दुष्यंत कुमार
जन्म
उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के राजपुर नवादा गाँव में
मौत
पेशा
काव्य-रचना
भाषा
हिंदी
राष्ट्रीयता
भारतीय
काल
समकालीन कविता
विधा
कविता, ग़ज़ल
विषय
राजनीति, समाज और प्रेम
उल्लेखनीय कामs
साये में धूप
अक्षरों के इस निविड़ वन में भटकतीं
ये हजारों लेखनी इतिहास का पथ खोजती हैं
...क्रान्ति !...कितना हँसो चाहे
किन्तु ये जन सभी पागल नहीं।
रास्तों पर खड़े हैं पीड़ा भरी अनुगूँज सुनते
शीश धुनते विफलता की चीख़ पर जो कान
स्वर-लय खोजते हैं
ये सभी आदेश-बाधित नहीं।
इस विफल वातावरण में
जो कि लगता है कहीं पर कुछ महक-सी है
भावना हो...सवेरा हो...
या प्रतीक्षित पक्षियों के गान-
किन्तु कुछ है;
गन्ध-वासित वेणियों का इन्तज़ार नहीं।
यह प्रतीक्षा : यह विफलता : यह परिस्थिति :
हो न इसका कहीं भी उल्लेख चाहे
खाद-सी इतिहास में बस काम आये
पर समय को अर्थ देती जा रही है।
वह चक्रव्यूह भी बिखर गया
जिसमें घिरकर अभिमन्यु समझता था ख़ुद को।
आक्रामक सारे चले गये
आक्रमण कहीं से नहीं हुआ
बस मैं ही दुर्निवार तम की चादर-जैसा
अपने निष्क्रिय जीवन के ऊपर फैला हूँ।
बस मैं ही एकाकी इस युद्ध-स्थल के बीच खड़ा हूँ।
यह अभिमन्यु न बन पाने का क्लेश !
यह उससे भी कहीं अधिक क्षत-विक्षत सब परिवेश !!
उस युद्ध-स्थल से भी ज़्यादा भयप्रद...रौरव
मेरा हृदय-प्रदेश !!!
इतिहासों में नहीं लिखा जायेगा।
ओ इस तम में छिपी हुई कौरव सेनाओ !
आओ ! हर धोखे से मुझे लील लो,
मेरे जीवन को दृष्टान्त बनाओ;
नये महाभारत का व्यूह वरूँ मैं।
कुण्ठित शस्त्र भले हों हाथों में
लेकिन लड़ता हुआ मरूँ मैं।
एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुज़रता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छूने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ !
...प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता
आग के सम्पर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से।
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बनकर चुका,
रीता,
भटकता-
छानता आकाश !
आह ! कैसा कठिन
...कैसा पोच मेरा भाग !
आग, चारों ओर मेरे
आग केवल भाग !
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोयी-;
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकनें उठाती भाप !
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे,
ज़िन्दगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे।
आज लौटते घर दफ़्तर से पथ में कब्रिस्तान दिखा
फूल जहाँ सूखे बिखरे थे और’ चिराग़ टूटे-फूटे
यों ही उत्सुकता से मैंने थोड़े फूल बटोर लिये
कौतूहलवश एक चिराग़ उठाया औ’ संग ले आया
थोड़ा-सा जी दुखा, कि देखो, कितने प्यारे थे ये फूल
कितनी भीनी, कितनी प्यारी होगी इनकी गन्ध कभी,
सोचा, ये चिराग़ जिसने भी यहाँ जलाकर रक्खे थे
उनके मन में होगी कितनी गहरी पीड़ा स्नेह-पगी
तभी आ गयी गन्ध न जाने कैसे सूखे फूलों से
घर के बच्चे ‘फूल-फूल’ चिल्लाते आये मुझ तक भाग,
मैं क्या कहता आखिर उस हक़ लेनेवाली पीढ़ी से
देने पड़े विवश होकर वे सूखे फूल, उदास चिराग़
जैसे अन्धकार में
एक दीपक की लौ
और उसके वृत्त में करवट बदलता-सा
पीला अँधेरा।
वैसे ही
तुम्हारी गोल बाँहों के दायरे में
मुस्करा उठता है
दुनिया में सबसे उदास जीवन मेरा।
अक्सर सोचा करता हूँ
इतनी ही क्यों न हुई
आयु की परिधि और साँसों का घेरा।
बढ़ती ही गयी ट्रेन महाशून्य में अक्षत
यात्री मैं लक्ष्यहीन
यात्री मैं संज्ञाहत।
छूटते गये पीछे
गाँवों पर गाँव
और नगरों पर नगर
बाग़ों पर बाग़
और फूलों के ढेर
हरे-भरे खेत औ’ तड़ाग
पीले मैदान
सभी छूटते गये पीछे...
लगता था
कट जायेगा अब यह सारा पथ
बस यों ही खड़े-खड़े
डिब्बे के दरवाज़े पकड़े-पकड़े।
बढ़ती ही गयी ट्रेन आगे
और आगे-
राह में वही क्षण
फिर बार-बार जागे
फिर वही विदाई की बेला
औ’ मैं फिर यात्रा में-
लोगों के बावजूद
अर्थशून्य आँखों से देखता हुआ तुमको
रह गया अकेला।
बढ़ती ही गयी ट्रेन
धक-धक धक-धक करती
मुझे लगा जैसे मैं
अन्धकार का यात्री
फिर मेरी आँखों में गहराया अन्धकार
बाहर से भीतर तक भर आया अन्धकार।
तुम्हारे आभार की लिपि में प्रकाशित
हर डगर के प्रश्न हैं मेरे लिए पठनीय
कौन-सा पथ कठिन है...?
