guru nanak dev ji
गुरु नानक देव जी (१५ अप्रैल १४६९–२२ सितम्बर १५३९) सिख धर्म के संस्थापक थे । उनका जन्म राय भोइ की तलवंडी (ननकाना साहब) में हुआ, जो कि पाकिस्तान के शेखूपुरे जिले में है । उन के पिता मेहता कल्याण दास बेदी (मेहता कालू) और माता तृप्ता जी थे । उनकी बड़ी बहन बीबी नानकी जी थे । उनका विवाह माता सुलक्खनी जी के साथ हुआ । उनके दो पुत्र बाबा श्री चंद जी और बाबा लखमी दास जी थे । १५०४ में वह बीबी नानकी जी के साथ सुलतान पुर लोधी चले गए, जहाँ उन्होंने कुछ देर नवाब दौलत खान लोधी के मोदीखाने में नौकरी की । उन्होंने भारत समेत दुनिया के कई देशों की चार लम्बी यात्राएं (उदासियाँ) भी कीं । उन्होंने कुल ९४७ शब्दों की रचना की । उन की प्रमुख रचनायें जपु(जी साहब), सिध गोसटि, आसा दी वार, दखनी ओअंकार आदि हैं।
गुरु नानक
हम घरि साजन आए। साचै मेलि मिलाए॥
सहजि मिलाए हरि मनि भाए पंच मिले सुख पाइआ।
साई वसतु परापति होई जिसु सेती मनु लाइआ॥
अनुदिनु मेलु भइआ मनु मानिआ घर मंदर सोहाए।
पंच सबद धुनि अनहद वाजे हम घरि साजन आए॥
आवहु मीत पिआरै। मंगल गावहुना रे॥
सचु मंगलु गावहु ता प्रभु भावहु सोहिलड़ा जुग चारे।
अपनै घरि आइआ थानि सुहाइआ कारज सबदि सवारे॥
गिआन महारसु नेत्री अंजनु त्रिभवण रूपु दिखाइआ।
सखी मिलहु रसि मंगलु गावहु हम घरि साजनु आइआ॥
मनु तनु अंमृति भिंना। अंतरि प्रेम रतंना॥
अंतरि रतनु पदारथु मेरै परम ततु वीचारो।
जंत भेख तू सफलिओ दाता सिरि सिरि देवणहारो॥
तू जानु गिआनी अंतरजामी आपे कारणु कीना॥
सुनहु सखी मनु मोहनि मोहिआ तनु मनु अंमृति भीना॥
आतम रामु संसारा। साचा खेलु तुम्हारा॥
सचु खेलु तुम्हारा अगम अपारा तुधु बिनु कउणु बुझाए।
सिध साधिक सिआणे केते तुझ बिनु कवणु कहाए॥
कालु बिकालु भए देवाने मनु राखिआ गुरि ठाए।
नानक अवगण सबदि जलाए गुण संगमि प्रभु पाए॥
हमारे घर में मित्रगण (गुरुमुख) आ गए। सच्चे (हरी) ने (उसका) मिलाप कर दिया। (उन संतों ने मुझे) सहजावस्था से मिला दिया है, (जिससे) मन को हरी अच्छा लगने लगा। संत-जनों (पंच) के मिलने से बहुत सुख की प्राप्ति हुई। जिस (वस्तु) से मन लगाया था, वह वस्तु प्राप्त हो गई। (उस प्रभु से) शाश्वत मिलने हो गया, (जिससे) मन मान गया और घर तथा महल सुहावने हो गए। (मेरे अंतगंत) पाँच (बाजो की) ध्वनि (बिना बजाए ही) अनाहत गति से बजने लगी; हमारे घर में मित्रगण आ गए। [पंच शब्द=तार, धातु, चाम, घड़े तथा फूँक से बजाए जाने वाले बाजे।]
हे प्यारे मित्रो, आओ। हे नारियो, (सतसंगियो), मगल के गीत गाओ। यदि (प्रभु के) सच्चे मंगल के गीत गाओ तभी उस प्रभु को अच्छे लगोगे; (उसकी) बड़ाई चारों युगो में (व्याप्त है)। (आत्मस्वरूप) धर में (हरी) आकर बस गया है, (जिससे हृदय रूपी) स्थान सुहावना हो गया है, शब्द (नाम) से (सारे) कार्य बन गए हैं। ब्रह्मज्ञान नेत्रों का परम अमृतमय अंजन है, (इसी अंजन ने) त्रिभुवन के स्वरूप (हरी) को दिखाया है। हे सखियो (गुरुमुखो), मिलकर आनंदपूर्वक मंगल-गीत गाओ। हमारे घर से (परमात्मा रूपी) साजन आ गया है।
