suryakant tripath nirala
उपनाम :''निराला''
मूल नाम :सूर्यकांत त्रिपाठी
जन्म :21 फ़रवरी 1896 | मिदनापुर, पश्चिम बंगाल
निधन :15 अक्तूबर 1961 | इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म 21 फ़रवरी 1896 को बंगाल की महिषादल रियासत (ज़िला मेदिनीपुर) में हुआ। इस जन्मतिथि को लेकर अनेक मत हैं, लेकिन इस पर विद्वतजन एकमत हैं कि 1930 से निराला वसंत पंचमी के दिन अपना जन्मदिन मनाया करते थे। ‘महाप्राण’ नाम से विख्यात निराला छायावादी दौर के चार स्तंभों में से एक हैं। उनकी कीर्ति का आधार ‘सरोज-स्मृति’, ‘राम की शक्ति-पूजा’ और ‘कुकुरमुत्ता’ सरीखी लंबी कविताएँ हैं; जो उनके प्रसिद्ध गीतों और प्रयोगशील कवि-कर्म के साथ-साथ रची जाती रहीं। उन्होंने पर्याप्त कथा और कथेतर-लेखन भी किया। बतौर अनुवादक भी वह सक्रिय रहे। वह हिंदी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। वह मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति के पक्षधर हैं। वर्ष 1930 में प्रकाशित अपने कविता-संग्रह ‘परिमल’ की भूमिका में उन्होंने लिखा : ‘‘मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना है।’’
‘अनामिका’ (1923), ‘परिमल’ (1930), ‘गीतिका’ (1936), ‘तुलसीदास’ (1939), ‘कुकुरमुत्ता’ (1942), ‘अणिमा’ (1943), ‘बेला’ (1946), ‘नए पत्ते’ (1946), ‘अर्चना’ (1950), ‘आराधना’ (1953), ‘गीत कुंज’ (1954), ‘सांध्य काकली’
और ‘अपरा’ निराला की प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं। ‘लिली’, ‘सखी’, ‘सुकुल की बीवी’ उनके प्रमुख कहानी-संग्रह और ‘कुल्ली भाट’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ उनके चर्चित उपन्यास हैं। ‘चाबुक’ शीर्षक से उनके निबंधों की एक पुस्तक भी प्रसिद्ध है।
वर्ष 1976 में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पर भारत सरकार द्वारा डाक टिकट जारी किया जा चुका है।
वर दे, वीणावादिनि वरदे!
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे!
काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे!
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव,
नवल कंठ, नव जलद-मंद्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे!
बादल, गरजो!—
घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ!
ललित ललित, काले घुँघराले,
बाल कल्पना के-से पाले,
विद्युत-छवि उर में,कवि नवजीवन वाले!
वज्र छिपा, नूतन कविता
फिर भर दो—
बादल गरजो!
विकल विकल उन्मन थे उन्मन
विश्व के निदाघ के सकल जन,
आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन!
तृप्त धरा, जल से फिर
शीतल कर दो—
बादल, गरजो!
मैं अकेला;
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सांध्य वेला।
पके आधे बाल मेरे,
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मंद होती आ रही,
हट रहा मेला।
जानता हूँ, नदी-झरने,
जो मुझे थे पार करने,
कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख,
कोई नहीं भेला।1
बाहर मैं कर दिया गया हूँ। भीतर, पर, भर दिया गया हूँ।
ऊपर वह बर्फ़ गली है, नीचे यह नदी चली है;
सख़्त तने के ऊपर नर्म कली है;
इसी तरह हर दिया गया हूँ। बाहर मैं कर दिया गया हूँ।
आँखों पर पानी है लाज का, राग बजा अलग-अलग साज़ का;
भेद खुला सविता के किरण-ब्याज का;
तभी सहज वर दिया गया हूँ। बाहर मैं कर दिया गया हूँ।
भीतर, बाहर; बाहर भीतर; देखा जब से, हुआ अनश्वर;
माया का साधन यह सस्वर;
ऐसे ही घर दिया गया हूँ। बाहर मैं कर दिया गया हूँ।
स्नेह-निर्झर बह गया है।
रेत ज्यों तन रह गया है।
आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है—“अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते, पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ—
जीवन दह गया है।”
“दिए हैं मैंने जगत् को फूल-फल,
किया है अपनी प्रभा से चकित-चल;
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल—
ठाट जीवन का वही
जो ढह गया है।''
अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को, निरुपमा।
बह रही है हृदय पर केवल अमा;
मैं अलक्षित हूँ, यही
कवि कह गया है।
सखि, वसंत आया।
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृंद बंदी—
पिक-स्वर नभ सरसाया।
लता-मुकुल-हार-गंध-भार भर
बही पवन बंद मंद मंदतर,
जागी नयनों में वन—
यौवन की माया।
आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे,
केशर के केश कली के छुटे,
स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया।