रवीन्द्रनाथ ठाकुर
सूरज डूब रहा है
वन में अंधकार है, आकाश में प्रकाश.
संध्या आँखें झुकाये हुए
धीरे धीरे दिन के पीछे चल रही है.
बिछुड़ने के विषाद से श्रांत सांध्य बातास
कौन जाने बह भी रहा है की नहीं .
मैं अपने दोनों हाथों में तुम्हारे हाथ लेकर
प्यासे नयनों से तुम्हारी आँखों के भीतर झाँक रहा हूँ .
खोज रहा हूँ की तुम कहाँ हो,
कहाँ हो तुम !
जो सुधा तुममें प्रच्छन्न है
कहाँ है वह !
जिस प्रकार अँधेरे सांध्य गगन में
स्वर्ग का आलोकमय असीम रहस्य
विजन तारिकाओं में झिलमिलाता है,
उसी प्रकार आत्मा की रहस्य-शिखा झिलमिलाती है
इन नयनों के निविड़-तिमिर दल में.
इसीलिए अपलक देख रहा हूँ.
इसीलिए प्राण-मन, सबकुछ लेकर
अतल आकांक्षा के पारावार में
दुकी लगा रहा हूँ .
तुम्हारी आँखों के भीतर,
हँसी की ओट में,
वाणी के सुधा-श्रोत में
तुम्हारे मुख पर छाई हुई करुण शांति के तल में
तुम्हें कहाँ पाऊं--
इसी को लेकर है यह रोना-धोना.
किन्तु रोना-धोना व्यर्थ है.
यह रहस्य यह आनंद
तेरे लिये नहीं है ओ अभागे !
जो प्राप्त है वही अच्छा है--
तनिक सी हँसी, थोड़ी सी बात,
टुक चितवन, प्रेम का आभास.
तू समग्र मानवता को पाना चाहता है,
यह कैसा दुःसाहस है !
भला तेरे पास क्या है !
तू क्या देने पायगा.
क्या तेरे पास अनंत प्रेम है?
क्या तू दूर कर सकेगा जीवन का अनंत अभाव?
उदार आकाश भर लोक-लोकालयों की यह असीम भीड़,
यह घना प्रकाश और अंधकार ,
कोटि छाया-पथ, माया-पथ
दुर्गम उदय-अस्ताचल
क्या इन सबके बीच से रास्ता बनाकर
रात-दिन अकेला और असहाय
चिर सहचर को साथ लेकर चल सकेगा?
जो स्वयं श्रांत, कातर, दुर्बल और म्लान है
जो भूख-प्यास से व्याकुल है,
अंधा है,
और जो दिशा भूल गया है,
जो अपने दुःख के भार से पीड़ित और जर्जर है
भला वह हमेशा के लिये किसे पा लेना चाहता है !
आदमी कोई भूख मिटाने वाला खाद्य नहीं है,
कोई नहीं है तेरा या मेरा .
अत्यंत यत्नपूर्वक बहुत चुपचाप
सुख में,दुःख में,
निशीथ में ,दिवस में,
जीवन में, मरण में,
शत ऋतु आवर्तन में
शतदल-कमल
विकसित होता है !
तुम उसे सुतीक्ष्ण वासना की छुरी से
काटकर ले लेना चाहते हो?
उसका मधुर सौरभ लो
उसका सौन्दर्य-विकास निहारो,
उसका मकरंद पियो,
प्रेम करो, प्रेम से शक्ति लो--
उसकी ओर मत ताको .
मानव की आत्मा आकांक्षा का धन नहीं है .
संध्या शांत हो गई है,
कोलाहल थम गया है .
आँख के जल की वासना की आग बुझा दो.
चलो धीरे-धीरे घर लौट चलें.
'बेला हो गई है, चल पानी भर लायें.'
मानो कोई दूर पर पहचाने स्वर में
पुकार रहा है--
कहाँ है वह छाया सखी,
कहाँ है वह जल,
कहाँ है वह पक्का घाट,
कहाँ है वह अश्वत्थ-तल!
घर के इक कोने में
मैं अकेली और अनमनी बैठी थी,
मानो तभी किसी ने पुकारा:'चल पानी भर लायें'
वह टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता,
जहाँ कटि पर गगरी लेकर चलती थी--
बाईं ओर केवल मैदान है
सदा धू-धू करता हुआ,
दाहिनी ओर बाँस का जंगल डालियाँ हिलाता है.