मेरे तन और मन अमृत में भीग गए है। (मेरे) अंतःकरण में प्रेम रूपी रत्र (प्रकट हो गया है)। परम तत्व (परमात्म-तत्व) के विचार से मेरे अंतःकरण में (नाम रूपी) रत्र-पदार्थ (प्रकट हो गया है)। (हे हरी), जीव भिखारी है और तू सफल दाता, है (ऐसा दाता, जो सबकी इच्छाओ को पूर्ण करता है)। प्रत्येक प्राणी—जीव को (तू ही) देनेवाला है। (हे प्रभु), तू ही सज्ञान (सयाना है), ज्ञाननी (ज्ञाता) और अंतर्यामी है, (और) तूने ही सृष्टि रची है। हे सखियों (गुरुमुखो), सुनो हरी ने मन को मोहित कर लिया है, (जिससे मेरे) तन और मन अमृत में भीग गए है।
(हे प्रभु); तू ही संसार का आत्मा राम है, (अर्थात हे हरी तू ही समस्त संसार में रम रहा है)। (हे हरी), ता खेल सच्चा है; (वह) अगम और अपार है; तेरे बिना (सृष्टि के इस अनंत रहस्य को) कौन समझा सकता है? कितने ही सिद्ध, साधक तथा सयाने लोग है; (किंतु) बिना (तुझे जाने हुए) कौन व्यक्ति (सिद्ध, साधक अथवा सयाना) कहलावा सकता है? (अर्थात कोई भी नहीं; तेरे ही जानने से वो लोग सिद्ध, साधक आदि बनते है; बिना तेरे उनका कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है)। मरण और जन्म पागल हो गए। गुरु ने मन को ठिकाने रख दिया है, (गुरु ने मन को अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित कर दिया है)। हे नानक, गुरु के उपदेश द्वारा (मैंने) अवगुणों को दग्ध कर दिया है और गुणों के मेल के कारण प्रभु को पा लिया है। [विशेष काल-मृत्यु। बिकालु=मृत्यु नहीं, (अर्थात, मृत्यु का उलटा जन्म)। काल विकालु भए देवाने=जन्म और मरण पगले हो गए है, (अर्थात जन्म-मरण समाप्त हो गए।]
गुरु नानक
सभना मरणा आइआ वेछोड़ा सभनाइ।
पुछहु जाइ सिआणिआ आगै मिलणु कि नाह॥
जिन मेरा साहिबु वीसरै वडड़ी वेदन तिनाह॥
भी सालाहिहु साचा सोइ।
जाकी नदरि सदा सुखु होइ॥ ॥रहाउ॥
वडा करि सालाहणा है भी होसी सोइ।
सभना दाता एकु तू माणस दाति न होई॥
जो तिसु भावै तो थीऐ रंन कि रुनै होइ॥
धरती उपरि कोट गड़ केती गई वजाइ।
जो असमानि न मावनी तिन नकि नथा पाइ॥
जे मन जाणहि सूलीआ काहे मिठा खाहि॥
नानक अउगुण जेतड़े तेते गली ज़ंजीर।
जे गुण होनि त कटीअनि से भाई से वीर॥
अगै गए न मंनीअनि मारि कढहु वे पीर॥
सभी का मारना आवश्यक है और सब का वियोग भी (अवश्यसंभावी) है। किसी चतुर (सयाने) के पास जाकर पूछो कि (मर कर) किसी को (हरी का) मिलाप परलोक में होगा? जिन्होंने मेरे साहब को भुला दाय है, उन्हें बड़ी वेदना होगी (तात्पर्य यह कि उन्हें अनेक कष्ट भोगने पड़ेगे)।
उस सच्चे (परमात्मा) की फिर, (पुनः—बराबर) स्तुति करो, जिसकी कपादृष्टि से सदैव सुख प्राप्त होता है। महान (समझ) कर, (उसकी) स्तुति करो, (वही प्रभु) (वर्तमान में) है, (भूत में) था (और भविष्य में) रहेगा। (हे प्रभु), एक तू ही सब का दाता है, मनुष्य के (दिए हुए) दान ही नहीं सकते। जो (उस प्रभु को) भाता है वही होता है; स्त्रियों की भाँति रोने से क्या होता है?
