गदाधर भट्ट दक्षिणी ब्राह्मण थे। इनके जन्म संवत् आदि का ठीक ठीक पता नहीं। पर यह बात प्रसिद्ध है कि ये श्री चैतन्य महाप्रभु को भागवत सुनाया करते थे। इसका समर्थन भक्तमाल की इन पंक्तियों से भी होता है -
भागवत सुधा बरखै बदन, काहू को नाहिंन दुखद।
गुणनिकर गदाधार भट्ट अति सबहिन को लागै सुखद
श्री चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव संवत् 1542 में और गोलोकवास 1584 में माना जाता है। अत: संवत् 1584 के भीतर ही आपने श्री महाप्रभु से दीक्षा ली होगी। महाप्रभु के जिन छह विद्वान् शिष्यों ने गौड़ीय संप्रदाय के मूल संस्कृत ग्रन्थों की रचना की थी उनमें जीव गोस्वामी भी थे। ये वृंदावन में रहते थे। एक दिन दो साधुओं ने जीव गोस्वामी के सामने गदाधार भट्टजी का यह पद सुनाया -
सखी हौं स्याम रंग रँगी।
देखि बिकाय गई वह मूरति, सूरत माँहि पगी॥
संग हुतो अपनो सपनो सो सोइ रही रस खोई।
जागेहु आगे दृष्टि परै, सखि, नेकु न न्यारो होई॥
एक जु मेरी अंखियन में निसि द्यौस रह्यो करि भौन।
गाय चरावन जात सुन्यो, सखि सो धौं कन्हैया कौन?
कासौं कहौं कौन पतियावै कौन करे बकवाद?
कैसे कै कहि जाति गदाधार, गूँगे ते गुर स्वाद?
इस पद को सुन जीव गोस्वामी ने भट्टजी के पास यह श्लोक लिख भेजाए
अनाराधय राधापदाम्भोजयुग्ममाश्रित्य वृन्दाटवीं तत्पदाकम्।
असम्भाष्य तद्भावगम्भीरचित्तान कुत:श्यामासिन्धो: रहस्यावगाह:॥
यह श्लोक पढ़कर भट्ट जी मूर्छित हो गए फिर सुध आने पर सीधे वृंदावन में जाकर चैतन्य महाप्रभु के शिष्य हुए।
सुंदर स्याम सुजानसिरोमनि, देउँ कहा कहि गारी हो।
बड़े लोगके औगुन बरनत, सकुचि उठत मन भारी हो॥१॥
को करि सकै पिताको निरनौ जाति-पाँति को जाने हो।
जाके मन जैसीयै आवत तैसिय भाँति बखानै हो॥२॥
माया कुटिल नटी तन चितवत कौन बड़ाई पाई हो।
इहि चंचल सब जगत बिगोयो जहँ तहँ भई हँसाई हो॥३॥
तुम पुनि प्रगट होइ बारे तें कौन भलाई कीनी हो।
मुकुति-बधू उत्तम जन लायक लै अधमनिकों दीनी हो॥४॥
बसि दस मास गरभ माताके इहि आसा करि जाये हो।
सो घर छाँड़ि जीभके लालच भयो हो पूत पराये हो॥५॥
बारेतें गोकुल गोपिनके सूने घर तुम डाटे हो।
पैठे तहाँ निसंक रंक लौं दधिके भाजन चाटे हो॥६॥
आपु कहाइ धनीको ढोटा भात कृपन लौं माँग्यो हो।
मान भंग पर दूजैं जाचतु नैकु सँकोच न लाग्यो हो॥७॥
लोलुप तातें गोपिनके तुम सूने भवन ढँढोरे हो।
जमुना न्हात गोप-कन्यनिके निलज निपट पट चोरे हो॥८॥
बैनु बजाइ बिलास करत बन बोलि पराई नारी हो।
ते बातें मुनिराज सभामें ह्वै निसंक बिस्तारी हो॥९॥
सब कोउ कहत नंदबाबाको घर भर्यो रतन अमोलै हो।
गर गुंजा सिर मोर-पखौवा गायनके सँग डोलै हो॥१०॥
साधु-सभामें बैठनिहारो कौन तियन सँग नाचै हो।
अग्रज संग राज-मारगमें कुबजहिं देखत लाचै हो॥११॥
अपनि सहोदरि आपुहि छल करि अरजुन संग नसाई हो।
भोजन करि दासी-सुतके घर जादव जाति लजाई हो॥१२॥
लै लै भजै नृपतिकी कन्या यह धौं कौन बड़ाई हो।
सतभामा गोतमें बिबाही उलटी चाल चलाई हो॥१३॥
बहिन पिताकी सास कहाई नैकहुँ लाज न आई हो।
ऐसेइ भाँति बिधाता दीन्हीं सकल लोक ठकुराई हो॥१४॥
मोहन बसीकरन चट चेटक मंत्र जंत्र सब जानै हो।
तात भले जु भले सब तुमको भले भले करि मानै हो॥१५॥
बरनौं कहा जथा मति मेरी बेदहु पार न पावै हो।
