डॉ॰ अशोक चक्रधर (जन्म ८ फ़रवरी सन् १९५१) हिंदी के विद्वान, कवि एवं लेखक है। हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट प्रतिभा के कारण प्रसिद्ध वे कविता की वाचिक परंपरा का विकास करने वाले प्रमुख विद्वानों में से भी एक है। टेलीफ़िल्म लेखक-निर्देशक, वृत्तचित्र लेखक निर्देशक, धारावाहिक लेखक, निर्देशक, अभिनेता, नाटककर्मी, कलाकार तथा मीडिया कर्मी के रूप में निरंतर कार्यरत अशोक चक्रधर जामिया मिलिया इस्लामिया में हिंदी व पत्रकारिता विभाग में प्रोफेसर के पद से सेवा निवृत्त होने के बाद संप्रति केन्द्रीय हिंदी संस्थान तथा हिन्दी अकादमी, दिल्ली के उपाध्यक्ष पद पर कार्यरत हैं। 2014 में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया।
फावड़े ने
मिट्टी काटने से इंकार कर दिया
और
बदरपुर पर जा बैठा
एक ओर
ऐसे में
तसले की मिट्टी ढोना
कैसे गवारा होता ?
काम छोड़ आ गया
फावड़े की बगल में।
धुरमुट की क़ंदमताल.....रुक गई,
कुदाल के इशारे पर
तत्काल,
झाल ज्यों ही कुढ़ती हुई
रोती बड़बड़ाती हुई
आ गिरी औंधे मुंह
रोड़ी के ऊपर।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
गुस्से में ऐंठी हुई
काम छोड़ बैठ गईं
गुनिया और वसूली भी
ईंटों से पीठ टेक,
सिमट आया नापासूत
कन्नी के बराबर।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
गारे में गिरी हुई बाल्टी तो
वहीं-की-वहीं
खड़ी रह गई
ठगी-सी।
सब्बल
जो बालू में धंसी हुई खड़ी थी
कई बार
ज़ालिम ठेकेदार से लड़ी थी।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
-मामला ये अकेले
झाल का नहीं है
धुरमुट चाचा !
कुदाल का भी है
कन्नी का, वसूली का,
गुनिया का, सब्बल का
और नापासूत का भी है,
क्यों धुरमुट चाचा ?
फवड़े ने ज़रा जोश में कहा।
और ठेक पड़ी हथेलियां
कसने लगीं-कसने लगीं
कसती गईं-कसती गईं।
एक साथ उठी आसमान में
आसमान गूंज गया कांप उठा डरकर।
ठेकेदार भाग लिया टेलीफ़ोन करने।
नुक्कड़ पर माशो की माँ
बेचती है टमाटर।
चेहरे पर जितनी झुर्रियाँ हैं
झल्ली में उतने ही टमाटर हैं।
टमाटर नहीं हैं
वो सेव हैं,
सेव भी नहीं
हीरे-मोती हैं।
फटी मैली धोती से
एक-एक पोंछती है टमाटर,
नुक्कड़ पर माशो की माँ।
गाहक को मेहमान-सा देखती है
एकाएक हो जाती है काइयाँ
--आठाने पाउ
लेना होय लेउ
नहीं जाउ।
मुतियाबिंद आँखों से
अठन्नी का ख़रा-खोटा देखती है
और
सुतली की तराजू पर
बेटी के दहेज-सा
एक-एक चढ़ाती है टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की माँ।
--गाहक की तुष्टि होय
एक-एक चढ़ाती ही जाती है
टमाटर।
इतने चढ़ाती है टमाटर
कि टमाटर का पल्ला
ज़मीन छूता है
उसका ही बूता है।
सूर्य उगा-- आती है
सूर्य ढला-- जाती है
लाती है झल्ली में भरे हुए टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की माँ।
गरीबी है- सो तो है,
भुखमरी है – सो तो है,
होतीलाल की हालत खस्ता है – सो तो खस्ता है,
उनके पास कोई रस्ता नहीं है – सो तो है।
पांय लागूं, पांय लागूं
बौहरे आप धन्न हैं,
आपका ही खाता हूं आपका ही अन्न है।
सो तो है खचेरा !
