ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा
इस रात की तक़दीर सँवर जाए तो अच्छा
जिस तरह से थोड़ी सी तिरे साथ कटी है
बाक़ी भी उसी तरह गुज़र जाए तो अच्छा
दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या
ये बोझ अगर दिल से उतर जाए तो अच्छा
वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बरबाद किया है
इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा
अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो
क्या चाहती है उन की नज़र पूछते चलो
हम से अगर है तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ तो क्या हुआ
यारो कोई तो उन की ख़बर पूछते चलो
जो ख़ुद को कह रहे हैं कि मंज़िल-शनास हैं
उन को भी क्या ख़बर है मगर पूछते चलो
किस मंज़िल-ए-मुराद की जानिब रवाँ हैं हम
ऐ रह-रवान-ए-ख़ाक-बसर पूछते चलो
भूले से मोहब्बत कर बैठा, नादाँ था बेचारा, दिल ही तो है
हर दिल से ख़ता हो जाती है, बिगड़ो न ख़ुदारा, दिल ही तो है
इस तरह निगाहें मत फेरो, ऐसा न हो धड़कन रुक जाए
सीने में कोई पत्थर तो नहीं एहसास का मारा, दिल ही तो है
जज़्बात भी हिन्दू होते हैं चाहत भी मुसलमाँ होती है
दुनिया का इशारा था लेकिन समझा न इशारा, दिल ही तो है
बेदाद-गरों की ठोकर से सब ख़्वाब सुहाने चूर हुए
अब दिल का सहारा ग़म ही तो है अब ग़म का सहारा दिल ही तो है
चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है आँखों में सुरूर आ जाता है
जब तुम मुझे अपना कहते हो अपने पे ग़ुरूर आ जाता है
तुम हुस्न की ख़ुद इक दुनिया हो शायद ये तुम्हें मालूम नहीं
महफ़िल में तुम्हारे आने से हर चीज़ पे नूर आ जाता है
हम पास से तुम को क्या देखें तुम जब भी मुक़ाबिल होते हो
बेताब निगाहों के आगे पर्दा सा ज़रूर आ जाता है
जब तुम से मोहब्बत की हम ने तब जा के कहीं ये राज़ खुला
मरने का सलीक़ा आते ही जीने का शुऊ'र आ जाता है
बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों मोहब्बतों के दिए जला के
मिरी वफ़ा ने उजाड़ दी हैं उमीद की बस्तियाँ बसा के
तुझे भुला देंगे अपने दिल से ये फ़ैसला तो किया है लेकिन
न दिल को मालूम है न हम को जिएँगे कैसे तुझे भुला के
कभी मिलेंगे जो रास्ते में तो मुँह फिरा कर पलट पड़ेंगे
कहीं सुनेंगे जो नाम तेरा तो चुप रहेंगे नज़र झुका के
न सोचने पर भी सोचती हूँ कि ज़िंदगानी में क्या रहेगा
तिरी तमन्ना को दफ़्न कर के तिरे ख़यालों से दूर जा के
देखा है ज़िंदगी को कुछ इतना क़रीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से
कहने को दिल की बात जिन्हें ढूँडते थे हम
महफ़िल में आ गए हैं वो अपने नसीब से
नीलाम हो रहा था किसी नाज़नीं का प्यार
क़ीमत नहीं चुकाई गई इक ग़रीब से
तेरी वफ़ा की लाश पे ला मैं ही डाल दूँ
रेशम का ये कफ़न जो मिला है रक़ीब से
दूर रह कर न करो बात क़रीब आ जाओ
याद रह जाएगी ये रात क़रीब आ जाओ
एक मुद्दत से तमन्ना थी तुम्हें छूने की
आज बस में नहीं जज़्बात क़रीब आ जाओ
