Javed Akhtar Ghazal जावेद अख़्तर ग़ज़ल
Javed Akhtar जावेद अख्तर
आज मैं ने अपना फिर सौदा किया / जावेद अख़्तर
आज मैं ने अपना फिर सौदा किया
और फिर मैं दूर से देखा किया
ज़िंदगी-भर मेरे काम आए उसूल
एक इक कर के उन्हें बेचा किया
बंध गई थी दिल में कुछ उम्मीद सी
ख़ैर तुम ने जो किया अच्छा किया
कुछ कमी अपनी वफ़ाओं में भी थी
तुम से क्या कहते कि तुम ने क्या किया
क्या बताऊँ कौन था जिस ने मुझे
इस भरी दुनिया में है तन्हा किया
अभी ज़मीर में थोड़ी सी जान बाक़ी है / जावेद अख़्तर
अभी ज़मीर में थोड़ी सी जान बाक़ी है
अभी हमारा कोई इम्तिहान बाक़ी है
हमारे घर को तो उजड़े हुए ज़माना हुआ
मगर सुना है अभी वो मकान बाक़ी है
हमारी उन से जो थी गुफ़्तुगू वो ख़त्म हुई
मगर सुकूत सा कुछ दरमियान बाक़ी है
हमारे ज़ेहन की बस्ती में आग ऐसी लगी
कि जो था ख़ाक हुआ इक दुकान बाक़ी है
वो ज़ख़्म भर गया अर्सा हुआ मगर अब तक
ज़रा सा दर्द ज़रा सा निशान बाक़ी है
ज़रा सी बात जो फैली तो दास्तान बनी
वो बात ख़त्म हुई दास्तान बाक़ी है
अब आया तीर चलाने का फ़न तो क्या आया
हमारे हाथ में ख़ाली कमान बाक़ी है
बहाना ढूँडते रहते हैं कोई रोने का / जावेद अख़्तर
बहाना ढूँडते रहते हैं कोई रोने का
हमें ये शौक़ है क्या आस्तीं भिगोने का
अगर पलक पे है मोती तो ये नहीं काफ़ी
हुनर भी चाहिए अल्फ़ाज़ में पिरोने का
जो फ़स्ल ख़्वाब की तय्यार है तो ये जानो
कि वक़्त आ गया फिर दर्द कोई बोने का
ये ज़िंदगी भी अजब कारोबार है कि मुझे
ख़ुशी है पाने की कोई न रंज खोने का
है पाश पाश मगर फिर भी मुस्कुराता है
वो चेहरा जैसे हो टूटे हुए खिलौने का
दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं / जावेद अख़्तर
दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं
ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते हैं
रास्ता रोके खड़ी है यही उलझन कब से
कोई पूछे तो कहें क्या कि किधर जाते हैं
छत की कड़ियों से उतरते हैं मिरे ख़्वाब मगर
मेरी दीवारों से टकरा के बिखर जाते हैं
नर्म अल्फ़ाज़ भली बातें मोहज़्ज़ब लहजे
पहली बारिश ही में ये रंग उतर जाते हैं
उस दरीचे में भी अब कोई नहीं और हम भी
सर झुकाए हुए चुप-चाप गुज़र जाते हैं
हमारे शौक़ की ये इंतिहा थी / जावेद अख़्तर
हमारे शौक़ की ये इंतिहा थी
क़दम रक्खा कि मंज़िल रास्ता थी
बिछड़ के डार से बन बन फिरा वो
हिरन को अपनी कस्तूरी सज़ा थी
कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है
मगर जो खो गई वो चीज़ क्या थी
मैं बचपन में खिलौने तोड़ता था
मिरे अंजाम की वो इब्तिदा थी
मोहब्बत मर गई मुझ को भी ग़म है
मिरे अच्छे दिनों की आश्ना थी
जिसे छू लूँ मैं वो हो जाए सोना
तुझे देखा तो जाना बद-दुआ थी
मरीज़-ए-ख़्वाब को तो अब शिफ़ा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी
मैं ख़ुद भी सोचता हूँ ये क्या मेरा हाल है / जावेद अख़्तर