धरती के ऊपर कोट (दुर्ग) और गढ़ बनाकर, कितने ही (लोग) (नौबत) बजा गए, (तात्पर्य यह कि राज्य कर कए)। जो (लोग अहकार से) आकाश में भी नहीं समाते थे, उनकी नाक में (गुलामी की भाँति) नाथ डाल दी गई। हे मन, यदि (तू) विषयो को) शूली की भाँति जानता, तो (उन्हें) मीठे (की भाँति) क्यों खाता?
हे नानक, (जिस मनुष्य में) जितने अवगुण होते हैं, (उसके गले में उतनी ही जंजीरे (पड़ेगी)। यदि गुण, हो, (तभी ये जंजीरे) कटेगी, गुण ही हमारे भाई और मित्र है। (जिन के गुरु नहीं है मरणोपरांत) आगे (परलोक में) वे माने नहीं जाएगे, (स्वीकार नहीं किए जाएगे) और बेपीर (निगुण) कह कर (परमात्मा के दरबार से वे) निकाल दिए जाएगे।
गुरु नानक
आपे सबदु आपे नीसानु। आपे सुरता आपे जानु॥
आपे करि करि वेखै ताणु। तू दाता नामु परवाणु॥
ऐसा नामु निरंजन देउ। हउ जाचिकु तू अलख अभेउ॥ रहाउ॥
माइआ मोहु धरकटी नारि। भूंडी कामणि कामणिआरि॥
राजु रूपु झूठा दिन चारि। नामु मिलै चानणु अंधिआरि॥
चखि छोडी सहसा नही कोइ। बापु दिसै बेजाति न होई॥
एके कउ नाही भउ कोइ। करता करै करावै सोइ॥
सबदि मुए मनु मन ते मारिआ। ठाकि रहे मनु साचै धारिआ॥
अवरुन सूझै गुर कउ वारिआ। नानक नामि रते निसतारिआ॥
हे प्रभु, आप वह स्वयं ही शब्द रूप होकर उसका नाद बन जाते हो। आप ही ज्ञान रूप होकर उसकी सुरती-लय रूप धारण कर लेते हो। सृष्टि की बार-बार रचना करके स्वयं ही अपनी रचना को देखते हो। हे प्रभु, तुम ही सबके दाता रूप हो, निरंजन देव! तुम्हारा नाम ही ऐसा है। तुम अलख सत्ता हो और मैं तुम्हारे द्वार का याचक हूँ।
हे परमात्मा,मेरे समक्ष शीश- रहित नारी मोह-माया रूप में मुझे आसक्तियों के जाल में फँसाना चाहती है। वह भौंडी कामिनी माया सबको फँसाना चाहती है।वैभव-विलास प्रदान करने वाला राज्याधिकार क्षणिक है, मिथ्या है। इस माया रूप अँधेरे संसार में प्रभु नाम रूप प्रकाश मिल जाए, मानो जीवन को सार्थकता मिल जाए।
माया के मादकों को एक बार चखकर फिर सहसा छोड़ सकना मुश्किल है। पिता रूप परमात्मा के दिखाई देने पर भी माया बेजाति नहीं हो पाती। उस एक परमात्मा को संसार में कोई भय नहीं। क्योंकि, वहाँ दूसरा कोई है ही नहीं। वह अकेला परमात्मा ही इस दृश्यमान जगत में सबकुछ करता-कराता रहता है।
गुरु नानक
धृगु जीवणु दोहागणी मुठी दूजै भाइ।
कलर केरी कंध जिउ अहिनिसि किरि ढहि पाइ॥
बिनु सबदै सुखु ना थीऐ पिर बिनु दूखु न जाइ॥
मुंधे पिर बिनु किआ सीगारु।
दरि घरि ढोई ना लहै दरगह झूठ खुआरु॥ ॥रहाउ॥
