ग्राम नहीं, वे ग्राम आज
औ’ नगर न नगर जनाकर,
मानव कर से निखिल प्रकृति जग
संस्कृत, सार्थक, सुंदर।
देश राष्ट्र वे नहीं,
जीर्ण जग पतझर त्रास समापन,
नील गगन है: हरित धरा:
नव युग: नव मानव जीवन।
आज मिट गए दैन्य दुःख,
सब क्षुधा तृषा के क्रंदन
भावी स्वप्नों के पट पर
युग जीवन करता नर्तन।
डूब गए सब तर्क वाद,
सब देशों राष्ट्रों के रण,
डूब गया रव घोर क्रांति का,
शांत विश्व संघर्षण।
जाति वर्ण की, श्रेणि वर्ग की
तोड़ भित्तियाँ दुर्धर
युग युग के बंदीगृह से
मानवता निकली बाहर।
नाच रहे रवि शशि,
दिगंत में,-नाच रहे ग्रह उडुगण,
नाच रहा भूगोल,
नाचते नर नारी हर्षित मन।
फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित
युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल
अयुत करों से लुटा रही
जन हित, जन बल, जन मंगल!
ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे,--
मुक्त दिशा औ’ क्षण से
जीवन की क्षुद्रता निखिल
मिट गई मनुज जीवन से।
यहाँ न पल्लव वन में मर्मर,
यहाँ न मधु विहगों में गुंजन,
जीवन का संगीत बन रहा
यहाँ अतृप्त हृदय का रोदन!
यहाँ नहीं शब्दों में बँधती
आदर्शों की प्रतिमा जीवित,
यहाँ व्यर्थ है चित्र गीत में
सुंदरता को करना संचित!
यहाँ धरा का मुख कुरूप है,
कुत्सित गर्हित जन का जीवन,
सुंदरता का मूल्य वहाँ क्या
जहाँ उदर है क्षुब्ध, नग्न तन?-
जहाँ दैन्य जर्जर असंख्य जन
पशु-जघन्य क्षण करते यापन,
कीड़ों-से रेंगते मनुज शिशु,
जहाँ अकाल वृद्ध है यौवन!
सुलभ यहाँ रे कवि को जग में
युग का नहीं सत्य शिव सुंदर,
कँप कँप उठते उसके उर की
व्यथा विमूर्छित वीणा के स्वर!
बृहद् ग्रंथ मानव जीवन का, काल ध्वंस से कवलित,
ग्राम आज है पृष्ठ जनों की करुण कथा का जीवित!
युग युग का इतिहास सभ्यताओं का इसमें संचित,
संस्कृतियों की ह्रास वृद्धि जन शोषण से रेखांकित।
हिंस्र विजेताओं, भूपों के आक्रमणों की निर्दय
जीर्ण हस्तलिपि यह नृशंस गृह संघर्षों की निश्चय!
धर्मों का उत्पात, जातियों वर्गों का उत्पीड़न,
इसमें चिर संकलित रूढ़ि, विश्वास, विचार सनातन।
घर घर के बिखरे पन्नों में नग्न, क्षुधार्त कहानी,
जन मन के दयनीय भाव कर सकती प्रकट न वाणी।
मानव दुर्गति की गाथा से ओतप्रोत मर्मांतक
सदियों के अत्याचारों की सूची यह रोमांचक!
मनुष्यत्व के मूलतत्त्व ग्रामों ही में अंतर्हित,
उपादान भावी संस्कृति के भरे यहाँ हैं अविकृत।
शिक्षा के सत्याभासों से ग्राम नहीं हैं पीड़ित,
जीवन के संस्कार अविद्या-तम में जन के रक्षित।
देख रहा हूँ आज विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,
सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से।
ज्ञान नहीं है, तर्क नहीं है, कला न भाव विवेचन,
जन हैं, जग है, क्षुधा, काम, इच्छाएँ जीवन साधन।
रूप जगत है, रूप दृष्टि है, रूप बोधमय है मन,
माता पिता, बंधु बांधव, परिजन, पुरजन, भू गो धन।
रूढ़ि रीतियों के प्रचलित पथ, जाति पाँति के बंधन,
नियत कर्म हैं, नियत कर्म फल,--जीवन चक्र सनातन।
जन्म मरण के, सुख दुख के ताने बानों का जीवन,
निठुर नियति के धूपछाँह जग का रहस्य है गोपन!