सर्द झोंकों से भड़कते हैं बदन में शो'ले
जान ले लेगी ये बरसात क़रीब आ जाओ
इस क़दर हम से झिजकने की ज़रूरत क्या है
ज़िंदगी भर का है अब साथ क़रीब आ जाओ
इस तरफ़ से गुज़रे थे क़ाफ़िले बहारों के
आज तक सुलगते हैं ज़ख़्म रहगुज़ारों के
ख़ल्वतों के शैदाई ख़ल्वतों में खुलते हैं
हम से पूछ कर देखो राज़ पर्दा-दारों के
गेसुओं की छाँव में दिल-नवाज़ चेहरे हैं
या हसीं धुँदलकों में फूल हैं बहारों के
पहले हँस के मिलते हैं फिर नज़र चुराते हैं
आश्ना-सिफ़त हैं लोग अजनबी दयारों के
तुम ने सिर्फ़ चाहा है हम ने छू के देखे हैं
पैरहन घटाओं के जिस्म बर्क़-पारों के
शुग़्ल-ए-मय-परस्ती गो जश्न-ए-ना-मुरादी था
यूँ भी कट गए कुछ दिन तेरे सोगवारों के
इतनी हसीन इतनी जवाँ रात क्या करें
जागे हैं कुछ अजीब से जज़्बात क्या करें
पेड़ों के बाज़ुओं में महकती है चाँदनी
बेचैन हो रहे हैं ख़यालात क्या करें
साँसों में घुल रही है किसी साँस की महक
दामन को छू रहा है कोई हात क्या करें
शायद तुम्हारे आने से ये भेद खुल सके
हैरान हैं कि आज नई बात क्या करें
लब पे पाबंदी तो है एहसास पर पहरा तो है
फिर भी अहल-ए-दिल को अहवाल-ए-बशर कहना तो है
ख़ून-ए-आ'दा से न हो ख़ून-ए-शहीदाँ ही से हो
कुछ न कुछ इस दौर में रंग-ए-चमन निखरा तो है
अपनी ग़ैरत बेच डालें अपना मस्लक छोड़ दें
रहनुमाओं में भी कुछ लोगों का ये मंशा तो है
है जिन्हें सब से ज़ियादा दा'वा-ए-हुब्बुल-वतन
आज उन की वज्ह से हुब्ब-ए-वतन रुस्वा तो है
बुझ रहे हैं एक इक कर के अक़ीदों के दिए
इस अँधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है
झूट क्यूँ बोलें फ़रोग़-ए-मस्लहत के नाम पर
ज़िंदगी प्यारी सही लेकिन हमें मरना तो है
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया
बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया
जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया
ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया
मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी कभी
होती है दिलबरों की इनायत कभी कभी
शर्मा के मुँह न फेर नज़र के सवाल पर
लाती है ऐसे मोड़ पे क़िस्मत कभी कभी
खुलते नहीं हैं रोज़ दरीचे बहार के
आती है जान-ए-मन ये क़यामत कभी कभी
तन्हा न कट सकेंगे जवानी के रास्ते
पेश आएगी किसी की ज़रूरत कभी कभी
फिर खो न जाएँ हम कहीं दुनिया की भीड़ में
मिलती है पास आने की मोहलत कभी कभी
सदियों से इंसान ये सुनता आया है
दुख की धूप के आगे सुख का साया है
हम को इन सस्ती ख़ुशियों का लोभ न दो
हम ने सोच समझ कर ग़म अपनाया है
झूट तो क़ातिल ठहरा इस का क्या रोना
सच ने भी इंसाँ का ख़ूँ बहाया है
पैदाइश के दिन से मौत की ज़द में हैं
इस मक़्तल में कौन हमें ले आया है
अव्वल अव्वल जिस दिल ने बरबाद किया
आख़िर आख़िर वो दिल ही काम आया है
इतने दिन एहसान किया दीवानों पर
जितने दिन लोगों ने साथ निभाया है
संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
इक धुँद से आना है इक धुँद में जाना है