वह जानता है उसका कोई नहीं,
उसकी मेहनत भी उसकी नहीं है –
सो तो है।
एक अंकुर फूटा
पेड़ की जड़ के पास ।
एक किल्ला फूटा
फुनगी पर ।
अंकुर बढ़ा
जवान हुआ,
किल्ला पत्ता बना
सूख गया ।
गिरा
उस अंकुर की
जवानी की गोद में
गिरने का ग़म गिरा
बढ़ने के मोद में ।
प्यास कुछ और बढ़ी
और बढ़ी ।
बेल कुछ और चढ़ी
और चढ़ी ।
प्यास बढ़ती ही गई,
बेल चढ़ती ही गई ।
कहाँ तक जाओगी बेलरानी
पानी ऊपर कहाँ है ?
जड़ से आवाज़ आई--
यहाँ है, यहाँ है ।
मुझे याद है
वह
जज़्बाती शुरुआत की
पहली मुलाक़ात
जब सोते हुए उसके बाल
अंगुल भर दूर थे
लेकिन उन दिनों
मेरे हाथ
कितने मज़बूर थे ?
भूख लगी है
चलो, कहीं कुछ खाएं ।
देखता रहा उसको
खाते हुए लगती है कैसी,
देखती रही मुझको
खाते हुए लगता हूँ कैसा ।
नख़रेदार पानी पिया
नख़रेदार सिगरेट
ढाई घंटे बैठ वहाँ
बाहर निकल आए ।
चलती रहीं
चलती रहीं
चलती रहीं बातें
यहाँ की, वहाँ की
इधर की, उधर की
इसकी, उसकी
जने किस-किस की,
कि
एकएक
सिर्फ़ उसकी आँखों को देखा मैंने
उसने देखा मेरा देखना ।
और... तो फिर...
किधर गईं बातें,
कहाँ गईं बातें ?
मैंने कहा
चलो
उसने कहा
ना
मैंने कहा
तुम्हारे लिए खरीदभर बाज़ार है
उसने कहा
बन्द
मैंने पूछा
क्यों
उसने कहा
मन
मैंने कहा
न लगने की क्या बात है
उअसने कहा
बातें करेंगे यहीं
मैंने कहा
नहीं, चलो कहीं
झुंझलाई
क्या-आ है ?
मैनें कहा
कुर्ता ख़रीदना है अपने लिए ।
चल दी जी, चल दी
वो ख़ुशी-ख़ुशी जल्दी ।
एक गुमसुम मैना है
अकेले में गाती है
राग बागेश्री ।
तोता उससे कहे
कुछ सुनाओ तो ज़रा
तो
चोंच चढ़ाकर कहती है
फिर कभी गाऊँगी जी ।
ख़लीफ़ा की खोपड़ी / अशोक चक्रधर
दर्शकों का नया जत्था आया
गाइड ने उत्साह से बताया—
ये नायाब चीज़ों का
अजायबघर है,
कहीं परिन्दे की चोंच है
कहीं पर है।
ये देखिए
ये संगमरमर की शिला
एक बहुत पुरानी क़बर की है,
और इस पर जो बड़ी-सी
खोपड़ी रखी है न,
ख़लीफा बब्बर की है।
तभी एक दर्शक ने पूछा—
और ये जो
छोटी खोपड़ी रखी है
ये किनकी है ?
गाइड बोला—
है तो ये भी ख़लीफ़ा बब्बर की
पर उनके बचपन की है।
चुटपुटकुले (कविता) / अशोक चक्रधर
चुटपुटकुले
ये चुटपुटकुले हैं,
हंसी के बुलबुले हैं।
जीवन के सब रहस्य
इनसे ही तो खुले हैं,
बड़े चुलबुले हैं,
ये चुटपुटकुले हैं।
माना कि
कम उम्र होते
हंसी के बुलबुले हैं,
पर जीवन के सब रहस्य
इनसे ही तो खुले हैं,
ये चुटपुटकुले हैं।
ठहाकों के स्त्रोत
कुछ यहां कुछ वहां के,
कुछ खुद ही छोड़ दिए
अपने आप हांके।
चुलबुले लतीफ़े
मेरी तुकों में तुले हैं,
मुस्काते दांतों की
धवलता में धुले हैं,
ये कविता के
पुट वाले
चुटपुटकुले हैं।
दया / अशोक चक्रधर
भूख में होती है कितनी लाचारी,
ये दिखाने के लिए एक भिखारी,
लॉन की घास खाने लगा,
घर की मालकिन में
दया जगाने लगा।
दया सचमुच जागी
मालकिन आई भागी-भागी-
क्या करते हो भैया ?