देख रहा हूँ निखिल विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,
सोच रहा हूँ जग पर, मानव जीवन पर जन मन से।
रूढ़ि नहीं है, रीति नहीं है, जाति वर्ण केवल भ्रम,
जन जन में है जीव, जीव जीवन में सब जन हैं सम।
ज्ञान वृथा है, तर्क वृथा, संस्कृतियाँ व्यर्थ पुरातन,
प्रथम जीव है मानव में, पीछे है सामाजिक जन।
मनुष्यत्व के मान वृथा, विज्ञान वृथा रे दर्शन,
वृथा धर्म, गण तंत्र,--उन्हें यदि प्रिय न जीव जन जीवन
यहाँ नहीं है चहल पहल वैभव विस्मित जीवन की,
यहाँ डोलती वायु म्लान सौरभ मर्मर ले वन की।
आता मौन प्रभात अकेला, संध्या भरी उदासी,
यहाँ घूमती दोपहरी में स्वप्नों की छाया सी।
यहाँ नहीं विद्युत दीपों का दिवस निशा में निर्मित,
अँधियाली में रहती गहरी अँधियाली भय-कल्पित।
यहाँ खर्व नर (बानर?) रहते युग युग से अभिशापित,
अन्न वस्त्र पीड़ित असभ्य, निर्बुद्धि, पंक में पालित।
यह तो मानव लोक नहीं रे, यह है नरक अपरिचित,
यह भारत का ग्राम,-सभ्यता, संस्कृति से निर्वासित।
झाड़ फूँस के विवर,--यही क्या जीवन शिल्पी के घर?
कीड़ों-से रेंगते कौन ये? बुद्धिप्राण नारी नर?
अकथनीय क्षुद्रता, विवशता भरी यहाँ के जग में,
गृह- गृह में है कलह, खेत में कलह, कलह है मग में!
यह रवि शशि का लोक,--जहाँ हँसते समूह में उडुगण,
जहाँ चहकते विहग, बदलते क्षण क्षण विद्युत् प्रभ घन।
यहाँ वनस्पति रहते, रहती खेतों की हरियाली,
यहाँ फूल हैं, यहाँ ओस, कोकिला, आम की डाली!
ये रहते हैं यहाँ,--और नीला नभ, बोई धरती,
सूरज का चौड़ा प्रकाश, ज्योत्स्ना चुपचाप विचरती!
प्रकृति धाम यह: तृण तृण, कण कण जहाँ प्रफुल्लित जीवित,
यहाँ अकेला मानव ही रे चिर विषण्ण जीवनन्मृत!
रचनाकाल: दिसंबर’ ३९
उन्मद यौवन से उभर
घटा सी नव असाढ़ की सुन्दर,
अति श्याम वरण,
श्लथ, मंद चरण,
इठलाती आती ग्राम युवति
वह गजगति
सर्प डगर पर!
सरकाती-पट,
खिसकाती-लट, -
शरमाती झट
वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घट!
हँसती खलखल
अबला चंचल
ज्यों फूट पड़ा हो स्रोत सरल
भर फेनोज्वल दशनों से अधरों के तट!
वह मग में रुक,
मानो कुछ झुक,
आँचल सँभालती, फेर नयन मुख,
पा प्रिय पद की आहट;
आ ग्राम युवक,
प्रेमी याचक,
जब उसे ताकता है इकटक,
उल्लसित,
चकित,
वह लेती मूँद पलक पट।
पनघट पर
मोहित नारी नर!--
जब जल से भर
भारी गागर
खींचती उबहनी वह, बरबस
चोली से उभर उभर कसमस
खिंचते सँग युग रस भरे कलश;--
जल छलकाती,
रस बरसाती,
बल खाती वह घर को जाती,
सिर पर घट
उर पर धर पट!