ये राह कहाँ से है ये राह कहाँ तक है
ये राज़ कोई राही समझा है न जाना है
इक पल की पलक पर है ठहरी हुई ये दुनिया
इक पल के झपकने तक हर खेल सुहाना है
क्या जाने कोई किस पर किस मोड़ पर क्या बीते
इस राह में ऐ राही हर मोड़ बहाना है
हम लोग खिलौना हैं इक ऐसे खिलाड़ी का
जिस को अभी सदियों तक ये खेल रचाना है
तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम
ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम
मायूसी-ए-मआल-ए-मोहब्बत न पूछिए
अपनों से पेश आए हैं बेगानगी से हम
लो आज हम ने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उमीद
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम
उभरेंगे एक बार अभी दिल के वलवले
गो दब गए हैं बार-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी से हम
गर ज़िंदगी में मिल गए फिर इत्तिफ़ाक़ से
पूछेंगे अपना हाल तिरी बेबसी से हम
अल्लाह-रे फ़रेब-ए-मशिय्यत कि आज तक
दुनिया के ज़ुल्म सहते रहे ख़ामुशी से हम
तिरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएँ
वही आँसू वही आहें वही ग़म है जिधर जाएँ
कोई तो ऐसा घर होता जहाँ से प्यार मिल जाता
वही बेगाने चेहरे हैं जहाँ जाएँ जिधर जाएँ
अरे ओ आसमाँ वाले बता इस में बुरा क्या है
ख़ुशी के चार झोंके गर इधर से भी गुज़र जाएँ
तोड़ लेंगे हर इक शय से रिश्ता तोड़ देने की नौबत तो आए
हम क़यामत के ख़ुद मुंतज़िर हैं पर किसी दिन क़यामत तो आए
हम भी सुक़रात हैं अहद-ए-नौ के तिश्ना-लब ही न मर जाएँ यारो
ज़हर हो या मय-ए-आतिशीं हो कोई जाम-ए-शहादत तो आए
एक तहज़ीब है दोस्ती की एक मेयार है दुश्मनी का
दोस्तों ने मुरव्वत न सीखी दुश्मनों को अदावत तो आए
रिंद रस्ते में आँखें बिछाएँ जो कहे बिन सुने मान जाएँ
नासेह-ए-नेक-तीनत किसी शब सू-ए-कू-ए-मलामत तो आए
इल्म ओ तहज़ीब तारीख़ ओ मंतिक़ लोग सोचेंगे इन मसअलों पर
ज़िंदगी के मशक़्क़त-कदे में कोई अहद-ए-फ़राग़त तो आए
काँप उट्ठें क़स्र-ए-शाही के गुम्बद थरथराए ज़मीं माबदों की
कूचा-गर्दों की वहशत तो जागे ग़म-ज़दों को बग़ावत तो आए
ये वादियाँ ये फ़ज़ाएँ बुला रही हैं तुम्हें
ख़मोशियों की सदाएँ बुला रही हैं तुम्हें
तरस रहे हैं जवाँ फूल होंट छूने को
मचल मचल के हवाएँ बुला रही हैं तुम्हें
तुम्हारी ज़ुल्फ़ों से ख़ुशबू की भीक लेने को
झुकी झुकी सी घटाएँ बुला रही हैं तुम्हें
हसीन चम्पई पैरों को जब से देखा है
नदी की मस्त अदाएँ बुला रही हैं तुम्हें
मिरा कहा न सुनो उन की बात तो सुन लो
हर एक दिल की दुआएँ बुला रही हैं तुम्हें
ये ज़मीं किस क़दर सजाई गई
ज़िंदगी की तड़प बढ़ाई गई
आईने से बिगड़ के बैठ गए
जिन की सूरत जिन्हें दिखाई गई
दुश्मनों ही से भी तो निभ जाए
दोस्तों से तो आश्नाई गई
नस्ल-दर-नस्ल इंतिज़ार रहा
क़स्र टूटे न बे-नवाई गई
ज़िंदगी का नसीब क्या कहिए
एक सीता थी जो सताई गई
हम न अवतार थे न पैग़म्बर
क्यूँ ये अज़्मत हमें दिलाई गई
मौत पाई सलीब पर हम ने
उम्र बन-बास में बिताई गई