आपि सुजाण न भुलई सचा वड किरसाणु।
पहिला धरती साधि कै सचु नामु दे दाणु॥
नउ निधि उपजै नामु एकु करमि पवै नीसाणु॥
गुर कउ जाणि न जाणई किआ तिसु चजु अचारु।
अंधुलै नामु विसारिआ मनमुखि अंध गुबारु॥
आवणु जाणु न चुकई मरि जनमै होइ खुआरु॥
चंदनु मोलि अणाइआ कुंगू मांग संधूरु।
चोआ चंदनु बहु घणा पाना नालि कपूरु॥
जे धन कंति न भावई त सभि अडंबर कूड़ु॥
सभि रस भोगण बादि हहि सभि सीगार विकार।
जब लगु सबदि न भेदीऐ किउ सोहै गुरदुआरि॥
नानक धंनु सुहागणी जिन सह नालि पिआरु॥
उस) दोहागिनी (पति में बिछुड़ी हुई) के जीवन को धिक्कार है, जो द्वैतभाव (के कारण) नष्हो जाती है। जिस प्रकार लोने की दीबाल रात-दिन ढह ढहकर गिर पड़ती है, (उसी प्रकार) दोहागिनी स्त्री कुढ कुढ़कर नष्ट हो जाती है)। बिना शब्द (नाम) के सुख नही होता (और) बिना प्रियतम के दुःख नहीं जाता।
हे मुग्धे, (भ्रमित स्त्री) प्रियतम के बिना शृंगार कैसा? (हे स्त्री) घर के दरवाजे में तुम प्रवेश नहीं पा सकती, (क्योंकि) झूठा (परमात्मा के) दरवाजे पर नष्ट हो जाता है।
वह चतुर स्वयं नहीं भूलता, वह सच्चा, बहुत बड़ा किसान है। पहले वह जमीन तैयार कर सच्चेनाम का बीज (उगने के लिए) बोता है। नाम के एक (बीज) से नव निद्धियाँ उत्पन्न होती है; (परमात्मा की) कृपा द्वारा (प्रमाणिकता का) चिह्र लगता है।
जो (बुद्धिमान) जान कर भी गुरु को नहीं जानता, उसकी बुद्धिमानी है और क्या आचार है? उस अंधे का नाम भुला दिया, वह मनमुख घनघोर अंधकार (में है)। उसका आचार है? उसका आना-जाना समाप्त नहीं होता, वह (बार-बार) जन्मता-मरता रहता है और बरबाद हो जाता है।
चंदन मोल मँगाया गया, माँग के लिए केशर और सिंदूर (प्रयोग में लाए गए)। चोआ-चंदन (आदि सुगंधित द्रव्य भी) अधिकता के (लगाए गए) और पान के साथ कपूर भी (खाया गया)। (इतना सब शृंगार करने पर भी) यदि स्त्री पति को प्रिय नहीं लगती, तो (सारे शृंगार) आडंबरयुक्त और मिथ्या है।
सभी रसो का भोगना व्यर्थ है और सारे शृंगार भी निर्थक है। जब तक वह (गुरु के) शब्द के साथ बिंघ नहीं जाती, तब कर वह गुरु के दरवाजे पर कैसे शोभा पा सकती है? नानक कहते हैं वे ही सुहागिनी धन्य है, जिनका पति के साथ प्रेम है।
गुरु नानक
जप तप का बंधु बेड़ला जितु लंघहि वहेला।
ना सरवरु ना ऊछलै ऐसा पंथु सुहेला॥
तेरा एको नामु मंजीठड़ा रता मेरा चोला सद रंग ढोला॥ रहाउ॥
साजन चले पिआरिआ किउ मेला होई।
जे गुण होवहि गंठड़ीऐ मेलेगा सोई॥
मिलिआ होइ न वीछुड़ै जे मिलिआ होई।
आवागउणु निवारिआ है साचा सोई॥