भिखारी बोला
भूख लगी है मैया।
अपने आपको
मरने से बचा रहा हूं,
इसलिए घास ही चबा रहा हूं।
मालकिन ने आवाज़ में मिसरी घोली,
और ममतामयी स्वर में बोली—
कुछ भी हो भैया
ये घास मत खाओ,
मेरे साथ अंदर आओ।
दमदमाता ड्रॉइंग रूम
जगमगाती लाबी,
ऐशोआराम को सारे ठाठ नवाबी।
फलों से लदी हुई
खाने की मेज़,
और किचन से आई जब
महक बड़ी तेज,
तो भूख बजाने लगी
पेट में नगाड़े,
लेकिन मालकिन ले आई उसे
घर के पिछवाड़े।
भिखारी भौंचक्का-सा देखता रहा
मालकिन ने और ज़्यादा प्यार से कहा—
नर्म है, मुलायम है। कच्ची है
इसे खाओ भैया
बाहर की घास से
ये घास अच्छी है !
नन्ही सचाई / अशोक चक्रधर
एक डॉक्टर मित्र हमारे
स्वर्ग सिधारे।
असमय मर गए,
सांत्वना देने
हम उनके घर गए।
उनकी नन्ही-सी बिटिया
भोली-नादान थी,
जीवन-मृत्यु से
अनजान थी।
हमेशा की तरह
द्वार पर आई,
देखकर मुस्कुराई।
उसकी नन्ही-सचाई
दिल को लगी बेधने,
बोली—
अंकल !
भगवान जी बीमार हैं न
पापा गए हैं देखने।
कितनी रोटी / अशोक चक्रधर
गांव में अकाल था,
बुरा हाल था।
एक बुढ़ऊ ने समय बिताने को,
यों ही पूछा मन बहलाने को—
ख़ाली पेट पर
कितनी रोटी खा सकते हो
गंगानाथ ?
गंगानाथ बोला—
सात !
बुढ़ऊ बोला—
गलत !
बिलकुल ग़लत कहा,
पहली रोटी
खाने के बाद
पेट खाली कहां रहा।
गंगानाथ,
यही तो मलाल है,
इस समय तो
सिर्फ़ एक रोटी का सवाल है।
नेता जी लगे मुस्कुराने / अशोक चक्रधर
एक महा विद्यालय में
नए विभाग के लिए
नया भवन बनवाया गया,
उसके उद्घाटनार्थ
विद्यालय के एक पुराने छात्र
लेकिन नए नेता को
बुलवाया गया।
अध्यापकों ने
कार के दरवाज़े खोले
नेती जी उतरते ही बोले—
यहां तर गईं
कितनी ही पीढ़ियां,
अहा !
वही पुरानी सीढ़ियां !
वही मैदान
वही पुराने वृक्ष,
वही कार्यालय
वही पुराने कक्ष।
वही पुरानी खिड़की
वही जाली,
अहा, देखिए
वही पुराना माली।
मंडरा रहे थे
यादों के धुंधलके
थोड़ा और आगे गए चल के—
वही पुरानी
चिमगादड़ों की साउण्ड,
वही घंटा
वही पुराना प्लेग्राउण्ड।
छात्रों में
वही पुरानी बदहवासी,
अहा, वही पुराना चपरासी।
नमस्कार, नमस्कार !
अब आया हॉस्टल का द्वार—
हॉस्टल में वही कमरे
वही पुराना ख़ानसामा,
वही धमाचौकड़ी
वही पुराना हंगामा।
नेता जी पर
पुरानी स्मृतियां छा रही थीं,
तभी पाया
कि एक कमरे से
कुछ ज़्यादा ही
आवाज़ें आ रही थीं।
उन्होंने दरवाजा खटखटाया,
लड़के ने खोला
पर घबराया।
क्योंकि अंदर एक कन्या थी,
वल्कल-वसन-वन्या थी।
दिल रह गया दहल के,
लेकिन बोला संभल के—
आइए सर !
मेरा नाम मदन है,
इससे मिलिए
मेरी कज़न है।
नेता जी लगे मुस्कुराने
WAHI PURANE BAHANE
अब जब
विश्वभर में सबके सब,
सभ्य हैं, प्रबुद्ध हैं
तो क्यों करते युद्ध हैं ?