कानों में गुड़हल
खोंस,--धवल
या कुँई, कनेर, लोध पाटल;
वह हरसिंगार से कच सँवार,
मृदु मौलसिरी के गूँथ हार,
गउओं सँग करती वन विहार,
पिक चातक के सँग दे पुकार,--
वह कुंद, काँस से,
अमलतास से,
आम्र मौर, सहजन, पलाश से,
निर्जन में सज ऋतु सिंगार।
तन पर यौवन सुषमाशाली,
मुख पर श्रमकण, रवि की लाली,
सिर पर धर स्वर्ण शस्य डाली,
वह मेड़ों पर आती जाती,
उरु मटकाती,
कटि लचकाती,
चिर वर्षातप हिम की पाली
धनि श्याम वरण,
अति क्षिप्र चरण,
अधरों से धरे पकी बाली।
रे दो दिन का
उसका यौवन!
सपना छिन का
रहता न स्मरण!
दुःखों से पिस,
दुर्दिन में घिस,
जर्जर हो जाता उसका तन!
ढह जाता असमय यौवन धन!
बह जाता तट का तिनका
जो लहरों से हँस-खेला कुछ क्षण!!
रचनाकाल: दिसंबर’ ३९
द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र!
हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण!
हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत,
तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!!
निष्प्राण विगत-युग! मृतविहंग!
जग-नीड़, शब्द औ' श्वास-हीन,
च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों-से तुम
झर-झर अनन्त में हो विलीन!
कंकाल-जाल जग में फैले
फिर नवल रुधिर,-पल्लव-लाली!
प्राणों की मर्मर से मुखरित
जीव की मांसल हरियाली!
मंजरित विश्व में यौवन के
जग कर जग का पिक, मतवाली
निज अमर प्रणय-स्वर मदिरा से
भर दे फिर नव-युग की प्याली!
रचनाकाल: फरवरी’१९३४
गा, कोकिल, बरसा पावक-कण!
नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण-पुरातन,
ध्वंस-भ्रंस जग के जड़ बन्धन!
पावक-पग धर आवे नूतन,
हो पल्लवित नवल मानवपन!
गा, कोकिल, भर स्वर में कम्पन!
झरें जाति-कुल-वर्ण-पर्ण घन,
अन्ध-नीड़-से रूढ़ि-रीति छन,
व्यक्ति-राष्ट्र-गत राग-द्वेष रण,
झरें, मरें विस्मृति में तत्क्षण!
गा, कोकिल, गा,कर मत चिन्तन!
नवल रुधिर से भर पल्लव-तन,
नवल स्नेह-सौरभ से यौवन,
कर मंजरित नव्य जग-जीवन,
गूँज उठें पी-पी मधु सब-जन!
गा, कोकिल, नव गान कर सृजन!
रच मानव के हित नूतन मन,
वाणी, वेश, भाव नव शोभन,
स्नेह, सुहृदता हो मानस-घन,
करें मनुज नव जीवन-यापन!
गा, कोकिल, संदेश सनातन!
मानव दिव्य स्फुलिंग चिरन्तन,
वह न देह का नश्वर रज-कण!
देश-काल हैं उसे न बन्धन,
मानव का परिचय मानवपन!
कोकिल, गा, मुकुलित हों दिशि-क्षण!
रचनाकाल: अप्रैल’१९३५
झर पड़ता जीवन-डाली से
मैं पतझड़ का-सा जीर्ण-पात!--
केवल, केवल जग-कानन में
लाने फिर से मधु का प्रभात!
मधु का प्रभात!--लद लद जातीं
वैभव से जग की डाल-डाल,
कलि-कलि किसलय में जल उठती
सुन्दरता की स्वर्णीय-ज्वाल!
नव मधु-प्रभात!--गूँजते मधुर
उर-उर में नव आशाभिलास,
सुख-सौरभ, जीवन-कलरव से
भर जाता सूना महाकाश!
आः मधु-प्रभात!--जग के तम में
भरती चेतना अमर प्रकाश,
मुरझाए मानस-मुकुलों में
पाती नव मानवता विकास!
मधु-प्रात! मुक्त नभ में सस्मित
नाचती धरित्री मुक्त-पाश!
रवि-शशि केवल साक्षी होते
अविराम प्रेम करता प्रकाश!
मैं झरता जीवन डाली से
साह्लाद, शिशिर का शीर्ण पात!
फिर से जगती के कानन में
आ जाता नवमधु का प्रभात!
