रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि बेनी, जिन्हें बेनी प्रवीन भी कहा जाता है, लखनऊ के निवासी थे। उनका वास्तविक नाम बेनीदीन वाजपेयी था। उन्होंने नवरसतरंग, नानारावप्रकाश, और श्रृंगारभूषण जैसे ग्रंथ लिखे।
इक आली गई कहि कान में काय परी जहँ मैन मरोरि गई।
हरि आये विदेश तें ‘बेनी’ प्रवीन सुने सुख सिंधु हिलोरि गई॥
उठि बैठि उतायत चाव भरी तन में छन में छबि दौर गई।
जेहि जीवन की न रही हुती आस, संजीवन सी सुनिचोर गई॥
घनसार पटीर मिलै मिलै नीर चहै तन लावै न लावै चहै।
न बुझे बिरहागिन झार झरी हू चहै सन लागे न लावै चहै॥
हम टेरि सुनावती बेनी प्रवीन चहै मन लावै न लावै चहै।
अब आवै बिदेस तें पीतम गेह चहै झन लावै, न लावै चहै॥
बहु दौस बिदेस बिताइ पिया घर आवन की घरी आली भई।
वह देस कलेस वियोग कथा सब भाषी यथा बन माली भई॥
हँसि कै निसि बेनी प्रवीन कहै जब केलि कला की उताली भई।
तब या दिसि पूरुब पूरुब की लखि बैरनि सौति सी लाली भई॥
कैसे कहावत बेनी प्रवीन बबा कि सों हा-हा हमें मति छूने।
आय परैगी कहूँ ननदी वह नाहक नाय धरै दिन दूने॥
बाज हौं आई सनेह सों रावरे बावरे बोलत लाज बिहूने।
जाहु चले भले मोहन लाल जू पैठि पराये परे घर सूने॥
भोर ही न्योति गई ती तुम्हें वह गोकुल गाँव की ग्वालिनि गोरी।
आधिक राति लौं बेनी प्रवीन कहा ढिग राखि करी बरजोरी॥
आवै हँसी मोंहि देखत लालन, भाल में दीन्हों महावर घोरी।
एते बड़े ब्रजमंडल में न मिली कहुँ माँगेहु रंचक रोरी॥