मैं ख़ुद भी सोचता हूँ ये क्या मेरा हाल है
जिस का जवाब चाहिए वो क्या सवाल है
घर से चला तो दिल के सिवा पास कुछ न था
क्या मुझ से खो गया है मुझे क्या मलाल है
आसूदगी से दल के सभी दाग़ धुल गए
लेकिन वो कैसे जाए जो शीशे में बाल है
बे-दस्त-ओ-पा हूँ आज तो इल्ज़ाम किस को दूँ
कल मैं ने ही बुना था ये मेरा ही जाल है
फिर कोई ख़्वाब देखूँ कोई आरज़ू करूँ
अब ऐ दिल-ए-तबाह तिरा क्या ख़याल है
न ख़ुशी दे तो कुछ दिलासा दे / जावेद अख़्तर
न ख़ुशी दे तो कुछ दिलासा दे
दोस्त जैसे हो मुझ को बहला दे
आगही से मिली है तन्हाई
आ मिरी जान मुझ को धोका दे
अब तो तकमील की भी शर्त नहीं
ज़िंदगी अब तो इक तमन्ना दे
ऐ सफ़र इतना राएगाँ तो न जा
न हो मंज़िल कहीं तो पहुँचा दे
तर्क करना है गर तअल्लुक़ तो
ख़ुद न जा तू किसी से कहला दे
वो ज़माना गुज़र गया कब का / जावेद अख़्तर
वो ज़माना गुज़र गया कब का
था जो दीवाना मर गया कब का
ढूँढता था जो इक नई दुनिया
लूट के अपने घर गया कब का
वो जो लाया था हम को दरिया तक
पार अकेले उतर गया कब का
उस का जो हाल है वही जाने
अपना तो ज़ख़्म भर गया कब का
ख़्वाब-दर-ख़्वाब था जो शीराज़ा
अब कहाँ है बिखर गया कब का
यही हालात इब्तिदा से रहे / जावेद अख़्तर
यही हालात इब्तिदा से रहे
लोग हम से ख़फ़ा ख़फ़ा से रहे
इन चराग़ों में तेल ही कम था
क्यूँ गिला हम को फिर हवा से रहे
बहस शतरंज शेर मौसीक़ी
तुम नहीं थे तो ये दिलासे रहे
ज़िंदगी की शराब माँगते हो
हम को देखो कि पी के प्यासे रहे
उस के बंदों को देख कर कहिए
यक़ीन का अगर कोई भी सिलसिला नहीं रहा / जावेद अख़्तर
यक़ीन का अगर कोई भी सिलसिला नहीं रहा
तो शुक्र कीजिए कि अब कोई गिला नहीं रहा
न हिज्र है न वस्ल है अब इस को कोई क्या कहे
कि फूल शाख़ पर तो है मगर खिला नहीं रहा
ख़ज़ाना तुम न पाए तो ग़रीब जैसे हो गए
पलक पे अब कोई भी मोती झिलमिला नहीं रहा
बदल गई है ज़िंदगी बदल गए हैं लोग भी
ख़ुलूस का जो था कभी वो अब सिला नहीं रहा
जो दुश्मनी बख़ील से हुई तो इतनी ख़ैर है
कि ज़हर उस के पास है मगर पिला नहीं रहा
लहू में जज़्ब हो सका न इल्म तो ये हाल है
कोई सवाल ज़ेहन को जो दे जला नहीं रहा
ये दुनिया तुम को रास आए तो कहना / जावेद अख़्तर
ये दुनिया तुम को रास आए तो कहना
न सर पत्थर से टकराए तो कहना
ये गुल काग़ज़ हैं ये ज़ेवर हैं पीतल
समझ में जब ये आ जाए तो कहना
बहुत ख़ुश हो कि उस ने कुछ कहा है
न कह कर वो मुकर जाए तो कहना
बदल जाओगे तुम ग़म सुन के मेरे
कभी दिल ग़म से घबराए तो कहना
धुआँ जो कुछ घरों से उठ रहा है
न पूरे शहर पर छाए तो कहना
ये मुझ से पूछते हैं चारागर क्यूँ / जावेद अख़्तर
ये मुझ से पूछते हैं चारागर क्यूँ
कि तू ज़िंदा तो है अब तक मगर क्यूँ
जो रस्ता छोड़ के मैं जा रहा हूँ
उसी रस्ते पे जाती है नज़र क्यूँ
थकन से चूर पास आया था उस के
गिरा सोते में मुझ पर ये शजर क्यूँ
