फिराक गोरखपुरी
रघुपति सहाय
आँखों में जो बात हो गई है
इक शरह-ए-हयात हो गई है
जब दिल की वफ़ात हो गई है
हर चीज़ की रात हो गई है
ग़म से छुट कर ये ग़म है मुझ को
क्यूँ ग़म से नजात हो गई है
मुद्दत से ख़बर मिली न दिल की
शायद कोई बात हो गई है
जिस शय पे नज़र पड़ी है तेरी
तस्वीर-ए-हयात हो गई है
अब हो मुझे देखिए कहाँ सुब्ह
उन ज़ुल्फ़ों में रात हो गई है
दिल में तुझ से थी जो शिकायत
अब ग़म के निकात हो गई है
इक़रार-ए-गुनाह-ए-इश्क़ सुन लो
मुझ से इक बात हो गई है
जो चीज़ भी मुझ को हाथ आई
तेरी सौग़ात हो गई है
क्या जानिए मौत पहले क्या थी
अब मेरी हयात हो गई है
घटते घटते तिरी इनायत
मेरी औक़ात हो गई है
उस चश्म-ए-सियह की याद यकसर
शाम-ए-ज़ुल्मात हो गई है
इस दौर में ज़िंदगी बशर की
बीमार की रात हो गई है
जीती हुई बाज़ी-ए-मोहब्बत
खेला हूँ तो मात हो गई है
मिटने लगीं ज़िंदगी की क़द्रें
जब ग़म से नजात हो गई है
वो चाहें तो वक़्त भी बदल जाए
जब आए हैं रात हो गई है
दुनिया है कितनी बे-ठिकाना
आशिक़ की बरात हो गई है
पहले वो निगाह इक किरन थी
अब बर्क़-सिफ़ात हो गई है
जिस चीज़ को छू दिया है तू ने
इक बर्ग-ए-नबात हो गई है
इक्का-दुक्का सदा-ए-ज़ंजीर
ज़िंदाँ में रात हो गई है
एक एक सिफ़त 'फ़िराक़' उस की
देखा है तो ज़ात हो गई है
ज़िंदगी दर्द की कहानी है
चश्म-ए-अंजुम में भी तो पानी है
बे-नियाज़ाना सुन लिया ग़म-ए-दिल
मेहरबानी है मेहरबानी है
वो भला मेरी बात क्या माने
उस ने अपनी भी बात मानी है
शोला-ए-दिल है ये कि शोला-साज़
या तिरा शोला-ए-जवानी है
वो कभी रंग वो कभी ख़ुशबू
गाह गुल गाह रात-रानी है
बन के मासूम सब को ताड़ गई
आँख उस की बड़ी सियानी है
आप-बीती कहो कि जग-बीती
हर कहानी मिरी कहानी है
दोनों आलम हैं जिस के ज़ेर-ए-नगीं
दिल उसी ग़म की राजधानी है
हम तो ख़ुश हैं तिरी जफ़ा पर भी
बे-सबब तेरी सरगिरानी है
सर-ब-सर ये फ़राज़-ए-मह्र-ओ-क़मर
तेरी उठती हुई जवानी है
आज भी सुन रहे हैं क़िस्सा-ए-इश्क़
गो कहानी बहुत पुरानी है
ज़ब्त कीजे तो दिल है अँगारा
और अगर रोइए तो पानी है
है ठिकाना ये दर ही उस का भी
दिल भी तेरा ही आस्तानी है
उन से ऐसे में जो न हो जाए
नौ-जवानी है नौ-जवानी है
दिल मिरा और ये ग़म-ए-दुनिया
क्या तिरे ग़म की पासबानी है
गर्दिश-ए-चश्म-ए-साक़ी-ए-दौराँ
दौर-ए-अफ़लाक की भी पानी है
ऐ लब-ए-नाज़ क्या हैं वो असरार
ख़ामुशी जिन की तर्जुमानी है
मय-कदों के भी होश उड़ने लगे
क्या तिरी आँख की जवानी है
ख़ुद-कुशी पर है आज आमादा
अरे दुनिया बड़ी दिवानी है
कोई इज़हार-ए-ना-ख़ुशी भी नहीं
बद-गुमानी सी बद-गुमानी है
मुझ से कहता था कल फ़रिश्ता-ए-इश्क़
