धनि-धनि भारत आरत के तुम एक मात्र हितकारी।
धन्य सुरेन्द्र सकल गौरव के अद्वितीय अधिकारी॥
कियो महाश्रम मातृभूमि हित निज तन मन धन वारी।
सहि न सके स्वधर्म निन्दा बस घोर विपति सिर धारी॥
उन्नति उन्नति बकत रहत निज मुख से बहुत लबारी।
करि दिखरावन हार आजु एक तुमही परत निहारी॥
दुख दै कै अपमान तुम्हारो कियो चहत अविचारी।
यह नहिं जानत शूर अंग कटि शोभ बढ़ावत भारी॥
धनि तुम धनि तुम कहँ जिन जायो सो पितु सो महतारी।
परम धन्य तव पद प्रताप से भई भरत भुवि सारी॥
भारत सुत खेलत होरी॥
प्रथम अविद्या अगिनी बारिकै, सर्वसु फूँकि दियो री।
आलस बस पुरिखन के जस की, चूरि उड़ाइ बहोरी।
रंग सब भंग कियो री॥
छकै परस्पर बैर बारुणी, सबको ज्ञान गयो री।
घरन-घरन भाइन-भाइन में, जूता उछरि रह्यो री।
बकैं सब आपस में फोरी॥
बड़े-बड़े बीरन के वंशज, बनि बैठे सब गोरी।
नाचि रिझावत परदेसिन को, लाज नहीं तनको री।
जु ले लहँगौ कौ छोरी॥
निज करतूत भयो मुख कारो, ताको सोच तज्यो री।
देखो यह परताप कुमति को, दुख में सुख समझ्यो री।
निलज सब देश भयो री॥