सुनाएँगे कभी फ़ुर्सत में तुम को
कि हम बरसों रहे हैं दर-ब-दर क्यूँ
यहाँ भी सब हैं बेगाना ही मुझ से
कहूँ मैं क्या कि याद आया है घर क्यूँ
मैं ख़ुश रहता अगर समझा न होता
ये दुनिया है तो मैं हूँ दीदा-वर क्यूँ
ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब / जावेद अख़्तर
ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
मैं अकेला ही नहीं बर्बाद सब
सब की ख़ातिर हैं यहाँ सब अजनबी
और कहने को हैं घर आबाद सब
भूल के सब रंजिशें सब एक हैं
मैं बताऊँ सब को होगा याद सब
सब को दा'वा-ए-वफ़ा सब को यक़ीं
इस अदाकारी में हैं उस्ताद सब
शहर के हाकिम का ये फ़रमान है
क़ैद में कहलाएँगे आज़ाद सब
चार लफ़्ज़ों में कहो जो भी कहो
उस को कब फ़ुर्सत सुने फ़रियाद सब
तल्ख़ियाँ कैसे न हूँ अशआ'र में
हम पे जो गुज़री हमें है याद सब
ज़रा मौसम तो बदला है मगर ... / जावेद अख़्तर
ज़रा मौसम तो बदला है मगर पेड़ों की शाख़ों पर नए पत्तों के आने में अभी कुछ दिन लगेंगे
बहुत से ज़र्द चेहरों पर ग़ुबार-ए-ग़म है कम बे-शक पर उन को मुस्कुराने में अभी कुछ दिन लगेंगे
कभी हम को यक़ीं था ज़ो'म था दुनिया हमारी जो मुख़ालिफ़ है तो हो जाए मगर तुम मेहरबाँ हो
हमें ये बात वैसे याद तो अब क्या है लेकिन हाँ इसे यकसर भुलाने में अभी कुछ दिन लगेंगे
जहाँ इतने मसाइब हों जहाँ इतनी परेशानी किसी का बेवफ़ा होना है कोई सानेहा क्या
बहुत माक़ूल है ये बात लेकिन इस हक़ीक़त तक दिल-ए-नादाँ को लाने में अभी कुछ दिन लगेंगे
कोई टूटे हुए शीशे लिए अफ़्सुर्दा-ओ-मग़्मूम कब तक यूँ गुज़ारे बे-तलब बे-आरज़ू दिन
तो इन ख़्वाबों की किर्चें हम ने पलकों से झटक दीं पर नए अरमाँ सजाने में अभी कुछ दिन लगेंगे
तवहहुम की सियह शब को किरन से चाक कर के आगही हर एक आँगन में नया सूरज उतारे
मगर अफ़्सोस ये सच है वो शब थी और ये सुरज है ये सब को मान जाने में अभी कुछ दिन लगेंगे
पुरानी मंज़िलों का शौक़ तो किस को है बाक़ी अब नई हैं मंज़िलें हैं सब के दिल में जिन के अरमाँ
बना लेना नई मंज़िल न था मुश्किल मगर ऐ दिल नए रस्ते बनाने में अभी कुछ दिन लगेंगे
अँधेरे ढल गए रौशन हुए मंज़र ज़मीं जागी फ़लक जागा तो जैसे जाग उट्ठी ज़िंदगानी
मगर कुछ याद-ए-माज़ी ओढ़ के सोए हुए लोगों को लगता है जगाने में अभी कुछ दिन लगेंगे
ज़िंदगी की आँधी में ज़ेहन का शजर तन्हा / जावेद अख़्तर
ज़िंदगी की आँधी में ज़ेहन का शजर तन्हा
तुम से कुछ सहारा था आज हूँ मगर तन्हा
ज़ख़्म-ख़ुर्दा लम्हों को मस्लहत सँभाले है
अन-गिनत मरीज़ों में एक चारागर तन्हा
बूँद जब थी बादल में ज़िंदगी थी हलचल में
क़ैद अब सदफ़ में है बन के है गुहर तन्हा
तुम फ़ुज़ूल बातों का दिल पे बोझ मत लेना
हम तो ख़ैर कर लेंगे ज़िंदगी बसर तन्हा
इक खिलौना जोगी से खो गया था बचपन में
ढूँडता फिरा उस को वो नगर नगर तन्हा
झुटपुटे का आलम है जाने कौन आदम है
इक लहद पे रोता है मुँह को ढाँप कर तन्हा