तलब के काले पानी में
संध्या का आकाश झिलमिल कर्ता है,
दोनों तरफ
छाया से ढका कुआ घना वन है.
गहरे अचंचल जल में
धीरे से अपने को छोड़ देती हूँ
किनारे पर कोकिल अमृत भरी बोलि बोलता है.
लौटते समय पथ पर देखती हूँ,
तरु-शिखाओं पर अंधकार है
सहसा देखती हूँ
चन्द्रमा आकाश में आ गया है.
प्राचीर फोड़कर
अश्वत्थ ऊपर उठ रहा है,
वहीं तो दौड़ी जाती थी मैं रोज सबेरे उठकर.
शरद के ओस कनों से झिलमिलाती हुई सारी धरती;
फूलों से लड़ा हुआ कनेर;
प्राचीर के सहारे-सहारे उसे छाकर
बैंगनी फूलों से भरी हुई हरी-भरी दो लताएँ;
उनके बीच की छूटी हुई जगह में आँख गड़ाए
उसी की ओट में पड़ी रहती थी,
और आंचल पाँव पर गिर पड़ता था.
मैदान के बाद मैदान
मैदान के छोर पर दूर से हुए गाँव
आकाश में विलीन लगते हैं.
उस ओर खड़ी हुई है
पुराने श्यामल ताल वन की सघन राजि.
कभी झलक जाती है बाँध की जल-रेखा,
उसके किनारे आकर कोलाहल करते हैं चरवाहे.
असंख्य रस्ते फूटे हुए हैं
कौन जाने किस सैकड़ों नूतन देशों की दिशा में.
हाय री पाषाण काया राजधानी !
तूने व्याकुल बालिका को
जोर से अपनी विराट मुट्ठी में जकड़ लिया है
तुझे दया नहीं आती.
वे खुले हुए मैदान, उदार पथ
प्रशस्त घाट,पंछियों के गीत;
अरण्य की छाया कहाँ है.
मानो चारों तरफ लोग खड़े हैं,
कोई सुन न ले मन इसलिए नहीं खुलता.
यहाँ रोना व्यर्थ है,
वह भीत से टकराकर अपने ही पास लौट आएगा.
मेरे आंसुओं को कोई नहीं समझता.
सब हैरान होकर कारण ढूंढते हैं.
'इसे कुछ अच्छा नहीं लगता,
यह तो बड़ी बुरी बात है,
देहात की लड़की का ऐसा ही स्वभाव होता है.
कितने अड़ोसी-पड़ोसी सगे-सहोदर हैं
कितने लोग मिलने जुलने आते हैं
किन्तु यह बेचारी आँख फेरे हुए
कोने में ही बैठी रहती है.'
कोई मुख देखता है, कोई हाथ-पाँव
कोई अच्छा कहता है, कोई नहीं.
मैं फूलमाला, बिकने आई हूँ
सब परखना चाहते हैं
स्नेह कोई नहीं करता.
(7 मई, 1861 – 7 अगस्त, 1941) को गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता हैं। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बाँग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।
जीवन
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म देवेन्द्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के सन्तान के रूप में 7 मई, 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उन्होंने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लन्दन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही स्वदेश वापस आ गए। सन् 1883 में मृणालिनी देवी के साथ उनकाअ विवाह हुआ।
रचना
बचपन से ही उनकी कविता, छन्द और भाषा में अद्भुत प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूँकने वाले युगदृष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं। देश और विदेश के सारे साहित्य, दर्शन, संस्कृति आदि उन्होंने आहरण करके अपने अन्दर समेट लिए थे। पिता के ब्रह्म-समाजी के होने के कारण वे भी ब्रह्म-समाजी थे। पर अपनी रचनाओं व कर्म के द्वारा उन्होंने सनातन धर्म को भी आगे बढ़ाया। टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। लगभग एक शताब्दी पूर्व सन् 1919 में कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के द्वारा अपनी जापान यात्रा से लौटने के पश्चात उनके ‘जापान यात्री’ में प्रसिद्ध जापानी हाइकू कवि बाशो की हाइकू कविताओं के बंगला कविताओं के अनुवाद के रूप में सर्वप्रथम हिन्दुस्तानी धरती पर हाइकु विधा अवतरित हुयी परन्तु इतने पहले आने के बावजूद लंबे समय तक यह साहित्यिक विधा हिन्दुस्तानी साहित्यिक जगत में अपनी कोई विशेष पहचान नहीं बना सकी। हिन्दी साहित्य की अनेकानेक विधाओं में से एक नवीनतम विधा है हाइकु वर्तमान में संसार भर में फैले हिंदुस्तानियों की इन्टरनेट पर फैली रचनाओं के माध्यम से यह विधा हाइकु हिन्दुस्तानी कविता जगत में प्रमुखता से अपना स्थान बना रही है।