ज़िंदगी हिज्र की कहानी है
बहर-ए-हस्ती भी जिस में खो जाए
बूँद में भी वो बे-करानी है
मिल गए ख़ाक में तिरे उश्शाक़
ये भी इक अम्र-ए-आसमानी है
ज़िंदगी इंतिज़ार है तेरा
हम ने इक बात आज जानी है
क्यूँ न हो ग़म से ही क़िमाश उस का
हुस्न तसवीर-ए-शादमानी है
सूनी दुनिया में अब तो मैं हूँ और
मातम-ए-इश्क़-ए-आँ-जहानी है
कुछ न पूछो 'फ़िराक़' अहद-ए-शबाब
रात है नींद है कहानी है
अपने ग़म का मुझे कहाँ ग़म है
ऐ कि तेरी ख़ुशी मुक़द्दम है
आग में जो पड़ा वो आग हुआ
हुस्न-ए-सोज़-ए-निहाँ मुजस्सम है
उस के शैतान को कहाँ तौफ़ीक़
इश्क़ करना गुनाह-ए-आदम है
दिल के धड़कों में ज़ोर-ए-ज़र्ब-ए-कलीम
किस क़दर इस हबाब में दम है
है वही इश्क़ ज़िंदा-ओ-जावेद
जिसे आब-ए-हयात भी सम है
इस में ठहराव या सुकून कहाँ
ज़िंदगी इंक़लाब-ए-पैहम है
इक तड़प मौज-ए-तह-नशीं की तरह
ज़िंदगी की बिना-ए-मोहकम है
रहती दुनिया में इश्क़ की दुनिया
नए उन्वान से मुनज़्ज़म है
उठने वाली है बज़्म माज़ी की
रौशनी कम है ज़िंदगी कम है
ये भी नज़्म-ए-हयात है कोई
ज़िंदगी ज़िंदगी का मातम है
इक मुअ'म्मा है ज़िंदगी ऐ दोस्त
ये भी तेरी अदा-ए-मुबहम है
ऐ मोहब्बत तू इक अज़ाब सही
ज़िंदगी बे तिरे जहन्नम है
इक तलातुम सा रंग-ओ-निकहत का
पैकर-ए-नाज़ में दमा-दम है
फिरने को है रसीली नीम-निगाह
आहू-ए-नाज़ माइल-ए-राम है
रूप के जोत ज़ेर-ए-पैराहन
गुल्सिताँ पर रिदा-ए-शबनम है
मेरे सीने से लग के सो जाओ
पलकें भारी हैं रात भी कम है
आह ये मेहरबानियाँ तेरी
शादमानी की आँख पुर-नम है
नर्म ओ दोशीज़ा किस क़द्र है निगाह
हर नज़र दास्तान-ए-मरयम है
मेहर-ओ-मह शोला-हा-ए-साज़-ए-जमाल
जिस की झंकार इतनी मद्धम है
जैसे उछले जुनूँ की पहली शाम
इस अदा से वो ज़ुल्फ़ बरहम है
यूँ भी दिल में नहीं वो पहली उमंग
और तेरी निगाह भी कम है
और क्यूँ छेड़ती है गर्दिश-ए-चर्ख़
वो नज़र फिर गई ये क्या कम है
रू-कश-ए-सद-हरीम-ए-दिल है फ़ज़ा
वो जहाँ हैं अजीब आलम है
दिए जाती है लौ सदा-ए-'फ़िराक़'
हाँ वही सोज़-ओ-साज़ कम कम है
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं
जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए नादानी
उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं
निगाह-ए-बादा-गूँ यूँ तो तिरी बातों का क्या कहना
तिरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं
तबीअ'त अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं
ख़ुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं
हयात-ए-इश्क़ का इक इक नफ़स जाम-ए-शहादत है
वो जान-ए-नाज़-बरदाराँ कोई आसान लेते हैं
हम-आहंगी में भी इक चाशनी है इख़्तिलाफ़ों की