हउमै मारि निवारिआ सीता है चोला॥
गुरबचनी फलु पाइआ सह के अंमृत बोला॥
नानकु कहै सहेली हो सहु खरा पिआरा।
हम सह केरीआ दासी साचा खसमु हमारा॥
(हे मनुष्य), जप-तप के बेडे को बाँधो, (जिससे संसार-सागर को) शीघ्रता से पार कर लो। (नाम के द्वारा) रास्ता ऐसा सुखदायी हो जाएगा (जैसा कि) समुद्र (का मार्ग होता) नहीं और यदि हो भी तो उछाल नहीं मारेगा।
(हे हरी), तेरा एक नाम भी मजीठी रंग है, हे प्रियतम, (उस मजीठी रंग में) मेरा चोला (वस्त्र, शरीर) पक्के रंगवाला हो गया है। (‘ढोला=दक्षिण पंजाब में ‘ढोला’ एक प्रसिद्ध प्रेमी हो गया है। ढोला ऐसा प्रसिद्ध प्रेमी हुआ कि उसका नाम ही ‘प्रियतम अथवा प्रेमी’ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा]।
साजन (अपनी) प्यारियो की ओर चल पड़े है; किस प्रकार मिलाप होगा? (इस प्रश्न का उत्तर निम्नलिखित ढंग से गुरु नानक देव देते है)—(यदि उन स्त्रियों हों, तो वह (प्यारा आप ही उन्हें अपने मे) मिला लेगा’।
यदि (सच्चा) मिलाप हो, तभी के पश्चात विछोह नहीं होता। जो सच्चा (प्रभु) है, अपने आवगमन (जन्मन-मरना) निवारण कर दिया है। जिसने अहंकार को मारकर निवारण कर दिया है, उसका शरीर शीतल हो गया है, (तात्पर्य यह कि उसके त्रिविधि ताप शांत हो गए है। [इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है—“जिसने अहंकार को मारकर दूर कर दिया है, उसने पति—परमेश्वर के मिलने के लिए यह चोला सिया है।”]
नानक कहते हैं कि हे सहेलियों, पति (परमात्मा) बहुत प्यारा है। हम सभी पति (परमात्मा) की दासियों है, वही हमारा सच्चा पति है।
पउणु गुरू पाणी पिता माता धरति महतु।
दिनसु राति दुई दाई दाइआ खेलै सगल जगतु॥
नानक गुरु संतोखु रुखु धरमु फुलु फल गिआनु।
रसि रसिआ हरिआ सदा पकै करमि सदा पकै कमि धिआनि॥
धंनु सु कागदु कलम धनु भांडा धनु मसु।
धनु लेखारी नानका जिनि नाम लिखाइआ सचु॥
मेरे लाल रंगीले हम लालन के लाले।
गुर अलखु लखाइआ अवरु न दूजा भाले॥
बलिहारी गुर आपणे दिउहाड़ी सद वार।
जिनि माणस ते देवते कीए करत न लागी वार॥
साचा साहिबु साचु नाइ भाखिआ भाउ अपारु।
आखहि मंगहि देहि देहि दाति करै दातारु॥
नानक बदरा माल का भीतर धरिआ आणि।
खोटे खरे परखीआनि साहिब के दीबाणि॥
सालाही सालाहि एती सुरति न पाईआ।
नदीआ अतै वाह पवहि समुंदि न जाणीअहि॥
गुरु दाता गुरु हिवै घरु गुरु दीपकु तिह लोइ।
अमर पदारथु नानका मनि मानिऐ सुख होई॥
सतिगुर भीखिआ देहि मै तूं संम्रथु दातारु।
हउमै गरबु निवारीऐ कामु क्रोध अहंकारु॥