कैसी विडंबना कि
आधुनिक कहाते हैं,
फिर भी देश लड़ते हैं
लहू बहाते हैं।
एक सैनिक दूसरे को
बिना बात मारता है,
इससे तो अच्छी
समझौता वार्ता है।
एक दूसरे के समक्ष
बैठ जाएं दोनों पक्ष
बाचतीत से हल निकालें,
युद्ध को टालें !
क्यों अशोक जी,
आपका क्या ख़याल है ?
मैंने कहा—
यही तो मलाल है।
बातचीत से कुछ होगा
आपका भरम है,
दरअसल,
ये बातचीत ही तो
लड़ाई का
पहला कदम है।
क्या किया फ़ोटोज़ का ?
सामने खड़ा था स्टाफ़ समूचा
आई. जी. ने रौब से पूछा—
पांच शातिर बदमाशों के
चित्र मैंने भेजे,
कुछ किया
या सिर्फ़ सहेजे ?
इलाक़े में
हो रही वारदातें,
‘क्या कर रही है पुलिस’
ये होती हैं बातें।
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में
बढ़ रहे हैं खतरे,
और
खुलेआम घूम रहे हैं
जेबकतरे।
चोरी,
डकैती
सेंधमारी,
जेबकतरी
सिलसिला बन गया है रोज़ का,
सिर झुकाए खड़ा था
स्टाफ़ सारा,
आई. जी. ने हवा में
बेंत फटकारा-
कोई जवाब नहीं दिया,
बताइए
इस तरह
सिर मत झुकाइए।
क्या किया है
बताइए ।
वो उचक्के
पूरे शहर को मूंड रहे हैं....
एक थानेदार बोला—
सर !
तीन फ़ोटो मिल गए हैं
दो फ़ोटो ढूँढ़ रहे हैं।
मंत्रिमंडल विस्तार / अशोक चक्रधर
आप तो जानते हैं
सपना जब आता है
तो अपने साथ लाता है
भूली-भटकी भूखों का
भोलाभाला भंडारा।
जैसे
हमारे केन्द्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार
हे करतार !
सत्तर मंत्रियों के बाद भी
लंबी कतार।
अटल जी बोले—
अशोक !
कैसे लगाऊं रोक ?
इतने सारे मंत्री हो गए,
और जो नहीं हो पाए
वो दसियों बार रो गए।
इतने विभाग कहां से लाऊं,
सबको मंत्री कैसे बनाऊं ?
मैंने कहा—
अटल जी !
जानता हूं
जानता हूं, आपकी पीड़ा,
कॉकरोच से भी ज़्यादा
जानदार होता है—
कुर्सी का कीड़ा !
कुलबुलाता है, छटपटाता है,
पटकी देने की
धमकी से पटाता है।
मैं जानता हूं
कुर्सी न पाने वाले
घूम रहे हैं उखड़े-उखड़े,
और ख़ुश करने के चक्कर में
अपने किए हैं
एक-एक विभाग के
दो-दो टुकड़े।
मेरे सुझाव पर विचार करिए
अब दो के चार करिए।
वे बोले—
कैसे ?
मैंने कहा—
ऐसे
जैसे आपने
मानव संसाधन से
खेलकूद मंत्रालय अलगाया है,
इस तरह से
एक कैबिनेट मंत्री बढ़ाया है।
अब ये जो मंत्रालय है
खेलकूद का
यहां दो लोग मज़ा ले सकते हैं
एक अमरूद का।
एक को बनाइए खेल मंत्री,
दूसरे को कूद मंत्री।
सारा काम लोकतंत्री !!
अटल जी बोले—
अशोक !
इसी बात का तो है शोक।
अपने काबीना में
जितने मंत्री हैं
आधे खेल मंत्री
आधे कूदमंत्री हैं।
असंतुष्ट
दुष्ट खेल, खेल रए ऐं,
वक्ष पर
प्रत्यक्ष दंड पेल रए ऐं।
हमीं जानते ऐं कैसे झेल रए ऐं।
मैंने कहा—
बिलकुल मत झेलिए।
खुलकर खोलिए।
सबको ख़ुश करने के चक्कर में
लगे रहे
और विहिप की व्हिप पर
सिर्फ़ राम नाम जपना है,
तो याद रखिए
सत्ता में बने रहना
सपना है।
देश को नहीं चाहिए
कोई व्यक्तिगत
या धार्मिक वर्जना,
देश को चाहिए
हर क्षेत्र में सर्जना।
देश को नहीं चाहिए
फ़कत उद्घोषण,
देश को चाहिए
जन-जन का पोषण।
हंसना-रोना / अशोक चक्रधर
जो रोया
सो आंसुओं के
दलदल में
धंस गया,
और कहते हैं,
जो हंस गया
वो फंस गया
अगर फंस गया,
तो मुहावरा
आगे बढ़ता है
कि जो हंस गया,
उसका घर बस गया।
मुहावरा फिर आगे बढ़ता है
जिसका घर बस गया,
वो फंस गया !