मिरी बातें ब-उनवान-ए-दिगर वो मान लेते हैं
तिरी मक़बूलियत की वज्ह वाहिद तेरी रमज़िय्यत
कि उस को मानते ही कब हैं जिस को जान लेते हैं
अब इस को कुफ़्र मानें या बुलंदी-ए-नज़र जानें
ख़ुदा-ए-दो-जहाँ को दे के हम इंसान लेते हैं
जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मा'नी जान लेते हैं
तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तिरा ऐ दोस्त हर एहसान लेते हैं
हमारी हर नज़र तुझ से नई सौगंध खाती है
तो तेरी हर नज़र से हम नया पैमान लेते हैं
रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आख़िर है
तिरा ऐ मौत हम ये दूसरा एहसान लेते हैं
ज़माना वारदात-ए-क़ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर आँखों पर मिरा दीवान लेते हैं
'फ़िराक़' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं
बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में
वहशतें बढ़ गईं हद से तिरे दीवानों में
निगह-ए-नाज़ न दीवानों न फ़र्ज़ानों में
जानकार एक वही है मगर अन-जानों में
बज़्म-ए-मय बे-ख़ुद-ओ-बे-ताब न क्यूँ हो साक़ी
मौज-ए-बादा है कि दर्द उठता है पैमानों में
मैं तो मैं चौंक उठी है ये फ़ज़ा-ए-ख़ामोश
ये सदा कब की सुनी आती है फिर कानों में
सैर कर उजड़े दिलों की जो तबीअ'त है उदास
जी बहल जाते हैं अक्सर इन्हीं वीरानों में
वुसअ'तें भी हैं निहाँ तंगी-ए-दिल में ग़ाफ़िल
जी बहल जाते हैं अक्सर इन्हीं मैदानों में
जान ईमान-ए-जुनूँ सिलसिला जुम्बान-ए-जुनूँ
कुछ कशिश-हा-ए-निहाँ जज़्ब हैं वीरानों में
ख़ंदा-ए-सुब्ह-ए-अज़ल तीरगी-ए-शाम-ए-अबद
दोनों आलम हैं छलकते हुए पैमानों में
देख जब आलम-ए-हू को तो नया आलम है
बस्तियाँ भी नज़र आने लगीं वीरानों में
जिस जगह बैठ गए आग लगा कर उट्ठे
गर्मियाँ हैं कुछ अभी सोख़्ता-सामानों में
वहशतें भी नज़र आती हैं सर-ए-पर्दा-ए-नाज़
दामनों में है ये आलम न गरेबानों में
एक रंगीनी-ए-ज़ाहिर है गुलिस्ताँ में अगर
एक शादाबी-ए-पिन्हाँ है बयाबानों में
जौहर-ए-ग़ुंचा-ओ-गुल में है इक अंदाज़-ए-जुनूँ
कुछ बयाबाँ नज़र आए हैं गरेबानों में
अब वो रंग-ए-चमन-ओ-ख़ंदा-ए-गुल भी न रहे
अब वो आसार-ए-जुनूँ भी नहीं दीवानों में
अब वो साक़ी की भी आँखें न रहीं रिंदों में
अब वो साग़र भी छलकते नहीं मय-ख़ानों में
अब वो इक सोज़-ए-निहानी भी दिलों में न रहा
अब वो जल्वे भी नहीं इश्क़ के काशानों में
अब न वो रात जब उम्मीदें भी कुछ थीं तुझ से
अब न वो बात ग़म-ए-हिज्र के अफ़्सानों में
अब तिरा काम है बस अहल-ए-वफ़ा का पाना
अब तिरा नाम है बस इश्क़ के ग़म-ख़ानों में
ता-ब-कै वादा-ए-मौहूम की तफ़्सील 'फ़िराक़'
