओ चंपा, चंचल हौठीं तेरी डालें ।
किसको है देख लिया तुमने आकाश में जानूँ ना जानूँ ना ।।
किस सुर का नशा हवा घूम रही पागल, ओ चंपा, ओ करबी ।
बजता है नुपुर ये किसका जानूँ ना ।।
क्षण क्षण में चमक चमक उठतीं तुम ।
करती हो रह रह कर ध्यान भला किसका ।।
किसके रंग हुई बेहाल फूल फूल उठती हर डाल ।
किसने है आज किया अदभुत्त ये साज जानूँ ना ।।
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
('गीत पंचशती' में 'प्रकृति' के अन्तर्गत 56 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)
ओ मंजरी, ओ मंजरी, आमेर मंजरी
आज हृदय तोमार उदास हये पड़छे कि झरि।
ओ री, आम्र मंजरी, ओ री, आम्र मंजरी
क्या हुआ उदास हृदय क्यों झरी ।।
गंध में तुम्हारी धुला मेरा गान
दिशि-दिशि में गूँज उसी की तिरी ।।
डाल-डाल उतरी है पूर्णिमा,
गंध में तुम्हारी, मिली आज चन्द्रिमा ।।
दौड़ रही पागल हो दखिन वातास,
तोड़ रही अर्गला,
इधर गई, उधर गई,
चहुँदिश है वो फिरी ।।
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
('गीत पंचशती' में 'प्रकृति' के अन्तर्गत 43 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)
ओइ मधुर मुख जागे मन ।
भुलिब ना ए जीवने, की स्वपने की जागरणे ।।
मन में है बसा वही मधुर मुख ।
जागूँ या देखूँ मैं सपना, लगे वही अपना ।।
जीवन में भूलूँगा कभी नहीं ।
जानो या जानो न तुम ।।
मन में है बजे सदा वही मधुर बाँसुरी ।
मन में जो बसे तुम ।
बता नहीं पाऊँ ।
इन कातर नयनों में वही रखूँ सनमुख ।।
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
('गीत पंचशती' में 'प्रकृति' के अन्तर्गत 9 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)
बादल मेघे मादल बाजे, गुरु गुरु गगन माझे ।
मेघ बादल में मादल बजे, गगन मेंसघन सघन वो बजे ।।
उठ रही कैसी ध्वनि गंभीर, हृदय को हिला-झुला वो बजे ।
डूब अपने में रह-रह बजे ।।
गान में कहीं प्राण में कहीं—
कहींतो गोपन थी यह व्यथा
आज श्यामल बन — छाया बीच
फैलकर कहती अपनी कथा ।
गान में रह-रह वही बजे ।।
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
('गीत पंचशती' में 'प्रकृति' के अन्तर्गत 40 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)
सेई तो तोमार पथेर बंधु सेई तो
पथ का वह बंधु
गंध लिए कुसुमों की
पथ का वह बंधु
उसका आलोक अरे
बंधु वही तेरा है बंधु वही तो ।
कहे मधु खोजो मधु वही तो ।।
बंधु वही तो ।
उसका अंधियार
अभी-अभी यहीं और अभी नहीं वो ।।
बंधु वही तो !
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
विपुल तरंग रे, विपुल तरंग रे!
उद्वेलित हुआ गगन, मगन हुए गत आगत
उज्ज्वल आलोक में झूमा जीवन चंचल ।
कैसी तरंग रे !
दोलित दिनकर — तारे — चंद्र रे !
काँपी फिर चमक उठी चेतना,
नाचे आकुल चंचल नाचे कुल ये जगत,
कूजे हृदय विहंग ।
विपुल तरंग रे, विपुल तरंग रे !!
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
('गीत पंचशती' में 'पूजा' के अन्तर्गत 45 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)
नीरवे थाकिस, सखी ओ तुई नीरवे थाकिस
चुप चुप रहना सखी, चुप चुप ही रहना,
काँटा वो प्रेम का—
छाती में बींध उसे रखना ।
तुमको है मिली सुधा, मिटी नहीं
अब तक उसकी क्षुधा, भर दोगी उसमें क्या विष !
जलन अरे, जिसकी सब बींधेगी मर्म,
उसे खींच बाहर क्यों रखना !!
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
('गीत वितान' में 'प्रेम' के अन्तर्गत 338 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)