रचनाकाल: अप्रैल’१९३५
चंचल पग दीप-शिखा-से धर
गृह,मग, वन में आया वसन्त!
सुलगा फाल्गुन का सूनापन
सौन्दर्य-शिखाओं में अनन्त!
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसन्त, भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह!
पल्लव-पल्लव में नवल रुधिर
पत्रों में मांसल-रंग खिला,
आया नीली-पीली लौ से
पुष्पों के चित्रित दीप जला!
अधरों की लाली से चुपके
कोमल गुलाब के गाल लजा,
आया, पंखड़ियों को काले--
पीले धब्बों से सहज सजा!
कलि के पलकों में मिलन-स्वप्न,
अलि के अन्तर में प्रणय-गान
लेकर आया, प्रेमी वसन्त,--
आकुल जड़-चेतन स्नेह-प्राण!
काली कोकिल!--सुलगा उर में
स्वरमयी वेदना का अँगार,
आया वसन्त, घोषित दिगन्त
करती भव पावक की पुकार!
आः, प्रिये! निखिल ये रूप-रंग
रिल-मिल अन्तर में स्वर अनन्त
रचते सजीव जो प्रणय-मूर्ति
उसकी छाया, आया वसन्त!
रचनाकाल: अप्रैल’१९३५
विद्रुम औ मरकत की छाया / सुमित्रानंदन पंत
विद्रुम औ' मरकत की छाया,
सोने-चाँदी का सूर्यातप;
हिम-परिमल की रेशमी वायु,
शत-रत्न-छाय, खग-चित्रित नभ!
पतझड़ के कृश, पीले तन पर
पल्लवित तरुण लावण्य-लोक;
शीतल हरीतिमा की ज्वाला
दिशि-दिशि फैली कोमलालोक!
आह्लाद, प्रेम औ’ यौवन का
नव स्वर्ग : सद्य सौन्दर्य-सृष्टि;
मंजरित प्रकृति, मुकुलित दिगन्त,
कूजन-गुंजन की व्योम सृष्टि!
--लो, चित्रशलभ-सी, पंख खोल
उड़ने को है कुसुमित घाटी,--
यह है अल्मोड़े का वसन्त,
खिल पड़ीं निखिल पर्वत-पाटी!
रचनाकाल: मई’१९३५
जगती के जन पथ, कानन में / सुमित्रानंदन पंत
जगती के जन पथ, कानन में
तुम गाओ विहग! अनादि गान,
चिर शून्य शिशिर-पीड़ित जग में
निज अमर स्वरों से भरो प्राण।
जल, स्थल, समीर, नभ में मिलकर
छेड़ो उर की पावक-पुकार,
बहु-शाखाओं की जगती में
बरसा जीवन-संगीत प्यार।
तुम कहो, गीत-खग! डालों में
जो जाग पड़ी कलियाँ अजान,
वह विटपों का श्रम-पूण्य नहीं
वह मधु का मुक्त, अनन्त-दान!
जो सोए स्वप्नों के तम में
वे जागेंगे--यह सत्य बात,
जो देख चुके जीवन-निशीथ
वे देखेंगे जीवन-प्रभात!
रचनाकाल: मई’१९३५
मुझे असत से / सुमित्रानंदन पंत
मुझे असत् से ले जाओ हे सत्य ओर
मुझे तमस से उठा, दिखाओ ज्योति छोर,
मुझे मृत्यु से बचा, बनाओ अमृत भोर!
बार बार आकर अंतर में हे चिर परिचित,
दक्षिण मुख से, रुद्र, करो मेरी रक्षा नित!
स्वर्णधूलि (कविता) / सुमित्रानंदन पंत
स्वर्ण बालुका किसने बरसा दी रे जगती के मरुथल मे,
सिकता पर स्वर्णांकित कर स्वर्गिक आभा जीवन मृग जल में!
स्वर्ण रेणु मिल गई न जाने कब धरती की मर्त्य धूलि से,
चित्रित कर, भर दी रज में नव जीवन ज्वाला अमर तूलि से!
अंधकार की गुहा दिशाओं में हँस उठी ज्योति से विस्तृत,
रजत सरित सा काल बह चला फेनिल स्वर्ण क्षणों से गुंफित!