शब-ए-फ़ुर्क़त कहीं कटती है इन अफ़्सानों में
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी
हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी
कहूँ ये कैसे इधर देख या न देख उधर
कि दर्द दर्द है फिर भी नज़र नज़र फिर भी
ख़ुशा इशारा-ए-पैहम ज़हे सुकूत-ए-नज़र
दराज़ हो के फ़साना है मुख़्तसर फिर भी
झपक रही हैं ज़मान ओ मकाँ की भी आँखें
मगर है क़ाफ़िला आमादा-ए-सफ़र फिर भी
शब-ए-फ़िराक़ से आगे है आज मेरी नज़र
कि कट ही जाएगी ये शाम-ए-बे-सहर फिर भी
कहीं यही तो नहीं काशिफ़-ए-हयात-ओ-ममात
ये हुस्न ओ इश्क़ ब-ज़ाहिर हैं बे-ख़बर फिर भी
पलट रहे हैं ग़रीब-उल-वतन पलटना था
वो कूचा रू-कश-ए-जन्नत हो घर है घर फिर भी
लुटा हुआ चमन-ए-इश्क़ है निगाहों को
दिखा गया वही क्या क्या गुल ओ समर फिर भी
ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर
यही कि तेरी नज़र है तिरी नज़र फिर भी
हो बे-नियाज़-ए-असर भी कभी तिरी मिट्टी
वो कीमिया ही सही रह गई कसर फिर भी
लिपट गया तिरा दीवाना गरचे मंज़िल से
उड़ी उड़ी सी है ये ख़ाक-ए-रहगुज़र फिर भी
तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
उतर गया रग-ए-जाँ में ये नेश्तर फिर भी
ग़म-ए-फ़िराक़ के कुश्तों का हश्र क्या होगा
ये शाम-ए-हिज्र तो हो जाएगी सहर फिर भी
फ़ना भी हो के गिराँ-बारी-ए-हयात न पूछ
उठाए उठ नहीं सकता ये दर्द-ए-सर फिर भी
सितम के रंग हैं हर इल्तिफ़ात-ए-पिन्हाँ में
करम-नुमा हैं तिरे जौर सर-ब-सर फिर भी
ख़ता-मुआफ़ तिरा अफ़्व भी है मिस्ल-ए-सज़ा
तिरी सज़ा में है इक शान-ए-दर-गुज़र फिर भी
अगरचे बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ को ज़माना हुआ
'फ़िराक़' करती रही काम वो नज़र फिर भी
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
जुनूँ का नाम उछलता रहा ज़माने में
'फ़िराक़' दौड़ गई रूह सी ज़माने में
कहाँ का दर्द भरा था मिरे फ़साने में
जुनूँ से भूल हुई दिल पे चोट खाने में
'फ़िराक़' देर अभी थी बहार आने में
वो कोई रंग है जो उड़ न जाए ऐ गुल-ए-तर
वो कोई बो है जो रुस्वा न हो ज़माने में
वो आस्तीं है कोई जो लहू न दे निकले
वो कोई हसन है झिझके जो रंग लाने में
ये गुल खिले हैं कि चोटें जिगर की उभरी हैं
निहाँ बहार थी बुलबुल तिरे तराने में
ब्यान शम्अ' है हासिल यही है जलने का
फ़ना की कैफ़ियतें देख झिलमिलाने में
कसी की हालत-ए-दिल सुन के उठ गईं आँखें
कि जान पड़ गई हसरत भरे फ़साने में
उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम
जो दास्ताँ थी निहाँ तेरे आँख उठाने में
वो कोई रंग है जो उड़ न जाए ऐ गुल-ए-तर
