बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' का काव्य Badri Narayan Chaudhary 'Premghan' ka Kavya
कारन सों गोरन की घिन को
बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'
कारन सों गोरन की घिन को नाहिन कारन।
कारन तुम हीं या कलंक के करन निवारन॥
कारन ही के कारन गोरन लहत बडाई।
कारन ही के कारन गोरन की प्रभुताई॥
कार नहीं है कारन को गोरन गोरन में।
कारन पै जिय देन चहत गोरन हित मन में॥
कारन का है गोरन में भगती साँचे चित।
कारन की गोरन ही सो आशा हित की नित॥
कारन की गोरन की राजसभा में आवन।
को कारन केवल कहि कै निज दुख प्रगटावन॥
कारन करन नहीं शासन गोरन पै मन में।
कारन के तौ का कारन घिन जो कारन में॥
गोरन की जो कहत नकारन कारन रोकौ।
नहिं बैठे ए गोरन मध्य कहूँ अवलोकौ॥
महामंत्री को बचन मेटि तुमही बिन कारन।
गोरन राजसभा में कारन के बैठारन॥
के कारन तुम अहौ, अहो प्रिय साँचे लिबरल।
कारन के अब तौ तुमहीं कारन कारन बल॥
कारो निपट नकारो नाम लगत भारतियन।
यदपि न कारे तऊ भागि कार बिचारि मन॥
अचरज होत तुमहुँ सन गोरे बाजत कारे।
तासों कारे-कारे शब्दहु पर है वारे॥
अरु बहुधा कारन के है आधारहि कारे।
विष्णु कृष्ण कारे कारे सेसहु जगधारे॥
कारे काम, राम, जलधर जल बरसनवार।
कारे लागत, ताही सन कारन को प्यारे॥
तासो कारे ह्वै तुम लागत औरहु प्यारे।
यातैं नीको है तुम कारे जाहु पुकारे॥
यहै असीस देत तुम कहैं मिल हम सब कारे।
सफल होहिं मन के सब ही संकल्प तुमारे॥
वे कारे घन से कारे जसुदा के बारे।
कारे मुनिजन के मन में नित विहरन हारे॥
मंगल करै सदा भारत को सहित तुमारे।
सकल अमंगल मेटि रहैं आनंद बिस्तारे॥
होली
बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'
मची है भारत में कैसी होली सब अनीति गति हो ली।
पी प्रमाद मदिरा अधिकारी लाज सरम सब घोली॥
लगे दुसह अन्याय मचावन निरख प्रजा अति भोली।
देश असेस अन्न धन उद्यम सारी संपति ढो ली॥
लाय दियो होलिका बिदेसी बसन मचाय ठिठोली।
कियो हीन रोटी धोती नर नाहीं चादर चोली॥
निज दुख व्यथा कथा नहिं कहिबे पावत कोउ मँह खोली।
लगे कुमकुमा बम को छूटन पिचकारिन सो गोली॥
बह्यो रक्त छिति पंचनदादिक मनहुँ कुसुम रँग घोली।
हाहाकार धधाक दसो दिसि मची प्रजा मति डोली॥
सत्य आग्रह डफ बजाय सब नाचत मिलि हमजोली।
असहयोग की अबिर उड़ावत आवत भरि भरि झोली॥
जय भारत कबीर ललकारत घूमत टोली टोली।
हिंदू मुसलिम दोउ भाय मिलि कपट गाँठ हिय खोली॥
चले स्वराज राह तकि तजि भय, सकल विघ्न तृण छोली।
विजय पताका लै महात्मा गांधी घर घर डोली॥
खेलिहौ कब लौं ऐसी ही बारह मासी फाग।
कुटिल नीति होलिका जल्यो, असंतोष की आग॥
क्षोभ
बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'
है कैसी कजरी यह भाई? भारत अंबर ऊपर छाई॥
मूरखता, आलस, हठ के धन मिलि मिलि कुमति घटा घिरि आई।
बिलखत प्रजा बिलोकत छन छन चिंता अंधकार अधिकाई॥
बरसत बारि निरुद्यमता को, दारिद दामिनि दुति दरसाई।
दुख सरिता अति वेग सहित बढ़ि, धीरज बिपुल करार गिराई॥
परवसता तृन छाय लियो, छिति, सुख मारग नहिं परत लखाई।
जरि जवास जातीय प्रेम को, बैर फूट फल भल फैलाई॥
छुआ रोग सों पीड़ित नर, दादुर लौं हाहाकार मचाई।
फेरि प्रेमघन गोबरधनधर! दौरि दया करि करहु सहाई॥
वंदेमातरम
बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'
जय जय भारत भूमि भवानी।
जाकी सुयश पताका जग के दसहूँ दिसि फहरानी॥
सब सुख सामग्री पूरित ऋतु सकल समान सोहानी॥
जाकी श्री शोभा लखि अलका अमरावती खिसानी।
धर्म सूर जित उयो; नीति जहँ गई प्रथम पहिचानी॥
सकल कला गुन सहित सभ्यता जहँ सों सबहि सुझानी।
भये असंख्य जहाँ योगी तापस ऋषिवर मुनि ज्ञानी॥
बिबुध बिप्र विज्ञान सकल बिद्या जिन ते जग जानी।
जग बिजयी नृप रहे कबहुँ जहँ न्याय निरत गुण खानी॥
जिन प्रताप सुर असुरन हूँ की हिम्मत बिनसि बिलानी।
कालहु सम अरि तृन समुझत जहँ के छत्री अभिमानी॥
बीर बधू बुध जननि रहीं लाखनि जित सखी सयानी।
कोटि कोटि जहँ कोटि पती रत बनिज बनिक धन दानी॥
सेवत शिल्प यथोचित सेवा सूद समृद्धि बढ़ानी।
जाको अन्न खाय ऐंड़ति जग जाति अनेक अघानी॥
जाकी संपति लुटत हजारन बरसन हूँ न खोटानी।
सहत सहस बरिसन दुख नित नव जो न ग्लानि उर आनी॥
संपति सौरभ सोभा सन जग नृप गन मनहुँ लुभानी।
प्रनमत तीस कोटि जन जा कहँ अजहुँ जोरि जुग पानी॥
जिन मैं झलक एकता की लखि जग मति सहमि सकानी।
ईश कृपा लहि बहुरि प्रेमघन बनहु सोई छबि छानी॥