खंडित सब हो उठा अखंडित, बने अपरिचित ज्यों चिर परिचित,
नाम रूप के भेद भर गए स्वर्ण चेतना से आलिंगित!
चक्षु वाक् मन श्रवण बन गए सूर्य अग्नि शशि दिशा परस्पर,
रूप गंध रस शब्द स्पर्श की झंकारों से पुलकित अंतर!
दैवी वीणा पुनः मानुषी वीणा बन नव स्वर में झंकृत,
आत्मा फिर से नव्य युग पुरुष को निज तप से करती सर्जित!
बीज बनें नव ज्योति वृत्तियों के जन मन में स्वर्ण धूलि कण,
पोषण करे प्ररोहों का नव अंध धरा रज का संघर्षण!
चीर आवरण भू के तम का स्वर्ण शस्य हों रश्मि अंकुरित,
मानस के स्वर्णिम पराग से धरणी के देशांतर गर्भित!
पतिता / सुमित्रानंदन पंत
रोता हाय मार कर माधव
वॄद्ध पड़ोसी जो चिर परिचित,
‘क्रूर, लुटेरे, हत्यारे... कर गए
बहू को, नीच, कलंकित!!’
‘फूटा करम! धरम भी लूटा!’
शीष हिला, रोते सब परिजन,
‘हा अभागिनी! हा कलंकिनी!’
खिसक रहे गा गा कर पुरजन!
सिसक रही सहमी कोने में
अबला साँसों की सी ढेरी,
कोस रहीं घेरी पड़ोसिनें,
आँख चुराती घर की चेरी!
इतने में घर आता केशव,
‘हा बेटा!’ कर घोरतर रुदन
माँथा लेते पीट कुटुंबी,
छिन्नलता सा कँप उठता तन!
‘सब सुन चुका’ चीख़ता केशव,
‘बंद करो यह रोना धोना!
उठो मालती, लील जायगा
तुमको घर का काला कोना!
‘मन से होते मनुज कलंकित,
रज की देह सदा से कलुषित,
प्रेम पतित पावन है, तुमको
रहने दूँगा मैं न कलंकित!’
परकीया / सुमित्रानंदन पंत
विनत दृष्टि हो बोली करुणा,
आँखों में थे आँसू के घन,
‘क्या जाने क्या आप कहेंगे,
मेरा परकीया का जीवन!’
स्वच्छ सरोवर सा वह मानस,
नील शरद नभ से वे लोचन
कहते थे वह मर्म कथा जो
उमड़ रही थी उर में गोपन!
बोला विनय, ‘समझ सकता हूँ,
मैं त्यक्ता का मानस क्रंदन,
मेरे लिए पंच कन्या में
षष्ट आप हैं, पातक मोचन!
यदपि जबाला सदृश आपको
अर्पित कर अपना यौवन धन
देना पड़ा मूल्य जीवन का
तोड़ वाह्य सामाजिक बंधन!’
‘फिर भी लगता मुझे, आपने
किया पुण्य जीवन है यापन,
बतलाती यह मन की आभा,
कहता यह गरिमा का आनन!
‘पति पत्नी का सदाचार भी
नहीं मात्र परिणय से पावन,
काम निरत यदि दंपति जीवन,
भोग मात्र का परिणय साधन!
‘प्राणों के जीवन से ऊँचा
है समाज का जीवन निश्वय,
अंग लालसा में, समाजिक
सृजन शक्ति का होता अपचय!
‘पंकिल जीवन में पंकज सी
शोभित आप देह से ऊपर,
वही सत्य जो आप हृदय से,
शेष शून्य जग का आडंबर!
‘अतः स्वकीया या परकीया
जन समाज की है परिभाषा,
काम मुक्त औ’ प्रीति युक्त
होगी मनुष्यता, मुझको आशा!’
ग्रामीण / सुमित्रानंदन पंत
‘अच्छा, अच्छा,’ बोला श्रीधर
हाथ जोड़ कर, हो मर्माहत,
‘तुम शिक्षित, मैं मूर्ख ही सही,
व्यर्थ बहस, तुम ठीक, मैं ग़लत!
‘तुम पश्चिम के रंग में रँगे,
मैं हूँ दक़ियानूसी भारत,’
हँसा ठहाका मार मनोहर,
‘तुम औ’ कट्टर पंथी? लानत!’