वो कोई बू है जो रुस्वा न हो ज़माने में
बयान-ए-शम्अ है हासिल यही है जलने का
फ़ना की कैफ़ियतें देख झिलमिलाने में
ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में
हमीं हैं गुल हमीं बुलबुल हमीं हवा-ए-चमन
'फ़िराक़' ख़्वाब ये देखा है क़ैद-ख़ाने में
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए
वाह-री ग़फ़लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम
पर्दा-ए-आज़ुर्दगी में थी वो जान-ए-इल्तिफ़ात
जिस अदा को रंजिश-ए-बेजा समझ बैठे थे हम
क्या कहें उल्फ़त में राज़-ए-बे-हिसी क्यूँकर खुला
हर नज़र को तेरी दर्द-अफ़ज़ा समझ बैठे थे हम
बे-नियाज़ी को तिरी पाया सरासर सोज़ ओ दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम
इंक़लाब-ए-पय-ब-पय हर गर्दिश ओ हर दौर में
इस ज़मीन ओ आसमाँ को क्या समझ बैठे थे हम
भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीअ'त का समझ बैठे थे हम
साफ़ अलग हम को जुनून-ए-आशक़ी ने कर दिया
ख़ुद को तेरे दर्द का पर्दा समझ बैठे थे हम
कान बजते हैं मोहब्बत के सुकूत-ए-नाज़ को
दास्ताँ का ख़त्म हो जाना समझ बैठे थे हम
बातों बातों में पयाम-ए-मर्ग भी आ ही गया
उन निगाहों को हयात-अफ़्ज़ा समझ बैठे थे हम
अब नहीं ताब-ए-सिपास-ए-हुस्न इस दिल को जिसे
बे-क़रार-ए-शिकव-ए-बेजा समझ बैठे थे हम
एक दुनिया दर्द की तस्वीर निकली इश्क़ को
कोह-कन और क़ैस का क़िस्सा समझ बैठे थे हम
रफ़्ता रफ़्ता इश्क़ मानूस-ए-जहाँ होता चला
ख़ुद को तेरे हिज्र में तन्हा समझ बैठे थे हम
हुस्न को इक हुस्न ही समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
मेहरबाँ ना-मेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम
मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले
दी सज़ा इश्क़ ने हर जुर्म-ओ-ख़ता से पहले
आतिश-ए-इश्क़ भड़कती है हवा से पहले
होंट जुलते हैं मोहब्बत में दुआ से पहले
फ़ित्ने बरपा हुए हर ग़ुंचा-ए-सर-बस्ता से
खुल गया राज़-ए-चमन चाक-ए-क़बा से पहले
चाल है बादा-ए-हस्ती का छलकता हुआ जाम
हम कहाँ थे तिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा से पहले
अब कमी क्या है तिरे बे-सर-ओ-सामानों को
कुछ न था तेरी क़सम तर्क-ए-वफ़ा से पहले
इश्क़-ए-बेबाक को दा'वे थे बहुत ख़ल्वत में
खो दिया सारा भरम शर्म-ओ-हया से पहले
ख़ुद-बख़ुद चाक हुए पैरहन-ए-लाला-ओ-गुल
चल गई कौन हवा बाद-ए-सबा से पहले
हम-सफ़र राह-ए-अदम में न हो तारों-भरी रात
हम पहुँच जाएँगे इस आबला-पा से पहले
पर्दा-ए-शर्म में सद-बर्क़-ए-तबस्सुम के निसार
होश जाते रहे नैरंग-ए-हया से पहले
मौत के नाम से डरते थे हम ऐ शौक़-ए-हयात
तू ने तो मार ही डाला था क़ज़ा से पहले
बे-तकल्लुफ़ भी तिरा हुस्न-ए-ख़ुद-आरा था कभी
इक अदा और भी थी हुस्न-ए-अदा से पहले
ग़फ़लतें हस्ती-ए-फ़ानी की बता देंगी तुझे
जो मिरा हाल था एहसास-ए-फ़ना से पहले
हम उन्हें पा के 'फ़िराक़' और भी कुछ खोए गए
ये तकल्लुफ़ तो न थे अहद-ए-वफ़ा से पहले
रात भी नींद भी कहानी भी
हाए क्या चीज़ है जवानी भी
एक पैग़ाम-ए-ज़िंदगानी भी
आशिक़ी मर्ग-ए-ना-गहानी भी
इस अदा का तिरी जवाब नहीं
मेहरबानी भी सरगिरानी भी
दिल को अपने भी ग़म थे दुनिया में
कुछ बलाएँ थीं आसमानी भी
मंसब-ए-दिल ख़ुशी लुटाना है
ग़म-ए-पिन्हाँ की पासबानी भी
दिल को शो'लों से करती है सैराब
ज़िंदगी आग भी है पानी भी
शाद-कामों को ये नहीं तौफ़ीक़
दिल-ए-ग़म-गीं की शादमानी भी
लाख हुस्न-ए-यक़ीं से बढ़ कर है
उन निगाहों की बद-गुमानी भी
तंगना-ए-दिल-ए-मलूल में है
बहर-ए-हस्ती की बे-करानी भी
इश्क़-ए-नाकाम की है परछाईं
शादमानी भी कामरानी भी
देख दिल के निगार-ख़ाने में
ज़ख़्म-ए-पिन्हाँ की है निशानी भी
ख़ल्क़ क्या क्या मुझे नहीं कहती
कुछ सुनूँ मैं तिरी ज़बानी भी
आए तारीख़-ए-इश्क़ में सौ बार
मौत के दौर-ए-दरमियानी भी
अपनी मासूमियत के पर्दे में
हो गई वो नज़र सियानी भी
दिन को सूरज-मुखी है वो नौ-गुल
रात को है वो रात-रानी भी
दिल-ए-बद-नाम तेरे बारे में
लोग कहते हैं इक कहानी भी
वज़्अ' करते कोई नई दुनिया
कि ये दुनिया हुई पुरानी भी
दिल को आदाब-ए-बंदगी भी न आए
कर गए लोग हुक्मरानी भी
जौर-ए-कम-कम का शुक्रिया बस है
आप की इतनी मेहरबानी भी
दिल में इक हूक भी उठी ऐ दोस्त
याद आई तिरी जवानी भी
सर से पा तक सुपुर्दगी की अदा
एक अंदाज़-ए-तुर्कमानी भी
पास रहना किसी का रात की रात
मेहमानी भी मेज़बानी भी
हो न अक्स-ए-जबीन-ए-नाज़ कि है
दिल में इक नूर-ए-कहकशानी भी
ज़िंदगी ऐन दीद-ए-यार 'फ़िराक़'
ज़िंदगी हिज्र की कहानी भी
समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है
शब-ए-फ़ुर्क़त मुझे क्या हो गया है
तिरा ग़म क्या है बस ये जानता हूँ
कि मेरी ज़िंदगी मुझ से ख़फ़ा है
कभी ख़ुश कर गई मुझ को तिरी याद
कभी आँखों में आँसू आ गया है
हिजाबों को समझ बैठा मैं जल्वा
निगाहों को बड़ा धोका हुआ है
बहुत दूर अब है दिल से याद तेरी
मोहब्बत का ज़माना आ रहा है
न जी ख़ुश कर सका तेरा करम भी
मोहब्बत को बड़ा धोका रहा है
कभी तड़पा गया है दिल तिरा ग़म
कभी दिल को सहारा दे गया है
शिकायत तेरी दिल से करते करते
अचानक प्यार तुझ पर आ गया है
जिसे चौंका के तू ने फेर ली आँख
वो तेरा दर्द अब तक जागता है
जहाँ है मौजज़न रंगीनी-ए-हुस्न
वहीं दिल का कँवल लहरा रहा है
गुलाबी होती जाती हैं फ़ज़ाएँ
