ये लफ़्ज़ आईने हैं मत इन्हें उछाल के चल,
अदब की राह मिली है तो देखभाल के चल ।
कहे जो तुझसे उसे सुन, अमल भी कर उस पर,
ग़ज़ल की बात है उसको न ऐसे टाल के चल ।
सभी के काम में आएँगे वक़्त पड़ने पर,
तू अपने सारे तजुर्बे ग़ज़ल में ढाल के चल ।
मिली है ज़िन्दगी तुझको इसी ही मकसद से,
सँभाल खुद को भी औरों को भी सँभाल के चल ।
कि उसके दर पे बिना माँगे सब ही मिलता है,
चला है रब कि तरफ़ तो बिना सवाल के चल ।
अगर ये पाँव में होते तो चल भी सकता था,
ये शूल दिल में चुभे हैं इन्हें निकाल के चल ।
तुझे भी चाह उजाले कि है, मुझे भी 'कुँअर'
बुझे चिराग कहीं हों तो उनको बाल के चल ।
चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया
जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया
सूखा पुराना ज़ख्म नए को जगह मिली
स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया
आतीं न तुम तो क्यों मैं बनाता ये सीढ़ियाँ
दीवारों, मेरी राह में आने का शुक्रिया
आँसू-सा माँ की गोद में आकर सिमट गया
नज़रों से अपनी मुझको गिराने का शुक्रिया
अब यह हुआ कि दुनिया ही लगती है मुझको घर
यूँ मेरे घर में आग लगाने का शुक्रिया
ग़म मिलते हैं तो और निखरती है शायरी
यह बात है तो सारे ज़माने का शुक्रिया
अब मुझको आ गए हैं मनाने के सब हुनर
यूँ मुझसे `कुँअर' रूठ के जाने का शुक्रिया
मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ
जिन्दगी आ, तेरे क़दमों पर मैं अपना सर रखूँ
जिसमें माँ और बाप की सेवा का शुभ संकल्प हो
चाहता हूँ मैं भी काँधे पर वही काँवर रखूँ
हाँ, मुझे उड़ना है लेकिन इसका मतलब यह नहीं
अपने सच्चे बाज़ुओं में इसके-उसके पर रखूँ
आज कैसे इम्तहाँ में उसने डाला है है मुझे
हुक्म यह देकर कि अपना धड़ रखूँ या सर रखूँ
कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े
सोचता हूँ हर घड़ी तैयार अब बिस्तर रखूँ
ऐसा कहना हो गया है मेरी आदत में शुमार
काम वो तो कर लिया है काम ये भी कर रख रखूँ
खेल भी चलता रहे और बात भी होती रहे
तुम सवालों को रखो मैं सामने उत्तर रखूँ
उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे
राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे
उसने पोंछे ही नहीं अश्क़ मेरी आँखों से
मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे
बस उसी दिन से ख़फ़ा है वो मेरा इक चेहरा
धूप में आईना इक रोज दिखाया था जिसे
छू के होंठों को मेरे वो भी कहीं दूर गई
इक ग़ज़ल शौक़ से मैंने कभी गाया था जिसे
दे गया घाव वो ऐसे कि जो भरते ही नहीं
अपने सीने से कभी मैंने लगाया था जिसे
होश आया तो हुआ यह कि मेरा इक दुश्मन
याद फिर आने लगा मैंने भुलाया था जिसे
वो बड़ा क्या हुआ सर पर ही चढ़ा जाता है
मैंने काँधे पे `कुँअर' हँस के बिठाया था जिसे
कोई रस्ता है न मंज़िल न तो घर है कोई
आप कहिएगा सफ़र ये भी सफ़र है कोई
'पास-बुक' पर तो नज़र है कि कहाँ रक्खी है
प्यार के ख़त का पता है न ख़बर है कोई
ठोकरें दे के तुझे उसने तो समझाया बहुत
एक ठोकर का भी क्या तुझपे असर है कोई
रात-दिन अपने इशारों पे नचाता है मुझे
मैंने देखा तो नहीं, मुझमें मगर है कोई
एक भी दिल में न उतरी, न कोई दोस्त बना
यार तू यह तो बता यह भी नज़र है कोई
