सखी, हौं स्याम रंग रँगी।
देखि बिकाइ गई वह मूरति, सूरति माहि पगी॥१॥
संग हुतो अपनो सपनो सो, सोइ रही रस खोई।
जागेहु आगे दृष्टिो परै सखि, नेकु न न्यारो होई॥२॥
एक जु मेरी अँखियनमें निसिद्योस रह्यो करि भौन।
गाइ चरावन जात सुन्यो सखि, सो धौं कन्हैया कौन॥३॥
कासों कहौं कौन पतियावै, कौन करै बकवाद।
कैसे कै कहि जात गदाधर, गूँगेको गुड़ स्वाद॥४॥
गदाधर भट्टाचार्य (1650) नव्य न्याय के यशस्वी नैयायिक थे।[1] वे नवद्वीप के निवासी थे। इन्होंने रघुनाथ की "दीधिति" पर अत्यन्त विसतृत और परिष्कृत टीका की रचना की है जो "गादाधरी" नाम से विख्यात है। व्युत्पत्तिवाद, शक्तिवाद आदि उनके अनेक मौलिक ग्रंथ हैं, जिनसे इनके मौलिक चिंतन की विदग्धता विदित होती है। ये 17 वें शतक में विद्यमान माने जाते हैं।