मुझको बताओ
मैं चलूँगा।
कौन-सा सुनसान तुमको कोचता है
कहो, बढ़कर उसे पी लूँ
या अधर पर शंख-सा रख फूँक दूँ
तुम्हारे विश्वास का जय-घोष
मेरे साहसिक स्वर में मुखर है।
तुम्हारा चुम्बन
अभी भी जल रहा है भाल पर
दीपक सरीखा
मुझे बतलाओ
कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !
आवाज़ें...
स्थूल रूप धरकर जो
गलियों, सड़कों में मँडलाती हैं,
क़ीमती कपड़ों के जिस्मों से टकराती हैं,
मोटरों के आगे बिछ जाती हैं,
दूकानों को देखती ललचाती हैं,
प्रश्न चिह्न बनकर अनायास आगे आ जाती हैं-
आवाज़ें !
आवाज़ें, आवाज़ें !!
मित्रों !
मेरे व्यक्तित्व
और मुझ-जैसे अनगिन व्यक्तित्वों का क्या मतलब ?
मैं जो जीता हूँ
गाता हूँ
मेरे जीने, गाने
कवि कहलाने का क्या मतलब ?
जब मैं आवाज़ों के घेरे में
पापों की छायाओं के बीच
आत्मा पर बोझा-सा लादे हूँ;
अब उम्र की ढलान उतरते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
गहरा गये हैं खूब धुंधलके निगाह में
गो राहरौ नहीं हैं कहीं‚ फिर भी राह में–
लगते हैं चंद साए उभरते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
फैले हुए सवाल सा‚ सड़कों का जाल है‚
ये सड़क है उजाड़‚ या मेरा ख़याल है‚
सामाने–सफ़र बाँधते–धरते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
फिर पर्वतों के पास बिछा झील का पलंग
होकर निढाल‚ शाम बजाती है जलतरंग‚
इन रास्तों से तनहा गुज़रते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
उन निलसिलों की टीस अभी तक है घाव में
थोड़ी–सी आंच और बची है अलाव में‚
सजदा किसी पड़ाव में करते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
वसंत आ गया
और मुझे पता नहीं चला
नया-नया पिता का बुढ़ापा था
बच्चों की भूख
और
माँ की खांसी से छत हिलती थी,
यौवन हर क्षण
सूझे पत्तों-सा झड़ता था
हिम्मत कहाँ तक साथ देती
रोज मैं सपनों के खरल में
गिलोय और त्रिफला रगड़ता था जाने कब
आँगन में खड़ा हुआ एक वृक्ष
फूला और फला
मुझे पता नहीं चला...
मेरी टेबल पर फाइलें बहुत थीं
मेरे दफ्तर में
विगत और आगत के बीच
एक युद्ध चल रहा था
शांति के प्रयत्न विफल होने के बाद
मैं
शब्दों की कालकोठरी में पड़ा था
भेरी संज्ञा में सड़क रुंध गई थी
मेरी आँखों में नगर जल रहा था
मैंने बार-बार
घड़ी को निहारा
और आँखों को मला
मुझे पता नहीं चला।
मैंने बाज़ार से रसोई तक
जरा सी चढ़ाई पार करने में
आयु को खपा दिया
रोज बीस कदम रखे-
एक पग बढ़ा।
मेरे आसपास शाम ढल आई।
मेरी साँस फूलने लगी
मुझे उस भविष्य तक पहुँचने से पहले ही रुकना पड़ा
लगा मुझे
केवल आदर्शों ने मारा
सिर्फ सत्यों ने छला
मुझे पता नहीं चला
गडरिए कितने सुखी हैं ।
न वे ऊँचे दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि
जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेडियों से टूटते हैं ।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जाएगा ।
जबकि
सारे दल
पानी की तरह धन बहाते हैं,
गडरिए मेंड़ों पर बैठे मुस्कुराते हैं
... भेडों को बाड़े में करने के लिए
न सभाएँ आयोजित करते हैं
न रैलियाँ,
न कंठ खरीदते हैं, न हथेलियाँ,
न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर
आश्वासनों का सूर्य उगाते हैं,
स्वेच्छा से
जिधर चाहते हैं, उधर
भेड़ों को हाँके लिए जाते हैं ।
गडरिए कितने सुखी हैं ।
एक घनिष्ठ-सा दिन
आज
एक अजनबी की तरह
पास से निकल गया
एक और सोते सा सूख गया!
टूट गया एक और बाजू सा!
एक घनिष्ठ सा दिन-
जिसे मैं चुंबनों से रचकर
और कई सार्थक प्रसंगों तक
तुम तक आ सकता था!
मैं जिसको होठों पर रखकर गा सकता था
स्वरों में नहीं पकड़ आया
गरम-गरम बालू-सा फिसल गया!
मटमैली चादर-सी
बिछी रही सड़कें
और ख़ाली पलंग-सा शहर!
मेरी आँखों में--देखते-देखते
बिना किसी आहट के,
पिछली दशाब्दी का
कैलेण्डर बदल गया!!