कोई इस रंग से शरमा रहा है
मोहब्बत तुझ से थी क़ब्ल-अज़-मोहब्बत
कुछ ऐसा याद मुझ को आ रहा है
जुदा आग़ाज़ से अंजाम से दूर
मोहब्बत इक मुसलसल माजरा है
ख़ुदा-हाफ़िज़ मगर अब ज़िंदगी में
फ़क़त अपना सहारा रह गया है
मोहब्बत में 'फ़िराक़' इतना न ग़म कर
ज़माने में यही होता रहा है
वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें
वो इक शख़्स के याद आने की रातें
शब-ए-मह की वो ठंडी आँचें वो शबनम
तिरे हुस्न के रस्मसाने की रातें
जवानी की दोशीज़गी का तबस्सुम
गुल-ए-ज़ार के वो खिलाने की रातें
फुवारें सी नग़्मों की पड़ती हों जैसे
कुछ उस लब के सुनने-सुनाने की रातें
मुझे याद है तेरी हर सुब्ह-ए-रुख़्सत
मुझे याद हैं तेरे आने की रातें
पुर-असरार सी मेरी अर्ज़-ए-तमन्ना
वो कुछ ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने की रातें
सर-ए-शाम से रतजगा के वो सामाँ
वो पिछले पहर नींद आने की रातें
सर-ए-शाम से ता-सहर क़ुर्ब-ए-जानाँ
न जाने वो थीं किस ज़माने की रातें
सर-ए-मय-कदा तिश्नगी की वो क़स्में
वो साक़ी से बातें बनाने की रातें
हम-आग़ोशियाँ शाहिद-ए-मेहरबाँ की
ज़माने के ग़म भूल जाने की रातें
'फ़िराक़' अपनी क़िस्मत में शायद नहीं थे
ठिकाने के दिन या ठिकाने की रातें
ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
तिरे ख़याल की ख़ुशबू से बस रहे हैं दिमाग़
दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूँ आई
कि जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चराग़
झलकती है खिंची शमशीर में नई दुनिया
हयात ओ मौत के मिलते नहीं हैं आज दिमाग़
हरीफ़-ए-सीना-ए-मजरूह ओ आतिश-ए-ग़म-ए-इश्क़
न गुल की चाक-गरेबानियाँ न लाले के दाग़
वो जिन के हाल में लौ दे उठे ग़म-ए-फ़र्दा
वही हैं अंजुमन-ए-ज़िंदगी के चश्म-ओ-चराग़
तमाम शोला-ए-गुल है तमाम मौज-ए-बहार
कि ता-हद-ए-निगह-ए-शौक़ लहलहाते हैं बाग़
नई ज़मीन नया आसमाँ नई दुनिया
सुना तो है कि मोहब्बत को इन दिनों है फ़राग़
जो तोहमतें न उठीं इक जहाँ से उन के समेत
गुनाहगार-ए-मोहब्बत निकल गए बे-दाग़
जो छुप के तारों की आँखों से पाँव धरता है
उसी के नक़्श-ए-कफ़-ए-पा से जल उठे हैं चराग़
जहान-ए-राज़ हुई जा रही है आँख तिरी
कुछ इस तरह वो दिलों का लगा रही है सुराग़
ज़माना कूद पड़ा आग में यही कह कर
कि ख़ून चाट के हो जाएगी ये आग भी बाग़
निगाहें मतला-ए-नौ पर हैं एक आलम की
कि मिल रहा है किसी फूटती किरन का सुराग़
दिलों में दाग़-ए-मोहब्बत का अब ये आलम है
कि जैसे नींद में डूबे हों पिछली रात चराग़
'फ़िराक़' बज़्म-ए-चराग़ाँ है महफ़िल-ए-रिंदाँ
सजे हैं पिघली हुई आग से छलकते अयाग़