‘सूट बूट में सजे धजे तुम
डाल गले फाँसी का फंदा,
तुम्हें कहे जो भारतीय, वह
है दो आँखोंवाला अंधा!
‘अपनी अपनी दृष्टि है,’ तुरत
दिया क्षुब्ध श्रीधर ने उत्तर,
‘भारतीय ही नहीं, बल्कि मैं
हूँ ग्रामीण हृदय के भीतर!
‘धोती कुरते चादर में भी
नई रोशनी के तुम नागर,
मैं बाहर की तड़क भड़क में
चमकीली गंगा जल गागर!’
‘यह सच है कि,’ मनोहर बोला,
‘तुम उथले पानी के डाभर,
मुझको चाहे नागर कह लो
या खारे पानी का सागर!’
‘तुमने केवल अधनंगे
भारत का गँवई तन देखा है,
श्रीधर संयत स्वर में बोला,
मैंने उसका मन देखा है!’
‘भारतीय भूसा पिंजर में
तुम हो मुखर पश्चिमी तोते
नागरिकों के दुराग्रहों
तर्कों वादों के पंडित थोथे!
‘मैं मन से ग्रामों का वासी
जो मृग तृष्णाओं से ऊपर
सहज आंतरिक श्रद्धा से
सद् विश्वासों पर रहते निर्भर!
‘जो अदृश्य विश्वास सरणि से
करते जीवन सत्य को ग्रहण,
जो न त्रिशंकु सदृश लटके हैं,
भू पर जिनके गड़े हैं चरण!
‘उस श्रद्धा विश्वास सूत्र में
बँधा हुआ मैं उनका सहचर
भारत की मिट्टी में बोए
जो प्रकाश के बीज हैं अमर!’
सामंजस्य / सुमित्रानंदन पंत
भाव सत्य बोली मुख मटका
‘तुम - मैं की सीमा है बंधन,
मुझे सुहाता बादल सा नभ में
मिल जाना, खो अपनापन!
ये पार्थिव संकीर्ण हृदय हैं,
मोल तोल ही इनका जीवन,
नहीं देखते एक धरा है,
एक गगन है, एक सभी जन!’
बोली वस्तु सत्य मुँह बिचका,
‘मुझे नहीं भाता यह दर्शन,
भिन्न देह हैं जहाँ, भिन्न रुचि,
भिन्न स्वभाव, भिन्न सब के मन!
नहीं एक में भरे सभी गुण
द्वन्द्व जगत में है नारी नर,
स्नेही द्रोही, मूर्ख चतुर हैं,
दीन धनी, कुरूप औ’ सुन्दर!
आत्म सत्य बोली मुसका कर,
‘मुझे ज्ञात दोनों का कारण,
मैं दोनों को नहीं भूलती,
दोनों का करती संचालन!’
पंख खोल सपने उड़ जाते,
सत्य न बढ़ पाता गिन गिन पग,
सामंजस्य न यदि दोनों में
रखती मैं, क्या चल सकता जग?
आज़ाद / सुमित्रानंदन पंत
पैगंबर के एक शिष्य ने
पूछा, ‘हज़रत बंदे को शक
है आज़ाद कहाँ तक इंसाँ
दुनिया में पाबंद कहाँ तक?’
‘खड़े रहो’ बोले रसूल तब,
‘अच्छा, पैर उठाओ ऊपर,’
‘जैसा हुक्म!’ मुरीद सामने
खड़ा हो गया एक पैर पर!
‘ठीक, दूसरा पैर उठाओ’
बोले हँसकर नबी फिर तुरत,
बार बार गिर, कहा शिष्य ने
‘यह तो नामुमकिन है हज़रत!’
‘हो आजाद यहाँ तक, कहता
तुमसे एक पैर उठ ऊपर,
बँधे हुए दुनिया से कहता
पैर दूसरा अड़ा जमीं पर!’--
पैगंबर का था यह उत्तर!
लोक सत्य / सुमित्रानंदन पंत
बोला माधव,
‘प्यारे यादव
जब तक होंगे लोग नहीं अपने सत्वों से परिचित
जन संग्रह बल पर भव संकृति हो न सकेगी निर्मित!