....और जो फंस गया,
वो फिर से
आंसुओं के दलदल में
धंस गया !!
परदे हटा के देखो / अशोक चक्रधर
ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो,
ग़म हैं हंसी के अंदर, परदे हटा के देखो।
लहरों के झाग ही तो, परदे बने हुए हैं,
गहरा बहुत समंदर, परदे हटा के देखो।
चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना,
सुनने की चीज़ हैं पर, परदे हटा के देखो।
नभ में उषा की रंगत, सूरज का मुस्कुराना
ये ख़ुशगवार मंज़र, परदे हटा के देखो।
अपराध और सियासत का इस भरी सभा में,
होता हुआ स्वयंवर, परदे हटा के देखो।
इस ओर है धुआं सा, उस ओर है कुहासा,
किरणों की डोर बनकर, परदे हटा के देखो।
ऐ चक्रधर ये माना, हैं ख़ामियां सभी में,
कुछ तो मिलेगा बेहतर, परदे हटा के देखो।
खींचो खींचो / अशोक चक्रधर
कौन कह मरा है कि
कैमरा हो हमेशा तुम्हारे पास,
आंखों से ही खींच लो
समंदर की लहरें
पेड़ों की पत्तियां
मैदान की घास !
भूतपूर्व दस्यू सुन्दरी,
संसद कंदरा कन्दरी !
उन्होंने एक बात कही,
खोपड़ी
चकराए बिना नहीं रही।
माथा ठनका,
क्योंकि
वक्तव्य था उनका
सुन लो
इस चंबल के बीहड़ों की
बेटी से
राजा
पहले पैदा होता था
रानी के पेट से
अब पैदा होता है
मतपेटी से।
बात चुस्त है,
सुनने में भी दुरुस्त है,
लेकिन अशोक चक्रधर
ये सोचकर शोकग्रस्त है
सुस्त है,
कि राजतंत्र
हमने शताब्दियों भोगा
पेट से हो या पेटी से
क्या इस लोकतंत्र में
अब भी
राजा ही पैदा होगा ?
जब भी
इतिहास का
कोई ख़ून रंगा पन्ना
फड़फड़ाया है,
उसने हास-परिहास में नहीं
बल्कि
उदास होकर बताया है—
राजा माने
तलवार,
जब जी चाहे प्रहार।
राजा माने,
गद्दी,
हरम की परम्पराएं भद्दी।
आक़ा-आकाशी,
सेनापतियों सिपहसालारों की अय्याशी।
राजा माने क्रोध,
मदांध प्रतिशोध।
राजा माने
व्यक्तिगत ख़ज़ाना,
लगान वसूलने को
हथेली खुजाना
राजा माने बंदूक
जो निर्बल पर अचूक
मतपेटी से निकले
राजा और रानी वर्तमान में,
साढ़े पांच सौ हैं।
संविधान में
भूतपूर्व दस्यू सुन्दरी और वर्तमान रानी !
दोहरानी नहीं है।
कोई पुरानी कहानी।
अनुरोध है कि
प्रतिशोध को
जातिवादी कढ़ाई में मत रांधना
मतपेटी से निकल कर
कमर पर पेटी मत बांधना।
हमारा लोकतंत्र बड़ा फ़ितना है,
और कवि का सवाल
सिर्फ़ इतना है,
मेहरबानी होगी
अगर आप बताएंगे,
कि प्रजातंत्र में
मतपेटी से
प्रजा के राजा नहीं
शोषित,
पीड़ित
कराहती हुई
अपने लिए
सुख-चैन चाहती हई
प्रजा के सेवक
कब आएंगे ?
इस प्रजातंत्र में
प्रजा के सेवक कब आएंगे ?
क्या होता है कार में-
पास की चीज़ें पीछे दौड़ जाती है
तेज़ रफ़तार में!
और ये शायद
गति का ही कुसूर है
कि वही चीज़
देर तक साथ रहती है
जो जितनी दूर है।