अनुवाद
मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं के अन्दर वह अलग-अलग रूपों में उभर आता है। साहित्य की शायद ही ऐसी कोई शाखा हो, जिनमें उनकी रचना न हो - कविता, गान, कथा, उपन्यास, नाटक, प्रबन्ध, शिल्पकला - सभी विधाओं में उन्होंने रचना की। उनकी प्रकाशित कृतियों में - गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अँग्रेज़ी अनुवाद के बाद उनकी प्रतिभा पूरे विश्व में फैली।
प्रकृति का सान्निध्य
टैगोर को बचपन से ही प्रकृति का सान्निध्य बहुत भाता था। प्रकृति के प्रति गहरा लगाव रखने वाला यह प्रकृति प्रेमी ऐसा एकमात्र व्यक्ति है जिसने दो देशों के लिए राष्ट्रगान लिखा। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में सियालदह छोड़कर आश्रम की स्थापना करने के लिए शान्तिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की।
चित्रकार रवीन्द्र
गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। टैगोर और महात्मा गान्धी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहां गान्धी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। टैगोर ने गान्धीजी को महात्मा का विशेषण दिया था। एक समय था जब शान्तिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस वक्त गान्धी जी ने टैगोर को 60 हजार रुपये के अनुदान का चेक दिया था।
जीवन के अन्तिम समय 7 अगस्त 1941 के कुछ समय पहले इलाज के लिए जब उन्हें शान्तिनिकेतन से कोलकाता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने कहा कि आपको मालूम है हमारे यहाँ नया पावर हाउस बन रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हाँ पुराना आलोक चला जाएगा नए का आगमन होगा।
सम्मान
उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये उन्हे सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।
सबके बीच में अकेली घूमती हूँ.
किस तरह सारा समय काटूँ.
ईंट के ऊपर ईंट जमी है,
उनके बीच में है मनुष्य-कीट--
न प्यार है न खेल-कूद.
कहाँ हो तुम माँ कहाँ हो तुम,
मुझे तू कैसे भूल गई!
जब नया चाँद उगेगा
तब छत के ऊपर बैठकर
क्या तू मुझे कहानी नहीं सुनाएगी?
मुझे लगता है सुने बिछौने पर
मन के दुःख से रो-रोकर तू
रातें काटती है!
सबेरे शिवालय में फूल चढ़ाकर
अपनी परदेशी कन्या की कुशल माँगना.
चाँद यहाँ की छत के उस तरफ निकलता है माँ
कमरे के द्वार पर आकर प्रकाश
प्रवेश की आज्ञा माँगता है.
मानो मुझे खोजते हुए देश-देश में भटका है,
मानो वह मुझे प्यार करता है,चाहता है.
इसीलिए इक क्षण के लिये अपने को भूलकर
विकल होकर दौड़ती हूँ द्वार खोलकर .
और तभी चारों तरफ आँखे सतर्क हो जाती हैं,
शासन की झाड़ू उठ जाती है.
न प्यार देते हैं न देते प्रकाश!
जी कहता है, अँधेरे, छाया से ढके हुए
तालाब के उसी ठंढे पानी की
गोद में जाकर भर जाना अच्छा है.
लो मुझे पुकारो, तुम सब मुझे पुकारो--
कहो, समय हो गया, चल पानी भर लायें.'
समय कब होगा
कब समाप्त होगा यह खेल,
यदि कोई जनता हो तो मुझे बताये,
शीतल जल कब इस ज्वाला को बुझायेगा !
२३ मई १८८८
तब लज्जा का आवरण क्यों छीन लिया?
द्वार तोडकर ह्रदय को बाहर खींच लाए;
रास्ते के बीच में आकर आखिर उसे छोड़ दोगे क्या?
अपने भीतर मैं अपने को ही लेकर बैठी थी;
सबके बीच, संसार के शत कर्मों में निरत
जैसे सब थे, मैं भी वैसी ही थी.