आज अल्प हैं जीवित जग में औ’ असत्य उत्पीड़ित
लौह मुष्टि से हमें छीननी होगी सत्ता निश्चित!’
बोला यादव
‘प्यारे माधव
मुझको लगता आज वृत्त में घूम रहा मानव मन,
भौतिकता के आकर्षण से रण जर्जर जग जीवन!
समतल व्यापी दृष्टि मनुज की देख न पाती ऊपर,
देख न पाती भीतर अपने, युग स्थितियों से बाहर!
नहीं दीखता मुझे जनों का भूत भ्रांति में मंगल
वाह्य क्रांति से प्रबल हृदय में क्रांति चल रही प्रतिपल!
मध्य वर्ग की वैभव तंद्रा के स्वप्नों से जग कर
अभिनव लोक सत्य को हमको स्थापित करना भू पर!
युग युग के जीवन से औ’ युग जीवन से उत्सर्जित
सूक्ष्म चेतना में मनुष्य की, सत्य हो रहा विकसित!
आज मनुज को ऊपर उठ औ’ भीतर से हो विस्तृत
नव्य चेतना से जग जीवन को करना है दीपित!’
बोला यादव
‘प्यारे माधव,
वही सत्य कर सकता मानव जीवन का परिचालन
भूतवाद हो जिसका रज तन प्राणिवाद जिसका मन
औ’ अध्यात्मवाद हो जिसका हृदय गभीर चिरंतन
जिसमें मूल सृजन विकास के विश्व प्रगति के गोपन!
आज हमें मानव मन को करना आत्मा के अभिमुख,
मनुष्यत्व में मज्जित करने युग जीवन के सुख दुख!
पिघला देगी लौह मुष्टि को आत्मा की कोमलता
जन बल से रे कहीं बड़ी है मनुष्यत्व की क्षमता!
बूढा चांद / सुमित्रानंदन पंत
बूढा चांद
कला की गोरी बाहों में
क्षण भर सोया है
यह अमृत कला है
शोभा असि,
वह बूढा प्रहरी
प्रेम की ढाल!
हाथी दांत की
स्वप्नों की मीनार
सुलभ नहीं,-
न सही!
ओ बाहरी
खोखली समते,
नाग दंतों
विष दंतों की खेती
मत उगा!
राख की ढेरी से ढंका
अंगार सा
बूढा चांद
कला के विछोह में
म्लान था,
नये अधरों का अमृत पीकर
अमर हो गया!
पतझर की ठूंठी टहनी में
कुहासों के नीड़ में
कला की कृश बांहों में झूलता
पुराना चांद ही
नूतन आशा
समग्र प्रकाश है!
वही कला,
राका शशि,-
वही बूढा चांद,
छाया शशि है!
वाचाल / सुमित्रानंदन पंत
' मोर को
मार्जार-रव क्यों कहते हैं मां '
' वह बिल्लीव की तरह बोलता है,
इसलिए ! '
' कुत्ते् की तरह बोलता
तो बात भी थी !
कैसे भूंकता है कुत्ताे,
मुहल्लां गूंज उठता है,
भौं-भौं !'
' चुप रह !'
' क्योंह मां ?...
बिल्लीा बोलती है
जैसे भीख मांगती हो,
म्या उं..,म्या उं..
चापलूस कहीं का !
वह कुत्तेी की तरह
पूंछ भी तो नहीं हिलाती' -
' पागल कहीं का !'
' मोर मुझे फूटी आंख नहीं भाता,
कौए अच्छेो लगते हैं !'
' बेवकूफ !'
' तुम नहीं जानती, मां,
कौए कितने मिलनसार,
कितने साधारण होते हैं !...
घर-घर,
आंगन,मुंडेर पर बैठे
दिन रात रटते हैं
का, खा, गा ...
जैसे पाठशाला में पढ़ते हों !'
' तब तू कौओं की ही
पांत में बैठा कर !'
' क्यों नहीं, मां,
एक ही आंख को उलट पुलट
सबको समान दृष्टि से देखते हैं ! -
और फिर,
बहुमत भी तो उन्हींे का है , मां !'
' बातूनी !'