प्यार से हाथ मिलाने से ही पुल बनते हैं
काट दो, काट दो गर दिल में भँवर है कोई
मौत दीवार है, दीवार के उस पार से अब
मुझको रह-रह के बुलाता है उधर है कोई
सारी दुनिया में लुटाता ही रहा प्यार अपना
कौन है, सुनते हैं, बेचैन 'कुँअर' है कोई
मयखाना तेरी आँखें, मय जाम में ढालूं क्या,
हैं होंठ तेरे अमृत, मैं प्यास बुझा लूं क्या
अब नींद भी आँखों से, ये पूछ के आती है,
आने से ज़रा पहले, कुछ ख़्वाब सजा लूं क्या
तस्वीर तेरी माना, बोली है न बोलेगी,
मैं उससे भी पूछूं हूँ, सीने से लगा लूं क्या
बाहर के अँधेरे से, भीतर के उजाले तक,
मैं देह का पर्दा हूँ, मैं खुद को हटा लूं क्या
घिरा रहता हूँ मैं भी आजकल अनगिन विचारों में
कि जैसे इक अकेला चाँद इन लाखों सितारों में
किसे मालूम था वो वक़्त भी आ जाएगा इक दिन
कि खुद ही बाग़वां अंगार रख देंगे बहारों में
नदी तो है समंदर की, उधर ही जा रही है वो
है फिर भी ज़ंग ज़ारी क्यों नदी के दो किनारों में
अब हम लफ़्ज़ों से बाहर हैं हमें मत ढूंढिए साहब
हमारी बात होती है इशारों ही इशारों में
चमन में तितलियाँ हों या की भंवरे, रहना पड़ता है
इन्ही फूलों, इन्ही तीख़े नुकीले तेज़ खारों में
मुहब्बत की दुल्हन बैठी ही थी इस दिल की डोली में
कि फिर होने लगी साज़िश उधर बैठे कहारों में
कुछ ऐसे खेल भी हैं बीच में ही छूट जाते हैं
मैं ऐसा ही खिलाडी हूँ, न जीतों में न हारों में
छुपाने का हुनर हमने उजालों में नहीं देखा
'कुँअर' शामिल न कर लेना इन्हें तुम राजदारों में
वो दिन हमको कितने सुहाने लगेंगे,
तेरे दर पे जब आने जाने लगेंगे
कोई जब तुम्हें ध्यान से देख लेगा,
उसे चाँद सूरज पुराने लगेंगे
रहूं मैं मुहब्बत की इक बूँद बनकर,
तो सागर भी मुझमें नहाने लगेंगे
ये अपना मुकद्दर है आंधी चलेगी,
कि जब हम नशेमन बनाने लगेंगे
पता तो है मुझमे बसे हो कहीं पर
मगर ढूँढने में ज़माने लगेंगे
कहो फिर यकीं कौन किस पर करेगा,
अगर अपने ही, दिल दुखाने लगेंगे
बनोगे जो धरती के तुम चाँद-सूरज
तो सातों फलक सर झुकाने लगेंगे
मुहब्बत कि नज़रों से जो देख लोगे,
तो हम भी 'कुँअर' मुस्कुराने लगेंगे
ज़िंदगी यूँ भी जली, यूँ भी जली मीलों तक
चाँदनी चार क़दम, धूप चली मीलों तक
प्यार का गाँव अजब गाँव है जिसमें अक्सर
ख़त्म होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक
प्यार में कैसी थकन कहके ये घर से निकली
कृष्ण की खोज में वृषभानु-लली मीलों तक
घर से निकला तो चली साथ में बिटिया की हँसी
ख़ुशबुएँ देती रही नन्हीं कली मीलों तक
माँ के आँचल से जो लिपटी तो घुमड़कर बरसी
मेरी पलकों में जो इक पीर पली मीलों तक
मैं हुआ चुप तो कोई और उधर बोल उठा
बात यह है कि तेरी बात चली मीलों तक
हम तुम्हारे हैं 'कुँअर' उसने कहा था इक दिन
मन में घुलती रही मिसरी की डली मीलों तक
दुलहिनों के भाल-चिपकी बेंदियाँ अच्छी लगीं
फूल से लिपटी हुई ये तितलियाँ अच्छी लगीं।
आज तेरा नाम जैसे ही लिया वो रुक गईं
आज सच पूछो तो अपनी हिचकियाँ अच्छी लगीं।
जब से मैं गिनने लगा इन पर तेरे आने के दिन
बस तभी से मुझको अपनी उँगलियाँ अच्छी लगीं।
प्यार के त्योहार पर वो माँग भरती दुलहिनें
और वो मंहदी रचाती लड़कियाँ अच्छी लगीं।
जिनके साये में बनाए बुलबुलों ने घोंसले
वो सभी शाखें वो सारी पत्तियाँ अच्छी लगीं।
बंद आँखों-सी किसी के ध्यान में डूबी हुईं
धीरे-धीरे जो खुलीं वो खिड़कियाँ अच्छी लगीं।
फूल-जैसे सुर्ख होठों के निशां देने के बाद
उसने जो रख लीं वो मेरी चिट्ठियाँ अच्छी लगीं।
प्यास के मिटते ही ये क्या है कि मर जाता है प्यार
जब बढ़ीं नज़दीकियाँ तो दूरियाँ अच्छी लगीं।
औरों के भी ग़म में ज़रा रो लूँ तो सुबह हो
दामन पे लगे दाग़ों को धो लूँ तो सुबह हो।
कुछ दिन से मेरे दिल में नई चाह जगी है
सर रख के तेरी गोद में सो लूँ तो सुबह हो।
पर बाँध के बैठा हूँ नशेमन में अभी तक
आँखों के साथ पंख भी खोलूँ तो सुबह हो।
लफ़्ज़ों में छुपा रहता है इक नूर का आलम
यह सोच के हर लफ़्ज़ को बोलूँ तो सुबह हो।
जो दिल के समुन्दर में है अंधियार की कश्ती
अंधियार की कश्ती को डुबो लूँ तो सुबह हो।
खुश्बू की तरह रहती है जो जिस्म के भीतर
उस गन्ध को साँसों में समो लूँ तो सुबह हो।
दुनिया में मुहब्बत-सा 'कुँअर' कुछ भी नहीं है
हर दिल में इसी रंग को घोलूँ तो सुबह हो।
कभी चलता हुआ चंदा कभी तारा बताता है
ज़माना ठीक है जो मुझको बंजारा बताता है।
तुम्हारा क्या, तुम अपनी नींद की ये गोलियां खाओ
है गहरी नींद क्या, यह तो थका-हारा बताता है।
सँवारा वक़्त ने उसको, कि जिसने वक़्त को समझा
नहीं तो वक़्त क्या है, वक़्त का मारा बताता है।
ये आंसू हैं नमी दिल की, यही कहती रही दुनिया
मगर आंसू तो खुद को जल में अंगारा बताता है।
तज़ुर्बा मार्गदर्शक है, इसी से राह पूछेंगे
ये वो है, भूलने पर राह दोबारा बताता है।
सुनो साधो, कि इक साधे से सध जाती है सब दुनिया
किसी भी एक के हो लो, ये इकतारा बताता है।
नदी को मिलना था सो मिल गई जाकर समुन्दर से
भले ही ये जहाँ सारा, उसे खारा बताता है।
घरों में रहनेे वालों के , ये रिश्ते किस तरह के हैं
'कुँअर' इस बात को, कब ईंट या गारा बताता है।
तेरी हर बात चलकर यूँ भी मेरे जी से आती है
कि जैसे याद की खुश्बू किसी हिचकी से आती है।
कहाँ से और आएगी अक़ीदत की वो सच्चाई
जो जूठे बेर वाली सरफिरी शबरी से आती है।
बदन से तेरे आती है मुझे ऐ माँ वही खुश्बू
जो इक पूजा के दीपक में पिघलते घी से आती है।
उसी खुश्बू के जैसी है महक। पहली मुहब्बत की
जो दुलहिन की हथेली पर रची मेंहदी से आती है।
हजारों खुशबुएँ दुनिया में हैं पर उससे छोटी हैं
किसी भूखे को जो सिकती हुई रोटी से आती है।
मेरे घर में मेरी पुरवाइयाँ घायल पड़ी हैं अब
कोई पछवा न जाने कौन सी खिड़की से आती है।
ये माना आदमी में फूल जैसे रंग हैं लेकिन
'कुँअर' तहज़ीब की खुश्बू मुहब्बत से ही आती है।
देखते ही देखते पहलू बदल जाती है क्यूँ
नींद मेरी आँखों में आते ही जल जाती है क्यूँ।
हाथ में 'शाकुंतलम' है और मन में प्रश्न है
याद की मछली अंगूठी को निगल जाती है क्यूँ।
ऐ मुहब्बत, तू तो मेरे मन में खिलता फूल है
तुझसे भी उम्मीद की तितली फिसल जाती है क्यूँ ।
इक सुहानी शाम मुझको भी मिेले, चाहा अगर
आने से पहले ही फिर वो शाम ढल जाती है क्यूँ ।
ये सुना था मौत पीछा कर रही है हर घड़ी
ज़िन्दगी से मौत फिर आगे निकल जाती है क्यूँ ।
मेरे होठों पर हँसी आते ही गालों पर मेरे
आंसुओं की एक सन्टी सी उछल जाती है क्यूँ।
आंसुओं से जब भी चेहरे को निखारा ऐ 'कुँअर'
ज़िन्दगी चुपके से आकर धूल मल जाती है क्यूँ।