जब मैं पूजा का फूल चुनने को जाती--
उस छायामय पथ पर,उस लतापूर्ण घेरे में,
सरसी के उस तट पर जहाँ कनेर का वन है--
तब शिरीष की डाल पर कोकिल कूजन करते;
भोर-भोर सखियों का मेला लगता,
कितनी हँसी उठती, कितने खेल होते.
किन्तु, कौन जनता था की प्राणों की आड़ में
छिपा हुआ क्या है ?
वसन्त के आने पर वन की बेला खिल उठता.
कोई सखी माला पहनती, कोई डाली भर लेती,
दक्षिणी पवन उनके अंचल को अस्त-व्यस्त कर देता.
वर्षा की घनघोर घटा में बिजली खेल करती,
मैदान के छोर पर बादल और वन एकाकार हो जाते,
संध्या के समय जुही के फूल खिलने लगते.
वर्ष आते और चले जाते, मैं गृहकर्म में लगी रहती,
सुख और दुःख का भाग लेकर प्रतिदिन का समय चला जाता
और रात गोपन स्वप्नों को लेकर चली जाती थी.
प्राणों में छिपा हुआ प्रेम कितना पवित्र होता है !
हृदय की अंधकार में वह माणिक्य के समान जलता है,
किन्तु, प्रकाश में वह काले कलंक के समान दिखाई देता है.
छिः,छिः ! तुमने नारी ह्रदय को तोडकर देखा ?
आर्त्त प्रेम लज्जा और भय से थर-थर काँप रहा है;
निर्दय ! तुमने उसके छिपने का स्थान छीन लिया.
आज भी तो वही वसन्त, वही शरत् आता है,
चम्पा को टेढ़ी-मेढ़ी डाल पर स्वर्ण-पुष्प खिलते हैं,
और उसी छायामय पथ से आकर वे ही सखियाँ उन्हें चुनती हैं.
सब जैसे थे,आज भी ठीक वैसे हीं है.
वे वैसे ही रोते हैं,हंसते हैं काम करते और प्रेम करते हैं,
पूजा करते और दीप जलते हैं तथा अर्घ्य का जल ले आते हैं.
उनके प्राणों के भीतर तो कोई झांकी नहीं मरता;
उनके ह्रदय के गुप्त गृह को तो कोई तोड़ कर नहीं देखता.
अपने ह्रदय को वे खुद भी नाही जानती.
मैं छिन्न पुष्प के समान राजपथ पर पड़ी हूँ;
पल्लव का छाया-स्निग्ध चिकना आवरण छोडकर
धूल में लोट रही हूँ.
मेरी व्यथासे नितांत व्यथित हो तुम मुझे स्नेह देकर
अपने ह्रदय में मेरे लिये यत्नपूर्वक चिरकालिक आश्रय रच दोगे,
यही आशा लेकर अपने ह्रदय को
तुम्हारे सामने नग्न कर दिया था.
सखे, आज क्या बोलकर तुम मुँह फिरा रहे हो?
यहाँ तुम भूल से आये थे! भूल से ही तुम प्रेम कर बैठे?
और अब प्रेम टूट गया, इसी से चले जा रहे हो?
आज या कल तुम तो लौट जाओगे,
किन्तु, मेरे लौटने की राह तुमने नहीं छोड़ी
जिसकी ओट लेकर प्राण छिपे थे,
तुमने उसी आवरण को धूल में मिला दिया.
यह कितनी निदारुण भूल है!
विश्व-निलय के शत्-शत् प्राणों को छोड़कर
तुम क्यों इस अभागिनी के गोपन ह्रदय में आ पड़े?
सोचकर देखो तुम मुझे कहाँ ले आये हो?
उत्सुकता से क्रूर पृथ्वी की करोड़ों आँखें
नग्न कलंक की ओर देखती रहेंगी.
यदि, अन्त में, प्रेम भी लौटा लेना था,
तो मेरी लज्जा का हरण क्यों किया?
इस विशाल विश्व में मुझे निर्वसन वेश में
अकेली क्यों छोड़ दिया?
२४ मई १८८८
कविवर !
कब, कौन वह, विस्मृत-वर्ष था,
आषाढ़ का कौन-सा प्रथम पवित्र दिन,
जब तुमने मेघदूत लिखा था ?
विश्व में जितने भी विरही हैं, उन सबके शोक को
तुम्हारे मेघमन्द्र श्लोक ने
सघन संगीत में पुंजीभूत करके अपनी अँधेरी तहों में छिपा रखा है .
उस दिन उज्जयिनी के प्रासाद-शिखर पर,
न जाने, कितनी सघन घटा, कितना विद्युत--उत्सव,
वायु का कितना उद्दाम वेग,
मेघों का कितना गुरू-गुरू नाद था ।
बादलों के संघर्ष के उसी निर्घोष ने
एक दिन सहस्र वर्षों के अंतरगूढ़
वाश्पकुल विरह-क्रन्दन को जगा दिया ।
उसी दिन काल के बंधन को तोड़कर
मानो, बहुत दिनों का अवरुद्ध अश्रुजल
तुम्हारे उदार श्लोकों को सिक्त करके
अविरल रूप से झर पड़ा ।
संसार के जितने भी प्रवासी थे,
उस दिन क्या उन्होंने करबद्ध होकर,
प्रियतमा के गृह की ओर मुँह करके
एक ही स्वर में विरह का गाना गया था ?
क्या उन्होंने अपनी अश्रुवाष्पयुक्त प्रेम वार्तालापों को
नए, निर्बंध मेघों के पंखो पर बिठाकर
उन सुदूर वातायनों में भेजना चाह था
जहाँ मुक्तकेशिनी, म्लानवेशिनी,
सजलनयना विरहिनियाँ जमीन पर सोई हुई थीं ?
कवि ! अपने संगीत द्वारा
उन सबके गान
क्या तुमने देश-देशांतर में खोज कर
विरहिणी प्रियाओं को भेज दिए,
जैसे श्रावण की जाहन्वी बहती हुई
महासमुद्र में लय होने के लिए
दिग्दिगन्तर की वारिधाराओं को अपने में खींच लेती है,
जैसे पाषाण-श्रृंखलाओं में बंधा हुआ हिमाचल
आषाढ़ मास में, अनन्त आकाश में,
निर्मुक्त, व्योमचारी बादलों को देखकर निःश्वास छोड़ता है
और हजार कन्दराओं में राशि-राशि वाष्प समूह को
व्योम की ओर भेजता है;
जैसे वे वाष्प निरुद्देश्य दौड़ने वाली कामना के समान
शिखरों से ऊपर उठकर
अन्त में सब मिलकर एकाकार हो जाते हैं
और सारे व्योम पर अधिकार जमा लेते हैं ।
उस दिन के बाद से
स्निग्ध,नवीन वर्षा का प्रथम दिवस
सैंकडों बार आकर चला गया है .
प्रत्येक वर्षा
तुम्हारे काव्य पर नई वृष्टि-धारा बरसाकर
उसे नया जीवन डे गई है,
उसके भीतर नई-नई
जलद-मन्द्र प्रतिध्वनियाँ संचरित कर गई है,
तुम्हारे छंद के स्रोत-वेग को
वर्षा की नदी के समान स्फीत बना गई है .
कितने काल से कितने विरही लोगों ने
प्रियतमा से विहीन गृहों में
आषाढ़ की ऐसी संध्या के समय
जो वृष्टिक्लांत और अत्यंत दीर्घ है,
जिसके तारे और चन्द्रमा लुप्त हो गये हैं,
दीपों के छीन प्रकाश में बैठकर
उस छंद को मंद-मंद पढ़ कर
अपनी विरह-वेदना को विलीन किया है.
उन सबका कंठ-स्वर
तुम्हारे काव्य के भीतर से
सर-तरंग की कलध्वनि के समान
मेरी श्रुतियों में प्रवेश करता है .
मैं भारत की पूर्वी सीमा पर
उसी हरियाले बंग देश में बैठा हूँ
जहाँ कवि जयदेव ने किसी वर्षा के दिन
दिगंत के तमाल-वन की श्यामल छाया देखी थी,
मेघों से मेंदुर,पूर्ण आकाश देखा था.
आज दिन अंधकारमय है,
वृष्टि झर-झर झर रही है,
पवन अत्यंत दुरंत है,
उसके आक्रमण से अरण्य बाहें उठाकर हाहाकार कर रही है.
शून्य वर्षा में प्रखर हँसी हँसकर
मेघ मंडल को वेध
विद्युत् झाँकी मारती है .
अँधेरे बंद गृह में अकेला बैठकर
मई मेघ दूत पढ़ रहा हूँ.
मेरे गृह-त्यागी मन ने
मुक्तगामी मेघों की पीठ पर आसन जमा लिया है.
वह देश-देशान्तर में उड़ रहा है.