इंद्रिय प्रमाण / सुमित्रानंदन पंत
शरद के
रजत नील अंचल में
पीले गुलाबों का
सूर्यास्त
कुम्हला न जाय,-
वायु स्तब्ध...
विहग मौन ... !
सूक्ष्म कनक परागों से
आदिम स्मृति सी
गूढ गंध
अंत में समा गई !
जिस सूर्य मंडल में
प्रकाश
कभी अस्त नहीं होता,
उसकी यह
कैसी करूण अनुभूति,-
लीला अनुभव !
कब से विलोकती तुमको / सुमित्रानंदन पंत
कब से विलोकती तुमको
ऊषा आ वातायन से?
सन्ध्या उदास फिर जाती
सूने-गृह के आँगन से!
लहरें अधीर सरसी में
तुमको तकतीं उठ-उठ कर,
सौरभ-समीर रह जाता
प्रेयसि! ठण्ढी साँसे भर!
हैं मुकुल मुँदे डालों पर,
कोकिल नीरव मधुबन में;
कितने प्राणों के गाने
ठहरे हैं तुमको मन में?
तुम आओगी, आशा में
अपलक हैं निशि के उडुगण!
आओगी, अभिलाषा से
चंचल, चिर-नव, जीवन-क्षण!
रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२
तेरा कैसा गान / सुमित्रानंदन पंत
(क)
तेरा कैसा गान,
विहंगम! तेरा कैसा गान?
न गुरु से सीखे वेद-पुराण,
न षड्दर्शन, न नीति-विज्ञान;
तुझे कुछ भाषा का भी ज्ञान,
काव्य, रस, छन्दों की पहचान?
न पिक-प्रतिभा का कर अभिमान,
मनन कर, मनन, शकुनि-नादान!
हँसते हैं विद्वान,
गीत-खग, तुझ पर सब विद्वान!
दूर, छाया-तरु-बन में वास;
न जग के हास-अश्रु ही पास;
अरे, दुस्तर जग का आकाश,
गूढ़ रे छाया-ग्रथित-प्रकाश;
छोड़ पंखों की शून्य-उड़ान,
वन्य-खग! विजन-नीड़ के गान।
(ख)
मेरा कैसा गान,
न पूछो मेरा कैसा गान!
आज छाया बन-बन मधुमास,
मुग्ध-मुकुलों में गन्धोच्छ्वास;
लुड़कता तृण-तृण में उल्लास,
डोलता पुलकाकुल वातास;
फूटता नभ में स्वर्ण-विहान,
आज मेरे प्राणों में गान।
मुझे न अपना ध्यान,
कभी रे रहा न जग का ज्ञान!
सिहरते मेरे स्वर के साथ,
विश्व-पुलकावलि-से-तरु-पात;
पार करते अनन्त अज्ञात
गीत मेरे उठ सायं-प्रात;
गान ही में रे मेरे प्राण,
अखिल-प्राणों में मेरे गान।
अयुगल / सुमित्रानंदन पंत
ओ शाश्वत दंपति,
तुम्हारा असीम,
अक्षय
परस्पर का प्यार ही
मेरा
आनंद
मंगल
और
चेतना का आलोक है !
तुम आती हो,
नव अंगों का
शाश्वत मधु-विभव लुटाती हो।
बजते नि:स्वर नूपुर छम-छम,
सांसों में थमता स्पंदन-क्रम,
तुम आती हो,
अंतस्थल में
शोभा ज्वाला लिपटाती हो।
अपलक रह जाते मनोनयन
कह पाते मर्म-कथा न वचन,
तुम आती हो,
तंद्रिल मन में
स्वप्नों के मुकुल खिलाती हो।
अभिमान अश्रु बनता झर-झर,
अवसाद मुखर रस का निर्झर,
तुम आती हो,
आनंद-शिखर
प्राणों में ज्वार उठाती हो।
स्वर्णिम प्रकाश में गलता तम,
स्वर्गिक प्रतीति में ढलता श्रम
तुम आती हो,
जीवन-पथ पर
सौंदर्य-रहस बरसाती हो।
जगता छाया-वन में मर्मर,
कंप उठती रुध्द स्पृहा थर-थर,
तुम आती हो,
उर तंत्री में
स्वर मधुर व्यथा भर जाती हो।