भट्ट गदाधर प्रभुकी महिमा गावत ही उर आवै हो॥१६॥
झूलत नागरि नागर लाल।
मंद मंद सब सखी झुलावति गावति गीत रसाल॥
फरहराति पट पीत नीलके अंचल चंचल चाल।
मनहुँ परसपर उमँगि ध्यान छबि, प्रगट भई तिहि काल॥
सिलसिलात अति प्रिया सीस तें, लटकति बेनी नाल।
जनु पिय मुकुट बरहि भ्रम बसतहँ, ब्याली बिकल बिहाल॥
मल्ली माल प्रियाकी उरझी, पिय तुलसी दल माल।
जनु सुरसरि रबितनया मिलिकै, सोभित स्त्रेनि मराल॥
स्यामल गौर परसपर प्रति छबि, सोभा बिसद बिसाल।
निरखि गदाधर रसिक कुँवरि मन, पर्यो सुरस जंजाल॥
जयति श्रीराधिके सकलसुखसाधिके
तरुनिमनि नित्य नवतन किसोरी।
कृष्णतनु लीन मन रुपकी चातकी
कृष्णमुख हिमकिरिनकी चकोरी॥१॥
कृष्णदृग भृंग बिस्त्रामहित पद्मिनी
कृष्णदृग मृगज बंधन सुडोरी।
कृष्ण-अनुराग मकरंदकी मधुकरी
कृष्ण-गुन-गान रास-सिंधु बोरी॥२॥
बिमुख परचित्त ते चित्त जाको सदा
करत निज नाहकी चित्त चोरी।
प्रकृति यह गदाधर कहत कैसे बनै
अमित महिमा इतै बुद्धि थोरी॥३॥
कबै हरि, कृपा करिहौ सुरति मेरी।
और न कोऊ काटनको मोह बेरी॥१॥
काम लोभ आदि ये निरदय अहेरी।
मिलिकै मन मति मृगी चहूँधा घेरी॥२॥
रोपी आइ पास-पासि दुरासा केरी।
देत वाहीमें फिरि फिरि फेरी॥३॥
परी कुपथ कंटक आपदा घनेरी।
नैक ही न पावति भजि भजन सेरी॥४॥
दंभके आरंभ ही सतसंगति डेरी।
करै क्यों गदाधर बिनु करुना तेरी॥५॥
हरि हरि हरि हरि रट रसना मम।
पीवति खाति रहति निधरक भई होत कहा तो को स्त्रम॥
तैं तो सुनी कथा नहिं मोसे, उधरे अमित महाधम।
ग्यान ध्यान जप तप तीरथ ब्रत, जोग जाग बिनु संजम॥
हेमहरन द्विजद्रोह मान मद, अरु पर गुरु दारागम।
नामप्रताप प्रबल पावकके, होत जात सलभा सम॥
इहि कलिकाल कराल ब्याल, बिषज्वाल बिषम भोये हम।
बिनु इहि मंत्र गदाधरके क्यों, मिटिहै मोह महातम॥
नमो नमो जय श्रीगोबिंद।
आनँदमय ब्रज सरस सरोवर,
प्रगटित बिमल नील अरबिंद॥१॥
जसुमति नीर नेह नित पोषित,
नव नव ललित लाड़ सुखकंद।
ब्रजपति तरनि प्रताप प्रफुल्लित,
प्रसरित सुजस सुवास अमंद॥२॥
सहचरि जाल मराल संग रँग,
रसभरि नित खेलत सानंद।
अलि गोपीजन नैन गदाधर,
सादर पिवत रुपमकरंद॥३॥
श्रीगोबिन्द पद-पल्लव सिर पर बिराजमान,
कैसे कहि आवै या सुखको परिमान।
ब्रजनरेस देस बसत कालानल हू त्रसत,
बिलसत मन हुलसत करि लीलामृत पान॥१॥
भीजे नित नयन रहत प्रभुके गुनग्राम कहत,
मानत नहिं त्रिबिधताप जानत नहिं आन।
तिनके मुखकमल दरस पातन पद-रेनु परस,
अधम जन गदाधरसे पावैं सनमान॥२॥
दिन दूलह मेरो कुँवर कन्हैया।
नितप्रति सखा सिंगार सँवारत, नित आरती उतारति मैया॥१॥
नितप्रति गीत बाद्यमंगल धुनि, नित सुर मुनिवर बिरद कहैया।
सिरपर श्रीब्रजराज राजबित, तैसेई ढिग बलनिधि बल भैया॥२॥
नितप्रति रासबिलास ब्याहबिधि, नित सुर-तिय सुमननि बरसैया।
नित नव नव आनंद बारिनिधि, नित ही गदाधर लेत बलैया॥३॥
सखी, हौं स्याम रंग रँगी।
देखि बिकाइ गई वह मूरति, सूरति माहि पगी॥१॥
संग हुतो अपनो सपनो सो, सोइ रही रस खोई।
जागेहु आगे दृष्टिो परै सखि, नेकु न न्यारो होई॥२॥
एक जु मेरी अँखियनमें निसिद्योस रह्यो करि भौन।
गाइ चरावन जात सुन्यो सखि, सो धौं कन्हैया कौन॥३॥
कासों कहौं कौन पतियावै, कौन करै बकवाद।
कैसे कै कहि जात गदाधर, गूँगेको गुड़ स्वाद॥४॥