सानुमान आम्रकूट कहाँ है ?
शिलाओं में बाधित गति वाली
वह निर्मल कृशकाय रेवा नदी
विंध्य के चरणों पर कहाँ बहती है ?
वेगवती के तीर पर
पके फलों से श्याम दिखने वाला दशार्ण ग्राम
जंबू-वन की छाया में कहाँ छिपा हुआ है ?
कहाँ है खिली हुई केतकी के बाड़े से वेष्टित वह स्थान
जहाँ ग्राम पक्षियों ने वन को कलरव से पूर्ण कर
रस्ते की बगल के पेड़ों पर
अपने वर्षाकालीन नीड बांधे हैं .
न जाने, जुही के वन में विहार करने वाली वनांगना
किस नदी के तीर पर घूम रही है !
तपे हुए कपोल की गर्मी से
उसके करणोंत्प्ल मुरझा रहे हैं,
मेघ की छाया के लिये वह विकल हो रही है.
वे कौन सी नारियाँ हैं.
भ्रू-संचालन नहीं सीखा है ?
जन-पद की वे वधूतियाँ
आकाश में सघन घटा को देखकर
आँखे ऊपर कर जब बादलों को देखती है
तब मेघों की नील-छाया
उनके सुनील नयनों में पड़ जाती है.
मेघों से श्याम वह कौन सा शैल है
जिसकी शिला पर मुग्ध सिद्धान्गनाएँ
स्निग्ध, नवीन जलदों को देखती हुई
अनमनी होकर बैठी थी ?
सहसा भयानक झंझा के कारण
वे भय से थर-थर कांपने लगीं.
वस्त्र सम्भालकर वे कन्दराओं में
आश्रम खोजती फिरती है
और कहती जाती हैं, "मैया री !
लगता है, झंझा गिरि-श्रृंग को ही उड़ा कर ले जायेगी.
किस सपने में तुमने लम्बी दिवा-रात्रि काट दी ?
अहल्ये ! शिला-रूप में मिट्टी में मिली हुई
उस तापस-विहीन उस शून्य छाया में कैसे रहीं
जिसकी हवन-शिखाएं निर्वाषित हो चुकी थीं ?
वृहत पृथ्वी के साथ तुम एक देह होकर विलीन थीं .
उस समय उस महा स्नेह को तुमने समझा था क्या?
पाषाण के नीचे
क्या कोई स्फुट चेतना भी शेष थी ?
जीवधात्री माता की जो बड़ी वेदना है,
मात्रिधैर्य में जो नीरव सुख और दुःख है
सोई हुई आत्मा के भीतर
क्या स्वप्न के समान उनका अनुभव किया था?
दिन-रात लाखों-करोड़ों प्राणियों के मिलन और कलह--
आनंद और विषाद के व्यग्र क्रन्दन और गर्जन,
असंख्य पथिकों की क्षण-क्षण उठने वाली पद-चाप,
ये क्या शाप-निद्रा को भेद कर
तुम्हारी श्रुतियों में प्रवेश करते थे,
नेत्रहीन,मूढ़ एवं जड़ अर्धचेतना की स्थिति में
तुम्हें जगाए रहते थे ?
महाजननी की नित्य निद्राहीन व्यथा को
अपने मन से क्या तुम जान सकी थीं ?
नवीन वासन्ती वायु के बहने पर
पृथ्वी के सर्वांग में उठने वाला पुलक-प्रवाह
क्या तुम्हारा भी स्पर्श करता था ?
मरु के दिग्विजय के हेतु जब जीवानोत्साह
सहस्र मार्गों से,सहस्र रूपों में,वेग से छूटता होगा
तब वह अनुर्वर अभिशाप को मेटने के लिये
क्षुब्ध होकर तुम्हारे पाषाण को घेर लेता होगा.
तो क्या उस आघात से
तुम्हारी देह में जीवन का कम्प जागता था ?
मानव गृह में जब रात्रि का आगमन होता,
पृथ्वी श्रांत देहों को अपने ह्रदय से लगा लेती;
दुःख एयर क्लांति भूलकर असंख्य जीव निद्रित हो जाते;
केवल आकाश जगता रहता;
उनके अंग और सुषुप्ति के निःश्वास
पृथ्वी के ह्रदय को विभोर कर देते;
मात्री-अंग में निहित
करोड़ों जीवों के उस स्पर्श-सुख में से कुछ को
क्या तुमने अपने भीतर पाया था ?